सुप्रीम कोर्ट के दो जजों वाली खंडपीठ ने फैसला दिया है कि एससी/एसटी (अत्याचार निरोधक) अधिनियम 1989 का दुरुपयोग हो रहा है और इस दुरुपयोग को रोकने के लिए बहुत से प्रतिबंध लगाने जरूरी हैं, उसका देश में दलित उभार पर बहुत प्रभाव पड़ेगा। यह फैसला इसीलिए संभव हुआ क्योंकि केंद्र सरकार ने एससी/एसटी पर होने अत्याचारों से संबंधित पूरे तथ्य अदालत के सामने नहीं रखे। सरकार ने अदालत को यह भी नहीं बताया कि इन मामलों में सजा मिलने का प्रतिशत कितना है।

मैं ओबीसी परिवार से ताल्लुक रखता हूँ। पूरे देश में ओबीसी लोगों की यह शिकायत रही है कि इस अधिनियम के तहत उनके खिलाफ ढेरों झूठे मुकदमे दर्ज किए जाते रहे हैं। इसका एक नमूना यह है कि 11 अक्टूबर 2017 को भाजपा सदस्य के. नागाराजू ने हैदराबाद के मलकाजगिरी थाने में मेरे खिलाफ एक केस दर्ज करवाया। नागाराजू की शिकायत थी कि एक हिंदू दलित के रूप में – आर्य वैश्यों के साथ ही – उसकी भावनाएँ मेरी किताब ‘सामाजिक स्मगलारू कोमतोल्लू’ के प्रकाशन से आहत हुई हैं। मेरे खिलाफ एफआईआर लिखी गयी और डीएसपी रैंक के एक अधिकारी द्वारा मेरे नाम पर नोटिस जारी की गई। यह उपर्युक्त अधिनियम के दुरुपयोग का सीधा मामला है।
लेकिन क्या राष्ट्रीय कानूनी सिस्टम को ऐसे आपवादिक मामलों के आधार पर कार्रवाई करनी चाहिए? क्या उसे देश की पुलिस व्यवस्था को निर्देश देना चाहिए कि एससी/एसटी (अत्याचार निरोधक) अधिनियम के तहत तब तक एफआईआर दर्ज न की जाए, जब तक डीएसपी स्तर का पुलिस अधिकारी जाँच न कर ले? अदालत ने यह निर्देश भी दिया कि किसी भी सरकारी अधिकारी के खिलाफ तब तक एफआईआर दर्ज न की जाए, जब तक उसे नियुक्त करने वाला अधिकारी इसके लिए अनुमति न दे दे।
इस सिलसिले में मैं तेलंगाना के एक और केस का जिक्र करना चाहूँगा। निजामाबाद जिले के भाजपा नेता भरत रेड्डी ने राजेश्वर और लक्ष्मण नाम के दो दलितों को कीचड़ में लथेड़ा, उन पर लाठी से वार किए, उन्हें गालियाँ दीं और समूची घटना का वीडियो भी बनाया। वजह यह थी कि वे दोनों उस इलाके में बालू माफिया की कारगुजारी को सामने ले आए थे। अनेक दलित और मानव अधिकार कार्यकर्ताओं की कोशिश से रेड्डी के खिलाफ एससी/एसटी अधिनियम के तहत एफआईआर दर्ज किया गया। लेकिन एफआईआर दर्ज होने के बाद रेड्डी ने उन दोनों दलितों को अगवा कर लिया। तब भी पुलिस ने उसे गिरफ्तार नहीं किया। गिरफ्तारी तब हुई जब भारी संख्या में लोगों ने विरोध किया।
ग्रामीण इलाकों में खेती के तंत्र का और समाज का ढाँचा ऐसा है कि ज्यादातर अनुसूचित और ओबीसी के बीच टकराव होते हैं। रेड्डी, जाट और पटेल जैसी ओबीसी और शूद्र जातियों के लोगों के खिलाफ बहुत केस दर्ज होते रहते हैं। लेकिन ज्यादातर मामलों में न गिरफ्तारी होती है और न ही सजा मिलती है।

मंदिरों के उन पुजारियों के खिलाफ, जो मंदिर के गर्भगृह तक जाने के इच्छुक दलितों पर अत्याचार करते हैं, ऐसी बहुत-सी शिकायतें हैं। लेकिन दलितों को मंदिर में जाने से रोकने का अपराध करने वाले किसी भी पुजारी को अभी तक जेल नहीं हुई है। बाजारों और दफ्तरों में दलितों का तरह-तरह से अपमान किया जाता है। लेकिन एससी/एसटी (अत्याचार निरोधक) अधिनियम के तहत दुकानदारों और ऑफिस के बाबुओं को गिरफ्तार करने का
एक भी उदाहरण नहीं है। अस्पृश्यता एक बड़ी समस्या है और यह अधिनियम इस बर्बर प्रथा को खत्म करने के लिए बनाया गया है। इस अधिनियम पर अमल करने के दौरान कुछ भूलें हो सकती हैं, कुछ निर्दोष लोगों को जेल जाना पड़ सकता है, परंतु सिर्फ इस कारण से इस अधिनियम के दाँत ही निकाल लेना सामाजिक परिवर्तन के पहियों को पीछे धकेलना होगा। हिंदूवादी ताकतें यही तो चाहती हैं।
नेशनल कमीशन फॉर शेड्यूल्ड कास्ट्स की नौवीं वार्षिक रिपोर्ट (2015-16) राष्ट्रपति को 16 अगस्त 2016 को दी गई। यह रिपोर्ट 9 मार्च 2017 को संसद में पेश की गई। रिपोर्ट बताती है, ‘अनुसूचित जातियों पर अत्याचार में बहुत वृद्धि हुई है – 2012 में 33,655 ऐसे मामले हुए, तो 2013 में 39,408 मामले हुए। सोलह राज्यों से प्राप्त आँकड़ों के अनुसार, 2014 में संभावित मामलों की संख्या है 51,672। इस तरह अपराध दर में 16.7 से 2013 में 19.6 तक की वृद्धि हुई। अपराध दर में सब से ज्यादा वृद्धि राजस्थान में हुई – 52.98 प्रतिशत, फिर बिहार में 40.57 प्रतिशत और ओडिशा में 36 प्रतिशत।’ रिपोर्ट यह भी बताती है, ‘इसी अवधि में सजा मिलने की दर में भारी कमी आई (29.6 से गिर कर 23.8 प्रतिशत)। उत्तर प्रदेश में सब से अधिक अपराधियों को सजा दी गई, जबकि पश्चिम बंगाल, गुजरात और महाराष्ट्र में यह दर कम रही।’
दलितों पर अत्याचारों में वृद्धि और सजा पाने की दर में कमी समस्या का एक पहलू है। हमें चाहिए कि मुद्दे को वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में भी देखें। भाजपा के सत्ता में आने के बाद से दलितों पर अत्याचार में वृद्धि हुई है। पहले जैसी अस्पृश्यता बरतने वाली ताकतें भाजपा के इर्द-गिर्द लामबंद हुई हैं। हिंदूवाद के वैचारिक घेरे में बँधी हुई शूद्र और ओबीसी जातियाँ संवैधानिक सुधारों का विरोध कर रही हैं। दलितों के मुद्दे पर वे शास्त्रीय वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार आचरण करती हैं। ये ताकतें चाहती हैं कि इस अधिनियम की छुट्टी कर दी जाए। ग्रामीण तथा अर्द्धग्रामीण क्षेत्रों में अपनी गतिविधियों के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मुख्यतः इन्हीं तत्वों पर निर्भर है।
अस्पृश्यता का सवाल हिंदू सामाजिक व्यवस्था के लिए बहुत ही निर्णायक है। भाजपा/आरएसएस हिंदू राष्ट्र कायम करना चाहते हैं, लेकिन कहीं भी उन्होंने जाति और अस्पृश्यता को खत्म करने का संकल्प नहीं दिखाया है। सुप्रीम कोर्ट के 2015 के अधिथायम आगमशास्त्र फैसले ने आगमशास्त्र(दक्षिण के राज्यों में मंदिर निर्माण से जुड़ा शास्त्र) की नीति की पुष्टि की है। इस फैसले ने मंदिरों में पुजारी की नियुक्ति में वंशानुक्रम व्यवस्था को मान्यता दे दी और आध्यात्मिक सुधार के मार्ग में बाधा खड़ी कर दी है। भाजपा सरकार ने सिर्फ एक ही सुधार के पक्ष में गंभीरता से काम किया है और वह है तीन तलाक की विदाई।
जातिवाद और अस्पृश्यता ऐसे सांस्थानिक यंत्र हैं जो हिंदुत्व के लिए आत्म-घातक हैं। यदि अदालतें सामाजिक समानता की दृष्टि से इस मुद्दे पर विचार नहीं करतीं और तरह-तरह के नियंत्रणकारी विधान बना कर अस्पृश्यता पर अमल करने के अधिकार का बचाव करती रहती हैं, तो इससे अंततः हिंदू धर्म की ही क्षति होगी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान एससी/एसटी के लिए बहुत कुछ करने का वादा किया था। उन्होंने यह दावा भी किया कि मैं खुद ओबीसी हूँ। लेकिन उनकी सरकार उन वादों को पूरा करना नहीं चाहती, क्योंकि उनकी पार्टी आरएसएस की राजनीतिक शाखा है। जबकि आरएसएस उनकी पार्टी की शाखा नहीं है, जिसे वर्णाश्रम धर्म को बनाए रखने का प्रशिक्षण मिला हुआ है।
((कांचा आयलैया शेपर्ड का यह लेख इंडियन एक्सप्रेस के 26 मार्च, 2018 के अंक में‘Exception makes the rule’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। यहाँ लेखक की अनुमति से पुनर्प्रकाशित। अनुवाद : राजकिशोर))
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