जयंतीभाई मनानी के अचानक निधन की सूचना पाकर मैं आवाक रह गया था। देवेंद्र भाई पटेल और मैं घंटों अपने केबिन में उनके महान गुणों को याद करते रहे। उनके चुनौती भरे कार्यभारों को याद करते रहे, जो वे छोड़े गए हैं और जिन्हें हमें पूरा करना है। हमने उनके चाहने वालों को उनके निधन की सूचना दिया।
भुलाए न जा सकने वाले संबंधों की शुरूआत
व्यक्तिगत तौर पर मैंने अपना सबसे करीबी दोस्त और वैचारिक मार्गदर्शक खो दिया। 1990 के दशक में मैं पहली बार उनसे गुजरात में बामसेफ की एक मीटिंग में मिला था। उस समय बामसेफ अनुसूचित जातियों, जनजातियों, ओबीसी और अल्पसंख्यकों के बीच सक्रिय हो चुका था। उन दिनों मंडल कमीशन की रिपोर्ट सबसे ज्वलंत मुद्दा था।
गुजरात में 1981, 1985 और 1990 में पहले ही आरक्षण विरोधी तीन बड़े आंदोलन हो चुके थे। मैं 1994 में बामसेफ में शामिल हुआ। ओबसी समुदाय के हम पांच लोग इस संगठन के अगुवा थे। इन पांच लोगों में करनाभाई मालधारी, वरसीभाई गाधवी, जयंतीभाई मनानी, विपुल जादव और मैं शामिल था। हम लोगों ने फुले, शाहू जी और आंबेडकर से दर्शन और विचारधारा ग्रहण किया था।
हम लोग बामसेफ की करीब सभी बैठकों में शामिल होते थे। इस तरह के कार्यक्रमों में एक या दो वक्ता भाषण देने के लिए बुलाए जाते थे। हम लोग फुले-आंबेडकर के विचारों के आधार पर समकालीन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने की कोशिश करते थे। हमने इन गतिविधियों से बहुत कुछ सीखा और इसे अपने जीवन का मिशन बनाने का फैसला लिया।
रोहित बेमुला की आत्महत्या से शुरू हुआ आंदोलन लंबा चला। हम लोग अपने लक्ष्य के प्रतिबद्ध बने रहे, हालांकि हम लोगों ने अन्य सामाजिक और राजनीतिक संगठनों से हाथ मिलाने का प्रयोग किया था। मनुवादी विचाधारा के खिलाफ कार्य करने वाले सभी संगठनों से हम लोगों के अच्छे रिश्ते थे। हम इस बात का दावा कर सकते हैं कि गुजरात में ओबीसी समाज के बीच फुले-आंबेडकर की विचाधारा के हम लोग मुख्य आधार स्तम्भ थे और एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों को एकजुट करने की अपनी ओर से पूरी कोशिश किया। इसके आलावा हमने गुजरात में वर्ग-आधारित चेतना को विकसित करने की कोशिश किया। यह काम हम लोग लेखन करके, भाषणों का आयोजन करके करते थे। हम लोग सामाजिक एकजुटता के नेक कार्य को आगे बढ़ाने में सक्षम हो गए थे। लोगों के बीच काम करने वाले जिन पांच कार्यकर्ताओं की पहले चर्चा की गई है, यदि उनकी कोई श्रेणी बनाई जाए, तो मैं उनमें पहला स्थान जयंतीभाई को दूंगा।
सामाजिक कार्यकर्ता जयंतीभाई के भीतर का इंसान
जयंतीभाई ने बहुत ही कम उम्र में लोगों को जागरूक करने, एकजुट और प्रेरित करने लिए एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा करना शुरू कर दिया। इसके लिए उन्होंने अपना परिवार और व्यापार छोड़ दिया। विद्यार्थी जीवन से ही उन्होंने सामाजिक कार्य करना शुरू कर दिया था। शुरूआत में वे राजनीतिक गतिविधियों की ओर आकर्षित हुए, लेकिन जल्दी उनको इस बात का एहसास हो गया कि सामाजिक कार्य ज्यादा जरूरी हैं। इस तरह से उ्न्होंने सामाजिक कार्यो में समय लगाना शुरू किया, लेकिन चुनाव के समय राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय हो जाते थे। वे ग्राम पंचायत के चुनावों से लेकर संसदीय चुनावों तक गहरी नजर रखते थे।
जयंतीभाई ने परास्नातक राजनीति विज्ञान में किया था। उसके बाद उन्होंने बीएड़ डिग्री हासिल किया। वे अपनी यात्राओं में अपनी पाठ्य सामग्री साथ रखते थे। वे वरसीभाई गाधवी की साप्ताहिक पत्रिका ‘कहानी’ में लिखना भी पसंद करते थे। शायद ही किसी में लिखने का वैसा कौशल था, जो उनके लेखन से मेल खाता हो। प्राय: अक्सर ‘कहानी’ के चारो टेबलॉयड साइज के पृष्ठ सिर्फ जयंतीभाई के लेखन से भरे होते थे। उनकी वैचारिक व्याख्याएं और आकंड़े आधारित लेख चीजों को समग्रता और गहराई में पूरी तरह प्रस्तुत कर देते थे। वे प्राय : मुझसे कहते थे कि अर्जुन बीच-बीच में तुम लिखा करो, ताकि मैं कुछ फुरसत पा सकूं। ‘कहानी’ को चलाते रहने के लिए वे बहुत सारा समय और उर्जा लगाते थे, लेकिन यह व्यर्थ नही जाता था। बहुत सारे कार्यकर्ता ‘कहानी’ में उनके लेख पढ़कर प्रेरित हुए। 20 वर्षों तक प्रकाशित होने के बाद ‘कहानी’ पत्रिका बंद हो गई। उसके बाद जयंतीभाई ने फेसबुक पर लिखना शुरू किया। वे जहां भी जाते थे, अपना लैपटाप साथ लेकर जाते थे। उनकी बेटी हिंदी में फेसबुक पोस्ट लिखने में उनकी मदद् करती थी। वे सभी संदेश पढ़ते थे और जो लोग भी उनका पोस्ट पढ़ते उनका जबाब देते थे। वे कमेंट करने वाले लोगों को व्यक्तिगत तौर पर जवाब देते थे और जरूरत पड़ने पर जोरदार तरीके से जवाब देते थे।
सोशल मीडिया के माध्यम से वे पूरे भारत के बहुत सारे मूल निवासियों के संपर्क में आए। वे पूरे देश के कार्यकर्ताओं को एक साथ लाए। वे फेसबुक पर प्रतिदिन लिखते थे। उन्हें इस माध्यम की ताकत का अहसास था। हालांकि वे फेसबुक वाली पीढ़ी के व्यक्ति नहीं थे, फिर भी तकनीकी प्रगति से अपने को अवगत रखा और अपने चिंतन प्रक्रिया में खुद को प्रगतिशील तरीके से आधुनिक बनाए रखा।
वे एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता थे। वे हमेंशा सक्रिय रहते थे और सभी पार्टियों लोगों की बैठक करते थे। इनमें भाजपा,आरएसएस, कांग्रेस,बसपा आदि शामिल थे। वे भाजपा के नेताओं से संवाद कायम करने से हिचकते नहीं थे। वे जब भी मेरे पास आते, हमेशा स्वामीनारायण पंथ से जुड़े खीमाभाई जी से मिलते थे। खीमाभाई जी की पत्नी सूरत नगरपालिका की पार्षद थीं। वे सहज तरीके से एक दूसरे से संवाद करते थे। वे उदार और लोकतांत्रिक मानस के व्यक्ति थे, जब वे अपने विचारों को लोगों के सामने प्रस्तुत करते थे, तो दूसरे लोगों के नजरिए को भी समझने की कोशिश करते थे। वे दूसरों की बातों को बहुत ही ध्यान से सुनते थे। जो उनके नजरिए का विरोध करता था, उसके उसके विचारों को सुनने का उनके भीतर धैर्य था। वे खुद को बहुत सामान्य तरीके से प्रस्तुत करते थे। यह कहा जा सकता है कि वे ब्राह्मणवाद का विरोध करने वाले पूर्णकालिक कार्यकर्ता थे। वे वास्तव में दबे-कुचले लोगों के एक सच्चे साथी थे।
उन्होंने मुख्यत: ओबीसी और आदिवासियों के लिए काम किया। बामसेफ बहुत सारे कारणों से इन समुदायों से दूर रहता है। लेकिन जयंतीभाई एक सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया उत्प्रेरित करने की कोशिश कर रहे थे, जो बिना इन समुदायों की हिस्सेदारी के अधूरा रहता। ओबीसी समुदायों के बीच काम करना ज्यादा कठिन था, क्योंकि यह समुदाय ब्राह्मणवादी विचारधारा के बहुत ज्यादा प्रभाव में था।
एक मित्र और मार्गदर्शक
वे जब भी सूरत आते तो मुझसे मिलने सेंटर फॉर सोशल स्टडीज जरूरत आते, जहां मैं शिक्षक हूं। हम लोगों घंटो तत्कालिन परिस्थितियों पर बात करते और एक दूसरे के ज्ञान में इजाफा करते। जमीनी हकीकत और सिद्धांत दोनों मामलों में मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा।
मैं अक्सर कहा करता था कि वे दर्शन को बहुत अच्छी समझ रखते हैं। उन्होंने एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक वर्गों के साथ काम करने की अपनी पद्धति विकसित किया। वे उतनी ही आसानी से एक आम आदमी से बात कर लेते थे, जितने आसानी से उच्च शिक्षित व्यक्ति से बात करते थे। बहुत सारे लोग ऐसा नहीं कर पाते हैं, लेकिन जयंतीभाई के लिए एक स्वाभाविक सी चीज थी। जब में किसी चैनल की बहस में शामिल होता था या कोई किताब लिखता था या किसी पत्रिका के लिए लेख लिखता था, तो उनसे उस विषय पर फोन पर बात करता था। वे हमेशा मेरी मदद के लिए तैयार रहते थे, भले ही असमय भी मैंने फोन क्यों न किया हो। बात-चीत करने लिए हमेशा वे समय निकाल लेते थे।
जब भी वे मरे घर आते मेरे परिवार से ऐसे घुल-मिल जाते जैसे यह उनका अपना परिवार हो। उनकी कोई खास चाहत नही होती थी। वे बहुत सादा खाना खाते थे, जैसे कि सब्जी, रोटी, छाछ, खिचड़ी, गुड, इत्यादि। उन्हें पान मशाला और सूर्ती उसी तरह पसंद थी, जैसे गुजरात की सड़को पर एक आदमी खाते मिल जाता है।
मैंने एक सच्चा दोस्त खो दिया। एक नेक काम के लिए उन्होंने बेहतरीन जीवन जीया। मनुवादी व्यवस्था के शिकार समाज के एक बड़े हिस्से के जीवन को बेहतर बनाने के लिए अपना सब कुछ झोंक दिया। अब उनकी विरासत को आगे ले जाने, क्रांति की मशाल को जिंदा रखने और संवैधानिक आदर्शों पर आधारित नए भारत का निर्माण करने की जिम्मेदारी हम लोगों की है। हमें लोगों को उन्होंने शिक्षित-दीक्षित किया था।
कॉपी संपादन-सिद्धार्थ, अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद-अलख निरंजन
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