बाबासाहेब आंबेडकर की आर्थिक दृष्टि को परिभाषित करने के लिए मैंने ‘प्रबुद्ध अर्थशास्त्र’ शब्द गढ़ा है। इसका उद्देश्य न केवल यूरोपीय ज्ञानोदय के मूल्यों – जो भारतीय संविधान के मूल्यों की नींव थे – के प्रति श्रद्धा व्यक्त करना है, वरन आंबेडकर के इन मूल्यों को, बुद्ध के ज्ञानोदय से जोड़ने के सफल प्रयास की याद दिलाना भी है।
आंबेडकर का दौर, देश और दुनिया में भारी उथल-पुथल का दौर था। आंबेडकर ने अपने जीवन में रूसी क्रांति, द्वितीय विश्वयुद्ध और भारत के औपनिवेशिक-विरोधी संघर्ष जैसी युगान्तरकारी घटनाओं को देखा। उन्होंने यह भी देखा कि किस प्रकार यूरोपीय ज्ञानोदय ने भारत के इतिहास, राजनीति और शासन कला को प्रभावित किया। आंबेडकर को उनके समकालीन दिग्गज अर्थशास्त्रियों, जिनमें सेलिगमेन और एडविन कानन शामिल थे, ने या तो पढ़ाया या वे उनसे प्रभावित हुए। इसी तरह उन्हें प्रसिद्ध दार्शनिक जॉन डयूई और जानेमाने मानवशास्त्री एलेक्जेंडर गोल्डनवाईजर के संपर्क में आने का मौका भी मिला। गोल्डनवाईजर ने उन्हें भारत में जातियों पर शोधप्रबंध लिखने और उसे प्रस्तुत करने के लिए प्रोत्साहित किया। यह शोधप्रबंध सन् 1917 में ‘एंटीक्योरी‘ में प्रकाशित हुआ।
आंबेडकर के ये शब्द एक तरह की भविष्यवाणी थेः ‘‘इतिहास हमें बताता है कि जब भी आर्थिक और नैतिक मुद्दों के बीच टकराव होता है, जीत हमेशा आर्थिक मुद्दों की होती है। निहित स्वार्थ कभी भी अपने हितों को नहीं त्यागते, जब तक कि उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर न कर दिया जाए।‘‘ (‘वाट गांधी एंड कांग्रेस हैव डन टू द अनटचेबिल्स‘, अध्याय 7)।
आंबेडकर का अर्थशास्त्रः एक विवेचना
अर्थशास्त्र के इतिहास के लब्धप्रतिष्ठित प्राध्यापक अंबीराजन ने मद्रास विश्वविद्यालय में अपने आंबेडकर स्मृति व्याख्यान[i] में कहा था कि आंबेडकर उन पहले भारतीयों में से एक थे, जिन्होंने अर्थशास्त्र में औपचारिक शिक्षा पाई और एक पेशेवर की तरह ज्ञान की इस शाखा का अध्ययन और उपयोग किया। भारतीय अर्थशास्त्र की परंपरा प्राचीन है। भारत में सदियों पहले ‘अर्थशास्त्र‘, ‘शुक्रनीति‘ और ‘तिरूक्कुरल‘ जैसे ग्रंथ लिखे गए। पश्चिम में अर्थशास्त्र का औपचारिक शिक्षण, 19वीं सदी के मध्य से शुरू हुआ। भारत में आंबेडकर के काल में जो लोग अर्थशास्त्र पर लेखन करते थे वे आवश्यक रूप से अर्थशास्त्री नहीं हुआ करते थे। उनके लिए अर्थशास्त्र, मात्र उनके साध्य को पाने का साधन था। उदाहरण के लिए, दादाभाई नैरोजी जैसे भारतीय अध्येताओं के लेखन में अर्थशास्त्रीय संव्यवहारों का बहुत अच्छा विश्लेषण है और अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए जो सुझाव इसमें दिए गए, उनका प्रभाव समकालीन औपनिवेशिक शासकों और स्वाधीनता संग्राम के नेताओं दोनों पर पड़ा।
‘द प्राब्लम ऑफ़ द रूपी‘ के भारतीय संस्करण की अपनी भूमिका में आंबेडकर ने लिखा था कि जल्दी ही इस पुस्तक का दूसरा खण्ड प्रकाशित होगा, जिसमें 1923 के बाद के घटनाक्रम की विवेचना होगी। परंतु इसके तुरंत बाद, भारत स्वाधीन हो गया और आंबेडकर को अपनी ऊर्जा और समय, राजनीति व कानून से जुड़े मुद्दों पर व्यय करनी पड़ी। इससे भारत को जहां एक दूरदृष्टा संविधान विशेषज्ञ और करोड़ों लोगों का प्रिय नेता मिला, वहीं देश ने एक व्यावहारिक आर्थिक चिंतक खो दिया, जो मजबूत, लोकहितकारी आर्थिक नीतियों का हिमायती था।

‘स्माल होल्डिग्ंस इन इंडिया एंड देयर रेमेडीज‘ शीर्षक शोधप्रबंध, आंबेडकर ने सन् 1918 में लिखा था। यह शोधप्रबंध, जमीनी यथार्थ की व्याख्या करने में उनके कौशल और आर्थिक समस्याओं से निपटने के लिए व्यावहारिक नीतियों का सुझाव देने में उनकी प्रवीणता को दर्शाता है। जैसा कि हम देखेंगे, उनकी व्याख्या आज भी हमारे देश के कृषि क्षेत्र के लिए प्रासंगिक है। अगर उनके जैसे लोग, हमारी अर्थव्यवस्था के शीर्ष पर होते तो शायद पिछले 16 वर्षों में 2,50,000 किसानों ने आत्महत्या नहीं की होती। उन्हें इस बात का एहसास था कि श्रम, पूँजी और पूंजीगत माल – तीनों भारत में कृषि उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण हैं। यह आज के भारत की कृषि नीति के बिल्कुल विपरीत है। वर्तमान कृषि नीति, मशीनीकरण और पूंजी-प्रधान उत्पादन पर जोर देती है। इससे छोटी जोतों के किसानों के लिए खेती अलाभकारी व्यवसाय बन जाती है और कृषि श्रमिक या तो पलायन करने पर मजबूर हो जाते हैं अथवा आर्थिक दृष्टि से इतने विपन्न हो जाते हैं कि उनके सामने आत्महत्या के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं बचता।
‘स्माल होल्डिंग्स इन इंडिया एंड देयर रेमेडीज‘ में वे लिखते हैं:
पूंजी वस्तु है, और श्रमिक व्यक्ति। पूंजी केवल होती है, श्रमिक जीते हैं। कहने का अर्थ यह कि पूंजी का यदि कोई उपयोग न किया जाता तो उससे कोई आमदनी नहीं होती परंतु उस पर कोई खर्च भी नहीं करना पड़ता। परंतु श्रमिक, चाहे वह कुछ कमाए या नहीं, उसे जीवित रहने के लिए स्वयं पर खर्च करना पड़ता है। यदि वह यह खर्च उत्पादन से नहीं निकाल पाता, जैसा कि होना चाहिए, तो वह लूटकर जिंदा रहता है…। हमें यह मानना ही होगा कि भारत में छोटी जोतों की समस्या, दरअसल, उसकी सामाजिक अर्थव्यवस्था की समस्या है…अगर हम इस समस्या का स्थायी हल चाहते हैं तो हमें मूल बीमारी का इलाज खोजना होगा। ऐसा करने के पहले हम यह दिखाएंगे कि हमारे देश की सामाजिक अर्थव्यवस्था, खराब क्यों है…किसी व्यक्ति की तरह, किसी समाज की आय दो चीजों पर निर्भर करती हैः (1) किए गए प्रयास व (2) संपत्ति के उपयोग। यह कहना गलत नहीं होगा कि किसी व्यक्ति या समाज की कुल आय या तो उसके द्वारा वर्तमान में किए जा रहे श्रम से आती है या उस उत्पादक संपत्ति से, जो उसके पास पहले से है। इस तरह यह स्पष्ट है कि हमारी कृषि-संबंधी समस्याओं की जड़ हमारी खराब सामाजिक अर्थव्यवस्था मंें है। भारत में छोटी जोतों की समस्या का हल, जोतों को बड़ा करना नहीं बल्कि पूंजी और पूंजीगत माल मंे वृद्धि करना है। पूंजी का निर्माण बचत से होता है और राजनीतिक अर्थशास्त्र से सभी विद्यार्थी जानते हैं कि अतिशेष उत्पादन के बिना बचत संभव नहीं है।‘‘
वे प्रासंगिक आंकड़ों का उपयोग कर यह सिद्ध करते हैं कि पूंजी और पूंजीगत माल की कमी ही निम्न उत्पादकता का कारण है। इसके बाद वे सभी उपलब्ध विकल्पों पर विचार करते हैं। इनमें चकबंदी, वर्तमान जोतों का संरक्षण और इसके उलट, जोतों को और छोटा होने से रोका जाना शामिल है। अंत में वे इस समस्या के लिए अपना इलाज प्रस्तावित करते हुए कहते हैं, ‘‘भारत की कृषि संबंधी समस्याओं को हल करने का सबसे अच्छा उपाय है औद्योगिकरण।‘‘ वे कहते हैं कि इससे अकार्यशील श्रम, अतिशेष उत्पादन का अभाव व कृषि भूमि पर दबाव की समस्याएं एक झटके में समाप्त हो जाएंगी और जोतों के और छोटे होते जाने की प्रक्रिया थम जाएगी। वे उन चन्द आर्थिक सिद्धांतकारों में से एक थे, जिनका आर्थिक नीतियों और योजनाओं के प्रति दृष्टिकोण व्यावहारिक और लोकहितकारी था। ‘सामाजिक अर्थव्यवस्था‘ पर उनका जोर, उन्हें आधुनिक आर्थिक चिंतकों में एक अनूठा स्थान प्रदान करता है।

‘‘द प्राब्लम ऑफ़ द इंडियन रूपीः इट्स ओरिजन एंड इट्स साल्यूशन‘‘ शीर्षक का उनका लेख, अंतर्राष्ट्रीय बाजार के संदर्भ में भारतीय रूपये की नियति की व्याख्या करता है। 19वीं सदी में भारतीय रूपये की कीमत, उसमें चांदी की मात्रा से जुड़ी हुई थी। बाद में सोने के वैध मुद्रा के रूप में उभार के साथ, इसकी कीमत सोने की कीमत के साथ जोड़ दी गई। आस्ट्रेलिया और अमरीका में सोने का भंडार मिलने से रूपये की कीमत में गिरावट आई और बाद में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में चांदी के भूगर्भीय खजानों की खोज के चलते, चांदी भी कीमत भी तेजी से गिर गई। इसका अपरिहार्य नतीजा था रूपये का अवमूल्यन, जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया। सन् 1899 में भारत सरकार ने सोने के सिक्के जारी करने की अनुमति दे दी परंतु चांदी के सिक्के भी प्रचलन में बने रहे।
सन् 1906 में स्वर्ण प्रतिमान की स्थापना हुई और भारतीय रूपये की कीमत को उससे जोड़ दिया गया। परंतु भारतीय रूपये की विनिमय दर का निर्धारण करने वाला सोना, भारत की जगह लंदन में रखा गया। इस स्वर्ण भंडार के विरूद्ध भारत में बिना किसी रोकटोक के भारतीय रूपये छापे जाने लगे। फिर, 1916 में स्वर्ण प्रतिमान बिखर गया और फिर से भारतीय रूपये की कीमत चांदी से जोड़ दी गई। तत्कालीन आर्थिक सिद्धांतकारों, जिनमें जान मेनार्ड कीन्स शामिल थे, के द्वारा रजत प्रतिमान का जबरदस्त समर्थन किए जाने के बावजूद, आंबेडकर ने इसकी निंदा की। आंबेडकर स्वर्ण मुद्रा के साथ स्वर्ण प्रतिमान के हामी थे, बशर्ते मुद्रा प्रबंधन मजबूत हो। उनका कहना था कि ‘‘उपभोग्य सामग्री के संदर्भ में रूपये की कीमत स्थिर रहनी चाहिए। आम लोगों के लिए कीमती धातुओं की कीमत का उतना महत्व नहीं है, जितना कि उनके रोजमर्रा के इस्तेमाल की वस्तुओं और सेवाओं की कीमत का है।‘‘
अंबीराजन कहते हैं ‘‘स्पष्टतः आंबेडकर का निष्कर्ष यह है कि स्वचालित व संतुलित मौद्रिक प्रबंधन के जरिए कीमतों को स्थिर रखा जाए। यह वर्तमान में बहुत प्रासंगिक है, जब बजट घाटा निरंतर बढ़ता जा रहा है और उसका मुद्रीकरण हो रहा है। ऐसा लगता है कि हमें एक ऐसे स्वचालित तंत्र की आवश्यकता है, जो चलनिधि के निर्माण पर प्रभावकारी ढंग से नियंत्रण लगा सके‘‘।
आंबेडकर की ‘द एवोल्यूशन ऑफ़ प्राविंशियल फाईनेंस इन इंडिया‘ (1925) सार्वजनिक वित्त के मुद्दों पर केन्द्रित है। सार्वजनिक वित्त से संबंधित मसलों की अपनी सूक्ष्म विवेचना से आंबेडकर ऐसे निष्कर्षों पर पहुंचते हैं, जो आज उनके समय से भी अधिक प्रासंगिक हैं। उनकी मान्यता थी कि यदि अपेक्षाकृत समृद्धि के दौर में भी सरकार अपने संवैधानिक और राजकोषीय उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं जुटा पाती तो इसके लिए सरकार स्वयं जिम्मेदार होगी। इसका अर्थ यह होगा कि सरकार, राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव में, ऐसा वित्तीय तंत्र विकसित नही कर पाई है जिससे वह अर्थव्यवस्था में उपलब्ध संसाधनों का उचित उपयोग कर सके।
वे राज्यों के ‘आत्मसुरक्षात्मक‘ दृष्टिकोण के कटु आलोचक थे। उनका कहना था कि यह दृष्टिकोण, राष्ट्र के व्यापक हित में नही है। उनके अनुसार, तत्कालीन भारत में प्रचलित द्वैध शासन प्रणाली, शासन की एक बहुत खराब पद्धति थी। ऐसा न केवल इसलिए था क्योंकि इसका मूल चरित्र गैर-प्रजातांत्रिक था बल्कि इसलिए भी, क्योंकि वह सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत के खिलाफ थी। ‘‘विभिन्न कार्यों से तब तक व्यवस्थित वृद्धि संभव नहीं हो सकती जब तक उनके बीच सामंजस्य स्थापित करने वाली कोई शक्ति न हो।‘‘ सामूहिक उत्तरदायित्व ही सामंजस्य स्थापित करने वाली शक्ति हो सकता है। सम्मिश्र कार्यपालिकाएं, विभाजित उत्तरदायित्व, कार्यों का विभाजन, शक्तियों का बंटवारा आदि से कभी शासन की उत्तम व्यवस्था का निर्माण नहीं हो सकता और जहां शासन प्रणाली अच्छी नहीं होगी वहां वित्त व्यवस्था अच्छी होने की आशा नहीं की जा सकती।‘‘

अंबीराजन कहते हैं कि कराधान के संबंध में एड्म स्मिथ की प्रसिद्ध पुस्तकों के बाद, इस विषय पर लगभग 200 वर्षों तक कुछ विशेष नहीं लिखा गया। आंबेडकर ने सन् 1949 में संविधान के मसविदे में कराधान के विषय पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की। भारत के संविधान में नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक की नियुक्ति के संबंध में प्रावधान का औचित्य बताते हुए उन्होंने कहा, ‘‘सरकारों को जनता से संचित धन का इस्तेमाल न केवल नियमों, कानूनों और विनियमों के अनुरूप करना चाहिए, वरन् यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि सार्वजनिक प्राधिकारी, धन के व्यय में विश्वसनीयता, बुद्धिमत्ता और मितव्ययिता से काम लें। इस संदर्भ में ‘विश्वसनीयता‘ का अर्थ है ‘किसी के विश्वास की रक्षा करना या अपने वचन को पूरा करने के प्रति प्रतिबद्धता होना…‘‘। इस प्रकार चाहे आंबेडकर वित्तीय विषयों पर लिख रहे हों या मौद्रिक सिद्धांतों पर, उनका मूल लक्ष्य ऐसे निष्कर्षों तक पहुंचना था जो व्यावहारिक और लोकहितकारी दोनों हों।
सार्वजनिक वित्त की आवश्यकता इसलिए होती है ताकि सड़कें, कानून व व्यवस्था जैसी मूल आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके और इनके लाभ कुछ लोगों तक सीमित न होकर सभी को प्राप्त हों। चूंकि इस तरह के व्यय का लागत-लाभ विश्लेषण नहीं किया जा सकता, इसलिए खुला बाजार इनकी पूर्ति नहीं कर सकता। सरकारें इन सार्वजनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ही होती हैं। नागरिक, सरकार में विश्वास कर कराधान और व्यय संबंधी निर्णय करने का अधिकार उसे सौंपते हैं। इसलिए जो सरकारी अधिकारी शासकीय धन को व्यय करने के संबंध में निर्णय लेते हैं, उनमें इतनी बुद्धिमत्ता होनी चाहिए कि वे नागरिकों के इस विश्वास पर खरे उतरें। सरकारी धन को खर्च करते समय व्यक्तिगत हितों को संज्ञान में नहीं लिया जाना चाहिए और यह कार्य वित्तीय विवेक, संबंधित मुद्दों की गहन समझ और व्यावहारिक अनुभव व समालोचनात्मक ज्ञान पर आधारित होना चाहिए।
तीसरी कसौटी है मितव्ययिता। इसका अर्थ केवल यह नहीं है कि कम से कम धन खर्च किया जाए, इसका अर्थ यह भी है कि धन का इस्तेमाल इस तरह से किया जाए कि पाई-पाई का लाभप्रद और पूरा उपयोग हो सके और यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह धन गलत हाथों में न जाए। ये तीनों सिद्धांत स्वसिद्ध हैं परंतु ये लचीले भी हैं। जो व्यय किसी एक परिस्थिति में विवेकपूर्ण हो सकता है, वही दूसरी परिस्थितियों में मूर्खतापूर्ण भी हो सकता है। और यह बात छोटे से छोटे से लेकर बड़े से बड़े व्यय के लिए और छोटे से छोटे से लेकर बड़े से बड़े संस्थान के संदर्भ में सही है। व्यय संबंधी निर्णय विशिष्ट उद्धेश्यों की प्राप्ति के लिए लिए जाने चाहिए और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि व्यय करते समय मितव्ययिता और धन के प्रभावी उपयोग का ध्यान रखा जाए। आंबेडकर आर्थिक प्रमेयों को सिद्ध करने के लिए अर्थशास्त्र के तकनीकी अध्ययन के हामी नहीं थे। उन्हें अर्थशास्त्र, इतिहास और दर्शनशास्त्र की अद्यतन और गहरी समझ थी, जो कि उनके लेखन से जाहिर है। परंतु इसी से हमें यह भी पता चलता है कि वे सांख्यिकीय विश्लेषण पर आधारित व्यावहारिक और तार्किक वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने के पैरोकार थे। [ii]
अंबीराजन, आंबेडकर की जातिप्रथा की समालोचना को आर्थिक दक्षता के उदारवादी प्रबुद्ध सिद्धांतों पर आधारित बताते हैं। इसमें व्यक्तिगत प्रयास, व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं और मानवीय समानता के मुद्दे शामिल हैं। सन् 1940 के दशक के आसपास, आंबेडकर की आर्थिक सोच में कुछ परिवर्तन हुआ और वे समाजवादी राज्य के समर्थक के रूप में उभरे। उनके इस समाजवादी राज्य में खेती और उद्योग पर राज्य का स्वामित्व होता और कृषकों के सहकारी समूह खेती का काम करते। उन्होंने बीमा उद्योग के राष्ट्रीयकरण की वकालत भी की। पिछले कुछ वर्षों में आंबेडकर अध्येताओं ने यह साबित करने का प्रयास किया है कि आंबेडकर की समाजवादी राज्य की अवधारणा में निजी प्रयासों के लिए भी जगह थी।
प्रबुद्ध और समतावादी सामाजिक व्यवस्था
पिछले लगभग तीस वर्षों से गेल ओमवेदत्त आंबेडकरवादी विचारधारा, भारत में दलित आंदोलन, भारत में जाति विरोधी आंदोलन, भक्ति आंदोलन व अन्य संबंधित विषयों पर काम कर रहीं हैं। आंबेडकर की जंयती के अवसर पर सन् 2000 में ‘स्वतंत्रता, समानता, समुदायः नई सामाजिक व्यवस्था पर बाबासाहब की सोच‘‘ विषय पर अपने व्याख्यान में उन्होंने भारत के संबंध में आंबेडकर की सोच को तीन भागों में विभाजित करते हुए प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि आंबेडकर, प्रगति और मानव विकास की आधुनिक अवधारणाओं से सहमत थे। वे गांधी की तरह पीछे मुड़कर नहीं देखते थे और ना ही अतीत की अर्थव्यवस्था के संबंध में उनकी रूमानी सोच थी। जहां वे मार्क्स की तरह प्रगति में विश्वास करते थे वहीं वे इतिहास के प्रेरक बल के संबंध में मार्क्स की व्याख्या से सहमत नहीं थे। दूसरे, नेहरू के राज्यवाद के विपरीत, आंबेडकर का आर्थिक और राजनीतिक दर्शन एक तरह के सामाजिक उदारवाद पर आधारित था और इसमें बौद्ध और मार्क्सवादी विचारों का सूक्ष्म अध्ययन और भारत के लिए उनकी प्रासंगिकता पर विचार शामिल था। अंत में, ओमवेदत्त धर्म के क्षेत्र में आंबेडकर के मौलिक योगदान की चर्चा करते हुए कहती हैं कि आंबेडकर की बौद्ध धर्म की समझ, व्यावहारिक और दार्शनिक दोनों थी। आंबेडकर के ‘नवायान बौद्ध धर्म‘‘ को वे ‘मुक्ति का धर्मशास्त्र‘ बताती हैं।

आंबेडकर जहां मनुष्य की उत्पादकता को बढ़ाने और धन के संचय के पक्ष में थे, वहीं संपत्ति के बारे में उनके विचार ‘सतर्क सकारात्मकता‘ पर आधारित थे। उन्होंने लिखा, ‘हम कह सकते हैं कि समस्या संपत्ति में नहीं बल्कि उसके असमान वितरण में है।‘‘ वे इस सोच पर अपनी अंतिम सांस तक कायम रहे। तब भी, जब वे समाजवादी राज्य के पक्षधर थे और तब भी, जब वे सामाजिक प्रजातंत्र के एक प्रगतिशील स्वरूप के हामी बन गए। ओमवेदत्त कहती हैं कि वे एक प्रकार से आर्थिक भौतिकवाद के स्थान पर आदर्शवाद को इतिहास का प्रेरक बल मानने लगे।
आंबेडकर का कभी यह तर्क नहीं था कि ऐतिहासिक और सामाजिक विकास में भौतिक कारकों और आर्थिक उद्दीपकों का कोई महत्व ही नहीं था। ओमवेदत्त कहती हैं कि आंबेडकर ‘इतिहास की बहुवादी विवेचना करते थे। केवल भौतिकवादी नहीं।‘‘ उन्होंने कहा कि आंबेडकर का राजनीतिक अर्थशास्त्र, सामाजिक उदारवाद पर आधारित था। अपने पूरे जीवन में वे फ्रांसीसी क्रांति के मूल मंत्रों – स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व या संक्षेप में सामाजिक न्याय – के पक्षधर रहे।
सन् 1920 के दशक में आंबेडकर के लेखन से वे एक उदारवादी अर्थशास्त्री प्रतीत होते हैं। परंतु सन् 1930 के दशक में वे दलितों, श्रमिकों और किसानों के सामाजिक आंदोलनों में शामिल हो गए और उन पर मार्क्सवाद का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होने लगा। वे मार्क्सवाद से जीवन भर प्रभावित रहे। भारतीय समाज के उनके समालोचनात्मक अध्ययन ने उन्हें यह यकीन दिला दिया कि देश के श्रमिकों के लिए जाति की भूमिका निर्णायक है। सन् 1938 में मनमाड, नासिक, में अपने प्रसिद्ध भाषण में उन्होंने कहा ‘‘मेरे विचार में इस देश के श्रमिकों को दो शत्रुओं से मुकाबला करना है। ये दो शत्रु हैं ब्राम्हणवाद और पूंजीवाद…ब्राह्मणवाद से मेरा आशय एक समुदाय के रूप में ब्राम्हणों की सत्ता, विशेषाधिकारों और हितों से नहीं है। ब्राह्मणवाद से मेरा आशय स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मूल्यों के नकार से है। यह नकार केवल ब्राह्मणों तक सीमित नहीं है। यद्यपि वे इसके प्रवर्तक हैं। यह नकार सभी वर्गों में व्याप्त है।’’
इसके कुछ समय बाद प्रकाशित लेखों की अपनी श्रृंखला ‘‘बुद्धा ऑर कार्ल मार्क्स’’ में आंबेडकर, मानव विकास के संदर्भ में आर्थिक और विचारधारात्मक – भौतिक और दार्शनिक – हितों के बीच प्रतिस्पर्धा से उपजी दुविधा के संबंध में अपना समाधान प्रस्तुत करते हैं।
ओमवेट बताती हैं कि किस तरह आंबेडकर, बुद्ध की एक कथा का इस्तेमाल करते हुए बाज़ार, राज्य और समुदाय के संबंध में भारत ही नहीं वरन पूरे एशिया के लिए एक नया, अनूठा विमर्श प्रस्तुत करते हैं। आंबेडकर के निष्कर्षों को ओमवेट इन शब्दों में व्यक्त करती हैं: ‘‘वह गृहस्थ, जो ईमानदारी से अपनी संपत्ति को बढ़ाने का प्रयास कर रहा है, अर्थव्यवस्था की नींव है। राजा, जो कि राज्य का प्रतीक है, की भूमिका सबसे दमित वर्गों को निर्धनता के दुष्चक्र में फंसने से रोकने की है क्योंकि अगर वह इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगा तो राज्य में अराजकता या क्रांति की संभावना बन जाएगी। भिक्कू संघ, संप्रदाय – आदर्श कम्युनिस्ट समाज – का प्रतिनिधित्व करता है।
‘बुद्धा ऑर कार्ल मार्क्स’ श्रृंखला के अपने अंतिम लेख में आंबेडकर कहते हैं, ‘‘मानव समाज को केवल आर्थिक मूल्यों की आवश्यकता नहीं होती। वह आध्यात्मिक मूल्यों को भी बचाए रखना चाहता है…मनुष्य को केवल भौतिक दृष्टि से नहीं वरन आध्यात्मिक दृष्टि से भी उन्नति करनी चाहिए। बुद्ध का कहना था कि प्रत्येक व्यक्ति को इस तरह की नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए जिससे वह सत्य के साम्राज्य का सतर्क प्रहरी बन सके…समाज, एक नई नींव स्थापित करना चाहता है। इस नींव को संक्षेप में फ्रांसीसी क्रांति से जुड़े तीन शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है – बंधुत्व, स्वतंत्रता और समानता…परंतु कहने की आवश्यकता नहीं कि समानता स्थापित करने के लिए समाज, स्वतंत्रता और बंधुत्व की बलि नहीं चढ़ा सकता। बंधुत्व और स्वतंत्रता के बिना, समानता की कोई कीमत नहीं है। ऐसा लगता है कि इन तीनों का सहअस्तित्व तभी संभव है जब हम बुद्ध की दिखाई राह पर चलें। साम्यवाद हमें इनमें से एक दे सकता है, सभी नहीं।’’
आंबेडकर की आर्थिक दृष्टि पर कोई भी चर्चा, सामाजिक उदारवाद के उनके विचार पर नज़र दौड़ाए बिना पूरी नहीं हो सकती। राल्फ डारेन्डोफ को उद्धृत करते हुए गेल ओमवेट तीन प्रकार के उदारवाद की पहचान करती हैं – शास्त्रीय, सामाजिक और नव। शास्त्रीय उदारवाद, जो व्यक्ति को समाज के केन्द्र में रखता है, ऐतिहासिक और तार्किक विरोधाभासों में फंस गया है। राज्य के अस्तित्व का औचित्य यही है कि वह व्यक्ति के जीवन, उसकी स्वतंत्रता और उसकी संपत्ति की रक्षा करता है। परंतु यदि संपत्ति पर किसी का दावा इसलिए उचित है क्योंकि उसने उसका निर्माण करने में अपने श्रम का निवेश किया है और अगर राज्य का अस्तित्व इसलिए है कि वह व्यक्ति की जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति की रक्षा करता है तब हम उस समाज के बारे में क्या कहेंगे जो दो भागों में विभाजित है – एक भाग में वे लोग हैं, जिन्हें विरासत में संपत्ति मिली है और दूसरे मंे वे, जिन्हें ऐसी संपत्ति नहीं मिली। एक ऐसा राज्य जहां के निर्धन व्यक्तियों को – जिनके पास कोई संपत्ति नहीं है और ना हो सकती है – और जहां उनके लिए ईमानदारी से श्रम कर संपत्ति का अर्जन करना संभव ही नहीं है। ऐसी परिस्थिति में क्या राज्य या संपत्ति का अधिकार औचित्यपूर्ण हो सकता है, विशेषकर मानवाधिकारों और मानवीय मूल्यों के संदर्भ में।
समाज द्वारा थोपी गई असमानता और इससे जिन लोगों के अधिकार प्रभावित होते हैं, उनके बीच के अंतर को तभी पाटा जा सकता है जब राज्य, समानता की स्थापना के लिए हस्तक्षेप करे।
आंबेडकर हमेशा से राज्य द्वारा ऐसी नीति अपनाए जाने के हामी रहे हैं जिसका उद्देश्य सामाजिक न्याय की स्थापना, जनकल्याण और निर्धनता का उन्मूलन हो। भारतीय संसद के समक्ष संविधान को प्रस्तुत करते समय अपने प्रसिद्ध भाषण में उन्होंने कई बार नए संविधान के अंतर्गत प्रदत्त अधिकारों का उपयोग करने वालों को सतर्कता और सावधानी बरतने के लिए कहा। उन्होंने उन लोगों को भी चेतावनी दी जो संविधान के प्रजातांत्रिक, उदारवादी और समतावादी मूल्यों का विरोध कर रहे थे। उन्होंने भविष्य की पीढ़ियों के संविधान में परिवर्तन करने के अधिकार को उचित ठहराया और कहा कि सत्याग्रह और बंद जैसे प्रतिरोध के तरीकों को त्याग दिया जाना चाहिए। उन्होंने भारत के नए प्रजातांत्रिक राज्य के समक्ष प्रस्तुत खतरों की ओर भी संकेत किया। इनमें शामिल थे जातिवाद के कारण उत्पन्न असमानता, ‘महात्माओं’ के प्रति अंध श्रद्धा की प्रवृत्ति और अधिनायकवाद को स्वीकार करने में हिचकिचाहट न होना। असमानता के संबंध में उन्होंने दो चेतावनियां दीं – पहली यह कि जहां राज्य कानूनी रूप से सभी भारतीय नागरिकों को समानता की गारंटी देगा, वहीं हमारी सामाजिक व्यवस्था उन्हें समान दर्जा नहीं देगी और यह हमारे प्रजातंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है। दूसरी यह कि ‘‘पददलित वर्ग शासित होते-होते थक गए हैं और अब वे स्वयं पर शासन करने के लिए बेचैन हैं। पददलित वर्गों की इस जागरूकता को वर्ग संघर्ष या वर्ग युद्ध में परिवर्तित होने की इजाज़त नहीं दी जानी चाहिए…जिस दिन ऐसा होगा, वह एक बड़ी आपदा का दिन होगा’’।
अपनी मृत्यु के दो महीने पहले, आंबेडकर के नेतृत्व में हज़ारों अछूतों ने अपनी पारंपरिक धार्मिक पहचान को त्याग कर बौद्ध धर्म को अपनाया – यद्यपि जिस बौद्ध धर्म को उन्होंने अपनाया, वह बौद्ध धर्म का कोई पारंपरिक पंथ अर्थात हीनयान, महायान या वज्रयान नहीं था। वह बौद्ध धर्म का एक नया स्वरूप था, जिसे आंबेडकर ने अपने अध्ययन और गहरे मनन से आकार दिया था। उनके लेख ‘बुद्धा ऑर कार्ल मार्क्स’ एवं ‘बुद्धा एंड हिज़ धम्म’, उनके इसी बौद्धिक श्रम का नतीजा थे। आंबेडकर की यह पक्की मान्यता थी कि असमानता और शोषण की समस्याओं का निदान वर्ग युद्ध (हिंसा) के ज़रिए नहीं हो सकता और उनकी इसी मान्यता ने उन्हें बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित किया। आंबेडकर ने बौद्ध धर्म की समतावादी अवधारणाओं को नया स्वरूप दिया। उन्होंने भारतीयों की धर्म और दर्शन की समझ को तार्किकता की नींव प्रदान करने की कोशिश की। उन्होंने बौद्ध संघ, जो कि आदर्श समुदाय का मूल स्वरूप था, को समुदाय की सेवा के लिए एक संस्था के रूप में ढाला। बौद्ध धर्म के इस नए स्वरूप को अब नवायान कहा जाता है।

‘बुद्धा एंड हिज़ धम्म’ में उन्होंने लिखाः ‘‘समाज को धम्म (या धर्म का नैतिक आधार) की ज़रूरत है। समाज को तीन विकल्पों में से एक चुनना है। समाज, धम्म को शासन का उपकरण नहीं बनाने का विकल्प चुन सकता है…इसका अर्थ होगा अराजकता की ओर जाने वाली राह को चुनना। दूसरे, समाज, पुलिस अर्थात तानाशाही को सरकार के उपकरण के रूप में चुन सकता है। तीसरे, समाज, धम्म और उसके साथ, जो लोग धम्म का पालन नहीं करते उनके लिए मेजिस्ट्रेट, की व्यवस्था को चुन सकता है। अराजकता और तानाशाही में स्वतंत्रता का लोप हो जाता है। केवल तीसरे विकल्प को चुनने की स्थिति में स्वतंत्रता कायम रह सकती है। इसलिए, जो लोग स्वतंत्रता चाहते हैं उन्हें धम्म का पालन करना चाहिए’’। उन्होंने धम्म को धर्म के रूप में परिभाषित नहीं किया। वे धम्म को कार्य करने के नैतिक आधार या उद्दीपक के रूप में देखते थे। मार्क्स के प्रसिद्ध कथन की संक्षिप्त व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘धर्म का उद्देश्य विश्व की उत्पत्ति की व्याख्या करना है। धम्म का उद्देश्य विश्व का पुनर्निमाण है’’। ऐसा कर उन्होंने राष्ट्रीय पहचान का एक नया, अनूठा विचार प्रस्तुत किया।
इस प्रकार, संविधान के संदर्भ में, ‘‘विश्वसनीयता, विवेकशीलता और मितव्ययिता’’ के जिन मूलभूत मूल्यों के नुस्खे दूरदृष्टा आंबेडकर ने प्रस्तुत किए, वे ही सरकार की आर्थिक नीतियों और धन व्यय करने के उसके निर्णयों का आधार होने चाहिए। ये मूल्य आज के भारत में अत्यंत प्रासंगिक हैं। हम सब सार्वजनिक नैतिकता और शासन के मानकों में निरंतर क्षरण देख रहे हैं। जिन गुणों को आंबेडकर ने आवश्यक बताया था, वे हमारे अधिकांश सार्वजनिक और निजी संस्थानों में नहीं हैं। व्यक्ति के तौर पर, संस्थानों के हिस्से के तौर पर और अंततः राष्ट्र के तौर पर, हमें अपनी नैतिक कुतुबनुमा को फिर से खोज निकालना है ताकि हम उस अंधे कुंए से निकल सकें जिसमें हम अभी स्वयं को पा रहे हैं और जिसके चलते हमारे देश के पवित्र राष्ट्रीय संस्थान, विश्वसनीयता और जवाबदेही के संकट से लगातार जूझ रहे है।
यह लेख ‘टूवडर्स ए स्ट्रांग ग्लोबल सिस्टम’ चकलाकल (संपादित), धरमारम पब्लिकेशंस, बैंगलोर, 2013 के अध्याय ‘एनलाईंटेड इकोनॉमिक्स : अंबेडकर्स इकोनॉमिक्स थॉट एंड इंडियाज़ लिब्रलाईज्ड इकॉनोमी’ का संक्षिप्त व अद्यतन संस्करण है।
[i] अंबीराजन व्याख्यान का विषय था ‘भारतीय अर्थशास्त्र में आंबेडकर का योगदान। यह व्याख्यान ‘इकानामिक एंड पालिटिकल वीकली, 20 नवंबर 1999, 3260-3285 में प्रकाशित हुआ था और इसे यहां पढ़ा जा सकता हैः http://atrocitynews.wordpress.com/2007/03/24/ambedkars-contributions-to-indian-economics/
[ii] मैं इस व्याख्या के लिए प्रोफ़ेसर अंबीराजन के प्रति आभारी हूं, जिसे इस आलेख के लिए मैंने संक्षेपन एवं संशोधित किया है।
(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश)
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