मणिशंकर अय्यर को आनन-फानन में कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से निलंबित किया गया। वजह साफ थी, उन्होंने जिस अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल प्रधानमंत्री मोदी के सन्दर्भ में किया था, वह अनुचित था। हमें नहीं भूलना चाहिए कि ‘‘नीच किस्म का आदमी’’ यह प्रयोग बातचीत/गतिविधि के हल्के सन्दर्भ में भी हो सकता है और उसे यहां की मनुवादी व्यवस्था में निचले पायदान पर स्थित लोगों/समूहों के बारे में भी किया जाता है। भारत में किसी को भी अपमानित करने की ज्यादातर शब्दावलियां जाति और स्त्रियों से जुड़ी हुई हैं। इस तरह की शब्दावलियों का इस्तेमाल करने पर दंड का भी प्रावधान है। इस तरह की शब्दावलियों का इस्तेमाल संविधान की मूल भावना के खिलाफ भी है।
देश की अदालतें भी इस तरह के मामलों में ‘अपमानित’ किए गए व्यक्ति के हक़ में फैसला देती दिखती है। मिसाल के तौर पर सूबा महाराष्ट में ठाणे की एक अदालत ने एक शख्स को दिन भर की जेल एवं एक रूपए जुर्माने की प्रतीकात्मक सज़ा देकर यह संकेत दिया था कि किसी भी महिला के खिलाफ अपमानजनक लब्ज़ का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। याद रहे शिकायतकर्ता महिला के पड़ोसी ने उसके लिए छम्मकछल्लो शब्द का प्रयोग किया था। अनुसूचित जाति- जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत हम अदालत में आए ऐसे मामलों से रूबरू होते हैं, जिसमें लोगों को जातिसूचक गाली या अन्य अपमानजनक शब्द इस्तेमाल करने पर तथा उसके प्रमाणित होने पर बाकायदा सज़ा दी जाती है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ जब दिल्ली हाईकोर्ट ने एक फैसले में यह बताया था कि आप अपने फेसबुक पर भी अगर अनुसूचित तबके के किसी व्यक्ति को निशाना बनाते हैं, उसे जातिसूचक ढंग से अपमानित करते हैं तो वह दंडनीय अपराध हो सकता है। यह फैसला ऑन लाइन गाली-गलौज करनेवाले लोगों एवं उनको दंडित किए जाने के बीच के अन्तराल को समाप्त करता है। अदालत ने कहा कि अनुसूचित जाति- जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 इस मामले में लागू हो। रेखांकित करनेवाली बात है कि यह फैसला अन्य सोशल मीडिया प्लेटफाॅर्म – जैसे वाटसएप्प- पर भी लागू होता है।
विडम्बना ही है कि विगत कुछ सालों से जबसे मुल्क में हिंदुत्वादी राजनीति का उभार हुआ है, ‘हम’ और ‘वे’ की राजनीति अपने उरूज पर है, तबसे ऐसी आक्रामक भाषा का, मुहावरों का प्रयोग बढ़ा ही है।
ध्यान रहे खुद प्रधानमंत्राी जो उन्हें कथित तौर पर ‘अपमानित’ किए जाने की बात को सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा बनाने में आगे रहते हैं, इसी के चलते अपने विरोधियों को आत्मालोचना करने के लिए या उनपर कार्रवाई करने की बात करते रहते हैं ; वह खुद इस ‘परीक्षा’ में किस हद तक खरे उतरते हैं, यह भी विचारणीय मसला है। कर्नाटक की जानीमानी एक्टिविस्ट एवं लेखक-सम्पादक गौरी लंकेश की हत्या के बाद – जब सोशल मीडिया पर इस हत्या को ‘सेलिब्रेट’ किया जा रहा था, गुजरात के किसी दधिच नामक व्यक्ति का इस किस्म का पोस्ट वायरल हुआ -तब यह बात भी उजागर हुई थी कि देश के संविधान की रक्षा करने की कसम खाए प्रधानमंत्राी न केवल दधिच बल्कि ऐसे कइयों को ‘फाॅलो’ करते रहे हैं। उसके बाद आल्टन्यूज ने इस बात का भी खुलासा किया था कि नाथुराम गोडसे के कई मुरीदों को टिवटर पर जनाब मोदी फाॅलो करते हैं। उनके विचारों के एकांगीपन का प्रतिबिम्बन महज ऐसी घटनाओं में दिखाई नहीं देता, जब वह किसी चुने हुए सांसद की ब्याहता पत्नी को ‘पचास करोड की गर्लफ्रेण्ड’ कह कर सम्बोधित करते हैं या गुजरात 2002 के रक्तरंजित दौर में मारे गए निरपराधों के सन्दर्भ में ‘पिल्ले’ शब्द का प्रयोग करते हैं; वह उनके लेखन में या उसमें नज़र आते मौन में भी साफ उजागर होता है।
पता नहीं उन्हें अभी याद भी होगा या नहीं कि एक समय उन्होंने मल उठाने या गटर साफ करने के काम को – जिसने लाखों लोगों को बेहद अपमानजनक स्थितियों में पीढ़ी दर पीढ़ी ढकेला है -आध्यात्मिक अनुभव के तौर पर सम्बोधित किया था। अपनी किताब ‘कर्मयोग’ में वह लिखते हैं: ‘‘मैं नहीं मानता कि वे (सफाई कामगार) इस काम को महज जीवनयापन के लिए कर रहे हैं। अगर ऐसा होता तो उन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी इस काम को नहीं किया होता ..किसी वक्त उन्हें यह प्रबोधन हुआ होगा कि वाल्मिकी समुदाय का काम है कि समूचे समाज की खुशी के लिए काम करना, इस काम को उन्हें भगवान ने सौंपा है ; और सफाई का यह काम आन्तरिक आध्यात्मिक गतिविधि के तौर पर जारी रहना चाहिए। इस बात पर यकीन नहीं किया जा सकता कि उनके पूर्वजों के पास अन्य कोई उद्यम करने का विकल्प नहीं रहा होगा। ’’(पेज 48-49)
मालूम हो कि इस किताब का प्रकाशन 2007 में हुआ था, जिसमें आई .ए .एस .अधिकारियों के चिन्तन शिविरों में जनाब मोदी द्वारा दिए गए व्याख्यानों का संकलन किया गया है। गुजरात स्टेट पेट्रोलियम कार्पोरेशन जैसे अग्रणी सार्वजनिक प्रतिष्ठान के सहयोग से इसकी पांच हजार प्रतियां छापी गयी थीं। गुजरात के वरिष्ठ पत्राकार राजीव शाह के चलते ही इस बात का खुलासा हुआ था।
जाति प्रथा एवं वर्णाश्रम की अमानवीयता को औचित्य प्रदान करनेवाला उपरोक्त संविधानद्रोही वक्तव्य ‘टाईम्स आफ इण्डिया’ में नवम्बर मध्य 2007 में प्रकाशित भी हुआ था। आप इसे गुजरात के दलितों के एक हिस्से के हिन्दुत्वकरण का परिणाम कहें कि गुजरात में इस वक्तव्य पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई, मगर जब तमिलनाडु में यह समाचार छपा तो वहां दलितों ने इस बात के खिलाफ उग्र प्रदर्शन किए, जिसमें मैला ढोने को ‘आध्यात्मिक अनुभव’ की संज्ञा दी गयी थी। अपनी वर्ण मानसिकता के उजागर होने के खतरे को देखते हुए जनाब मोदी ने इस किताब की पांच हजार कापियां बाजार से वापस मंगवा लीं, मगर अपनी राय नहीं बदली। वर्ष 2009 में सफाई कर्मचारियों की एक सभा को सम्बोधित करते हुए उन्होंने, उनके काम को मंदिर के पुरोहित के काम के समकक्ष रखा था। उन्होंने कहा ‘‘जिस तरह पूजा के पहले पुजारी मन्दिर को साफ करता है, आप भी मन्दिर की ही तरह शहर को साफ करते हैं।’’ कोई भी न्यायप्रिय व्यक्ति कहेगा कि यह दोहरा मापदण्ड है कि आप व्यक्ति के अपमान पर हंगामा खड़ा कर दें मगर बेखौफ तरीके से समुदाय को अपमानित करते रहें।
ऊंच-नीच के सोपानक्रम पर टिकी जाति की यह व्यवस्था, जिसे दैवीय स्वीकृति भी हासिल है, उसमें छिपे निहित अन्याय को लेकर संवेदनशीलता के अभाव का ही प्रतिबिम्बन उनकी सरकार के इस कदम में दिखता है जब उनके प्रधानमंत्रित्व काल में एक ऐसा व्यक्ति ‘इंडियन कौन्सिल आफ हिस्टारिकल रिसर्च’ जैसी इतिहास के क्षेत्र की अग्रणी संस्था के मुखिया के तौर पर नियुक्त होता है, जो लिखित रूप में जातिप्रथा की तारीफ करता हैं। प्रो सुदर्शन राव नामक इन सज्जन का यह वक्तव्य उनकी नियुक्ति के दिनों में काफी चर्चित हुआ था। उन्होने कहा था कि ‘भारतीय संस्कृति के सकारात्मक पहलू इतने गहरे हैं कि प्राचीन प्रणालियों के गुणों को पुनर्जीवित किया जा सकेगा।’’ वे आगे कहते हैं‘जाति प्रथा प्राचीन समय में अच्छा काम कर रही थी और हमें उसके खिलाफ किसी तबके की तरफ से कोई शिकायत नहीं मिलती। अक्सर उसके बारे में कहा जाता है कि वह एक शोषणकारी सामाजिक व्यवस्था है जो शासकवर्ग के कुछ निहित स्वार्थी हितों के आर्थिक और सामाजिक ओहदे को बरकरार रखना चाहती है। भारतीय जाति व्यवस्था, जो संस्कृति के विकास के बाद में चरण की जरूरतों को सम्बोधित करने के तौर पर विकसित हुई है, वह वर्णव्यवस्था से एकीकृत थी, जैसा कि प्राचीन ग्रंथों और धर्मशास्त्रों में लिखा गया है।’’ (‘इंडियन कास्ट सिस्टम: ए रिअप्रेजल’, प्रोफेसर सुदर्शन राव, इंडियन कौन्सिल आफ हिस्टारिकल रिसर्च के अध्यक्ष)
पिछले दिनों ख़बर आयी थी कि संघ के दूसरे सुप्रीमो गोलवलकर को ‘सशक्त राष्ट्रवाद’ के प्रतीक के तौर पर स्थापित करने की दिशा में कुछ पहल हुई है। अपनी किताब ज्योतिपुंज में जनाब मोदी जिन्हें ‘पूजनीय’ बताते हैं, उनमें गोलवलकर अग्रणी हैं।
आप पूरी किताब पलट जाइए, आप को पता नहीं चलेगा कि जिन दिनों भारत आज़ाद हुआ था और गांधी-नेहरू की पहल पर डॉ. अांबेडकर को संविधान की मसविदा समिति का अध्यक्ष बनाया गया था और वह संविधान निर्माण के काम में मुब्तिला थे, उन दिनों किस तरह संघ के इस दूसरे सुप्रीमो गोलवलकर ने संविधान बनाने का विरोध किया था और अपने मुखपत्रों में मनुस्मति को ही आज़ाद भारत का संविधान बनाने की हिमायत की थी। अपने मुखपत्र ‘आर्गेनायजर’, (30 नवम्बर, 1949, पृष्ठ 3) में संघ की ओर से लिखा गया था कि ‘हमारे संविधान में प्राचीन भारत में विलक्षण संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु की विधि स्पार्टा के लाइकरगुस या पर्सिया के सोलोन के बहुत पहले लिखी गयी थी। आज तक इस विधि की जो ‘मनुस्मृति’ में उल्लेखित है, विश्वभर में सराहना की जाती रही है और यह स्वतःस्फूर्त धार्मिक नियम -पालन तथा समरूपता पैदा करती है। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उसका कोई अर्थ नहीं है।’’ इतना ही नहीं उन दिनों जब डॉ. आंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल के माध्यम से हिन्दू स्त्रियों को पहली दफा सम्पत्ति और तलाक के मामले में अधिकार दिलाने की बात की थी, तब कांग्रेस के अन्दर के रूढिवादी धड़े से लेकर हिन्दूवादी संगठनों ने उनकी मुखालिफत की थी, उसे हिन्दू संस्कति पर हमला बताते हुए उनके घर तक जुलूस निकाले थे। उन दिनों स्वामी करपात्राी महाराज जैसे तमाम साधु सन्तों ने भी – जो मनु के विधान पर चलने के हिमायती थे – आंबेडकर का जबरदस्त विरोध किया था। गोलवलकर ने उन्हीं दिनों लिखा था “जनता को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए तथा इस संतोष में भी नहीं रहना चाहिये कि हिंदू कोड बिल का खतरा समाप्त हो गया है। वह खतरा अभी ज्यों का त्यों बना हुआ है, जो पिछले द्वार से उनके जीवन में प्रवेश कर उनकी जीवन की शक्ति को खा जाएगा। यह खतरा उस भयानक सर्प के सदृश है, जो अपने विषैले दांत से दंश करने के लिये अंधेरे में ताक लगाए बैठा हो। (श्री गुरूजी समग्र: खण्ड 6, पेज 64 , युगाब्द 5106)
याद रहे इतिहास में पहली बार इस बिल के जरिए विधवा को और बेटी को बेटे के समान ही सम्पत्ति में अधिकार दिलाने, एक जालिम पति को तलाक देने का अधिकार पत्नी को दिलाने, दूसरी शादी करने से पति को रोकने, अलग- अलग जातियों के पुरूष और स्त्री को हिन्दू कानून के अन्तर्गत विवाह करने और एक हिन्दू जोड़े के लिए दूसरी जाति में जनमे बच्चे को गोद लेने आदि बातें प्रस्तावित की गयी थीं। इस विरोध की अगुआई गोलवलकर के नेतृत्ववाले राष्टीय स्वयंसेवक संघ ने की थी, जिसने इसी मुददे पर अकेले दिल्ली में 79 सभाओं-रैलियों का आयोजन किया था, जिसमें ‘हिन्दू संस्कति और परम्परा पर आघात करने के लिए’ नेहरू और आंबेडकर के पुतले जलाए गए थे।(देखें, रामचन्द्र गुहा, द हिन्दू, 18 जुलाई 2004)
यह वही गोलवलकर थे जिन्होंने कभी भी अनुसूचित जाति और जनजातियों के कल्याण एवं सशक्तिकरण हेतु नवस्वाधीन मुल्क के कर्णधारों ने जो विशेष अवसर प्रदान करने की जो योजना बनायीं, उसका कभी भी तहेदिल से समर्थन नहीं किया। आरक्षण के बारे में उनका कहना था कि यह हिन्दुओं की सामाजिक एकता पर कुठाराघात है और उससे आपस में सद्भाव पर टिके सदियों पुराने रिश्ते तार-तार होंगे। इस बात से इन्कार करते हुए कि निम्न जातियों की दुर्दशा के लिए हिन्दू समाज व्यवस्था जिम्मेदार रही है, उन्होंने दावा किया कि उनके लिए संवैधानिक सुरक्षा प्रदान करने से आपसी दुर्भावना बढ़ने का खतरा है। (गोलवलकर, बंच आफ थाटस्, पेज 363, बंगलौर: साहित्य सिन्धु, 1996)
निश्चित ही ‘नीच’ संबोधन से आहत मोदी जी को इस पर रौशनी डालनी चाहिए कि संघ और उसके सिद्धांतकारों के मनुवादी, मानवद्रोही, संविधानद्रोही विचारों पर वे मौन क्यों साधे हुए हैं?
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