राम माधव ने त्रिपुरा चुनाव में बीजेपी का नारा ”चलो पलटाई” दुहराते हुए लेनिन की प्रतिमा के विध्वंस का जश्न मनाया है। आरएसएस पूछ रहा है कि लेनिन का भारत से क्या लेना-देना। भगत सिंह और उनके साथी लेनिन से प्रेरणा लेकर फांसी के फंदे पर झूल गए थे जबकि आरएसएस हिटलर और मुसोलिनी की पूजा करता रहा और ब्रिटिश शासकों के साथ उन्होंने गलबहियां कीं। यह हमला भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रगतिशील और साम्राज्यवाद विरोधी विरासत पर है। आज किसान, झुग्गी में रहने वाले, सड़क पर रेहड़ी लगाने वाले और पकौड़े बेचने वाले- हर एक के ऊपर बुलडोज़र चढ़ाया जा रहा है। लेनिन अकेले नहीं हैं। ज़मीन, आत्मसम्मान और आजीविका के लिए लड़ रहे तमाम लोगों के संग लेनिन खड़े हैं। आज के भारत में लड़ाई आरएसएस और सावरकर (जिसने अंग्रेज़ों से माफी मांगकर शहीदों का अपमान किया था) व भगत सिंह (जिसने आज़ादी की जंग में जान दे दी) के बीच है। यह जंग हिटलर बनाम लेनिन की है। यह कॉरपोरेट बुलडोज़रों से बदहाल जनता की जंग है।

संघ की हिंसा अब तमिलनाडु भी पहुंच चुकी है जहां पेरियार की प्रतिमा को ढहाने की एक बीजेपी नेता की धमकी के बाद संघी गुंडों ने उसे अंजाम दे डाला।
एक ओर जहां संघ के गुंडा गिरोह समतावादी समाज की लड़ाई के नायकों की मूर्तियां ध्वस्त कर रहे हैं- पहले लेनिन, फिर आंबेडकर और अब पेरियार- इसके खिलाफ प्रतिरोध भी फैलता जा रहा है। त्रिपुरा में संघ-बीजेपी की इस गुंडई के खिलाफ सिलिगुड़ी से लेकर कोलकाता तक समूचे पश्चिम बंगाल में जबरदस्त विरोध प्रदर्शन हुए हैं। त्रिपुरा में भी इसका विरोध हुआ है।
बीजेपी की झोली में तीन और राज्य आ गए हैं। मेघालय में बीजेपी ने चुनाव के बाद गठजोड़ कर सरकार बनाने में कामयाबी हासिल की है जबकि उसकी अपनी ताकत वहां केवल दो विधायकों की है और 21 सीटों के साथ कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है। नागालैंड में गठबंधन के घटकों पर अभी अस्पष्टता है, लेकिन चुनाव बाद सत्ता की जो भी तस्वीर उभरेगी उसमें बीजेपी एक प्रमुख घटक रहेगी। ज़ाहिर तौर पर सर्वाधिक नाटकीय परिणाम त्रिपुरा के रहे जहां बीजेपी ने अपने चुनाव पूर्व सहयोगी इंडीजीनियस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा के साथ मिलकर भारी जीत हासिल की है और 25 साल के अबाध राज के बाद सीपीएम को सत्ता से बेदखल कर डाला है।

पांच साल पहले इन तमाम राज्यों में बीजेपी की ज़मानत ज़ब्त हो गई थी। केवल त्रिपुरा में एक सीट आई थी। उसका कुल वोट प्रतिशत दो फीसदी भी नहीं पहुंचा था। पिछले एक साल में हालांकि पार्टी प्रमुख विपक्ष के रूप में उभरी। दल बदल कर तृणमूल कांग्रेस में जाने वाले सारे कांग्रेसी विधायक बीजेपी में चले गए। इस चुनाव में सीट और वोट दर दोनों के मामले में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी (35 सीट, 43 फीसदी वोट)। आइपीएफटी को मिला लें तो उसकी कुल सीटें 43 हो जाती हैं और वोट फीसदी 50 फीसदी से बमुश्किल कुछ ज्यादा बैठता है। ऐसा केवल इसलिए मुमकिन हो सका क्योंकि कांग्रेस पूरी तरह से खत्म हो गई (जिसने 2013 में 36.53 फीसदी वोटों के साथ 10 सीटों पर जीत हासिल की थी)। साथ ही सीपीएम के अपने वोट भी कम हुए हैं (48.11 फीसदी से 42.7 फीसदी)। सीपीएम के वोटों में सर्वाधिक गिरावट अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षित 20 सीटों पर हुई है जहां वह 19 से सीधे 2 पर आ गई है।
इससे उलट पश्चिम बंगाल में 2011 में सत्ता से निर्णायक रूप से हटने से पहले सीपीएम के खिलाफ काफी प्रदर्शन हुए थे और उसकी स्थिति चुनावों में धीरे-धीरे खराब होती गई थी। 2011 से पहले सीपीएम को 2008 के पंचायत चुनाव और 2009 के लोकसभा चुनाव में काफी नुकसान झेलना पड़ा था। इस लिहाज से त्रिपुरा में आया बदलाव औचक है। संघ और बीजेपी वैसे तो त्रिपुरा में पहले से सक्रिय थे लेकिन इतने बड़े स्तर पर इनका उीाार हो जाएगा, इसके कोई पूर्व संकेत नहीं थे। इस बार के चुनाव में धनबल और बाहुबल की भूमिका काफी रही, लेकिन अकेले ये दोनों इतना बड़ा असर नहीं डाल सकते थे जब तक कि जनता ही बदलाव नहीं चाह रही होती (यह इतने साल से जमी हुई सरकार विरोधी भावना, बढ़ते आर्थिक संकट और बेरोज़गारी का प्रतिफल है। साथ ही पार्टी और राज्य के युग्म के आक्रामक वर्चस्व से जनता में जो अलगाव पैदा हुआ, उसने भी योगदान दिया है)।
इस निर्णायक बदलाव को साकार करने में आइपीएफटी के साथ गंठजोड़ अहम रहा। इस गंठजोड़ का सियासी आधार तो वैसे निरा अवसरवादी और चौंकाने वाला था। आइपीएफटी एक अलग आदिवासी राज्य की मांग की राजनीति करता रहा है, जबकि बीजेपी इस विचार को खारिज करती है। बीजेपी 1955 के नागरिकता कानून में संशोधन का प्रयास कर रही है। त्रिपुरा के आदिवासी संगठन इस संशोधन के विरोध में हैं। संशोधन में प्रस्ताव है कि भारत आने वाले हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता देने की प्रक्रिया को तेज और सहज किया जाए। बांग्लादेशी हिंदुओं की और आमद त्रिपुरा में पहले से ही नाजुक जनांकिकीय संतुलन को और कमजोर करेगी (जहां आदिवासी समुदाय बंगालियों की तुलना में बहुत कम पड़ जाएगा- बिलकुल यही चिंता असम में अहोमी राष्ट्रीयता के समक्ष है)। दोनों दलों के बीच इतने गंभीर मतभेद के बावजूद बीजेपी और आइपीएफटी का गंठजोड़ संभव हुआ है।

त्रिपुरा में जनजातीय असंतोष को थामने और ‘शांति’ बहाल करने को सीपीएम सरकार की एक प्रमुख ‘उपलब्धि’ माना जाता था। बीजेपी और आइपीएफटी ने बगैर किसी साझा राजनीतिक आधार के सिर्फ सीपीएम को सत्ता से दूर करने के लिए साथ आकर इस संतुलन को छेड़ दिया है। ऐसे अवसरवादी गठबंधन बनाने की कला में बीजेपी ने महारत हासिल की है (दार्जिलिंग में उसे गोरखा संगठनों का समर्थन है जबकि गोरखालैंड की मांग से उसे कोई सहानुभूति नहीं है। इसी तरह जम्मू और कश्मीर में उसने पीडीपी के साथ गंठजोड़ कर रखा है जबकि कश्मीरियों को बीजेपी युद्धबंदी मानती है)। अब यह देखना होगा कि आखिर अपने पक्ष और त्रिपुरा के आदिवासी आंदोलन के बीच कायम अंतर्विरोध से बीजेपी कैसे निपटती है।
सीपीएम को त्रिपुरा में यह झटका अपनी आगामी 22वीं पार्टी कांग्रेस से ठीक पहले लगा है जबकि पार्टी के भीतर मोदीराज के चरित्र-चित्रण और उससे लड़ने के सवाल पर गंभीर रणनीतिक बहस जारी है। विडंबना यह है कि त्रिपुरा में कांग्रेस ने बीजेपी के सामने पूरी तरह से घुटने टेक दिए बावजूद कि इसके वाम और उदारवादी दायरे में अब भी कुछ लोग यह मानते हैं कि त्रिपुरा का परिणाम सीपीएम-कांग्रेस के गंठजोड़ की जरूरत की पुष्टि करता है। यह समझना मुश्किल है कि आखिर ऐसी कोई भी रणनीति कोई दूसरा परिणाम कैसे दे पाती सिवाय इसके कि खुद सीपीएम के वोटों और सीटों का एक हिस्सा कांग्रेस के खाते में चला जाता (जैसा कि बंगाल में हुआ)। बेशक कुछ सवाल हैं जिन्हें वाम को संबोधित करना होगा ताकि भारतीय जनता के तमाम संघर्षों से वह नई ताकत, ऊर्जा और नया खून ले सके।
त्रिपुरा में बीजेपी की जीत ऐसे वक्त में हुई है जब पार्टी के सामने गंभीर चुनावी संकट कायम था और यहां तक कि गुजरात, राजस्थान और मध्यप्रदेश जैसे अपने पुराने गढ़ में उसे विषम नतीजे देखने को मिल रहे थे। पार्टी के सामने विश्वसनीयता का संकट भी सघन होता जा रहा है चूंकि उसके दो प्रमुख वादे (हर साल दो करोड़ रोजगारों का सृजन और भ्रष्टाचार पर रोक) आम जनता के तजुर्बे और धारणा में दो सबसे बड़े विश्वासघात साबित हो चुके हैं। इसीलिए बीजेपी त्रिपुरा की अपनी जीत को बड़े लाभ की तरह दिखा रही है जिसके आधार पर वह आगामी राज्य विधानसभा चुनावों और फिर लोकसभा चुनाव की ज़मीन तैयार करने में जुटी हुई है।
हाल फिलहाल में पार्टी त्रिपुरा की जीत को पश्चिम बंगाल और केरल के लिए संकेत के तौर पर भुनाना चाहेगी और इसे वाम के ऊपर ‘विचारधारात्मक’ जीत के रूप में पेश करेगी। त्रिपुरा में संघ के गिरोह ने लेनिन की मूर्ति ढाह दी और वाम समर्थकों के घरों और दुकानों को नुकसान पहुंचाया। आंबेडकर की प्रतिमा तो देश भर में सामंती ताकतें नियमित रूप से ढाहती रही हैं लेकिन इस बार तमिलनाड में पेरियार की मूर्ति को निशाना बनाया गया है। ऐसी कार्रवाईयों से यह साफ़ है कि संघ लेनिन, आंबेडकर और पेरियार की मूर्तियों से नफ़रत करता है क्योंकि ये मूर्तियां एक समतावादी और न्यायपूर्ण समाज के लिए जनता की तड़प की प्रतीक हैं।
त्रिपुरा में जो कुछ घटा है, उससे सबक लेते हुए वाम को दुर्भावना व दुष्प्रचार की इस जंग में नैतिक रूप से हताश होने से बचना होगा। इसके बजाय आज मोदी सरकार की बढ़ती हुई नाकामियों और विश्वासघातों के मद्देनज़र मौजूदा परिस्थिति एक आक्रामक मोर्चा खोलने के लिए अनुकूल दिखती है। वाम को इस जंग में अपनी भूमिका निभाने के लिए अब कमर कस लेनी चाहिए।
यह लेख भाकपा माले के के मुखपत्र लिबरेशन(मासिक) में प्रकाश्य है।
(यह लेख भाकपा माले के के मुखपत्र लिबरेशन (मासिक) में प्रकाश्य है। अनुवाद – अभिषेक श्रीवास्तव)
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