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मेडिकल कॉलेजों में आरक्षण : अफवाहें, तथ्य और खतरे

एनडीए सरकार बनने के बाद समाजिक न्याय की अवधारणा को लेकर संशय की स्थिति लगातार बनी हुई है। इस संशय को बनाने और बढाने में सरकार में शामिल लोगों का भी हाथ है, साथ ही बहती गंगा में हाथ धो लेने के लिए निहित स्वार्थों में डूबे लोग और सवर्णपरस्त मीडिया संस्थान में भी होड मची है

देश के सभी प्रकार के मेडिकल कालेजों में दाखिले के लिए खुली प्रतियोगीता परीक्षा और मेधा सूची के प्रकाशन के लिए नीट (राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा) को दी गयी है जिम्मेवारी

सोशल मीडिया पर फैली अफवाहों ने इन दिनों मेडिकल कॉलेजों की प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने वाले आरक्षित वर्ग के विद्यार्थियों को हलकान कर रखा है। इन अफ़वाहों में मुख्य रूप से दो बातें कही जा रही हैं। पहली यह कि उत्तर प्रदेश सरकार ने निजी मेडिकल कॉलेजों में जारी आरक्षण की व्यवस्था समाप्त कर दी है। दूसरी अफ़वाह यह है कि राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (नीट) के एक नोटिफिकेशन जारी किया है, जिसके अनुसार अब आरक्षित वर्ग के योग्य परीक्षार्थी भी सामान्य श्रेणी में नहीं जा पाएंगे। फारवर्ड प्रेस ने अपनी पडताल में उपरोक्त दोनों खबरों को बेबुनियाद पाया।

इनमें से पहली अफ़वाह (निजी कॉलेजों में आरक्षण खत्म) का जन्म दैनिक आज में लखनऊ डेटलाइन से 8 अप्रैल को छपी “योगी सरकार का आरक्षण पर हमला, प्राइवेट मेडिकल कालेजों से एससी/एसटी और ओबीसी का कोटा खत्म किया” शीर्षक खबर से हुआ। इसके बाद सोशल मीडिया पर चर्चित कुछ लोगों ने इसे बिना तथ्यों की जांच के शेयर करना आरंभ कर दिया। उनका इरादा योगी-मोदी सरकार को आड़े हाथों लेने का था, लेकिन वे भूल गए कि ऐसी खबरों के प्रसारण का जमीनी स्तर पर नकारात्मक प्रभाव पडेगा।

जल्दी ही यह खबर  यह हजारों फेसबुक वॉल पर ट्विटर एकाऊंट पर अलग-अलग रूपों में नजर आने लगी। अब बारी अन्य “राष्ट्रीय” दैनिक अखबारों और टीवी चैनलों की थी। उन्हें इस खबर में सवर्ण हित नजर आया, सो वे इस फैसले पर योगी-मोदी सरकार को संबल देने में जुट गए। यह पूरे अप्रैल और मई महीने में चलता रहा

अभी तक बात सिर्फ “उत्तर प्रदेश के प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में आरक्षण समाप्त” करने तक सीमित थी लेकिन जून में सोशल मीडिया पर एक और खबर वायरल होने लगी। इस खबर में कहा गया था कि नीट ने एक नोटिफिकेशन जारी किया है, जिसके अनुसार अब सामान्य वर्ग से अधिक अंक पाने वाले आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थी भी सामान्य श्रेणी में चयनित नहीं हो सकेंगे। यानी, मेडिकल में सवर्ण समुदाय के लिए 50.5 फीसदी सीटें आरक्षित हों गई हैं। हिंदी अखबार और कुछ इलेक्ट्रॉनिक चैनल इस खबर पर भी गिद्धों की तरह टूट पडे और “सूत्रों” के हवाले से सोशल मीडिया से उठाई गईं खबरें अपने पाठकों व दर्शकों को परोस दीं।

यह था अखबारों में

अखबारों ने यह खबर प्रकाशित की कि नीट ने ही दो तरह की सूची का निर्माण किया है तथा अनारक्षित वर्ग की मेधा सूची में आरक्षित वर्ग के उन अभ्यर्थियों को शामिल नहीं किया गया है जिनके प्राप्तांक सामान्य कोटे के अभ्यर्थियों के लिए निर्धारित कट ऑफ़ मार्क्स से अधिक रहा। इस खबर को सही साबित करने के लिए अखबारों ने अपनी ओर से 6 अप्रैल, 2017 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दीपा इवी बनाम भारत सरकार के मामले में दिए गये फैसले उद्धृत किया।

बानगी के लिए बिहार और झारखंड से प्रकाशित एक दैनिक अखबार की यह खबर देखें :

“मेडिकल प्रवेश परीक्षा नीट के आरक्षण नियमों में इस साल से बड़ा बदलाव किया गया है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बने नये नियम के अनुसार ऑल इंडिया कोटे में सामान्य वर्ग के लिए नयी अनारक्षित केटेगरी बनायी गयी है. इस श्रेणी में सामान्य वर्ग के साथ ओबीसी, क्रीमीलेयर वाले अभ्यर्थी शामिल नहीं होंगे.  सीबीएसइ नीट इंफॉर्मेशन बुलेटिन में काउंसेलिंग के दौरान ऐसे अभ्यर्थियों को अपनी श्रेणी यूआर दर्शाने के निर्देश दिये हैं. इसके अनुसार अच्छे अंक पाने वाले आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थी सामान्य मेरिट में जगह नहीं बना पायेंगे. इससे कम अंक वाले सामान्य वर्ग के  अभ्यर्थियों को अप्रत्यक्ष रूप से लाभ मिलेगा. इस बार इसी आधार पर रिजर्व्ड केटेगरी व अनरिजर्व्ड केटेगरी की अलग-अलग काउंसेलिंग होगी. सुप्रीम कोर्ट ने अलग करने का दिया था निर्देश  सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 2017 में एक अहम फैसले में कहा था कि आरक्षित वर्ग के उम्मीदवार को आरक्षित वर्ग में ही नौकरी मिलेगी. चाहे उसने सामान्य वर्ग के उम्मीदवारों से ज्यादा अंक क्यों न हासिल किये हों. आरक्षण नियम में बदलाव के बाद अब अलग-अलग मेरिट लिस्ट निकालेगा सीबीएसइ आरक्षित श्रेणी के अभ्यर्थी को ज्यादा अंक पाने पर भी सामान्य कोटे में दाखिला नहीं : नयी व्यवस्था के तहत आरक्षित श्रेणी को अलग रखा गया है. अगर अभ्यर्थी को मेरिट सूची में ज्यादा अंक आते भी हैं तो उन्हें अपने श्रेणी में ही उसका फायदा होगा. 2016 तक ओबीसी उम्मीदवार का अंक सामान्य वाले के बराबर होने पर उसे ओबीसी कोटे की जगह सामान्य केटेगरी में दाखिला ले लेता था, लेकिन अब ऐसा नहीं होगा. अलग लिस्ट में ही जगह मिलेगी : बेहतर रैंक लाने वाले आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थी सामान्य मेरिट में जगह नहीं बन पायेंगे. उन्हें उनकी कैटेगरी के अनुसार तैयार अलग मेरिट में ही जगह मिलेगी. इससे सामान्य जाति के ऐसे अभ्यर्थी जो अच्छा प्रदर्शन न करने के कारण कुल मेरिट में काफी पीछे हो जाते हैं, उन्हें नयी अनरिज्वर्ड कैटेगरी में ही जगह मिलने के कारण ठीक वैसा ही लाभ मिलेगा, जैसा पहले आरक्षित श्रेणियों को मिलता था.  स्कोर कार्ड पर दर्ज होगी रैंक और केटेगरी 2016 तक सामान्य या ओबीसी उम्मीदवारों के स्कोर कार्ड पर सिर्फ ऑल इंडिया रैंक के बारे में जानकारी होती थी, लेकिन इस साल से ओबीसी उम्मीदवारों के स्कोर कार्ड पर भी रैंक के साथ उनके अनारक्षित या आरक्षित कोटे की भी जानकारी होगी.

नीट के द्वारा आरक्षण ख़त्म किये जाने के संबंध में विभिन्न अखबारों द्वारा प्रकाशित खबरें

मेरिट सूची में यह बदलाव बहुत ही जरूरी थी. यह फैसला भी बहुत सराहनीय है. हर केटेगरी को अपना आरक्षण का फायदा होगा. इससे किसी का नुकसान नहीं होगा। – विपिन कुमार, डायरेक्टर, गोल इंस्टीच्यूट

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इसे लागू किया गया है. इस बार मेरिट लिस्ट से आरक्षित और अनारक्षित केटेगरी को अलग-अलग रखा जायेगा. इससे सीटें खाली नहीं रहेगी –  संयम भारद्वाज, ओएसडी, नीट” (प्रभात खबर, पटना संस्करण, 27 जून 2017)”

दिलचस्प यह है कि इसी तरह की खबरें (कई मायनों में कापी/पेस्ट) तकरीबन सभी अखबारों और वेबपोर्टलों पर प्रकाशित की गयीं। 12 अप्रैल 2017 को सबसे पहले सबरंग इंडिया नामक न्यूज वेबपोर्टल ने दैनिक आज की खबर को कापी/पेस्ट करके प्रकाशित किया। इसके बाद कुछ नई  दलित मुद्दो पर केंद्रित बेवसाइटों ने  भी इसे प्रकाशित कर डाला। पत्रकारिता की भेडचाल का आलम यह रहा कि 14 अप्रैल को, अंबेडकर जयंती के दिन इंडिया टूडे ने भी बिना किसी पडताल किए इस खबर को प्रकाशित कर दिया। उसने अपनी खबर में सबरंग का बिना नाम लिए “एक वेबसाइट को दिए गए एक अधिकारी के बयान” के हवाला दिया, जो जाहिर है पत्रकारिता की दृष्टि से हास्यास्पद था क्योंकि स्वयं सबरंग की खबर में किसी अधिकारी को उद्धृत नहीं किया गया था।

हालांकि उसी दिन इंडिया टुडे ने अपनी खबर का उत्तरप्रदेश सरकार के मेडिकल एजुकेशन डिपार्टमेंट के हवाले से खंडन भी प्रकाशित किया तथा अपनी मूल खबर संशोधित कर दी। खंडन के मुताबिक प्राइवेट मेडिकल कालेजों में प्रवेश हेतु आरक्षण के संबंध में कोई आदेश जारी ही नहीं किया गया।

इसके बावजूद सोशल मीडिया पर खबरें वायरल की जाती रहीं। पूरे प्रकरण में यह तो गौर करने वाली बात है कि आज सोशल मीडिया इतना ताकतवर हो गया है तथा अब वह महज खबरों को फालो नहीं करता, बल्कि खबरें बनाता भी है। खबरों में यह जन भागीदारी हर्ष का विषय हो सकती है, लेकिन सवाल यह उठता है कि यह नया मीडिया कैसी खबरें बना रहा है?

मेडिकल कॉलेजों के संबंध में तथ्य क्या हैं?

तथ्य यह है कि उत्तरप्रदेश के निजी कालेजों, तकनीकी प्रशिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की व्यवस्था वर्ष 2006 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने की थी। जुलाई 2006 (10 जुलाई 2006 को राज्य गजट में प्रकाशित) में एक अध्यादेश के जरिए निजी कालेजों में आरक्षण का प्रावधान किया गया था। लेकिन वर्ष 2011 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दीनदयाल उपाध्याय मेडिकल कालेज, गोरखपुर में आरक्षण को लेकर सुधा तिवारी नामक याचिकाकर्ता की अपील की सुनवाई के बाद राज्य सरकार के अध्यादेश पर रोक लगा दी। तत्कालीन राज्य सरकार द्वारा इस फ़ैसले को कोर्ट में चुनौती नहीं दी गयी। इसी न्यायादेश के कारण सूबे के निजी कालेजों में आरक्षण पर रोक बरकरार है। प्रदेश के मेडिकल एजुकेशन विभाग के विशेष सचिव संजय कुमार उपाध्याय ने फ़ारवर्ड प्रेस को दूरभाष पर बताया कि साथ ही इस संबंध में वर्तमान राज्य सरकार द्वारा नया फैसला नहीं किया गया है। जाहिर है, मौजूदा सरकार की भी कोई मंशा नहीं इसे चुनौती देने की नहीं है।

नीट का मामला भी कुछ इसी प्रकार का है। पिछले वर्षों की भांति इस वर्ष नीट ने एक विज्ञापन प्रकाशित किया। विज्ञापन में आरक्षण के प्रावधान भी स्पष्ट रूप से प्रकाशित किए गए हैं तथा कहा गया है कि “अभ्यर्थियों की अखिल भारतीय मेरिट सिस्टम एवं अखिल भारतीय रैंक, राष्ट्रीय पात्रता व प्रवेश परीक्षा में प्राप्त अंकों के आधार पर तैयार की जायेगी एवं उम्मीदवारों को केवल उसी लिस्ट से मौजूदा आरक्षण की नीतियों का पालन करते हुए एमबीबीएस/ बीडीएम कोर्स में प्रवेश दिया जाएगा।” साथ ही नीट ने यह भी स्पष्ट किया कि “मेडिकल/ डेन्टल कॉलेजों में प्रवेश के लिए अन्य सभी मौजूदा पात्रता मानदंड सम्बंधित राज्य/ संघ राज्य/ संस्था/ विश्वविद्यालय की नीतियों के अनुसार लागू होंगे‍।” नीट ने  23 जून को परीक्षा परिणाम भी प्रकाशित किया, जो पिछले वर्षों की ही भांति आरक्षित और अनारक्षित के अलग-अलग था तथा इसमें अनारक्षित श्रेणी में सामान्य के वर्ग के बराबर या उससे अधिक अंक लाने वाले शामिल थे।

इस सम्बन्ध में फ़ारवर्ड प्रेस ने नीट के अधिकारियों से बातचीत की। नीट के जनसंपर्क अधिकारी ने विभिन्न अखबारों द्वारा प्रकाशित खबरों को बेबुनियाद बताया।

तमिलनाडू की समस्या

दक्षिण के राज्य तामिलनाडु में नीट के द्वारा जारी मेरिट लिस्ट को लेकर पहले से ही विवाद चल रहा था। इस संबंध में चेन्नई हाईकोर्ट में एक याचिका भी दायर की गयी थी और हाईकोर्ट ने 7 जून तक नीट को परीक्षाफ़ल प्रकाशित करने पर रोक भी लगा दिया था। तामिलनाडु में इस संबंध में मूल रुप से बड़ी आपत्तियां थीं। राज्य सरकार का तर्क यह है कि तामिलनाडु के 8 हजार अभ्यर्थियों ने नीट की परीक्षा में भाग लिया और उनमें 90 फ़ीसदी राज्य बोर्ड की परीक्षा में सफ़ल परीक्षार्थी रहे, इसलिए 15 फ़ीसदी केंद्र के कोटे के बाद 85 फ़ीसदी सीटों का निर्धारण राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में रहे। एक तरफ़ से 85 फ़ीसदी सीटों पर दाखिला उन अभ्यर्थियों को ही मिले जिन्होंने राज्य बोर्ड से परीक्षा उत्तीर्ण किया है जबकि सीबीएसई के अभ्यर्थियों का दाखिला केन्द्र सरकार के 15 फ़ीसदी कोटे के दायरे में हो।

तामिलनाडु में एक दूसरा सवाल 69 फ़ीसदी आरक्षण का है। जबकि नीट ने मेरिट लिस्ट का प्रकाशन आरक्षित वर्ग(50.5 प्रतिशत) और अनारक्षित वर्ग(49.5 प्रतिशत) के आधार पर किया था। हालांकि नीट ने इस वर्ष जारी अपने विज्ञापन में पहले ही स्पष्ट कर रखा है कि आरक्षण का निर्धारण राज्य/संघ/विश्वविद्यालय अपने हिसाब से करेंगे। लिहाजा यह राज्य सरकार के लिए यह जटिल काम नहीं है। तथ्यों को देखने से यह स्पष्ट होता है कि तमिलनाडू की समस्या वास्तविक थी, जिसका नीट ने अब अपने तईं हल निकालने की कोशिश की है लेकिन देश के शेष राज्यों में नीट द्वारा आरक्षण के नियमों की अवहेलना किए जाने की बातें पूरी तरह निराधार थीं।

बडे मियां तो बडे मियां, छोटे मियां सुभान अल्लाह!

वस्तुत‍़: ऐसा पहली बार नहीं हुआ। हिंदी अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की द्विज चरित्र और छलपूर्ण मंशाओं के बारे में पहले भी काफी कुछ लिखा जाता रहा है। लेकिन लोगों में भरोसा पैदा करने वाले सोशल मीडया का जो चरित्र उभर कर सामने आ रहा है, वह कहीं अधिक चिंताजनक है। दरअसल, महज कुछ ही वर्षों में सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म अब जनता के – निजी विचारों के – मंच नहीं रह गए हैं। इन पर पूंजी के बल पर संगठित मीडिया समूहों, राजनीतिक दलों, धार्मिक संगठनों, निहित स्वार्थों में डूबी शक्तियों का कब्जा तेजी से बढ रहा है। आभासी लोकप्रियता की भूख भी इस प्लेटफार्म तेजी से गंदला कर रही है।

पिछले दिनों भी फारवर्ड प्रेस ने इस सिलसिले में एक खबर प्रकाशित की थीं। यह खबर दीपा इवी मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर उडाई गई अफवाह पर केंद्रित थी।

खबर यहां देखें :

हिंदुस्तान ने दिखाया पीत पत्रकारिता का नमूना, आरक्षित के सामान्य में जाने पर रोक नहीं

गौरतलब है कि दीपा इवी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 6 अप्रैल 2017 को अपना फैसला सुनाया था, जिसमें कहा गया था कि अगर ओबीसी के तहत आने वाले किसी अभ्यर्थी ने आयु सीमा आदि किसी छूट का लाभ लिया है तो उसे अधिक अंक आने के बावजूद “सामान्य“ श्रेणी में नहीं डाला जा सकेगा। उस समय भी अखबारों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को तोड़-मरोड़ कर भ्रम फैलाने की कोशिश की थी कि सुप्रीम कोर्ट ने सवर्ण समुदाय के लिए 50 फीसदी सीटें आरक्षित कर दी हैं।

क्या होता है ऐसी खबरों का असर

यह कहना गलत नहीं होगा कि आज आरक्षण इस देश का सबसे संवेदनशील मसला है। द्विज तबका बहुजनों को मिले इस संवैधानिक अधिकार को ऐन-केन-प्रकारेण समाप्त करना चाहता है। मुख्यधारा के समाचार-माध्यमों में द्विज वर्चस्व है। मौजूदा एनडीए सरकार को वे आरक्षण विरोधी क्रूसेडर के रूप में देखना चाहते हैं। वे इस प्रकार की खबरें प्रसारित कर एक साथ दो लक्ष्यों को बेधते हैं। पहला, सरकार पर दबाव बनाना और दूसरा निचले स्तर पर आरक्षण के नियमों के उल्लंघन के लिए रास्ता खोलना। मसलन, ऐसी खबरें छपने के बाद सरकारी संस्थानों के द्विज कर्मचारी इनकी कटिंग अपने कार्यालयों के सूचना पट्ट पर चस्पा कर देते हैं तथा इसे ही नियम बता कर बहुजन अभ्यर्थियों को बरगलाना आरंभ कर देते हैं तथा अधिकांश मामले में सफल भी हो जाते हैं।

दूसरी ओर सोशल मीडिया पर इस तरह की खबरे फैलाने वालों में कुछ बहुजन तबके के लोग तथा एनजीओ आदि से जुड़े लोग भी शामिल हैं। इनमें से कुछ प्राय: लोकप्रियतावाद के शिकार हैं तथा हरदम किसी न किसी मुद्दे पर लडने की मुद्रा में रहते हैं और अक्सर अपने ही पैरों पर कुल्हाडी चलाते हुए प्रसन्न होते रहते हैं।

लेकिन इसका नुकसान समाज को ही उठाना पड़ता है। लडाई अपने असली मुद्दे से भटक जाती है। आज बहुजन समाज की जरूरत है कि आरक्षण की सीमा को बढाया जाए तथा उसे नए क्षेत्रों तक विस्तृत किया जाए। उपरोक्त भ्रामक खबरें इस समुदाय के आत्मबल को तोडती हैं तथा इनका भयादोहन संभव हो जाता है।

आरक्षण पर हो रहे असली हमले से अनजान रखने की कोशिश

जहां एक ओर आरक्षण पर हमले के संबंध में भ्रामक खबरें प्रकाशित की जा रही हैं तो दूसरी ओर एनडीए सरकार के असली हमले से लोगों को अंजान रखा जा रहा है। मसलन इस साल आईआईटी में आरक्षित कोटे के अभ्यर्थियों के साथ कई प्रकार की अनियमिततायें हुईं। मेरिटधारी छात्रों को आरक्षित कोटे में रखा गया। कहीं कोई खबर नहीं छपी। ऐसी ही अनियमिततायें आईआईटी मुम्बई में भी सामने आयी हैं।

आरक्षित वर्गों के हितों को लेकर एक बड़ा सवाल अभी भी अधर में लटका है। मसलन पिछड़े वर्ग के लिए राष्ट्रीय आयोग ने 2013 में ही क्रीमीलेयर की सीमा 6 लाख से बढाकर 15 लाख रुपए करने के संबंध में अनुशंसा की थी। अपने चुनावी घोषणा पत्र में भी बीजेपी ने यह वादा किया था कि वह क्रीमीलेयर की सीमा बढाएगी ताकि अधिक से अधिक संख्या में आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों को लाभ मिल सके। लेकिन आज तक कुछ नहीं हो सका है।

यह तो स्पष्ट ही है कि एनडीए सरकार बनने के बाद समाजिक न्याय की अवधारणा को लेकर संशय की स्थिति लगातार बनी हुई है। इस संशय को बनाने और बढाने में सरकार में शामिल लोगों का भी हाथ है, साथ ही बहती गंगा में हाथ धो लेने के लिए निहित स्वार्थों में डूबे लोग और सवर्णपरस्त मीडिया संस्थान में भी होड मची है।


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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