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सावरकर को दलितों पर थोपने के मायने

सावरकर और उनकी हिन्दू महासभा ने छूतछात का विरोध किया था और अछूतों के लिए मन्दिर प्रवेश का समर्थन किया था, पर यह काम उन्होंने उनका धर्मान्तरण रोकने के उद्देश्य से किया था। इसके पीछे दलितों के प्रति कोई सम्मान-भाव नहीं था।क्योंकि उन्हें यह खतरा था कि अगर दलित जातियां ईसाई और मुसलमान बन गयीं, तो वे बहुसंख्यक बन जायेंगे, और हिन्दू एक अल्पसंख्यक वर्ग बनकर रह जायेगा। कंवल भारती का विश्लेषण :

आरएसएस के सबसे प्रिय चिंतक, और हिन्दू राष्ट्र का प्रारूप तैयार करने वाले वीर विनायक दामोदर सावरकर, के साथ अनेक झूठ जोड़े गए हैं, जिनमें से कुछ झूठों का बहुत ही सटीक जवाब शम्सुल इस्लाम ने अपनी किताब ‘सावरकर : मिथक और सच’ में दिया है। अब आरएसएस ने एक और झूठ गढ़ा है : वीर विनायक दामोदर सावरकर भारत के प्रथम दलित उद्धारक थे। यह अब तक का सबसे बड़ा झूठ है। इस विचार के लेखक विवेक आर्य हैं, जिन्होंने यह लेख 27 मई 2012 को अपने ‘ब्लॉग आर्काइव’ पर लिखा था। 26 फरवरी 2017 को इसे देशीसीएनएन डॉट कॉम(desicnn.com) पर शेयर किया गया। शायद यह आरएसएस के पत्र ‘पाञ्चजन्य’ में भी छपा है, और यही अब लेख आरएसएस की ‘दलित आन्दोलन पत्रिका’ के ताज़ा अंक (जुलाई 2017) में प्रकाशित हुआ है।

वर्ष 1924 में अंग्रेजों से माफी मांगने के बाद रिहा हुए थे सावरकर

आरएसएस के द्वारा जिस तरह झूठा इतिहास लिखकर दलित वर्गों के दिमाग की धुलाई की जा रही है, जिस तरह झूठी खबरों, झूठे फोटो, झूठे तथ्यों को गढ़ कर सनसनी फैलाई जा रही है, और लोगों को उत्तेजित करके दंगे कराए जा रहे हैं, यह लेख भी उसी झूठ के अभियान की एक कड़ी है।

आइये, देखते हैं कि इस झूठ के कितने पैर हैं? ब्रिटिश सरकार से माफ़ी मांग कर जेल से बाहर आने को, लेखक (विवेक आर्य) सावरकर की कूटनीति मानता है। वह लिखता है, ‘वीर शिवाजी की तरह वीर सावरकर ने भी कूटनीति का सहारा लिया, क्योंकि उनका मानना था, अगर उनका सम्पूर्ण जीवन इसी प्रकार अंडमान की अँधेरी कोठरियों में निकल गया, तो उनका जीवन व्यर्थ ही चला जायेगा। इसी रणनीति के तहत उन्होंने सरकार से सशर्त मुक्त होने की प्रार्थना की।’ वह मांफी मांगकर 6 जनवरी 1924 को जेल से बाहर आए। जिन शर्तों पर उनकी रिहाई हुई थी, उनके अनुसार, उन्हें रत्नागिरी जिले में रहना था। और पांच साल तक सरकार की अनुमति के बिना या आपात स्थिति में जिला मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना जिले से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी। यही नहीं, उन्हें राजनीतिक गतिविधियों में भी सार्वजनिक या निजी तौर पर भाग लेने की अनुमति नहीं थी। यह प्रतिबंध जनवरी 1929 तक के लिए था।

सावरकर को दलित उद्धारक बताने वाला लेखक (विवेक आर्य) आगे लिखता है, ‘8 जनवरी 1924 को सावरकर जी ने घोषणा की वे रत्नागिरी में दीर्घकाल तक आवास करने आए हैं और छुआछूत समाप्त करने का आन्दोलन चलाने वाले हैं। उन्होंने उपस्थित सज्जनों से कहा कि अगर कोई अछूत वहाँ हो तो उन्हें ले आए, और अछूत महार जाति के बंधुओं को अपने साथ बैलगाड़ी में बैठा लिया।’

क्या यह कहानी गले उतरती है? क्या छुआछूत समाप्त करने का आन्दोलन  इस तरह चलता है कि ‘कोई अछूत हो तो यहाँ ले आओ?’ कहानी गढ़ते समय लेखक को कम-से-कम कुछ तार्किक तथ्य तो गढ़ने चाहिए थे, जो कहानी को तर्कसंगत बनाते। यह कैसा अछूतोद्धारक है, जिसका जिक्र कोई महार लेखक नहीं करता। डा. आंबेडकर भी सावरकर का उल्लेख एक चरमपंथी हिन्दूवादी नेता के रूप में करते हैं। अगर वे भारत के प्रथम दलित उद्धारक थे, तो क्या डा. आंबेडकर अपने दलित आन्दोलन के इतिहास में उनका उल्लेख नहीं करते? असल में आरएसएस का इस घिनौने कृत्य का उद्देश्य डा. आंबेडकर को ठिकाने लगाने का है, और सावरकर को उनसे पहले का अछूतोद्धारक सिद्ध करने का है। कारण : (1) डा. आंबेडकर का पैतृक घर भी रत्नागिरी जिले में था। इसलिए आरएसएस ने आंबेडकर के जिले में पहले अछूतोद्धारक के रूप में सावरकर को खड़ा कर दिया। (2) डा. आंबेडकर का पहला आन्दोलन 1927 में महाड़ में सार्वजनिक तालाब से पानी लेने के सत्याग्रह से आरम्भ होता है। इसलिए आरएसएस उससे पहले 1924 में ही सावरकर को ले आया। पर इन लोगों को यह नहीं पता कि सावरकर से भी पहले 1922 में एस. के. बोले ने बम्बई विधान परिषद से अछूत जातियों के लिए सार्वजनिक स्थानों के उपयोग का विधेयक पास करा दिया था, और वह विधेयक ही महाड़ सत्याग्रह का मूल आधार बना था। इन अक्ल के अन्धों को यह भी नहीं पता कि 1924 में ही डा. आंबेडकर ने (20 जुलाई को) ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की स्थापना की थी, जिसका उद्देश्य दलितों को अपने अधिकारों के लिए जागरूक करना था। क्या अछूतों की समस्या सिर्फ अछूतपन से मुक्ति की थी? क्या अछूत सिर्फ यही चाहते थे कि ‘आओ मुझे छुओ?’ क्या शिक्षा, सम्मानित रोजगार, गंदे पेशों से मुक्ति और राजनीतिक भागीदारी उनकी समस्या नहीं थी। लेकिन आरएसएस के लेखक (विवेक आर्य) ने ऐसा एक भी उदाहरण नहीं दिया है, जो यह साबित करे कि वीर सावरकर ने अछूतों की शिक्षा, सम्मानित रोजगार और राजनीतिक अधिकारों के लिए स्वयं कोई लड़ाई लड़ी हो, या इन मुद्दों को लेकर दलितों की लड़ाई में उनका साथ दिया हो?

वर्ष 1930 में नासिक में कलाराम मंदिर सत्याग्रह का नेत‍ृत्व करते आंबेडकर

सवाल यह भी है कि जब सावरकर 1924 से 1929 तक नजरबंद थे, और किसी सार्वजनिक गतिविधि में उनके भाग लेने पर पाबन्दी थी, तो उन्होंने अछूतोद्धार का आन्दोलन कैसे चला लिया, क्योंकि यह भी राजनीतिक गतिविधियों का आन्दोलन था?

लेखक ने लिखा है कि सावरकर ने सवर्ण और दलित दोनों के लिए ‘पतित पावन’ मन्दिर बनवाया। जरा नाम पर गौर कीजिये, ‘पतित पावन’, यानी पतित को पावन करने वाला मन्दिर। यहाँ पतित कौन है? सवर्ण तो पतित हो नहीं सकता। क्योंकि वह तो माँ के पेट से पावन पैदा होता है। फिर अछूत ही पतित हुआ। अछूत जब पतितपावन मन्दिर में जायेगा, तो पावन हो जायेगा। यह है आरएसएस के ब्राह्मणों का अछूतोद्धार– बनावटी, ढोंगी और पाखंडी। जो सावरकर दलितों को पतित मानता हो, वह अगर जलते तवे पर भी बैठकर कहेगा कि वह दलितोद्धारक है, तो कोई दलित उस पर यकीन नहीं करेगा। क्योंकि दलित चेतना का आधार दलित को मनुष्य का दर्जा देना है, न कि अछूत और पतित का दर्जा देना। दलित को पतित मानने वाला व्यक्ति कभी भी दलित का हितैषी नहीं हो सकता।

लेखक (विवेक आर्य) ने सावरकर को दलितोद्धारक साबित करने के लिए कुछ घटनाओं की कहानियां प्रस्तुत की हैं। इनमें पहली कहानी यह है—

‘रत्नागिरी प्रवास के 10-15 दिनों के बाद सावरकर जी को मढ़िया में हनुमान जी की मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा का निमंत्रण मिला। उस मन्दिर के देवल पुजारी से सावरकर जी ने कहा कि प्राणप्रतिष्ठा के कार्यक्रम में दलितों को भी आमंत्रित किया जाए। तिस पर वह पहले तो न करता रहा, पर बाद में मान गया। श्री मोरेश्वर दामले नामक किशोर ने सावरकर जी से पूछा कि आप इतने साधारण मनुष्य से व्यर्थ इतनी चर्चा क्यों कर रहे थे? इस पर सावरकर जी ने कहा कि सैकड़ों लेखों या भाषणों की अपेक्षा प्रत्यक्ष रूप में किए गए कार्यों का परिणाम अधिक होता है। अब की हनुमान जयंती के दिन तुम स्वयं देख लेना।’

अगली हनुमान जयंती पर क्या चमत्कार हुआ था, इसका कोई जिक्र लेखक (विवेक आर्य) ने नहीं किया है। दूसरी कहानी यह है—

‘29 मई 1929 को रत्नागिरी में श्रीसत्यनारायण कथा का आयोजन किया गया, जिसमें सावरकर जी ने जातिवाद के विरुद्ध भाषण दिया, जिससे कि लोग प्रभावित होकर अपनी-अपनी जातिगत बैठक को छोड़कर सभी महार-चमार एकत्रित होकर बैठ गए और सामान्य जलपान हुआ,’

जातिवाद से पीड़ित हर दलित को जातिवाद का विरोध पसंद आता है, यह स्वाभाविक बात है। पर सावरकर ने जातिवाद के विरोध में क्या भाषण दिया, इसे भी लेखक ने उद्धृत नहीं किया है। तीसरी कहानी यह है—

‘1934 में मालवान में अछूत बस्ती में चायपान, भजनकीर्तन, अछूतों को यज्ञोपवीत ग्रहण, विद्यालय में समस्त जाति के बच्चों को बिना किसी भेदभाव के बैठाना, सहभोज आदि हुए। 1937 में रत्नागिरी से जाते समय सावरकर जी के विदाई समारोह में समस्त भोजन अछूतों द्वारा बनाया गया, जिसे सभी सवर्णों-अछूतों ने एक साथ ग्रहण किया।’

जिन अछूतों ने यज्ञोपवीत ग्रहण किया था, वे किस वर्ण में रखे गए, यह भी बताना चाहिए था। क्योंकि अछूतों का जनेऊ धारण करना शास्त्र-विरुद्ध है। लेखक को यह भी बताना चाहिए था कि उन जनेऊ-धारी अछूतों का वंश आज किस अवस्था में है? खैर, चौथी कहानी यह है—

‘एक बार शिरगाँव में एक चमार के घर पर श्रीसत्यनारायण पूजा थी, जिसमें सावरकर जी को आमंत्रित किया गया था। सावरकर जी ने देखा कि चमार महोदय ने किसी भी महार को आमंत्रित नहीं किया था। उन्होंने तत्काल उससे कहा कि आप हम ब्राह्मणों के अपने घर में आने पर प्रसन्न होते हो, पर मैं आपका आमन्त्रण तभी स्वीकार करूँगा, जब आप महार जाति के सदस्यों को भी आमंत्रित करेंगे। उनके कहने पर चमार महोदय ने अपने घर पर महार जाति वालों को आमंत्रित किया था।’

पांचवी कहानी यह है—

‘1928 में शिवभांगी में विट्ठल मन्दिर में अछूतों के मंदिरों में प्रवेश करने पर सावरकर जी का भाषण हुआ। 1930 में पतितपावन मन्दिर में शिव भंगी के मुख से गायत्री मंत्र के उच्चारण के साथ सावरकर जी की उपस्थिति में गणेशजी की मूर्ति पर पुष्पांजलि अर्पित की गई।’

शिवभांगी और शिव भंगी में क्या अद्भुत साम्य है! छठी कहानी यह है—

‘1931 में पतितपावन मन्दिर का उद्घाटन स्वयं शंकराचार्य कुर्तकोटि के हाथों से हुआ एवं उनकी पाद-पूजा चमार नेता श्री राज भोज द्वारा की गई थी। वीर सावरकर ने घोषणा करी कि इस मन्दिर में समस्त हिन्दुओं को पूजा का अधिकार है और पुजारी पद पर गैर-ब्राह्मण की नियुक्ति होगी।’

‘पतितपावन मन्दिर रत्नागिरी में है, जिसका निर्माण 1931 में भागोजी सेठ कीर ने कराया था। यह मन्दिर केवल अछूतों के लिए बनवाया गया था, उसमें  सवर्ण नहीं जाते थे। यह मन्दिर इसलिए बना, क्योंकि उस दौर में पूरे देश में अछूत जातियों के लिए मन्दिर-प्रवेश का आन्दोलन चल रहा था, जिसका कट्टरपंथी हिन्दू विरोध कर रहे थे। डा. आंबेडकर 1930 में नासिक में काला राम मन्दिर में प्रवेश का आन्दोलन चलाकर हिन्दू नेताओं को बता चुके थे कि हिन्दू समाज में धार्मिक और सामाजिक समानता के लिए कोई स्थान नहीं है, और उन्हें हिन्दुओं से अलग अपने अधिकार चाहिए। इसीलिए एक कूटनीति के तहत गाँधी जी सहित तमाम हिन्दू नेता अछूतपन के खिलाफ आन्दोलन चलाकर अछूतों को हिन्दू बताने का राजनीतिक प्रयास कर रहे थे। लेकिन, डा. आंबेडकर ने स्पष्ट कर दिया था कि केवल मन्दिर-प्रवेश दलितों का लक्ष्य नहीं है, बल्कि उनका लक्ष्य हिन्दुओं की दासता से मुक्ति है। इसलिए, कांग्रेस, आर्य समाज, हिन्दू महासभा और आरएसएस सहित समस्त संगठनों के हिन्दू नेता यकायक रातोंरात दलित-उद्धारक बन गए थे। रातोंरात शुद्धि आंदोलन खड़ा हो गया था, और अछूतों को नए कपड़े पहिनाकर साइमन कमीशन के सामने खड़ा करके उनसे यह कहलवाया दिया गया था कि उन्हें हिन्दुओं से कोई शिकायत नहीं है, और वे हिन्दुओं के साथ ही रहना चाहते हैं। लेकिन बाद में यह सच भी सामने आया कि नए कपड़े पहने वे अछूत असल में सवर्ण थे। अगर डा. आंबेडकर ने इस छल को समझ कर तुरंत ही साइमन कमीशन को वास्तविकता से अवगत न कराया होता, तो हिन्दू अपनी चाल में सफल हो जाते, और दलितों की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाती।

सावरकर को श्रद्धांजलि देते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

अब सावरकर जी के अछूतोद्धार पर आते हैं। अभी हमने वीर सावरकर को प्रथम दलित उद्धारक बनाने वालीं जो छह कहानियां विवेक आर्य के लेख से उद्धृत की हैं, उनके लिए हम यह नहीं कहेंगे कि वे झूठी हैं, पर उनके आधार पर सावरकर को भारत का प्रथम दलित उद्धारक कहना सरासर झूठ है। हालांकि यह कहना भी ऐतिहासिक रूप से गलत होगा कि डा. आंबेडकर से पहले भारत में दलितों के उद्धार का काम ही नहीं हुआ था। जरूर हुआ था, लेकिन छुआछूत मिटाने के ऐसे काम दिखावे के तौर पर ही हुए थे।

मुस्लिम काल में अछूत जातियों की एक विशाल आबादी ने इस्लाम को अपनाया था, और यह सिलसिला सोलहवीं सदी तक चला था। उस काल में भी ब्राह्मणों ने हिन्दू धर्म को बचाने के लिए अछूत जातियों में भक्ति-आन्दोलन चलाया था। रामानुज और उनके शिष्य रामानंद ने ‘जातपात पूछे नहिं कोइ, हर को भजे सो हर का होइ’ का नारा देते हुए कुछ चांडालों को दूर से ‘राम मंत्र’ देकर वैष्णव बनाया था, जो ‘वैष्णव चांडाल’ के नाम से जाने गए। इन अछूत वैष्णवों को मन्दिर के गर्भ गृह में जाने का अधिकार नहीं था। ‘वैष्णवन की वार्ता’ से तो यहाँ तक पता चलता है कि इन वैष्णवों को ब्राह्मणों की जूठन खाने को दी जाती थी, और जिस दिन जूठन नहीं बचती थी, वे भूखे रहते थे। इसके पीछे तर्क था कि ब्राह्मण का अवशेष भगवानजी का अवशेष है, जिसे ग्रहण करने से मुक्ति मिलती थी। इस मुस्लिम काल में हिन्दुओं को केवल धार्मिक खतरा था, राजनीतिक खतरा नहीं था। किन्तु अंग्रेजों के आने के बाद हिन्दुओं के सामने राजनीतिक खतरा भी पैदा हो गया था। ईसाई मिशनरियों ने अछूत जातियों के लोगों को पढ़ाना शुरू कर दिया था, जिसके कारण वे सम्मान के लिए ईसाई बनने लगे थे। इस लिहाज से तो ईसाई ही भारत के प्रथम दलित उद्धारक हुए।

अंग्रेज आए, तो उनके साथ लोकतंत्र का विचार भी आया। अछूत जातियों के लिए शिक्षा के दरवाजे खुले, और शिक्षा ने उनमें चेतना जाग्रत की। यहाँ से हिन्दुओं को राजनीतिक खतरा पैदा हुआ। साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की राष्ट्रीय राजनीति में दलित वर्गों की पृथक मांग ने भारत के  स्वतंत्रता-संग्राम में हिन्दुओं की चिंता बढ़ा दी। चूँकि हिदुओं के समक्ष धार्मिक रूप से – ईसाईयत में दलितों के जाने से, और राजनीतिक रूप से — दलितों के राजनीतिक दावे से एक बड़ा भय खड़ा हो गया था, इसलिए इस भय ने ही हिन्दुओं को छुआछूत के विरुद्ध खड़ा किया था। इस सम्बन्ध में उन्नीसवीं सदी में ही स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद और अन्य नेताओं ने दलित उद्धार का काम करना आरम्भ कर दिया था। निस्संदेह, स्वामी दयानंद ने महत्वपूर्ण किया था, जिन्होंने दलित बस्तियों में आर्य पाठशालाएं स्थापित की थीं। उनके छुआछूत, धार्मिक आडम्बर और मूर्ति-पूजा के विरोध ने दलितों को ही सबसे ज्यादा प्रभावित किया था। इस दृष्टि से स्वामी दयानंद सावरकर से भी पहले के दलित उद्धारक क्यों नहीं हुए?

लेकिन यह सारा दलितोद्धार राजनीतिक था। इसके पीछे दलितों को हिन्दू फोल्ड में रखकर उन्हें अपने पीछे चलाना था, और स्वयं उनका शासक बनना था। वीर सावरकर ने कोई क्रान्तिकारी काम नहीं किया था। उन्होंने दलितों को श्रीसत्यनारायण कथा, हनुमान-पूजा, सहभोज, मन्दिर प्रवेश और पतितपावन मन्दिर के निर्माण तक ही सीमित रखने का काम किया। इसके सिवा उन्होंने क्या  क्या किया? क्या उन्होंने उन्हें राजनीतिक अधिकारों के लिए जागरूक किया था? क्या उन्होंने अछूतों को शिक्षित बनाने के लिए कोई स्कूल, कालेज और छात्रावास का निर्माण किया था? क्या अछूतों के गंदे पेशों के खिलाफ उन्होंने कोई आन्दोलन चलाया था? क्या उन्होंने अछूतों के लिए सरकारी नौकरियों के लिए पैरवी की थी? जब 1927 में डा. आंबेडकर ने महाड में पानी का सत्याग्रह किया था, तो उस वक्त वह कहाँ थे? 1930 में जब उन्होंने काला राम मन्दिर में प्रवेश के लिए सत्याग्रह किया था, तो वीर सावरकर कहाँ थे। दलित-मुक्ति के इन दोनों आंदोलनों में कोई भूमिका सावरकर की नजर नहीं आती। तब क्या केवल सत्यनारायण की कथा और पतितपावन मन्दिर से ही वह अछूतोद्धारक हो गए? अगर हो गए, तो यह बड़ा हास्यास्पद है।

ऐसा प्रमाण मिलता है कि ‘समता संघ’ ने, जिसे डा. आंबेडकर ने अपने शुरुआती सामाजिक कार्यों के दौर में सवर्ण जातियों के समाज सुधारकों को शामिल करके बनाया था, और हिन्दू महासभा ने, जिसके नेता सावरकर थे, वैदिक विवाह और जनेऊ समारोह का समर्थन किया था। यह मांग महार दलितों की थी। पर अस्पृश्यता की वजह से उनके लिए अलग से पुरोहित रखे गए थे, जो गोसावी या जोशी कहलाते थे। यह भी प्रमाण मिलता है कि विदर्भ के दलित नेताओं ने हिंदू एकता को प्रोत्साहित किया था। किन्तु 1920 और 1930 में डा. आंबेडकर के प्रभाव से उन्होंने उस सवर्ण आधारित हिंदूवाद को तोड़ दिया था। (‘द कास्ट क्वेश्चन’, अनुपमा राव, 2011, पृष्ठ – 32, 303 व 65)

एक बड़ा सवाल यह गौरतलब है कि लेखक विवेक आर्य ने जातिवाद के विरुद्ध सावरकर का एक भी विचार उद्धृत क्यों नहीं किया है? जिस तरह उन्होंने मन्दिर और सत्यनारायण कथा की कहानियाँ बताई हैं, उस तरह उन्हें यह भी बताना चाहिए था कि सावरकर जातिवाद को मानते थे या नहीं? यह कहना कुतर्क करना है कि अगर वह जातिवाद को मानते तो छुआछूत का विरोध क्यों करते। दयानंद, विवेकानंद, और गांधीजी भी छुआछूत का विरोध करते थे, पर वे सभी जातिवाद को मानते थे। उनके लिए जातिवाद और छूतछात दो अलग-अलग चीजें हैं? यह पाखंड है, जो एक मुंह से छूतछात का विरोध करता है, और दूसरे मुंह से जातिभेद को मानता है। क्या छूतछात का जन्म जातिभेद के गर्भ से ही नहीं हुआ है? वीर सावरकर भी ऐसे ही व्यक्ति थे, जो जातिभेद को मानते थे। सिर्फ जातिभेद को ही नहीं, वह मनुस्मृति को भी एक पूजनीय ग्रन्थ मानते थे। उनके ये विचार देखिए—

‘मनुस्मृति ही वह ग्रन्थ है, जो वेदों के पश्चात हमारे हिन्दू राष्ट्र के लिए अत्यंत पूजनीय है तथा जो प्राचीन काल से हमारी संस्कृति, आचार, विचार एवं व्यवहार की आधारशिला बन गया है। यही ग्रन्थ सदियों से हमारे राष्ट्र की ऐहिक एवं पारलौकिक यात्रा का नियमन करता आया है। आज भी करोड़ों हिन्दू जिन नियमों के अनुसार जीवन यापन तथा व्यवहार-आचरण कर रहे हैं, वे नियम  तत्वतः मनुस्मृति पर आधारित हैं। आज भी मनुस्मृति ही हिन्दू नियम (कानून) है।’ (सावरकर : मिथक और सच, शम्सुल इस्लाम, 2006, पृष्ठ 90 से उद्धृत : सावरकर समग्र, खंड 4, 2000 पृष्ठ 415)

जिस तथाकथित ‘प्रथम दलितोद्धारक’ की दृष्टि में मनुस्मृति एक पवित्र हिन्दू कानून है, तो उसके लिए मनु के ये कानून भी पूजनीय हुए—

  1. शूद्र को बुद्धि नहीं देनी चाहिए, (4/80)
  2. अछूतों के साथ सामाजिक व्यवहार नहीं करना चाहिए। (10/53)
  3. शूद्र को धन का संग्रह नहीं करने देना चाहिए। (10/129)
  4. सेवा करने वाले शूद्र को मजदूरी के रूप में जूठा खाना, पुराने कपड़े और पुआल का बिछौना देना चाहिए। (10/125)

जिन सावरकर को विवेक आर्य ने दलितों के लिए मन्दिर-प्रवेश का समर्थक बताया है, उन्होंने 20 जून 1941 को जातिवाद और छुआछूत में विश्वास करने वाले हिन्दुओं को यह गारंटी दी थी—

‘हिन्दू महासभा प्राचीन मंदिरों में अछूतों के प्रवेश के लिए कानून बनाने पर कभी जोर नहीं देगी, या उन मंदिरों में चली आ रही प्रथा या प्राचीन पवित्र नैतिक अनुष्ठान या परम्परा के बारे में कोई कानून बनाने पर बल नहीं देगी। जहां तक निजी कानून की बात है, महासभा सनातनी बंधुओं पर कोई सुधारवादी विचार थोपने के लिए किसी विधेयक का आम तौर पर समर्थन नहीं करेगी।’ (वही, शम्सुल इस्लाम, पृ. 94, सावरकर समग्र, खंड 6, पृ. 425)

इससे साफ़ समझा जा सकता है कि सावरकर का अछूतोद्धार एक पाखंड के सिवा कुछ नहीं था। क्योंकि, वह जाति व्यवस्था को एक अच्छी व्यवस्था मानते थे। जिसने हिन्दुओं में रक्त मिश्रण को रोककर हिन्दू नस्ल की पवित्रता को कायम रखा है। (वही, पृ. 117, सावरकर : हिन्दुत्व, पृ. 74-75) आरएसएस के हिन्दुओं को यह बड़ी गलतफहमी है कि हिन्दू, विशेषकर ब्राह्मण शुद्ध नस्ल हैं। अगर ऐसा होता, तो सभी ब्राह्मण गोरे होते। फिर कौए के रंग जैसे काले ब्राह्मण कैसे आ गए? दलित गोरे कैसे हो गए? हिन्दुओं के मर्यादा पुरुषोत्तम राम काले क्यों थे, और उनके लक्ष्मण भ्राता गोरे क्यों थे?  

लेकिन यह सही है कि सावरकर और उनकी हिन्दू महासभा ने छूतछात का विरोध किया था और अछूतों के लिए मन्दिर प्रवेश का समर्थन किया था, पर यह काम उन्होंने उनका धर्मान्तरण रोकने के उद्देश्य से किया था। इसके पीछे दलितों के प्रति कोई सम्मान-भाव नहीं था।क्योंकि उन्हें यह खतरा था कि अगर दलित जातियां ईसाई और मुसलमान बन गयीं, तो वे बहुसंख्यक बन जायेंगे, और हिन्दू एक अल्पसंख्यक वर्ग बनकर रह जायेगा। उस समय अछूतों की आबादी सात करोड़ थी। सावरकर जानते थे कि हिन्दुओं के अत्याचारों के कारण ये सात करोड़ लोग उनके पक्ष में खड़े नहीं हो सकते। इसलिए इनके साथ अगर हमदर्दी नहीं जताई गई, तो ये आगे चलकर हिन्दुओं के लिए बड़ी मुसीबत बन सकते हैं। इस बात को सावरकर ने अपनी किताब ‘हिन्दुत्व के पांच प्राण’ में स्वयं स्वीकार किया है—

‘यह सात करोड की हिन्दू जनशक्ति हमारे पक्ष में होकर भी पक्ष में नहीं होने जैसी स्थिति में है। क्योंकि उनका जो अमानवीय बहिष्कार हमने किया, उससे वे हमारे लिए उपयोगी तो नहीं रहते, बल्कि शत्रु के लिए हमारे घर में फूट डालने का सुलभ साधन बन कर हमारी अपरिमित हानि करने वाले अवश्य हो जाते हैं।’ (पृ. 45, वही, शम्सुल इस्लाम, पृ. 117-18)

सावरकर की इस टिप्पणी से आरएसएस सहित सभी हिन्दू संगठनों की दलित-राजनीति स्पष्ट हो जाती है, और यह भी कि वीर सावरकर दलितों के प्रथम क्या, अंतिम उद्धारक भी नहीं थे।


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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