राहुल सांकृत्यायन (9 अप्रैल 1893 – 14 अप्रैल 1963) पर विशेष
मनुवादी भारतीय सामाजिक व्यवस्था के जातिवादी किले को ध्वस्त करने की मुहिम आधुनिक भारत में जोती राव फुले ने शुरू की। उन्होंने ब्राह्मणवाद को खुली चुनौती दी और उसके बरक्स बहुजनों की श्रमण परंपरा को स्थापित किया। आंबेडकर और पेरियार ने इसे और व्यापक बनाया। इस शुरूआत का व्यापक असर भारतीय समाज पर पड़ा, लेकिन सवर्ण हिंदू समाज का बड़ा हि्स्सा इसे अप्रभावित रहा और अपनी उच्च जातीय श्रेष्ठता के दंभ से चिपका रहा। लेकिन सवर्ण समुदाय से भी कुछ ऐसे व्यक्तित्व हुए जिन्होंने ब्राह्मणवाद और जाति व्यवस्था को खुली चुनौती दी और इसके विनाश को नए समाज की रचना के लिए अनिवार्य बताया। ऐसे व्यक्तित्वों में से एक राहुल सांकृत्यायन हैं।
वे एक ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने हिंदू धर्म, ईश्वर और मिथकों पर टिकी हिंदू संस्कृति के विध्वंस का आह्वान किया। उनका मानना था कि ऐसा किए बिना नए समाज की रचना नहीं की जा सकती है। उन्होंने अपनी किताब ‘तुम्हारी क्षय’ में लिखा कि, ‘जिन ऋषियों को स्वर्ग, वेदान्त और ब्रह्म पर बड़े–बड़े व्याख्यान और सत्संग करने की फुर्सत थी, जो दान और यज्ञ पर बड़े–बड़े पोथे लिख सकते थे, क्योंकि इससे उनको और उनकी संतानों को फायदा था, परंतु मनुष्यों के ऊपर पशुओं की तरह होते अत्याचारों को आमूल नष्ट करने के लिए उन्होंने कोई प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं समझी। उन ऋषियों से आज के जमाने के साधारण आदमी में भी मानवता के गुण अधिक हैं।’ वे अपनी किताब ‘तुम्हारी क्षय’ में उन सभी चीजों के विनाश की कामना करते हैं, जिन पर ब्राह्मणवादी गर्व करते हैं। वे साफ शब्दों में घोषणा करते हैं , ‘जात–पांत की क्षय करने से हमारे देश का भविष्य उज्जवल हो सकता है।’

राहुल सांकृत्यायन (9 अप्रैल 1893 – 14 अप्रैल 1963) का जन्म गाय पट्टी (काउ बेल्ट) में एक ब्राहमण परिवार में हुआ था। वह वेदान्ती, आर्य समाजी, बौद्ध मतावलंबी से होते हुए मार्क्सवादी बने। विद्रोही चेतना, न्यायबोध और जिज्ञासा वृति ने पूरी तरह से ब्राहमणवादी जातिवादी हिंदू–संस्कृति के खिलाफ खड़ा कर दिया। फुले और आंबेडकर की तरह उन्हें जातिवादी अपमान का व्यक्तिगत तौर पर तो सामना तो नहीं करना पड़ा, लेकिन सनातनी हिंदुओं की लाठियां जरूर खानी पड़ी। राहुल सांकृत्यायन अपने अपार शास्त्र ज्ञान और जीवन अनुभवों के चलते हिंदुओं को सीधे ललकारते थे, उनकी पतनशीलता और गलाजत को उजागर करते थे। वे अपनी किताबों में विशेषकर ‘तुम्हारी क्षय’ में हिंदुओं के समाज, संस्कृति, धर्म, भगवान, सदाचार, जात–पांत के अमानवीय चेहरे को बेनकाब करते हैं। वे स्वतंत्रता, समता और भाईचारे पर आधारित एक उन्नत समाज का सपना देखते हैं। उन्हें इस बात का गहराई से एहसास है कि मध्यकालीन बर्बर मूल्यों पर आधारित समाज और उसकी व्यवस्था का विध्वंस किए बिना नए समाज की रचना नहीं की जा सकती है। वे साफ शब्दों में हिंदू समाज व्यवस्था, धर्म, जाति और उसके भगवानों के नाश का आह्वान करते हैं। वे हिंदू समाज व्यवस्था के सर्वनाश का आह्वान करते हुए सवाल पूछते हैं कि ‘हर पीढ़ी के करोड़ो व्यक्तियों के जीवन को कलुषित, पीड़ित और कंटकाकीर्ण बनाकर क्या यह समाज अपनी नर–पिशाचा का परिचय नहीं देता है? ऐसे समाज के लिए हमारे दिल में क्या इज्जत हो सकती है, क्या सहानुभूति हो सकती है और भीतर से जघन्य, कुत्सित कर्म! धिक्कार है ऐसे समाज को!! सर्वनाश हो ऐसे समाज का!!!’
राहुल सांकृत्यायन अपने अनुभव और अध्ययन से इस निष्कर्ष पर पुहंच चुके थे कि धर्म के आधार पर बंधुत्व आधारित मानवीय समाज की रचना नहीं की जा सकती है। चाहे वह कोई भी धर्म हो। वे ‘तुम्हारे धर्म की क्षय’ में लिखते हैं कि ‘पिछले दो हजार वर्षों का इतिहास बतला रहा है कि…मजहबों ने एक–दूसरे के ऊपर जुल्म के कितने पहाड़ ढाये।… अपने–अपने खुदा और भगवान के नाम पर, अपनी–अपनी किताबों और पाखंडों के नाम पर मनुष्य के खून को उन्होंने (धर्मों ने) पानी से भी सस्ता कर दिखलाया।… हिंदुस्तान की भूमि भी ऐसी धार्मिक मतान्धता का शिकार रही है।… इस्लाम के आने से पहले भी क्या मजहब ने वेदमंत्र के बोलने और सुनने वालों के मुंह और कानों में पिघले शीशे और लाह नहीं भरा?… इस्लाम के आने के बाद तो हिंदू–धर्म और इस्लाम के खूँरेज झगड़े आज तक चल रहे हैं।’ इसी के चलते राहुल साफ घोषणा करते हैं कि हिंदुस्तानियों की एकता मजहबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मजहबों की चिता पर होगी। वे लिखते हैं, ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’– इस सफेद झूठ का क्या ठिकाना। अगर मजहब बैर नहीं सिखलाता तो चोटी–दाढ़ी की लड़ाई में हजार बरस से आज तक हमारा मुल्क पामाल क्यों हैं? पुराने इतिहास को छोड़ दीजिए, आज भी हिंदुस्तान के शहरों और गांवों में एक मजहब वालों को दूसरे मजहब वालों के खून का प्यासा कौन बना रहा हैं? और कौन गाय खाने वालों को गोबर खाने वालों से लड़ा रहा है। असल बात यह है कि “मजहब तो है सिखाता आपस में बैर रखना। भाई को सिखाता है भाई का खून पीना।” कौए को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता। कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मजहबों की बीमारी स्वाभाविक है। उसका, मौत को छोड़कर इलाज नहीं हैं।’

धर्म ईश्वर के नाम पर टिका है, जिसे वह सृष्टिकर्ता और विश्व का संचालक मानता है। राहुल सांकृत्यायन ईश्वर के अस्तित्व से ही इंकार करते हैं। वे स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि ईश्वर अंधकार की उपज है। वे लिखते हैं– ‘जिस समस्या, जिस प्रश्न, जिस प्राकृतिक रहस्य को जानने में आदमी असमर्थ समझता था, उसी के लिए ईश्वर का ख्याल कर लेता था। दरअसल ईश्वर का ख्याल है भी तो अंधकार की ऊपज।… अज्ञान का दूसरा नाम ही ईश्वर है।’ वे इस बात को बार–बार रेखांकित करते हैं कि अन्याय और अत्याचार को बनाये रखने का शोषकों–उत्पीडितों का एक उपकरण हैं। वे लिखते हैं, ‘अज्ञान और असमर्थता के अतिरिक्त यदि कोई और भी आधार ईश्वर–विश्वास के लिए है, तो वह धनिकों और धूर्तों की अपनी स्वार्थ–रक्षा का प्रयास है। समाज में होते अत्याचारों और अन्यायों को वैध साबित करने के लिए उन्होंने ईश्वर का बहाना ढूंढ लिया है। धर्म की धोखा–धड़ी को चलाने और उसे न्यायपूर्ण साबित करने के लिए ईश्वर का ख्याल बहुत सहायक है।’
राहुल सांकृत्यायन हिंदू धर्म, ईश्वर और मिथकों पर टिकी हिंदू संस्कृति के विध्वंस का भी आह्वान करते हैं। वे ‘तुम्हारे इतिहासाभिमान और संस्कृति के क्षय’ में लिखते हैं कि आजकल की तरह उस समय भी ‘इतिहास’– ‘इतिहास’—‘संस्कृति’-‘संस्कृति’ बहुत चिल्लाया जाता है। रामराज्य की दुहाई दी जाती है। हिंदुओं की संस्कृति और रामराज्य की हकीकत की पोल खोलते हुए वे लिखते हैं, ‘हिंदुओं के इतिहास में राम का स्थान बहुत ऊँचा है। आजकल के हमारे बड़े नेता गांधी जी मौके–ब–मौके रामराज्य की दुहाई दिया करते हैं। वह रामराज्य कैसा होगा, जिसमें कि बेचारे शूद्र शम्बुक का सिर्फ यही अपराध था कि वह धर्म कमाने के लिए तपस्या कर रहा था और इसके लिए राम जैसे ‘अवतार’ और ‘धर्मात्मा राजा’ ने उनकी गर्दन काट ली? वह राजराज्य कैसा रहा होगा जिसमें किसी आदमी के कह देने मात्र से राम ने गर्भिणी सीता को जंगल में छोड़ दिया?’

हिंदू धर्म और ईश्वर से अपनी मुक्ति की प्रक्रिया का वर्णन करते हुए, उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘मेरी जीवन यात्रा’ में लिखा, “आर्य समाज का प्रभाव रहने से सिद्धान्त में मैं द्वैतवादी हो रामानुज का समर्थक रहा। इसी दार्शनिक ऊहापोह में बौद्ध दर्शन के लिये अधिक जिज्ञासा उत्पन्न हो गयी, रामानुज और शंकर की ओर से, अन्ततः वर्णाश्रम धर्म का श्राद्ध कर दिया। ।’’ लेकिन राहुल कहां रूकने वाले थे। अपनी आगे की जीवन–यात्रा के बारे में उन्होंने लिखा, ‘अब मेरे आर्य सामाजिक और जन्मजात विचार छूट रहे थे। अन्त में, इस सृष्टि का कर्ता भी है, सिर्फ इस पर मेरा विश्वास रह गया था। किन्तु अब तक मुझे यह नहीं मालूम था कि मुझे बुद्ध और ईश्वर में से एक को चुनने की चुनौती दी जायेगी। मैंने पहले कोशिश की, ईश्वर और बुद्ध दोनों को एक साथ लेकर चलने की, किन्तु उस पर पग–पग पर आपत्तियां पड़ने लगीं। दो–तीन महीने के भीतर ही मुझे यह प्रयत्न बेकार मालूम होने लगा। ईश्वर और बुद्ध साथ नहीं रह सकते, यह साफ हो गया और यह भी स्पष्ट मालूम होने लगा कि ईश्वर सिर्फ काल्पनिक चीज है, बुद्ध यथार्थ वक्ता हैं। तब, कई हफ्तों तक हृदय में एक दूसरी बेचैनी पैदा हुई– मालूम होता था, चिरकाल से चला आता एक भारी अवलम्ब लुप्त हो रहा है। किन्तु मैंने हमेशा बुद्ध को अपना पथप्रदर्शक बनाया था, और कुछ ही समय बाद उन काल्पनिक भ्रान्तियों और भीत्तियों का ख्याल आने से अपने भोलेपन पर हँसी आने लगी। अब मुझे डार्विन के विकासवाद की सच्चाई मालूम होने लगी, अब मार्क्सवाद की सच्चाई हृदय और मस्तिष्क में पेबस्त जान पड़ने लगी।’’ अन्ततोगत्वा राहुल सांकृत्यायन ने एक धर्म के रूप में बौद्ध धर्म से भी नाता तोड़ लिया। वे बुद्ध को एक महान इंसान और महान विचारक तो मानते रहे, लेकिन धर्म के रूप में बुद्ध धर्म से भी किनारा कर लिया और पूरी तरह से वैज्ञानिक भौतिकवाद को अपना लिया। ‘जीवन यात्रा’ में उन्होंने लिखा है– ‘कोई समय था कि जब मैं धर्मप्रचारक बनने का तीव्र अनुरागी था, लेकिन अब अवस्था बिल्कुल बदल गयी थी। बौद्ध धर्म के साथ भी मेरा कच्चे धागे का ही सम्बन्ध था। हाँ बुद्ध के प्रति मेरी श्रद्धा कभी कम नहीं हुई। मैं उन्हें भारत का सबसे बड़ा विचारक मानता रहा हूँ और मैं समझता हूँ कि जिस वक्त दुनिया के धर्म का नामोनिशान न रह जायेगा, उस वक्त भी लोग बड़े सम्मान के साथ बुद्ध का नाम लेंगे।’’ अकारण नहीं है कि वे धर्म और ईश्वर दोनों को गरीबों का सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे और चाहते थे कि जितना जल्दी इनका क्षय होगा, मानवता उतनी ही जल्दी उन्नति के शिखरों को छूयेगी।
इस प्रकार हम देखते हैं कि राहुल सांकृत्यायन हिंदू संस्कृति के मनुष्य विरोधी मूल्यों पर निर्णायक हमला तो करते ही हैं, वह यह भी मानते हैं कि मनुष्य को धर्म की कोई आवश्यकता नहीं हैं, इंसान वैज्ञानिक विचारों के आधार पर खूबसूरत समाज का निर्माण कर सकता है, एक बेहतर जिंदगी जी सकता हैं। सबसे बड़ी बात यह कि वह उत्पादन– संपत्ति संबंधों में क्रान्तिकारी परिवर्तन के हिमायती हैं, क्योंकि मार्क्स की इस बात से पूरी तरह सहमत हैं कि भौतिक आधारों में क्रान्तिकारी परिवर्तन किए बिना राजनीतिक, सामाजिक–सांस्कृतिक संबंधों में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाया नहीं जा सकता है और जो परिवर्तन लाया जायेगा, उसे टिकाए रखना मुश्किल होगा। हां वे वामपंथियों में अकेले व्यक्ति थे, जो इस यांत्रिक और जड़सूत्रवादी सोच के विरोधी थे कि आधार में परिवर्तन से अपने आप जाति व्यवस्था टूट जायेगा। इसके साथ ही हिंदी क्षेत्र के वे एकमात्र वामपंथी थे, जो ब्राहमणवादी हिंदू धर्म–संस्कृति पर करारी चोट करते थे और भारत में सामंतवाद की विशिष्ट संरचना जाति को समझते थे और आधार और अधिरचना (जाति) दोनों के खिलाफ एक साथ निर्णायक संघर्ष के हिमायती थे। इस समझ को कायम करने में ब्राहमण विरोधी बौद्ध धर्म के उनके गहन अध्ययन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनकी तीन किताबें ‘ बौद्ध दर्शन’, ‘दर्शन– दिग्दर्शन’ और ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ इस दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।
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