डाॅ. राममनोहर लोहिया ( 23 मार्च 1910 – 12 अक्टूबर 1967)
भारतीय समाज की आत्मा को कौन-सा कीड़ा लगा, जिसने अधिकांश भारतीयों को आत्महीन, संवेदनहीन बना दिया तथा न्याय तथा विवेक की चेतना से वंचित कर दिया? इस प्रश्न का मुकम्मिल जवाब आम्बेडकर के अलावा आधुनिक काल में जिस व्यक्तित्व ने दिया; उस व्यक्तित्व का नाम डॉ. राममनोहर लोहिया है। भारतीयों की आत्महीनता या आत्मपतन की बुनियादी वजह को चिह्नित करते हुए, उन्होंने कहा कि ‘आत्मा के इस पतन के लिए मुझे यकीन है, जाति और औरत के दोनों कटघरे मुख्यतः जिम्मेदार हैं। इन कटघरों में इतनी शक्ति है कि साहसिकता और आनन्द की क्षमता को ये खत्म कर देते हैं। साहस की क्षमता खो देने का अर्थ है कि भारतीय आदमी मूलतः कायर है। इस चीज को हम रोजमर्रा की जिन्दगी में देख सकते हैं। अपने से थोड़े भी ताकतवर के सामने वह रिरियाने लगता है और वही आदमी कमजोर को देखते ही गुर्राने लगता है। उसका पुरुषार्थ कमजोर, असहाय, बेबस, लाचार तथा दीन-हीन को अपमानित, उत्पीड़ित एवं दबाने में दिखता है। जाति-वर्चस्व के नाम पर शूद्रों तथा अछूतों को तथा पुरुष वर्चस्व के नाम पर स्त्रियों को अपमानित, उपेक्षित करने तथा दबाने एवं सताने में तथाकथित ऊँची जातियां एवं पुरुष गर्व का अनुभव करते हैं। शूद्रों-स्त्रियों तथा कमजोरों को दबाने में उनके अहं की तुष्टि होती है।’

बात को आगे बढ़ाते हुए लोहिया कहते हैं, ‘वह आत्मा, जिससे कि ऐसे बुरे कर्म उपजते हैं, कभी भी न तो देश के कल्याण की योजना बना सकती है न ही खुशी से जोखिम उठा सकती है। वह हमेशा लाखों-करोड़ों को दबे और पिछड़े बनाए रखेगी। जितना कि वह उन्हें आध्यात्मिक समानता से वंचित रखती है उतना ही सामाजिक और आर्थिक समानता से वंचित रखेगी।’ इसका परिणाम यह हुआ कि द्विजों को छोड़कर सारी जातियाँ व्यक्तित्वहीन बना डाली गईं और यही वह दलदल है जो सारे भारतीय समाज में व्याप्त है। इस दलदल में ही हर संघर्ष, हर आन्दोलन गायब हो जाता है। साहस की क्षमता के अभाव के बाद जिस चीज के अभाव पर उन्होंने जोर दिया, वह है आनन्द में जीने की क्षमता को खो देना। इसी के चलते दुनिया में सबसे अधिक उदास हैं हिन्दुस्तानी लोग। जीवनोत्सव यहाँ गायब है। जाति और योनि की पवित्रता और सुरक्षा की चिन्ता में ही वह जीता रहता है। यौन पवित्रता की लम्बी-चौड़ी बातों के बावजूद, आमतौर पर विवाह और यौन के सम्बन्ध में लोगों के विचार सड़े हुए हैं। भारतीय पुरुष का अधिकांश हिस्सा एक तरफ व्यभिचार के अवसरों की निरन्तर तलाश में रहता है, दूसरी तरफ हर स्त्री की यौन शुचिता उसका बड़ा मूल्य है। जाति तथा योनि की शुचिता ही उसकी अन्तरात्मा का सबसे बड़ा मूल्य है। उसका दिमाग इसी कटघरे में कैद है। वह खुले दिमाग और दिल से सोच ही नहीं पाता है, उसका हृदय और मस्तिष्क इन्हीं बिन्दुओं पर केन्द्रित है, इन्हीं के इर्द-गिर्द उसका संस्कारगत भीतरी मन घूमता रहता है। जाति से जाति अलग है, स्त्री से पुरुष अलग है। हर आदमी अपने कटघरे में कैद अन्य से अन्तरंग सम्बन्ध कायम करने में असमर्थ-सा है। जाति और योनि के ये दो कटघरे परस्पर सम्बन्धित हैं और एक-दूसरे को पालते-पोसते हैं। बातचीत और जीवन में सारी ताजगी खत्म हो जाती है और प्राणवान रस-संचार खुलकर नहीं होता। गांधी की महत्ता को स्वीकार करते हुए भी जीवन को रसविहीन बनाने वाले उनके तमाम विचारों से लोहिया असहमति जताते हैं। वे साफ शब्दों में उनके ब्रह्मचर्य की अवधारणा को खारिज करते हुए कहते हैं कि ‘ब्रह्मचर्य प्रायः कैदखाना होता है। ऐसे बन्दी लोगों से कौन नहीं मिला, जिनका कौमार्य उन्हें जकड़े रहता है और जो किसी मुक्तिदाता की प्रतीक्षा करते हैं?’ वे आगे कहते हैं कि समय आ गया है कि जवान औरतें और मर्द ऐसे बचकानेपन के विरुद्ध विद्रोह करें।

भारतीय इतिहास की एक बहुत बड़ी उलझी गुत्थी यह रही है कि आखिर प्राकृतिक संसाधनों तथा मानवी सम्पदा से सम्पन्न यह विशाल देश क्यों हजारों वर्षों से विदेशियों से पराजित होता रहा, उनके सामने घुटने टेकता रहा, करोड़ों की जनसंख्या वाला यह देश कैसे मुट्ठी भर विदेशी फौज के सामने घुटने टेक देता रहा है। इस मामले में लोहिया और आम्बेडकर कमोबेश एक ही जवाब देते हैं। लोहिया लिखते हैं, ‘भारतीय समाज के, यदि हजारों नहीं तो सैकड़ों जातियों में विभाजन से, जिनका जितना राजनीतिक उतना ही सामाजिक महत्व है, साफ हो जाता है कि हिन्दुस्तान बार-बार विदेशी फौजों के सामने क्यो घुटने टेक देता है। इतिहास साक्षी है कि जिस काल में जाति के बन्धन ढीले थे उसने लगभग हमेशा उसी काल में घुटने नहीं टेके हैं। विदेशी हमलों के दुखदायी सिलसिले को जिसके सामने हिन्दुस्तानी जनता पसर गयी, अन्दरूनी झगड़ों और छल-कपट के माथे थोपा जाता है। यह बात वाहियात है। इसका तो सबसे बड़ा एकमात्र कारण जाति है। वह 90 प्रतिशत आबादी को दर्शक बनाकर छोड़ देती है, वास्तव में, देश की दारुण दुर्घटनाओं के निरीह और लगभग उदासीन दर्शक। ‘कोउ नृप होई, हमें का हानी।’ मुसलमानों के प्रति हिन्दुओं की घृणा और असहिष्णुता के पीछे भी जाति तथा योनि सम्बन्धी हिन्दुओं की दृष्टि की भूमिका है। इसे भी लोहिया ने पहचाना था। वे साफ शब्दों में कहते हैं कि ‘कोई हिन्दू मुसलमानों के प्रति सहिष्णु नहीं हो सकता, जब तक कि वह उसके साथ ही वर्ण और सम्पत्ति के विरुद्ध और स्त्रियों के हक में काम न करें।’

आज जो लोग साम्प्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष को जातीय, लैंगिक तथा सम्पत्ति सम्बन्धी असमानता तथा गैर-बराबरी के खिलाफ संघर्ष से अलग करके देखते हैं, उनके लिए यह एक महत्त्वपूर्ण सबक है। सच्चाई तो यह है कि कमोबेश अधिकांश साम्प्रदायिकता विरोधी या धर्मनिरपेक्षता के समर्थकों ने इस संघर्ष को जातीय, लैंगिक तथा सम्पत्ति सम्बन्धी संघर्ष से अलग ही कर रखा है।धार्मिक असहिष्णुता पर तो वे खूब बोलते तथा संघर्ष करते हैं, लेकिन रोजमर्रा की जातीय और लैंगिक असमानता पर चुप्पी साधे रहते हैं या सहिष्णु दिखते हैं। भारतीय दिमाग ही नहीं, समाज की जड़ता और गतिहीनता अर्थातक्रान्तिकारी बदलाव तथा क्रान्तिकारी चेतना के अभाव के लिए भी वे जाति को ही जिम्मेदार ठहराते हैं। ‘हिन्दुस्तान में क्रान्ति न होने का सबसे बड़ा एक कारण बताना हो, तो दर्शन के रूप में तो वह दासता का समन्वय वगैरह है। लेकिन, अगर एक संस्था या संगठन के रूप में बताना हो, तो वह वह जाति प्रथा है, वर्ण-व्यवस्था है। इसमें कोई शक नहीं। आर्थिक गैर-बराबरी और सामाजिक गैर-बराबरी दोनों को मिलाकर हमने देश ने इतनी जबर्दस्त जन्मजात गैर-बराबरी पैदा की है। क्रान्ति हो तो कैसे- जहाँ गैर-बराबरी इतनी ज्यादा हो कि लोग सोच ही नहीं सकते कि सब बराबर हो सकते हैं, वहाँ क्रान्ति की गुंजाइश ही नहीं रह जाती।’ आज भी कोई भी व्यक्ति भारतीय आदमियों के बहुलांश की थाह लेने की कोशिश करे तो, वह पाएगा कि भीतर से वह बराबरी महसूस ही नहीं कर पाता, स्वीकार नहीं कर पाता कि सभी आदमी आपस में आदमी के स्तर पर बराबर है। जाति सम्बन्धी उसकी दृष्टि उसके भीतर और गैर-बराबरी को स्वाभाविक सहज, जन्मजात और संस्कारगत सोच बना देती है।
कम्युनिस्ट वामपंथी राज्य के चरित्र को समझना ही क्रान्तिकारी पार्टी या व्यक्ति का सबसे बड़ा पहला कार्यभार मानते हैं। मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन तथा माओ से भी उन्होंने यह सबसे महत्त्वपूर्ण सीख ली। लेकिन वे कभी भी भारतीय राज्य और समाज को समझ नहीं सके। वे यूरोपीय चश्मे से समझने की कोशिश करते रहे, इसका परिणाम हुआ कि वे अभी तक तक नहीं तय कर पाए कि भारतीय राज्य अर्धसामन्ती-अर्धऔपनिवेशिक है, या पूँजीवादी या और कुछ है। लोहिया भारतीय राज्य के चरित्र को ठीक-ठीक पहचानते थे; उन्होंने ऊंची जाति, अंग्रेजी शिक्षा और सम्पत्ति इन तीन चीजों को भारतीय शासक वर्ग का बुनियादी लक्षण कहा है। आज भी अगर आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक तथ्यों की गहराई से जाँच-पड़ताल करें तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि भारतीय शासक वर्ग उच्च जातीय, उच्च वर्गीय हिन्दू मर्दों से बना है, भले ही उसमें पिछड़ी जातियों, दलितों तथा कुछ महिलाओं का प्रवेश भी दिखाई देता हो। पिछड़ों, दलितों तथा महिलाओं का जो हिस्सा शासक वर्गों में शामिल होता है वह उच्च जातीय, उच्च वर्गीय तथा पुरुष वर्चस्ववादी मूल्यों को स्वीकार कर लेता है या यूँ कहें कि एक ‘ऐसी संरचना बन चुकी है कि उसमें इसके बिना प्रवेश ही नहीं किया जा सकता है। भारतीय कम्युनिस्टों ने चाहे जितना भी संघर्ष किया हो, जितनी भी शहादत एवं कुर्बानी दी हो, तथा इसके परिणामस्वरूप शोषित-उत्पीड़ितों को जितना भी फायदा पहुँचा, लेकिन वे भारतीय समाज एवं राज्य के चरित्र को समझने में असफल रहे, आज भी असफल हैं।
भारतीय समाज, राज्य और यहाँ के व्यक्ति की मानसिकता को समझने की जिन तीन कुंजियों- जाति, योनि तथा भाषा- को लोहिया ने केन्द्रीय माना वे आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण और केन्द्रीय हैं, भले ही उनका स्वरूप और ज्यादा जटिल तथा सूक्ष्म हो गया है। इसे न समझने के चलते लोहिया कहते हैं कि जितने सुधारवादी आन्दोलन भी हुए, वे सब के सब सनातन हिन्दू व्यवस्था द्वारा उदरस्थ कर लिए गए और जातिवाद का भयानक दलदल अभी भी बना हुआ है। यह दलदल इतना गहरा है कि बड़ा से बड़ा पत्थर इसके गर्भ में कहाँ चला जाता है, कुछ भी पता नहीं चलता।परिवर्तन के विरुद्ध और स्थिरता के प्रति जाति प्रथा एक भयानक शक्ति है -ऐसी शक्ति जो मौजूदा टुच्चेपन, कलंक और झूठ को स्थिर करती है। वे आगे कहते हैं, जाति से विद्रोह में हिन्दुस्तान की मुक्ति हैं। निर्विवाद तौर पर कहा जा सकता है यदि भारतीय समाज, राज्य तथा भारतीय व्यक्ति की मानसिकता को हम गहराई से समझना चाहते हैं तो लोहिया हमारे महत्त्वपूर्ण मददगार हैं। बदलने के तरीकों तथा उपायों के सन्दर्भ में भले ही हमारी उनसे लाख असहमति हो, मेरी भी हैं, उसके बारे में फिर कभी।
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in
फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें :