2 फरवरी : शहीद जगदेव जयंती
उत्तर भारत में ‘सामाजिक-सांस्कृतिक क्रान्ति’ के जनक बाबू जगदेव प्रसाद (2 फरवरी 1922 से 5 सितम्बर 1974) ने आधुनिक भारतीय इतिहास में भारतीय समाज की एक ऐसी नींव को मजबूत किया है जो कृषि और आग पर आधारित संस्कृति को प्रवाहित करती है। इसके जरिए बहुजन-श्रमण संस्कृति को बहाव की धारा में लाया जा सकता है जो कृषि, आग, प्रेम और परिश्रम पर आधारित है न कि नफ़रत, पाखंड और शोषण पर।

24 फरवरी 1969 को रुसी इतिहासकार पॉल गौर्द लेबिन के साथ साक्षात्कार में भारतीय राजनीतिक परम्परा के अंतर्सूत्रों की पहचान करते हुए जगदेव प्रसाद ने कहा था कि डांगे, नम्बुदरीपाद, ज्योति बसु, पी.सी. जोशी जैसे कुलांक लोग पार्टी में भरे पड़े हैं और सर्वेसर्वा भी हैं। ये सभी ऊँची जाति के हैं और करोड़पति हैं। भारत की तमाम बीमारियों की जड़ में यही लोग हैं। ये लोग शोषण के विज्ञान और कला में प्रवीण हैं। रूस में कुलांक जारशाही के खिलाफ़ सर्वहारा ने कम्युनिस्ट आन्दोलन प्रारंभ किया, लेकिन भारत में तो कुलांक ही कम्युनिस्ट आन्दोलन के नेता हैं। एक तो करेला दूजा नीम चढ़ा। एक तो ऊँची जाति दूसरे लखपति-करोड़पति। जिस तरह अमेरिका का शासक वर्ग कम्युनिस्ट नहीं हो सकता उसी प्रकार भारत का शासक वर्ग जो ऊँची जाति का है, वह कम्युनिस्ट और इन्क्लाबी नहीं हो सकता है। भारत के दस फीसदी शोषकों ने नब्बे प्रतिशत शोषितों को अब तक गुलाम बनाकर रखा है। सभी राजनीतिक दलों पर इनका ही कब्ज़ा है।
जगदेव प्रसाद के संघर्षों के आलोक में अगर वर्तमान भारतीय समाज की कोढ़ बन चुकी समस्याओं का अवलोकन करें तो पाते हैं कि सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से किसान एवं आदिवासी सर्वाधिक शोषित हैं। ऐसे मामलों में शिक्षा, शिक्षण, शिक्षक और शिक्षा का व्यवसाय सभी सवालों के घेरे में आते हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उल्लेख है कि हम शिक्षक हैं हमारा काम है पाठ पढ़ाना। जरूरत पड़ने पर राजा को भी पढ़ायेंगे। हमारा एक ही उद्देश्य है कि भारत की एकता, प्रगति और अखण्डता के लिये जो भी जरूरी होगा हम करेंगे। वर्तमान शिक्षा माफिया, सत्ता माफिया, मीडिया माफ़िया एवं धर्म माफ़िया का सारा समीकरण भारत के परम्परागत वर्ण माफ़िया के द्वारा संचालित है। जगदेव प्रसाद के पास इसका अचूक इलाज था कि ‘चपरासी हो या राष्ट्रपति की संतान। सबकी शिक्षा एक समान।’

भारत में महिलाओं की स्थिति स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी संतोषजनक नहीं हो पायी है। मध्यवर्गीय कस्बाई और महानगरीय समाज में स्त्रियों को एक हद तक आर्थिक आजादी तो हासिल हुई है किन्तु सामाजिक, सांस्कृतिक क्षेत्रों में हालात ठीक नहीं हैं। इनके बरक्स आदिवासी, किसान एवं दलित जो आमतौर पर ग्रामीण और वन क्षेत्रों से संबंधित हैं वहां पर महिलाओं की स्थिति बेहतर है। उत्तर भारत की इस मानसिकता को जगदेव प्रसाद ने काफ़ी पहले ही समझ लिया था तभी उन्होंने कहा था कि ‘जिन घरों की बहू-बेटियाँ (स्त्रियाँ) खेत-खलिहानों में काम नहीं करतीं, वे न तो कम्युनिस्ट हो सकते हैं और न ही समाजवादी।’
स्वतंत्र भारत में ऐसे राजनेता बहुत कम हुए हैं जिनकी समझ जगदेव प्रसाद की तरह स्पष्टवादी हों। जगदेव बाबू का मानना था कि भारत का समाज साफ़तौर पर दो तबकों मे बंटा है : शोषक एवं शोषित। शोषक हैं पूंजीपति, सामंती दबंग और ऊँची जाति के लोग और शोषितों में किसान, असंगठित एवं संगठित क्षेत्र के मजदूर, दलित और मुसलमान आदि शामिल हैं। 31 अक्तूबर 1969 को जमशेदपुर में उन्होंने सरदार पटेल के बारे में कहा था कि सरदार पटेल शोषित समाज के बिल्कुल साधारण परिवार में पैदा हुए थे इसलिए विशाल शोषित समाज को उन पर गर्व है। 19 जनवरी 1970 को लिखे एक निबंध में उन्होंने कहा कि जनसंघ (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का राजनीतिक मुखौटा और अभी की भरतीय जनता पार्टी) की नजर में भारत की सबसे बड़ी समस्या मुसलमान हैं और जनसंघ इसी को इस देश का वर्ग संघर्ष मानता है। यह सत्ता में बने रहने की कोशिशों का एक हिस्सा भर है।

जगदेव प्रसाद ने सामाजिक न्याय को परिभाषित करते हुए कहा था कि ‘दस प्रतिशत शोषकों के जुल्म से छुटकारा दिलाकर नब्बे प्रतिशत शोषितों को नौकरशाही और जमीनी दौलत पर अधिकार दिलाना ही सामाजिक न्याय है।’ भारत में नस्लीय श्रेष्टता का प्रदर्शन हमेशा ही अपने परिणामों में नुकसानदायक होता है। कितनी अजीबोगरीब बिडम्बना है कि किसी परिवार विशेष में पैदा हो जाने मात्र से ही यहाँ इंसान की पहचान निश्चित कर दी जाती है। विश्वविद्यालय, जहाँ से इससे छुटकारा पाने की तकनीक और शोध करने की उम्मीद की जाती है, भयंकर नस्लवाद के वीभत्स अखाड़े बने हुए हैं। इस बीमारी से निपटने की सटीक दवा हमें अभी तक के सर्वश्रेष्ठ शिक्षक तथागत बुद्ध के पास मिल सकती है। यह सवाल महत्वपूर्ण इसलिए भी है कि क्या हमारी वर्तमान शिक्षा एक बेहतर नागरिक का निर्माण कर रही है? अथवा परम्परागत पिछड़ेपन को ही पोषित-पल्लवित कर रही है। इस मामले में जगदेव प्रसाद ने देश की आम जनता से आह्वान किया कि ‘पढ़ो-लिखो, भैंस पालो, अखाड़ा खोदो और राजनीति करो।’

अमरीकी अर्थशास्त्री एफ. टॉमसन के साथ 31 जुलाई 1970 को दिये साक्षात्कार में जगदेव बाबू ने कहा था कि ‘समन्वय से शोषक को फायदा है और संघर्ष से शोषित को।…जनसंघ और कम्युनिस्ट पार्टी में फर्क यह है कि जनसंघ के नेता कम अमीर होते हुए भी अमीरों की हिमायत करते हैं और कम्युनिस्ट नेता अमीर होते हुए भी गरीबों का पक्ष लेते हैं। इसलिये कम्युनिस्ट पार्टी यह रूप बड़ा ही मायावी और गरीबों के लिए खतरनाक है।’ हिंदुत्व के गाय, ब्राम्हण और अपराधी राष्ट्रवाद के विकल्प में नारे और विचार गढ़ने में माहिर जगदेव प्रसाद ने किसान और आदिवासी समाज के प्रतीक भैस को अपना केंद्र बनाया और कहा कि ‘सदा भैंसिया दाहिने, हाथ में लीजै लट्ठ। पाँच देव रक्षा करें, दूध दही घी मट्ठ।’

बिहार के लेनिन कहे जाने पर परम्परागत और विफल सत्ताधारियों द्वारा उपहास किये जाने पर मशहूर भाषा वैज्ञानिक और इतिहास के अध्येता राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने लिखा है कि यदि मदन मोहन मालवीय को महामना कहे जाने पर ‘दसवादियों’ को गर्व है तो बिहार की शोषित नब्बे फीसदी जनता को अपने ‘बिहार लेनिन’ पर गर्व है। इसी उपाधि का प्रयोग बीबीसी लन्दन ने जगदेव बाबू की नृशंस हत्या होने के बाद अपने प्रसारण में किया था जैसे जोतिबा फुले को भारत की जनता द्वारा दी गयी उपाधि महात्मा थी। यह ‘महात्मा’ की उपाधि किसी रविन्द्र नाथ टैगोर की गाँधी को कटोरे में दी गयी भीख नहीं है जो गुरुदक्षिणा के रूप में ‘गुरु’ की उपाधि धारण करते हैं।
प्रेमकुमार मणि ने स्पष्ट किया है कि सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में किसान आन्दोलन और इसी के समानांतर पिछड़े किसानों का त्रिवेणी संघ आन्दोलन वर्ग और जातियों में विभाजित जनता का स्वतंत्रता आन्दोलन और उसके बाद भूदान, समाजवादी, साम्यवादी आन्दोलन भयानक अंतर्विरोधों से भरा था। जगदेव प्रसाद ने जिस शोषित समाज दल की स्थापना की उसकी विचारधारा और आवेग को आज कई राजनीतिक दलों ने आत्मसात किया है। आज राजनीति में पिछड़ावाद की धूम मची है। लेकिन विचारधारा के स्तर पर इसके तमाम नेता खाली हैं। लगभग सभी किसी न किसी काली, नीली, पीली, नौरंगी, शीतला, पत्थर, टीला, बंदर, भालू आदि की मूर्तियों के सामने माथा पटककर अपनी मनौती पूरी कर रहे हैं।
जगदेव बाबू भारतीय चिंतकों की उस कतार से सम्बंधित थे जो सांस्कृतिक बदलाव के लिये जीवनपर्यंत लड़ते रहे। संस्कृति और सत्ता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भारत, पाकिस्तान, अमेरिका और अफ्रीका में एक समानता यह है कि इन स्थानों पर मूल निवासियों को शोषण और भयंकर अलगाव का सामना करना पड़ रहा है। इसका हल समता, ममता, अपनत्व तथा इंसाफ़ पसंदगी के साथ ही अपने से अलग एवं कई बार विपरीत विचार रखने वाले को भी इन्सान होने का सम्मान देकर ही हासिल हो सकता है।
5 सितम्बर 1974 को बिहार के जहानाबाद जिले के कुर्था में एक सार्वजानिक भाषण के दौरान एक पुलिस अधिकारी द्वारा जगदेव प्रसाद एवं लक्ष्मण पासवान की नृशंस हत्या कर दी गयी। लेकिन जगदेव प्रसाद आज अधिक प्रासंगिक हो चुके हैं और मौजूदा राजनीति में इसकी झलक देखी जा सकती है। भारत के लोकतंत्र को मजबूत करने एवं सामाजिक न्याय के लिए आजीवन संघर्ष करते हुए जगदेव प्रसाद ने टी.एच. ग्रीन के कथन को सिद्ध किया कि ‘चेतना से स्वतंत्रता का उदय होता है। स्वतंत्रता मिलने पर अधिकार की मांग उठती है और राज्य को मजबूर किया जाता है कि वे उचित अधिकारों को प्रदान करें।’
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