हमारे यहाँ पुत्र की लालसा कोई भोली-भाली, कोई पवित्र इच्छा नहीं है, न ही यह माँ के दिल की पुकार है। यह एक पराधीन स्त्री की विवशता है। पुत्र-लालसा मासूम लड़कियों के खून में डूबी हुई है। पुत्र-लालसा और बेटी से छुटकारा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पितृसत्ता की दमनशक्ति इनका संचालन करती है। पतिव्रत धर्म के खूँटे से बँधी स्त्री से तमाम सामाजिक अधिकार छीन लिये जाते हैं। उसके कर्तृत्व को नकार दिया जाता है। विवाह ही उसके जीवन-यापन का एक मात्र रास्ता रहा है। पति के घर में वह बनी रहे, घर में उसके लिये थोड़ी जगह सुरक्षित हो जाये इसके ये बेटा पैदा करना आवश्यक है। समाज में बेटे के लिये जो लाड़, दुलार प्यार और प्रतिष्ठा है, उसकी कीमत बेटियाँ चुकाती हैं। लड़कियों को अब भी अपने जीवित रहने का अधिकार प्राप्त करना है। उनका जीवित रहना, उनके प्रियजनों की कृपा या दयालुता पर निर्भर करता है। वे हमारे घरों में और समाज में लगभग अवांछित जीव हैं। बेटा जन्म लेते ही पितृसत्ता का प्रतिनिधि है और बेटी उसके लिए चुनौती है। उसके होने मात्र से पितृसत्ता में खलल पड़ता है। बेटे को इसलिये प्यार और प्रतिष्ठा मिलती है क्योंकि अन्याय और असमानता पर टिके समाज में ताकत की पूजा होती है। दूसरे के समस्त अधिकारों का गबन करके फिर उनकी रक्षा करना, दाता के रूप में उन्हें रोटी देना, दान देना, दया करना, ‘न्याय’ की देखभाल करना, उसे बनाये रखने के लिये दंड देना, आदि को हमारे यहाँ न केवल ‘स्वाभाविक’ माना जाता है बल्कि यह तो एक ‘महानता’ है। हमारी ‘महान भारतीय संस्कृति’ में महान स्त्रियों के समस्त अधिकार हड़प कर पितृसत्ता उनका पालन-पोषण करती है, उनकी रक्षा करती है। इस तरह पितृसत्ता के प्रतिनिधि पुत्र को और पुत्र की माँ को प्रतिष्ठा मिलती ही है और बेटी को व बेटी की माँ को तिरस्कार। असमानता और अन्याय पर टिके समाज में शोषित और उत्पीड़ित आदमी को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। उनकी ओर से उठी माँग को, अनधिकृत चेष्टा की तरह देखा जाता है। असल में न्याय और अन्याय की परिकल्पना भी ताकत के दबदबे में ही अपना स्वरूप ग्रहण करती है। न्याय की परिकल्पना में ही अन्याय बद्धमूल रहता है। सही-गलत को परखने की कसौटियाँ ही दोषपूर्ण होती हैं। प्रतिष्ठित ‘न्याय’ को चुनौती देते हुए वास्तविक न्याय की माँग रखना आसान काम नहीं है, इसमें एक चुनौती और एक जोखिम छिपा है। धर्म, शास्त्र, राष्ट्र, परिवार, ज्ञानियों, पण्डितों से लेकर अपने प्रियजनों तक के क्रोधित होने का खतरा इसमें बना रहता है। माँ और बेटे के पवित्र रिश्तों का सार क्या है, मातृभक्तों के स्त्री-द्वेष को देखकर इसका पता लगता है। भाई और बहन के गदगद सम्बन्धों का पता तब लगता है जब बहन जमीन में अपना हिस्सा माँग लेती है। पिता और पुत्र के अधीन रहो, पति के अधीन रहो, कभी न्याय न माँगो— यह है ‘स्त्री-धर्म’ और यही है ‘पतिव्रत धर्म’। पिता, भाई, पति और पुत्र का यही सार है। स्त्रियों के दुर्भाग्य का आधार यही है। इसलिये लड़कियाँ बोझ हैं और उनकी हत्या होती है।
पितृसत्ता की नैतिकता स्त्री-दासता को सुनिश्चित करती है। पितृसत्तात्मक परिवार में दोहरी मूल्य-व्यवस्था होती है। यह पुरूषों को स्वेच्छाचारिता और निरंकुश अधिकार देती है तथा स्त्रियों के तमाम अधिकारों का निषेध करती है—
1. ‘कभी स्वतंत्र नहीं रहना है। उसको साध्वी रहना, गुणकर्मयुक्त रहना और अनाचारी, परस्त्रीगामी तथा अपढ़ पति की सेवा में तत्पर रहना है।’(मनुस्मृति पाँचवाँ चक्र, श्लोक 154)
2. वह तनिक सी कटुभाषिणी, स्पष्टवक्ता हुई नहीं कि घर में रहने का अधिकार खो देती है। (9.81)
3. जो स्त्री प्रमत्त, पागल या रोगी पति की आज्ञा नहीं मानती तो पुरूष को अधिकार है कि वह उसको वस्त्राभूषण आदि विहीन करके तीन माह के लिये घर से निकाल दे। (9.78)
स्त्रियों के सन्दर्भ में ऐसे विचार केवल शास्त्रों में ही नहीं भरे पड़े हैं। पढ़े-लिखे सुशिक्षित और तथाकथित आधुनिक लोगों के दिमाग में भी घर किये हुए हैं। गीता प्रेस, गोरखपुर के द्वारा प्रकाशित–‘नारी शिक्षा’, स्त्रियों के लिये कर्तव्य-शिक्षा, दाम्पत्य जीवन का आदर्श आदि किताबें छापी और बेची जा रही है। ‘पतिव्रत धर्म’ और ‘स्त्री धर्म’ का प्रचार करने वाली ये किताबें हमारी संविधान की मूल प्रतिज्ञाओं के खिलाफ हैं और धड़ल्ले से बिक रही हैं।
स्त्री दासता पर टिके इस पितृसत्तात्मक परिवार का मुख्य सार, व्यक्तिगत सम्पत्ति की रक्षा और उस पर स्वामित्व बनाये रखना है। यह सम्पति वंशधर को ही मिले इसलिए स्त्री का अनिवार्य कर्तव्य है पुत्र पैदा करना। योनिशुचिता की मान्यता इसीलिये रखी गई। योनिशुचिता को आधार बनाकर स्त्रियों कड़े पर्दे में रखने और घर में बन्दी बनाने के नियम बनाये गए। इस तरह स्त्री को उसके सामाजिक जीवन से उच्छिन्न करके, उसकी भूमिका वंशधर पैदा करने तक सीमित कर दी गई। विवाह के समय अनेक अनुष्ठानों से गुजरता हुआ वह यह दो श्लोक भी पढ़ता है—
- उसे इच्छानुरूप गौरव, आयु, वैभव और दस पुत्रों का शुभ और यशस्वी आशीष प्राप्त हो। हे इन्द्र, हे सावित्री वह यश जो उसकी पुत्रविहीनता की स्थिति दूर करे, तुम शीघ्र उसे दो। (वैश्वाश्वासन गृह्यसूत्र)
- तुम्हारी कोख में पुरुष-भ्रूण उसी तरह प्रवेश करे, जैसे तरकश में तीर, दस महीने बाद पुत्र जन्म हो और इस तरह यहां कई पुत्र उत्पन्न हों। (सांख्यायन गृह्यसूत्र)
पुत्र की लालसा को अन्य अनेक अनुष्ठानों द्वारा सुनिश्चित किया गया है। पुत्रेष्टि यज्ञ के अलावा अन्य अनेक कर्मकाण्डों में पुत्रों की उपस्थिति के बिना माता-पिता की मुक्ति नहीं होती। पुत्र-लालसा के कुछ साफ और मोटे कारण हैं, मसलन परिवार का कर्ताधर्ता होगा, वह व्यक्तिगत सम्पत्ति का स्वामी है, वह मुखाग्नि देने वाला और पिण्डदान करने वाला है। यानी वह इहलोक में ही नहीं परलोक में भी माता-पिता के सुख की गारंटी है। धर्म के इस कर्मकाण्ड का लक्ष्य पितृसत्ता को सुनिश्चित करना है। इसलिये बेटे की माँ को प्रतिष्ठा मिलती है, मातृ-पद मिलता है और बेटी की माँ को तरह-तरह की असुरक्षाएँ मिलती हैं। इस तरह स्त्रियों का मातृत्व और शरीर, पितृसत्ता का बन्धक है। ये बन्धक स्त्रियाँ स्वयं लड़कियों को जन्म देने से डरती हैं। वृद्धावस्था में महिलाओं की पुत्र पर निर्भरता भी अधिक होती है क्योंकि विधुर पुरूष तो अधिकतर दूसरी शादी कर लेते हैं लेकिन विधवा स्त्रियों के लिए यह मुश्किल होता है। ऐसी अवस्था में वे अपने गुजारे के लिए पुत्र पर निर्भर करती हैं।
पुरूषों की पहुँच जमीन और अन्य सम्पत्ति तक अधिक है। इसके अलावा आमदनी, दहेज और बचत आदि भी उनके पास होती है। पुत्र उनके लिए एक अतिरिक्त सुरक्षा का कारण होता है। लेकिन महिलाएँ सम्पत्ति, आमदनी और बचत के अभाव में पुत्रों पर अधिक निर्भर होती हैं। महिलाओं के लिए बेटे होने से सामाजिक, आर्थिक और घरेलू सहयोग जुटना आसान हो जाता है। अधिकांश मामलों में बेटा ही एक ऐसा जरिया होता है जिससे वे पति के घर में अपनी स्थिति वैध ठहरा सकती हैं और उसे मजबूत कर सकती हैं व कुछ प्रतिष्ठा भी जुटा सकती हैं। बुढ़ापे में महिलाएँ विधवा हो सकती हैं, वे परित्यक्ता हो सकती हैं, किसी लम्बी बीमारी की चपेट में आ सकती हैं। ऐसी स्थिति में वे अपने गुजारे का एकमात्र सहारा खो सकती हैं। आर्थिक आत्मनिर्भरता के बिना महिलाएँ जीवनयापन के लिए, जीवित बने रहने के लिए, बेटों पर निर्भर करती हैं। विधवा के तौर पर पति की जमीन तक स्त्रियों की पहुँच भी वयस्क बेटों के माध्यम से ही होती है। हालाँकि लड़कियों का पिता की सम्पत्ति में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत हिस्सा होता है, लेकिन मौजूदा पितृसत्तात्मक समाज में वह उन्हें मिल नहीं पाता। बनारस और वृन्दावन में हर साल सैकड़ों की विधवाएँ उनके परिवारजनों द्वारा अकेली छोड़ चली जाती हैं। कुम्भ के मेले में हजारों की संख्या में विधवाओं को उनके परिवारीजन छोड़कर चलते बने। पिछले वर्षों में असम और बिहार में कितनी ही विधवा महिलाओं की चड़ैल कहकर मार-पीट कर गाँव से बाहर निकाल दिया गया, ताकि वे जमीन या फसल पर कोई हक न जता सकें। हरियाणा में लत्ता ओढ़ाकर जमीन बचा ली जाती है। इसका विरोध करने पर विधवा को जान से हाथ धोना पड़ता है। हरियाणा और उत्तर प्रदेश के धनी किसानों ने पिछले समय में ऐसे अनेक प्रयास किये हैं, जिससे पिता की सम्पत्ति में लड़की के अधिकार को समाप्त किया जा सके। हरियाणा विधानसभा से इस आशय का बिल दो बार राष्ट्रपति के पास भेजा गया। सामाजिक दबाव के चलते लड़कियाँ खुद जमीन से अपना नाम उतरवा लेती हैं। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम में ऐसी अस्पष्टताएँ भी मौजूद हैं जिनका लाभ उठाते हुए अनेक राज्यों में लड़कियों को जमीन का अधिकार दिया ही नहीं गया है।
मौजूदा दौर में लड़कियों का विवाह, दहेज के कारण मुश्किल हो रहा है।
पितृसत्तात्मक नैतिकता और आर्थिक परनिर्भरता के कारण पुत्र-लालसा से स्त्रियाँ बच नहीं पातीं।
पितृसत्तात्मक परिवार में पितृपक्ष के सम्बन्धों का दर्जा ऊँचा होता है और मातृपक्ष के सम्बन्धों का दर्जा नीचा। मसलन दादा, दादी, चाचा, चाची बुआ के मुकाबले मामा, मामी, मौसी, आदि की पितृप्रतिष्ठा कम है। भतीजे का स्थान, भांजे से ऊँचा है। स्त्री पक्ष के सम्बन्ध गाली के तौर पर भी इस्तेमाल होते हैं जैसे साला, फूफा मामा आदि। माँ बहन और बेटी की गालियों का इस्तेमाल तो भारतीय पुरूष आमतौर पर तकिया कलाम की तरह करते हैं। जाहिर है पितृपक्ष के सम्बन्ध सत्तापक्ष के सम्बन्ध हैं, इसलिए भी पुत्र बड़े फायदेमन्द होते हैं जबकि लड़कियाँ हानिकारक होती हैं। इस असमान सम्बन्ध व्यवस्था को भी अनेक कर्मकाण्डों द्वारा कायम रखा जाता है।
इस दोहरी असमान सम्बन्ध व्यवस्था के कारण ही परिवार में एक बच्चा परिवार की नींव है, वह सम्पत्ति का वारिस है, वह वंश बेल है, घर के साथ उसके इन सम्बन्धों की सदियों की निरन्तरता है और दूसरा बच्चा सम्पत्ति का अधिकारी नहीं है, वह घर पर एक बोझ है, वह पराया है, उसके परायेपन की सदियों की निरन्तरता है। इस तरह इन बच्चों का समय अलग है, स्थान अलग है। यह ऐसा ही है जैसे एक ही शहर में दो शहर होते हैं, एक सम्पन्न लोगों का, एक झुग्गी झोपडियों का, जो कभी भी उजड़ सकता है। जो समय लड़कों के समाजीकरण का होता है, वह समय लड़कियों के सामाजिक अलगाव का होता है। उन पर इतनी पाबन्दियाँ लगा दी जाती हैं कि उनका जीवन लगभग स्थगित हो जाता है। जब लड़के ‘सैटल’ हो रहे होते हैं, लड़कियाँ उजाड़ दी जाती हैं। किसी अनजान घर, किसी अनजान आदमी को, उसे विवाह के नाम पर सौंप दिया दिया जाता है। वे घर में दहेज और बहू ले आते हैं। जीवन भर के लिए एक दास और साथ में लूट का माल। इस मुफ्तखोरी का फायदा लड़के के परिवारजन उठाते हैं। इसलिए लड़का उन्हें ‘प्यारा’ लगता है। दिन रात घर में खटने वाली बहू, उसका मुफ्त श्रम, बेटा घर लाता है चाहें तो इसे मारकर और दहेज पाया जा सकता है, दास नवीकरण हो सकता है। इतना सब बेटे की वजह से ही सम्भव होता है। इस तरह यह पितृसत्तात्मक परिवार परजीविता पर खड़ा है और हमारे लड़के भी परजीवी हैं। प्यार और ममता, इस परजीविता को ढाँपने के पर्दे हैं।
एक समाज जिसमें विषमताएँ बहुत अधिक हैं, जो असमानता पर खड़ा है, उसमें निरंकुशता और ताकत के भद्दे प्रदर्शन को एक स्वीकृति मिली होती है। ऐसे ही समाज में लड़कों को विशेष ताकत मिलती है। एक गरीब लड़के को भी एक गरीब लड़की के मुकाबले अधिक सामाजिक शक्ति मिलती है। एक दलित खेत-मजदूर भी पत्नी को पीट सकता है, पकी-पकाई खा सकता है। ऐसे अन्यायपूर्ण समाज में लड़के की लालसा बहुत अधिक होती है। पुत्र में कोई गुण न हो या बहुत से दुर्गुण हों तब भी उसकी श्रेष्ठता उसी तरह स्वयंसिद्ध है जैसे वर्णाश्रम व्यवस्था के चलते ब्राह्मण की श्रेष्ठता स्वयंसिद्ध होती है, जिसे मानो चुनौती ही नहीं दी जा सकती। पितृसत्ता के खिलाफ स्त्रियाँ कानून और न्याय की बात करें, यह उचित नहीं है।
बाल विवाह की रिपोर्ट करने वाली भँवरी बाई को उच्च जाति के साधन सम्पन्न प्रतिष्ठित प्रौढ़ पुरूषों ने निशाना बनाया। उसे बलात्कार के द्वारा ‘दंडित’ किया गया क्योंकि उसने कई ‘मर्यादाएँ’ तोड़ी थीं। उन मर्यादा पुरूषोत्तमों ने अपने लिंग के द्वारा पितृसत्ता की ताकत और उसकी पाशविकता को पुनःस्थापित किया। भँवरी बाई स्त्री थी, नीची समझी जाने वाली जाति की थी, गरीब थी, बाल विवाह के विरोध में थी। जिस पितृसत्ता को भँवरी बाई ने चुनौती दी उसी पितृसत्ता के आगे अधिकांश समाज आत्मसमर्पण करके पितृसत्ता की दलाली कर रहा है। ऐसे समाज में लड़के की लालसा इसलिए होती है कि ताकत का मजा उठाया जाय।
कहा जाता है ‘लड़कों का कुछ नहीं बिगड़ता’ और ‘लड़कियों का सब कुछ लुट जाता है’ यानी बलात्कार, छेड़खानी, चरित्र हनन, आदि ऐसी चीजें हैं जिनसे लड़कों के अभिभावकों को कोई समस्या नहीं है जबकि लड़कियों के अभिभावक लगातार असुरक्षा और तनाव से गुजर रहे हैं। जिस समाज में अपराध करने की पूरी छूट हो, विशेषकर लड़कियों के प्रति अपराध करने की, वहाँ अपराधी के साथ होना फायदेमन्द है, उत्पीडि़त के साथ होना नुकसानदेह है। इस तरह बेटे की लालसा बड़ी स्वाभाविक सी चीज बन जाती है।
असल में बेटे की लालसा के पीछे अन्य अनेक छोटी-बड़ी लालसाएँ छुपी हुई हैं, जैसे- ताकतवर बनने की इच्छा, शासन करने की इच्छा, मूछें ऊँची रखने की इच्छा, अकड़कर चलने और शेखी बघारने की इच्छा आदि। बेटी के माँ-बाप की ऐसी इच्छाएँ धरी रह जाती हैं। बेटे के अभिभावक ही इन इच्छाओं की पूर्ति का आनन्द उठा सकते हैं। इस आनन्द में खलल न पड़े, इसलिए पुराने समय में स्त्री शिशुओं की हत्या होती रही है। राजपूत, सिक्ख, जाट, जाडेजा, पट्टीदार आदि जातियाँ, लड़कियों की हत्या में आगे थीं। अंग्रेजों द्वारा केवल संयुक्त प्रान्त में ही ऐसे 4959 गाँव चिह्नित किये गये, जिसमें लड़कों की तुलना में लड़कियाँ केवल 40 प्रतिशत या उससे भी कम थीं। 1846 में जालन्धर दोआबा की जनगणना में 2000 बेदी परिवारों में एक भी लड़की नहीं मिली। इसके अलावा गुसाईं, माझा, खजी, लोहारिन भी यह प्रथा अपनाये हुए थे। सिक्खों के दसवें गुरू गोबिन्द सिंह जब पंच-प्यारों को अभिमंत्रित कर रहे थे, तो उन्होंने इस प्रथा को समाप्त करने का आदेश भी दिया। ये हत्याएँ जमीन वाले सम्पत्तिवान लोगों के यहाँ ज्यादा होती थीं, जो दहेज आदि में अपनी सम्पत्ति में से कुछ देना नहीं चाहते थे। (156, एल.एस.विश्वनाथ)
क्रान्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल मूल रूप से मैनपुरी के रहने वाले थे और काकोरी केस में उन्हें फाँसी की सजा हुई थी। जेल में लिखी अपनी आत्मकथा में वे बताते हैं–
‘मेरे पाँच बहनों और तीन भाइयों का जन्म हुआ। दादीजी ने बहुत कहा कि कुल की प्रथा के अनुसार कन्याओं को मार डाला जाए किन्तु माताजी ने इसका विरोध किया और कन्याओं के प्राणों की रक्षा की। मेरे कुल में यह पहला समय था कि कन्याओं का पोषण हुआ।’ (रामप्रसाद बिस्मिल रचनावली-खंड 1, पृ.42)
उदारीकरण और भूमंडलीकरण के साथ जुड़ी अन्ध-उपभोक्तावादी जीवनशैली और सर्वनिषेधवाद के कारण मनुष्य का अवमूल्यन, मानव सम्बन्धों का अवमूल्यन हुआ है। समाजिक विषमता बढ़ी है। एक विकृत आधुनिकता का वर्चस्व कायम हो रहा है जिसके साथ पुरानी बर्बरताओं का मेल हो रहा है। उपभोक्तावादी निरंकुशता के साथ पुरानी निरंकुशताएँ गले मिल रही हैं, जैसे— पुरानी स्त्री शिशुहत्या नई टेक्नोलॉजी के मेल से नये रूप ले रही है। हिंसा का अत्यन्त ‘सुसभ्य’ तरीका, इतना ‘सुसभ्य’ कि इसे डेमोक्रेटिक च्वॉइस भी कहा जा सकता है। बड़े-बड़े हत्याकांडों, दंगों, घृणा, आतंकवाद और हिंसा के प्रति हमारे समाज में उदासीनता बढ़ी है। बड़ी-बड़ी आबादियाँ विकास के दायरे के बाहर फेंकी जा रही हैं। धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में निरंकुश शक्तियों का एक संगठित रूप पुत्र-लालसा के लिए एक बड़ी आधारभूमि तैयार कर रहा है।
सभी निरंकुश संरचनाओं की विचारधारा पितृसत्तात्मक होती है और उनका चरित्र पुरुषवादी होता है। धार्मिक तत्ववाद, जातिवाद और अन्धराष्ट्रवाद ऐसी ही संरचनाएँ हैं। इनके केन्द्र में एक ऐसे उग्र युवक की छवि है जो हिंसक है और घृणा और हिंसा का महिमामंडन करता है। इस हिंसक युवक को हिन्दुत्ववादियों के द्वारा ‘पुरुष’ बनने ‘विजयेष्णु’ बनने, ‘राजपूतों के होतात्मय’ से सीखने और ‘पराक्रमवाद’ को पुनर्जीवित करने की ट्रेनिंग ‘पौरुषयुक्त राष्ट्रजीवन’ हेतु दी जा रही है। पितृसत्तात्मक परिवारों में तैयार हमारे लाडले, सामाजिक जीवन में क्या गुल खिला रहे हैं, आप जानते ही हैं। इन्हें ‘नहीं’ सुनने की आदत नहीं है। वे प्रणय-निवेदन स्वीकार न होने पर लड़की पर पिस्तौल चला देते हैं, तेजाब डाल देते हैं, हॉस्टल में सामूहिम बलात्कार करते हैं। वे सत्ता के नशे में हैं, नवधनिक है। वे अपराधी गिरोहों को संगठित कर रहे हैं, लूट-पाट, हत्या और आगजनी में हिस्सा ले रहे हैं। यह जटिल व्यक्तिवादी पुत्र हिन्दी फिल्मों के सायकोपैथ हीरो के रूप में सामने आ चुका है। हिन्दुत्व, माइकल जैक्सन, सौन्दर्य प्रतियोगिता, नशाखोरी और ऊपर से अन्धराष्ट्रवाद या धरतीपुत्र का बाना। हमारे समाज का यह पुत्र, नागरिक समाज के विरोध में है, समानता के विरोध में है, जनतंत्र के विराध में है, स्त्री-अधिकारों के विरोध में है, मानवतावाद के विरोध में है। वह केवल निरंकुशता के पक्ष में है, वह निरंकुश पितृसत्ता के पक्ष में है। इस जाहिल व्यक्तिवादी पुत्र की लालसा एक सामाजिक और मानसिक बीमारी है। यह साधारण भोली और स्वस्थ इच्छा नहीं है।
बेटों की लालसा का गहरा सम्बन्ध बेटियों की हत्या या स्त्री भ्रूण हत्या के साथ है। इसमें लड़कियों की आर्थिक परनिर्भरता, उनके श्रम का अदृश्य रहना या मुफ्त श्रम, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं तक कम पहुँच, लिंग भेद आदि प्रमुख हैं। पिछले दशकों में महिला आन्दोलन ने यह काम किया है कि महिलाओं के श्रम को दृश्यमान और प्रत्यक्ष बनाया है। ह्यूमैन डेवलपमैंट रिपोर्ट और अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन जैसी संस्थाओं ने इस पहचान को स्थापित किया है। पिछले दिनों ही पूरी दुनिया की महिलाओं ने गरीबी और हिंसा के खिलाफ प्रतिरोध किया और न्यूयार्क में विश्वबैंक के खिलाफ प्रदर्शन किया। महिलाओं द्वारा दुनिया का 70 प्रतिशत श्रम, 10 प्रतिशत आय में भागीदारी और 1 प्रतिशत सम्पत्ति में हिस्सेदारी बताती है कि महिलाएँ एक तबके के तौर पर सबसे गरीब तबका है। ऐसी दुनिया जो पूँजी और प्रतिद्वन्द्विता पर खड़ी हो, जाहिर है उसमें गरीब सबसे ज्यादा मार खाता है और उसमें भी गरीब औरत। चूँकि पूँजी और प्रतिद्वन्द्विता पर टिका समाज है इसलिए महिलाएँ गरीब हैं या यूँ कह लीजिए कि महिलाएँ गरीब है इसलिए वे मौजूदा समाज में असुरक्षित होंगी। असमानताओं ने मिलकर एक पूरी समस्या को जन्म दिया है, यह इतनी जटिल समस्या है कि किसी एकांगी दृष्टि से इसे समझा नहीं जा सकता। मसलन आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर शिक्षित महिलाएँ भी घरेलू हिंसा, दहेज और बलात्कार आदि से उत्पीडि़त हैं। दहेज-हत्या तो शुरू ही शिक्षित मध्यवर्ग के बीच हुई जो अब धीमे-धीमे नीचे तक पहुँच चुकी है। स्त्री भ्रूणहत्या भी सबसे पहले शहरी मध्यवर्ग में शुरू हुई और गाँव तक पहुँच चुकी है। इसका अर्थ है कि शिक्षा, आर्थिक आत्मनिर्भरता के साथ ‘नागरिक समाज’ का एजेंडा भी उठाना होगा। अत्यन्त गरीब तबके, जिनके पास कोई सम्पत्ति नहीं है, वे पितृसत्ता की विचारधारा को अपनाए हुए हैं और तरह-तरह की ऐसी मूल्यव्यवस्था अपनाए रखते हैं जो खुद उनके पक्ष में नहीं है।
मौजूदा संकट पुत्र की लालसा या लड़कियों की हत्या के मुद्दे तक सीमित रहने से हल होने वाला नहीं है। बल्कि इनके खिलाफ एक ऐसे सर्वव्यापी आन्दोलन की परिकल्पना करने की जरूरत है, जिसके केन्द्र में एक नागरिक पहचान हो जो स्त्री-पुरुष की मिथकीय छवियों को तोड़कर, सचेत नागरिक की पहचान दे सके। उनकी ‘उत्पीड़क’ और ‘उत्पीडि़त’ की छवि को बदल सके। इस आन्दोलन में दहेज, छेड़खानी, यौन-उत्पीड़न, पारिवारिक हिंसा, घूँघट, लैंगिक भेदभाव, फूहड़ संस्कृति के प्रचार-प्रसार के खिलाफ एक मुहिम छेड़नी होगी। इसमें स्वास्थ्य, शिक्षा, भोजन, पानी, सफाई, स्वास्थ्य, मनोरंजन आदि विकास के प्रश्नों को सबके लिए उठाना होगा। इसमें युवा लड़के-लड़कियों को लिंग पार्थक्य तोड़ते हुए सामजिक कार्यों में व्यापक तौर पर लगाना होगा। इस प्रक्रिया में ही उनके बीच के विकृत सम्बन्ध बदलेंगे। जनतंत्र को नीचे से लेकर ऊपर तक सबके लिए पुनः अर्जित करना होगा।
स्त्री-विरोधी साहित्य की पहचान करके उसकी बिक्री को रोकना, प्रचार माध्यमों पर चलने वाले स्त्री-विरोधी प्रचार को विवाद में लाना, समाज में विचार-विमर्श और संवाद की प्रक्रिया चलाने के लिए तरह-तरह के माध्यमों से नवजागरण का एजेंडा उठाना आदि ऐसे काम हैं, जिनको किए बिना मनुष्य के सर्वव्यापी अवमूल्यन को रोकना मुश्किल है। पारिवारिक संकट, बेरोजगारी, निराशा और गिरी हुई आत्मछवि से स्त्रियों को, दलितों और युवाओं, गरीब और वंचित लोगों को निकालने के लिए वास्तव में एक नवजागरण की जरूरत है।
पिछले दिनों ऐसी प्रक्रियाएँ घटित हुई है जिन्होंने स्त्रियों की बँधी-बँधाई छवि को तोड़ा है। वे सामाजिक पटल पर अपनी नई सामाजिक छवि के साथ उभरी है। उनका अदृश्य श्रम कुछ दृश्यमान हुआ है, वे पहचान अर्जित करने के लिए व्यग्र हैं। इसे नकारना अब आसान नहीं। वास्तविकता तो यह है कि सैद्धान्तिक स्तर पर वे एक लड़ाई जीत चुकी हैं। स्त्रियों की यह नई छवि कृतित्व से युक्त है, वह व्यक्तिगत पारिवारिक सन्दर्भ ही नहीं व्यापक सामाजिक सन्दर्भ लिए हुए है, उनका शरीर व्यक्तिगत उपभोग की किसी वस्तु के रूप में नहीं एक जैविक सामाजिक संरचना के रूप में प्रकट हुआ है।
स्त्रियाँ स्त्रीत्व को फिर से परिभाषित कर रही हैं, अपनी यौनिकता को पहचान रही हैं। इस कारण पुरुष की पुरानी छवि संकट में है, पितृसत्ता के सामने गम्भीर चुनौती है। स्त्रियों का मनोबल तोड़ने के लिए बलात्कार और हिंसा का प्रयोग किया जा रहा है। धर्म और जातिवादी ढाँचों का स्त्री विरोधी सार न केवल और बढ़ा है बल्कि उसमें एक आक्रामकता भी है। इन्हें राजनीतिक औजार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। स्त्रियों से हार का मतलब है इन पुनरुत्थानवादी ताकतों के सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व का टूटना। इसलिए वे नौकरी करने वाली महिलाओं की पाठ्य-पुस्तकों में निन्दा कर रहे हैं, स्कर्ट पर पाबन्दी लगा रहे हैं, लड़कियों को अनिवार्यतः गृहविज्ञान पढ़ाने का प्रस्ताव रख रहे हैं, सती मन्दिरों का जीर्णोद्धार कर रहे हैं और ऊपर से महिला सशक्तीकरण वर्ष की घोषणा भी कर रहे हैं। पितृसत्ता के प्रतिनिधि पुरुषों के सामने अपनी पहचान या आइडेंटिटी का प्रश्न जिस तरह आज खड़ा हुआ है पहले कभी नहीं हुआ। उनकी छवि स्त्री के नकार पर बनी थी। खुद पुरुषों को भी पितृसत्ता ने एक मिथक में ढाला है। उनकी मनुष्य की छवि धूमिल पड़ी है। उन्हें भी मिथकीय पुरुष की तरह व्यवहार करना पड़ा है। लेकिन अब वे ‘रक्षक’ नहीं दयनीय दिखाई पड़ते हैं। सेक्स और हिंसा के अबाध प्रश्न के बावजूद, वे आत्मपक्ष से वंचित हैं। शेखीखोरी से काम नहीं चल रहा। उनमें अपनी पहचान पाने की वैसी उत्कण्ठा दिखाई नहीं दे रही जैसी स्त्रियों में है। वे द्वेष, प्रतिशोध और अपनी कमतरी के अहसास में जल रहे हैं, इसलिए स्त्रियों पर भयानक हिंसा कर रहे हैं। एक अवसर उनके पास भी है, वे पितृसत्ता के प्रतिनिधि की तरह नहीं, एक स्वाभाविक मनुष्य नागरिक की तरह व्यवहार कर सकते हैं। बशर्ते वे ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ जैसे संवाद दोहराना छोड़ दें और कम से कम अपने दर्द के लिए, अपनी पहचान के लिए, अपने आत्मपक्ष के लिए सच्चे बनें।
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