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किसकी कृपा से मायाबेन कोडनानी को मिला अभयदान?

नरोदा पाटिया नरसंहार मामले में पीड़ितों की गवाही को हाईकोर्ट ने अविश्वसनीय करार दिया। एसआईटी की जांच पर भी कोर्ट ने सवाल उठाया। नरसंहार की सूत्रधार मायाबेन कोडनानी को मिली 28 साल की सजा एक झटके में खत्म कर दी गयी। कमल चंद्रवंशी की रिपोर्ट :

 नरोदा पाटिया नरसंहार, कोर्ट और कोडनानी

गुजरात के नरोदा पाटिया नरसंहार में आरोपी, तत्कालीन मोदी सरकार की मंत्री मायाबेन कोडनानी को गुजरात हाईकोर्ट ने राहत दी है। यह अजीब संयोग है कि उनको ऐसे समय में बरी किया है जब न्यायपालिका की साख पर सवाल ही नहीं उठा है, बल्कि उसके शीर्ष पर आसीन न्यायाधीश को लेकर महाभियोग चलाने का विपक्ष का प्रस्ताव है। ग्यारह साल पहले, 2007 में लंबी जद्दोजहद के बाद मायाबेन के खिलाफ चार्जशीट दायर हुई थी। उनके पक्ष में अमित शाह ने भी गवाही दी थी। अदालत ने कोडनानी को बरी करते हुए कहा कि ऐसा कोई गवाह पेश नहीं किया गया जिसने माया कोडनानी को भीड़ को उकसाते देखा हो। साथ ही, ऐसा भी कोई गवाह नहीं मिला जिसने कोडनानी को कार से बाहर आते देखा हो। करीब एक दर्जन चश्मदीदों की गवाही को कोर्ट ने खारिज कर दिया क्योंकि वह गवाह विश्वसनीय नहीं थे।

गुजरात हाईकोर्ट से रिहाई मिलने के बाद नरोदा पाटिया दंगे की कथित सूत्रधार माया कोडनानी

कोर्ट के फैसले पर सीपीएम नेता प्रकाश करात की पहली प्रतिक्रिया कुछ यों आई- “इन दिनों हिंदू संगठनों से जुड़े आरोपियों के रिहा होने का ट्रेंड ही चल पड़ा है।” आपको बता दें कि पिछले ही दिनों मक्का-मस्जिद ब्लास्ट के प्रमुख आरोपी बरी हो चुके हैं जिनमें असीमानंद भी एक हैं। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि रिहा हो रहे लोग बीजेपी के सहयोगी संगठनों से जुड़े हैं, तो क्या केंद्र में उसकी सरकार होने का असर अदालती फैसलों पर पड़ रहा है? जनवरी में ही चार न्यायाधीशों की अभूतपूर्व प्रेस कॉफ्रेंस में जजों ने कहा था कि न्यायपालिका में “सब कुछ ठीक नहीं” चल रहा है। क्या इस ‘सब कुछ ठीक नहीं’ में फैसले भी शामिल हैं। क्या नैनीताल हाईकोर्ट के जज जोसेफ को लेकर सरकार को कोई अपनी स्थिति दिखाने में किरकिरी हुई थी। बताते चलें कि उत्तराखंड में केंद्र ने हरीश रावत सरकार को हटाकर वहां राष्ट्रपति शासन लगाया था, जिसे सुनवाई में हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस केएम जोसेफ ने केंद्र सरकार को गलत पाया और राष्ट्रपति शासन के आदेश को रद्द कर दिया था।

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‘फर्स्ट पोस्ट’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, “सुप्रीम कोर्ट की बनाई एसआईटी ने इस मामले की बारीकी से जांच की थी और माया कोडनानी, बाबू बजरंगी और 59 दूसरे आरोपियों के खिलाफ पुख्ता सबूत जुटाए थे। हालांकि एसआईटी कोर्ट ने इस मामले मे 32 लोगों को दोषी ठहराया था, जिसमें माया कोडनानी और बाबू बजरंगी भी शामिल थे। लेकिन निचली अदालत ने सबूतों के अभाव में 29 दूसरे आरोपियों को बरी कर दिया था। अब हाईकोर्ट ने एसआईटी कोर्ट के फैसले को पूरी तरह खारिज नहीं किया है। हालांकि उसने माया कोडनानी को रिहा कर दिया और बाबू बजरंगी की सजा में रियायत दे दी। हाईकोर्ट ने यह फैसला सबूतों की कमी की वजह से दिया।”

गुजरात हाईकोर्ट

रिपोर्ट कहती है, “कोडनानी का बरी होना एक ऐसे सिलसिले की कड़ी है जिसने भारत की आपराधिक दंड संहिता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं.”

‘ऑन देयर वॉच’ में सेंटर फ़ार स्टडी ऑफ़ सोसाइटी एंड सेक्युलरिज़्म के राम पुनियानी ने लिखा हैं कि सांप्रदायिक हिंसा और वह भी निशाना बनाकर की गई हिंसा भारतीय समाज पर लानत है। और सबसे अहम बात यह कि हिंसा के दोषियों को छोड़ देना सत्तातंत्र की कथित विफलता, असल में उनकी साजिश होती है। इसी तरह हर्ष मंदर कहते हैं, “भारतीय इतिहास में कई परेशान करने वाली तारीख़ें हैं जहां कई अध्याय सामूहिक हिंसा से रक्त-रंजित हैं। इस इतिहास में सामूहिक हिंसा के दौरान बड़े पैमाने पर धार्मिक पहचान को आधार बनाकर पुरुषों,  महिलाओं और कई बार बच्चों तक को निशाना बनाया गया। भारत के संविधान ने सुस्पष्ट तौर पर धार्मिक अल्पसंख्यकों को समान संरक्षण और बराबरी के कानून की गारंटी दी है। लेकिन वास्तविकता में भारत का रिकॉर्ड देखें तो उसने समान कानूनी अधिकार,  समान संरक्षण और सुरक्षा के भरोसे का धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक संविधान में घालमेल कर दिया है।”

रोदा पाटिया पर फैसले के बाद दंगों में अपने 8 परिजनों को गंवाने वाले परिवार ने कहा, “हमारे सामने ही हमारे परिजनों की नृशंस हत्या हुई। इसके बाद भी कोर्ट ने माया कोडनानी और तमाम लोगों को बरी कर दिया। अगर मामले में निचली अदालत से दोषी करार दिए गए सभी लोग निर्दोष थे तो हमारे परिवार और बच्चों की हत्या किन लोगों ने की? जिस प्रकार से कोर्ट ने माया कोडनानी को रिहा कर दिया, लगता है कि बाकी भी जल्द बाहर आ जाएंगे।”

दंगे के दौरान अपने परिजनों की हत्या के बाद विलाप करती एक पीड़िता (फाइल फोटो)

प्रीता झा की ग्राउंड रिपोर्ट

प्रीता झा ने लिखा है कि सामाजिक संगठनों की रिपोर्ट, गवाहों के बयान और तहलका पत्रिका के एक स्टिंग आपरेशन से यह बात पुख्ता तौर पर साफ हुई थी कि नरोदा पाटिया में 28 फरवरी 2002 की सुबह मुसलमानों पर उनके इलाकों में हमला हुआ। यह हमला पांच से दस हजार लोगों की भीड़ ने किया जो भाले, तलवार और दूसरे हथियारों से लैस थे। भीड़ ने पूर्व नियोजित तरीके से एसिड बमों और पेट्रोल बमों का भी इस्तेमाल किया। दंगाइयों ने व्यावसायिक ठिकानों, घरों, कारों और टैक्सियों आदि को नष्ट करने के लिए गैस सिलेंडरों का इस्तेमाल किया। धार्मिक इमारतों, मस्जिदों,  मकबरों जैसे प्रतीकों को दंगाइयों ने निशाना बनाया गया और नष्ट कर दिया। नरोदा निवासियों ने दावा किया कि जब उन्होंने खुद के बचाव की कोशिश की तो उन पर पुलिस द्वारा गोलियां चलाई गई। नरोदा गांव और पाटिया में सतरह घंटे या इससे ज्यादा समय तक हमले हुए और इस दौरान कई महिलाओं और लड़कियों से बलात्कार किया गया। सबसे भयानक, रोंगटे खड़े कर देने वाले यहां के ब्यौरों में कुछ मामलों में क्रूरता, हत्या और बलात्कार के विवरण हैं जो नरसंहार के दौरान मानसिक विकृतियों को बताते हैं। मसलन अनुमानत: 150 लोगों को जिंदा जला दिया गया, अनेक बच्चियों व महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार को अंजाम दिया गया और जमकर मारकाट किया गया। हिंसा में संलिप्तता और मिलीभगत को लेकर कई बड़े और हाई प्रोफ़ाइल विश्व हिंदू परिषद और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को पीड़ितों ने नामजद किया। उदाहरण के लिए- गृह राज्य मंत्री गोर्धन जडाफिया और बीजेपी विधायक मायाबेन कोडनानी को कई लोगों ने हिंसा उकसाने के आरोप में नामजद अभियुक्त बनाया।

विश्व हिंदू परिषद का नेता बाबू बजरंगी और मायाबेन कोडनानी

नरोदा पाटिया मामला भीषण जनसंहार था जहां पुलिस ने घोर लापरवाही बरती और जहां सबूतों को नष्ट करने के लिए पुलिस ने सक्रिय भूमिका निभाई। इस केस में तहलका पत्रिका और एनजीओ ‘एक्शन एड’ के वकील की मदद से चार्जशीट के अध्ययन के बाद निम्नलिखित खामियां पाईं थीं:

  • 41 शवों का पोस्टमार्टम नहीं किया: पुलिस ने नरोदा पाटिया और नरोदा गांव से बरामद किए गए 41 शवों का पोस्टमार्टम नहीं कराया। इस कृत्य में हुई बड़ी लापरवाही और चूक के लिए किसी से भी कोई स्पष्टीकरण नहीं मांगा गया।
  • महत्वपूर्ण साक्ष्य नष्ट किए गए: बड़ी तादाद में जिन लोगों को गड्ढे में जिंदा दफन कर दिया गया था, पुलिस ने उनकी कोई छानबीन तक नहीं की। वहां से मिट्टी के भी नमूने नहीं लिए गए, बचे हुए जले ईंधन या मानव शरीर के अवशेषों के टिशूज भी सैंपल के लिए नहीं लिए गए। पुलिस पक्ष ने नरसंहार में गड्ढे का जिक्र तक नहीं किया.
  • पुलिस ने दर्ज नहीं किया आखिरी बयान: सात पीडितों का पुलिस ने आखिरी बयान दर्ज नहीं किया जिनमें से दो की लंबे समय तक चले इलाज के बाद 11 मार्च 2002 को मौत हुई। लेकिन इनका भी चार्जशीट में कोई स्पष्टीकरण नहीं था कि उनके समय रहते बयान क्यों नहीं दर्ज किए जा सके।
  • बलात्कार होने का उल्लेख नहीं: नरोदा गांव और नरोदा पाटिया नरसंहार में तीन आरोप पत्र दायर किए गए थे। यहां हुए किसी में एक भी बलात्कार मामले का जिक्र नहीं किया गया हालांकि दर्जनभर पीड़ितों ने बताया था कि महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। कम से कम एक पोस्टमार्टम रिपोर्ट में यौन उत्पीड़न किए जाने के संकेत मिले, लेकिन फिर भी उसे लेकर जांच नहीं की गई।
  • घटनास्थल से बरामद एक आरोपी के मोबाइल की जांच नहीं: नरसंहार वाले दिन मिर्जा हुसैन बीवी मोहेरबल नाम की एक पीडित को नरोदा पाटिया में अपने आवास के पास एक मोबाइल फोन बरामद किया। यह फोन एक आरोपी ने घबराहट और अनजाने में गिरा दिया जिसे पुलिस को सौंप दिया गया। अपराध शाखा के अतिरिक्त पुलिस आयुक्त ए. के. सुरोलिया ने एजांच में इसे नरसंहार में आरोपी रहे अशोक सिंधी का मोबाइल बताया। सुरोलिया ने इस मोबाइल की जांच का काम शुरू कराया और सिंधी समेत बाबू बजरंगी (गुजरात में बजरंग दल का एक राज्य स्तरीय नेता) और दूसरे अन्य आरोपियों की कॉल डिटेल निकालनी शुरू की। लेकिन इसके फौरन बाद सुरोलिया का तबादला कर दिया गया।
  • प्रमुख आरोपियों के फरार होने पर कार्रवाई नहीं: कई बड़े आरोपियों को लेकर जब पुलिस पर उनके खिलाफ केस दर्ज करने का दबाव बढ़ा तो इन आरोपियों को फरार होने के लिए पुलिस ने ही मदद की। बाबू बजरंगी, किशन कोरानी, प्रकाश राठौड़ और सुरेश रिचर्ड ऐसे उदाहरण हैं जो प्राथमिकी दर्ज होने के तीन महीने बाद गिरफ्तार किए जा सके। बिपिन पांचाल को डेढ़ साल बाद गिरफ्तार कर किया गया था। लेकिन पुलिस ने इनके फरार होने के समय किसी भी सामान्य प्रक्रिया का पालन नहीं किया। आरोपियों के खिलाफ उनके घर के बाहर नोटिस चिपका कर उसे भगोड़ा घोषित किया जाना चाहिए था या उनकी फिर संपत्ति की कुर्की जब्ती जैसे नोटिस लगाए जाने चाहिए थे, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।

2003 तक पीड़ितों और नागरिक सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ता, जो लोगों के बीच काम करते रहे, उन्होंने दोषपूर्ण और भेदभाव तरीके से की गई जांच, अप्रभावी और पक्षपातपूर्ण अभियोजन और गुजरात सरकार की ओर से गोधरा कांड के बाद के मामलों में दोषियों की जमानत के लिए खिलाफ अपील दायर नहीं करने जैसे मामलों का खुलासा किया। 2003 में एक रिट याचिका ने सुप्रीम कोर्ट का इस ओर ध्यान खींचा जिसमें जानबूझकर और सुनियोजित तरीके से ‘सार’ क्लोजर की श्रेणियों में रखकर मामले बंद किए जाते रहे। याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में निम्न तर्क दिए :

  • करीब 2000 मामलों में क्लोजर रिपोर्ट लगाने को लेकर पुलिस की दायर की गई अंधाधुंध स्वीकृतियां अविवेकपूर्ण और कानून के विरुद्ध हैं क्योंकि जिस समय ज्यूडिशरी ने क्लोजर को लेकर आदेश दिया, उन्हें लेकर गैर-आवेदन के सबूत थे।
  •  क्लोजर में कानूनी प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया क्योंकि केस बंद करने से पहले पीड़ित/शिकायतकर्ता/मुखबिर किसी को भी इस बारे में नोटिस नहीं दिया गया जो जरूरी था।
एसआईटी की विशेष अदालत में पेशी के लिए जाती माया कोडनानी

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में गुजरात सरकार को निम्नलिखित आदेश दिए थे :

  • डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल और रेंज इंस्पेक्टर जनरल का एक प्रकोष्ठ गठित किया जाए जो उन 2000 मामलों की समीक्षा करेगा जिनको क्लोजर रिपोर्ट लगाकर बंद किया गया,  साथ ही उसे आवश्यक लगे कि उनमें किसी को फिर से खोलने की आवश्यकता है तो वह ऐसा करे और दोबारा जांच करे।
  • सरकार को निर्देश दिया गया कि वह हर तिमाही पर सुप्रीम कोर्ट को अपनी रिपोर्ट सौंपे। कोर्ट के आदेश के बाद पहली रिपोर्ट 90 दिन के भीतर यानी 11 नवंबर 2004 को दी जानी थी।
  • गुजरात सरकार को यह भी निर्देश दिया गया कि अगर मामले की समीक्षा के बाद उसे निष्कर्ष में लगता है कि मामले की दोबारा जांच की जरूरत नहीं है तो वह इसके सारे कारणों को दर्ज करे। इसके लिए हर सुविधा ऑनलाइन मुहैया कराई जाए ताकि अगर किसी की रुचि इस बात में हो कि वह कोर्ट के ध्यान में कोई बात लाना चाहता है, तो वह ऐसा कर सके।

बहरहाल, गुजरात सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों का उसकी मूल भावना के अनुरूप पालन करने से इनकार कर दिया। इसे लेकर उसने 2000 मामलों में सिर्फ अठारह में सतही जानकारी उपलब्ध कराई और सभी को आगे बिना कोई जांच किए बंद कर दिया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एसआईटी ने नौ गंभीर मामलों को विशेष तौर पर देखा। इनमें गुलबर्ग, नरोदा गाम, नरोदा पाटिया, सरदारपुरा, आणंद की ओध गांव में दो मामले, विसनगर, मेहसाणा और गोधरा शामिल थे।

सवाल पुलिस के रवैये पर 

एसआईटी ने अपनी रिपोर्ट में कई पीड़ितों के साक्ष्यों और गैर-सरकारी संगठनों के दस्तावेजों के किए दावों का पक्ष लिया और उनका समर्थन किया जिनमें नरोदा पाटिया (और गुलबर्ग सोसायटी) मामले की पुलिस ने बदनीयती से जांच की बात कही गई थी। रिपोर्ट में दावा किया गया कि पुलिस ने जानबूझकर दंगों में शामिल संघ परिवार और बीजेपी नेताओं के मोबाइल नंबरों की कॉल्स डिटेल्स की अनदेखी की। इन नेताओं में सबसे अहम थे गुजरात वीएचपी के अध्यक्ष जयदीप पटेल और बीजेपी की नेता मायाबेन कोडनानी।

एसआईटी रिपोर्ट में यह उल्लेख किया कि पुलिस प्रशासन यह बताने में विफल रहा कि नरोदा पाटिया में दोपहर 12 तक और मेघनीनगर (अहमदाबाद शहर) में 28 फरवरी 2002 को दोपहर बाद 2 बजे करीब 200 मुसलमानों को मार दिया गया था। अपनी ड्यूटी के दौरान उन्होंने अपने दायित्वों/कर्तव्यों का पालन नहीं किया।

एसआईटी का इशारा

गुजरात के मामले में एसआईटी ने सामूहिक हिंसा के कई केस में क्लोजर सार लगाकर बंद करने और फिर उनमें कम से कम को भविष्य में दोबारा जांच के खोलने को महज संयोग नहीं माना था। मामले को सार क्लोजर लगाकर यानी सरसरी तौर पर देखकर इसलिए बंद कर दिया जाता है क्योंकि उसकी प्रामाणिक की ठीक तरह से जांच नहीं होती। कई मामलों में जो खासकर जो आरोपी राजनीतिक रूप से प्रभावशाली रहे हैं उन्हें बचाने के लिए पुलिस ने गुजरात में सक्रिय भूमिका निभाई और उसने सबूतों को नष्ट करने का काम किया। बिलकीस बानो और नरोदा पाटिया मामला इसके सबसे जीते-जागते उदाहरण हैं।

कानूनी शिकंजे में ऐसे आयीं कोडनानी

एसआईटी की स्पेशल कोर्ट ने उन्हें 28 साल की सजा सुनाई थी। स्पेशल कोर्ट ने फैसले में कोडनानी को नरोदा पाटिया नरसंहार का सरगना कहा था। लेकिन हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि घटना वाली जगह पर माया कोडनानी की मौजूदगी साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं हैं। ऐसे में उन्हें संदेह का लाभ देते हुए बरी किया जाता है। कोडनानी 2009 तक मंत्री थीं। वह 2007 में गुजरात की मोदी सरकार में महिला-बाल विकास मंत्री थीं। केस दर्ज होने के बाद उन्होंने मार्च 2009 में इस्तीफा दे दिया था। एसआईटी की स्पेशल कोर्ट ने उसे आईपीसी की धारा 326 (खतरनाक हथियारों या माध्यम से गंभीर चोट पहुंचाना) के तहत 10 साल जेल की अलग से सजा सुनाई गई थी। इस तरह कोडनानी को कुल 28 साल की सजा हुई थी। बाद में उन्हें जमानत मिल गई थी। माया के पिता आरएसएस से जुड़े थे। 1995 में माया ने अहमदाबाद शहरी निकाय का चुनाव लड़कर राजनीति में प्रवेश किया। 1998 में पहली बार विधायक बनीं। उसके साथ केस में 61 लोगों को आरोपी बनाया गया था। स्पेशल कोर्ट ने 32 (कोडनानी को 28 साल, बजरंगी को उम्रकैद. बाकी 29 दोषियों में से 7 को 31 साल, जबकि 22 को 24 साल की सजा सुनाई गई)। 29 आरोपियों को हाईकोर्ट ने बरी कर दिया। साथ ही 14 में से 12 (बजरंगी समेत) को 21 साल जेल में बिताने होंगे। एक आरोपी की ट्रायल के दौरान मौत हो गई। ट्रायल कोर्ट ने जिन 29 आरोपियों को बरी किया था, हाईकोर्ट ने उनमें से भी 3 को दोषी ठहराया।

संदर्भ सामग्री :

  • ऑन देयर वॉच, मास वायलेंस एंड स्टेट एपीथी इन इंडिया, एग्जामिनिंग द रिकॉर्ड्स, गुजरात 2002.  संपादन सुरभि चोपड़ा, प्रीता झा, थ्री एसेज़ कलेक्शन 2014
  • कंसंर्ड सिटीजन ट्रिब्यूनल, क्राइम अंगेस्ट ह्यूमनिटी, वॉल्यूम-1 (मुंबई: सिटिजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस, 2005) 36-48,
  • तहलका, अंक 46, 1 दिसंबर 2007.
  • कंसंर्ड सिटीजन ट्रिब्यूनल, क्राइम अंगेस्ट ह्यूमनिटी, वॉल्यूम-1 (मुंबई: सिटिजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस, 2005) 36-43, अनुभाग- नरोदा गाम और पाटिया
  • सुप्रीम कोर्ट का आदेश, दिनांक 26 मार्च 2008, विविध आपराधिक आवेदन, रिट याचिका (आपराधिक) नं 109, 2003
  • “ए विंडो टू हॉरर,” तहलका, वॉल्यूम 5, अंक-6, 26 अप्रैल 2008
  • तहलका, वॉल्यूम- आठ
  • एसआईटी रिपोर्ट, पेज 101-105.
  • कोडनानीज़ गिल्ड नॉट प्रोवेन वियोन्ड डाउट्स, द हिंदू, 21 अप्रैल 2018

फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

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लेखक के बारे में

कमल चंद्रवंशी

लेखक दिल्ली के एक प्रमुख मीडिया संस्थान में कार्यरत टीवी पत्रकार हैं।

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