इसमें कोई शक नहीं है कि अमानवीय परंपराओं और प्रथाओं को पालने–पोसने वाले ब्राह्मणवाद के पैरोकारों तथा मठाधीशों के खिलाफ शुरुआती दौर में दलित साहित्य के गर्भ से विस्फोट और विद्रोह हुआ था। यहां यह चर्चा करना बेमानी होगा कि पहले मराठी दलित साहित्यकारों ने ब्राह्मणवाद के खिलाफ विद्रोह की शुरुआत की या किसी दूसरे ने। हमारी राय में पिछली शताब्दी के मध्य तक हिंदू धर्म के ब्राह्मणवाद और जाति व्यवस्था के विरोध में सारे देश में विरोध शुरु होने लगा था। यह विरोध पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधियों के द्वारा भी हुआ था। पर विरोध की तब सीमाएं थीं और यह प्राय: अपनी–अपनी जातियों की गोलबंदी तक ही सीमित था। अलग–अलग जातियों के लोगों के बीच मिलना–जुलना बहुत कम था। इतिहास में जाएं तो उन्नीसवीं शताब्दी में ही ब्राह्मणवाद के खिलाफ विद्रोह की शुरुआत हो गई थी। विशेष रूप में तमिलनाडु, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और बिहार में इस तरह के विरोध पनपे थे। इन्हीं राज्यों के समानान्तर उत्तर प्रदेश, पंजाब, आंध्र प्रदेश में भी मनुष्य की गरिमा के लिए जातिवाद विरोधी आंदोलन होते रहे। साहित्य भी लिखा जाने लगा। लेकिन आजादी के बाद 70 के दशक से दलितों के साथ पिछड़ों और अति पिछड़ों (ओबीसी और एमबीसी) ने भी एकजुट होकर मोर्चाबंदी की। कांशीराम जी के आह्वान के बाद तो बहुजन समाज के आंदोलन का मानो सैलाब ही उमड़ पड़ा। उन्होंने मिल-जुलकर अन्यायकारी वर्गों/जातियों/लोगों से निपटने की चुनौती स्वीकार की। प्रमोद रंजन और आयवन कोस्का के संयुक्त संपादन में “बहुजन साहित्य की प्रस्तावना” दस्तावेज उसी का परिणाम है। प्रमोद रंजन दलित-बहुजन मासिक पत्रिका फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक हैं, जबकि आयवन कोस्का प्रधान संपादक हैं।

प्रमोद रंजन किताब की प्रस्तावना में लिखते हैं, “इस किताब में संकलित लेख इस विमर्श के आरंभिक दौर के हैं। आज यह यात्रा वहां से कई पायदान आगे बढ़ चुकी है। फिर भी ये आरंभिक लेख इस पूरी प्रक्रिया को समझने के लिए आवश्यक हैं।”
उन्होंने “बहुजन साहित्य : एक बड़ी छतरी” शीर्षक लेख में बताया है कि, “‘बहुजन साहित्य’ की अवधारणा का जन्म फारवर्ड प्रेस के संपादकीय विभाग में हुआ तथा इसका श्रेय हमारे मुख्य संपादक आयवन कोस्का, आलोचक व भाषाविज्ञानी राजेंद्र प्रसाद सिंह तथा लेखक प्रेमकुमार मणि को है। यह पिछले लगभग डेढ़ वर्षों में हमारे बीच चले वाद–विवाद और संवाद का नतीजा था। सबसे पहले श्री कोस्का ने, जब मैं फारवर्ड प्रेस में मई, 2011 में संपादक (हिंदी) नियुक्त हुआ, मुझे अपने ‘ओबीसी साहित्य’ संबंधी विचार से परिचित करवाया, बाद में राजेंद्र प्रसाद सिंह भी ‘ओबीसी साहित्य’ की अवधारणा लेकर सामने आए थे, लेकिन प्रेमकुमार मणि ने इस शब्दावली का तीखा विरोध किया था। मैं भी इस शब्दावली से सहमत नहीं था। मैंने उस समय ‘ओबीसी साहित्य’ की जगह ‘शूद्र साहित्य’ कहने का प्रस्ताव रखा था। ‘शूद्र’ शब्द संस्कृति और हिंदू धर्म द्वारा प्रदत्त है तथा शूद्रों तथा अतिशूद्रों की एक लंबी साहित्यिक परंपरा भी हिंदी पट्टी में मौजूद रही है। अंतत: हम ‘बहुजन साहित्य’ नाम की एक बड़ी छतरी के नाम पर सहमत हुए और वर्ष अप्रैल 2012 में, फारवर्ड प्रेस ने पहली ‘बहुजन साहित्य वार्षिकी’ प्रकाशित की।”

गौरतलब है कि फारवर्ड प्रेस पत्रिका का प्रकाशन मुद्रित रूप में मई, 2009 से जून, 2016 तक हुआ। एक जून, 2016 से यह पत्रिका स्वतंत्र वेब पोर्टल में रूपांतरित हो गई है। कहना न होगा कि फारवर्ड प्रेस पत्रिका ने इन आठ वर्षों में वह कार्य कर डाला जो पिछले एक सौ बरसों में भी नहीं हुआ। दलितों/पिछड़ों/अति पिछड़ों/अल्पसंख्यकों और महिलाओं को ब्राह्मणवाद के खिलाफ जोड़ना निश्चित ही मशक्कत का काम था, जो फारवर्ड प्रेस की टीम ने कर दिखाया और सनातनियों/परंपरावादियों/जातिवादियों को दिन में ही तारे दिखाई देने लगे। बहुजन साहित्य की अवधारणा भी पत्रिका द्वारा रखा गया एक ऐसा विचार है, जिसके दूरगामी असर होंगे।
प्रमोद रंजन के शब्दों में हम कहें तो, “बहुजन साहित्य की अवधारणा अपने आप में एकदम सीधी है – अभिजन के विपरीत; बहुजनों का साहित्य। जैसा कि ढाई हजार साल पहले बुद्ध ने कहा था – बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय। लेकिन इस संबंध में कुछ महत्वपूर्ण चीजों को भी ध्यान में रखना चाहिए। बहुजन साहित्य बहुसंख्यकों का साहित्य जरूर है, लेकिन यह बहुसंख्यकवाद का साहित्य नहीं है। इसका आधार संख्या बल नहीं, बल्कि इसके विपरीत सामाजिक और सांस्कृतिक वंचना के पक्ष में, जिस सामूहिक–सामुदायिक–सांप्रदायिक चेतना का निर्माण मनुवाद करता है, बहुजन साहित्य उसके विरुद्ध विभिन्न सामाजिक तबकों की प्रतिनिधि आवाज है। यह साहित्य समाज के उस अंतिम आदमी का साहित्य है, जो किसी भी प्रकार की वंचना झेल रहा है। यह न सिर्फ आर्थिक वंचना और अस्पृश्यता के सवाल को उठाता है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक शोषण के विविध रूपों को भी चिह्नित करता है।”
अपने इसी आलेख में प्रमोद रंजन कबीर और रैदास के साहित्य तथा जोतीराव फुले और आंबेडकर के चिंतन में समानताओं का उल्लेख भी करते हैं। वे आगे यह भी लिखते हैं कि शूद्रों, अतिशूद्रों, आदिवासियों तथा स्त्रियों के बीच मुख्य समानता, उन्हें मनुवादी व्यवस्था द्वारा प्रताड़ित किए जाने तथा उसके विरुद्ध उनका संघर्ष है। यह समानता ही इसके साहित्य को ‘बहुजन साहित्य’ के खाते में रखती है।
अपने तीसरे आलेख, “एक अवधारणा का निर्माण काल” में वे लिखते हैं, “जोतीराव फुले और आंबेडकर दोनों ने मुख्य रूप से अलग–अलग शब्दावली में शूद्रों–अतिशूद्रों तथा स्त्री की गुलामी और इससे मुक्ति के लिए इनकी एकता की बात की है। हिंदी में ‘बहुजन साहित्य’ का जन्म प्रकारांतर से इसी विचार के सांस्कृतिक–सामाजिक आधार की खोज की जरूरत पर बल देने के लिए हुआ है। ..पिछले लगभग 2500 सालों के ज्ञात इतिहास के नायकों को देखें – बुद्ध, कौत्स, मक्खली गोशाल, अजित केशकंबली, कबीर, रैदास, शाहूजी महाराज, जोतीराव फुले, डॉ. आंबेडकर, राममनोहर लोहिया, कांशीराम। दक्षिण भारत के नायकों को छोड़ भी दिया जाए तो भी यह सूची बहुत लंबी हो सकती है। वैसे इनमें से अधिसंख्य मध्यवर्ती सामाजिक समुदायों में पैदा हुए हैं। दूसरी बात यह स्पष्ट दिखती है कि ये नायक चाहे मध्यवर्ती जातियों में पैदा हुए हों या दलित जातियों में, सबने इन दोनों समुदायों तथा स्त्रियों की साझी गुलामी से मुक्ति की बात की। आज की परिस्थितियों में वर्तमान व्यवस्था की सबसे अधिक मार खा रहे आदिवासी भी इस अवधारणा के अंतर्गत आएंगे।”
अपनी–अपनी अस्मिता की तलाश में दलित और पिछड़ों के उभार का विश्लेषण किया जाए तो ऐतिहासिक दृष्टि से दलित कहीं आगे निकला हुआ महसूस होता है। जबकि पिछड़ी जातियों के इस प्रतिस्पर्धा में अपनी दुविधाएं आड़े आती रही हैं। पुस्तक में इस बारे में अभय कुमार दुबे की बेबाक टिप्पणी देखें– “राजनीतिक आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में ‘पिछड़ा’ शब्द आज के अपमानजनक से सम्मानजनक की यात्रा संपन्न नहीं कर पाया है। पिछड़ों के उलट सामाजिक श्रेणीक्रम में उनके मुकाबले कहीं ज्यादा नीचे रही अनुसूचित जातियों ने निर्विवाद रूप से यह कर दिखाया है। वे खुद के लिए जिस ‘दलित’ संबोधन का इस्तेमाल करती है, उसके सामाजिक मायने वे नहीं रह गये हैं, जो शब्दकोश में दर्ज है। दलित का सामाजिक निहितार्थ अब टूटा हुआ, दबा हुआ या कुचला हुआ नहीं है, बल्कि उसका मतलब हो गया है- संघर्षशील और उर्ध्वगामी। राजनीतिक एकता के साथ दलितों में साहित्यिक और सांस्कृतिक स्तर पर लगातार एक वैकल्पिक दुनिया बनाने की बौद्धिक जद्दोजहद रही है। इसके विपरीत पिछड़ों के एजेंडे पर न तो राजनीतिक एकता है और न ही किसी किस्म की साहित्यिक–सांस्कृतिक प्रयास।”
इसका कारण यह भी रहा कि पिछले एक सौ वर्षों से पहले से ही दलितों के भीतर अपने इतिहास, अपनी संस्कृति, अपनी अस्मिता से जुड़ने की भावना रही। चाहे केरल में वैसे प्रयास अयंकाली के द्वारा हुए हो या पंजाब में मांगूराम की ओर से, महाराष्ट्र में जन–चेतना के प्रयास आंबेडकर ने शुरु किये हो या उत्तर प्रदेश में स्वामी अछूतानंद ने।
पुस्तक में ओबीसी साहित्य से संंबंधित कुछ अवधारणाएं और तर्क पेश कर उस कमी को पूरा करने की भी कोशिश की गई है, जिसकी ओर अभय कुमार दुबे ने इशारा किया है। अपने लेख में राजेन्द्र प्रसाद सिंह सवाल करते हैं कि “अगर भारतीय समाज में एक साहित्यिक युग (सामंत युग) दबंग वर्ग के नाम पर हो सकता है, तब उसी समाज के एक कमजोर एवं पिछड़ा वर्ग के नाम पर ओबीसी साहित्य की अवधारणा क्यों नहीं खड़ी की जा सकती है? वर्ग क्या, जाति के आधार पर भी हिंदी साहित्य में ‘चारण काल’ जैसे नाम दर्ज किए गए हैं। आधुनिक काल में द्विवेदी युग (काव्य), शुक्ल युग (आलोचना) जैसे नामकरण भी जातिसूचक उपाधि के आधार पर प्रस्तुत किए गए हैं। यदि दलित साहित्य हो सकता है तो ओबीसी साहित्य क्यों नहीं? भारतीय समाज में ओबीसी की आबादी आधी से भी ज्यादा है। फिर ओबीसी साहित्य क्यों और कैसे नहीं?”
सिद्ध और संत साहित्य और ओबीसी
राजेंद्र प्रसाद सिंह का कहना है कि सिद्ध और संत साहित्य में दलितों के साथ–साथ कई ओबीसी रचनाकार हैं। सिद्धों में मीनपा मछुआरे हैं। कमरिपा लोहार हैं। तंतिया तंतवा जाति से आते हैं। चर्पटीपा और कंतालीया क्रमश: कहार और दर्जी हैं। मेकोपा, मलिपा, उधलिया आदि वैश्य वणिक हैं। तिलोपा तेली हैं। जाहिर सी बात है कि मछुआरा, लोहार, तंतवा, कहार, दर्जी, बनिया, तेली आदि जातियां ओबीसी में आती हैं।

उनका तर्क है कि “संत काव्यधारा में दलितों की संख्या सर्वाधिक है, परंतु यह स्थापना देते वक्त हम ओबीसी रचनाकारों को भूल–सा जाते हैं, वरना संत साहित्य ऐसे रचनाकारों से भरा पड़ा है। सिर्फ महाराष्ट्र में ही नामदेव (दर्जी) के अतिरिक्त गोरा (कुम्हार), सांवता (माली), नरहरि (सोनार), सेना (नाई), राका (कुम्हार) जैसे कई ओबीसी के रचनाकार हुए हैं। हिंदी में त्रिलोचन (वैश्य), अखा (सोनार), सदन (कसाई), चरणदास (वैश्य), पलटूसाहब (बनिया), बुलासाहब (कुर्मी), धर्मदास (वैश्य), सिंगाजी (ग्वाल), सुंदरदास (खंडेलवाल वैश्य) आदि जैसे संत ओबीसी रचनाकार हैं। महिलाओं में भी वैश्य होने के नाते सहजोबाई और दयाबाई जैसी कवयित्रियां ओबीसी हैं। संत काव्यधारा में दो दरियादास हुए। बिहार वाले दरियादास दर्जी परिवार से आते हैं और मारवाड़ वाले धुनिया हैं। दर्जी और धुनिया– ये दोनों जातियां ओबीसी की सूची में हैं। दादू दयाल भी मुस्लिम धुनिया हैं। मुस्लिम धुनिया भी ओबीसी में उसी तरह शामिल है, जैसे मुस्लिम धोबी, चीक, पमरिया आदि जातियां शामिल हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हिंदी का संत साहित्य मुख्यत: ओबीसी और दलित रचनाकारों द्वारा लिखित साहित्य है।”
वे यह भी कहते हैं कि “हिंदी के इतिहास–ग्रंथ कई प्रकार के संप्रदायों एवं संप्रदाय-विशेष के रचनाकारों से भरे पड़े हैं।...भक्ति के अनेक ब्राह्मणवादी संप्रदायों में श्री संप्रदाय, ब्रह्म संप्रदाय, रुद्र संप्रदाय और सनकादि संप्रदाय को विशेष ख्याति मिली है, पर सरभंग संप्रदाय की चर्चा पर इतिहासकार चुप्पी साध लेते हैं। कारण कि सरभंग संप्रदाय के सभी दमदार कवि ओबीसी के हैं। अठारहवीं सदी में सरभंग संप्रदाय के कई ओजस्वी कवि मौजूद थे। छतरबाबा को उक्त संप्रदाय का आदिकवि माना जाता है। वे जाति के कुम्हार थे। उनकी पूंजी एक हांड़ी थी। उसी में दिन में स्वयं भोजन बनाते और रात में उसी को तकिया बनाकर सोते थे। कहते हैं कि भिनकराम से उनकी बड़ी घनिष्ठता थी। भिनकराम जाति के तंतवा थे। कुम्हार और तंतवा ओबीसी की जातियां हैं। पर सरभंग संप्रदाय के कवियों में सर्वाधिक ख्याति टेकमनराम को मिली। टेकमनराम चंपारन जिले में धनौती नदी के तट पर स्थित झखरा के निवासी थे। वे जाति के लोहार थे और राजमिस्त्री का काम किया करते थे।”

राजेन्द्र प्रसाद सिंह के अनुसार, “दलित धारा के संप्रदायों का सिद्धांत–पक्ष एवं व्यवहार–पक्ष ओबीसी धारा के संप्रदायों से मिलता–जुलता है, कारण कि दलित धारा एवं ओबीसी धारा के संप्रदायों का मुख्य उद्देश्य जातिविहीन समाज की स्थापना करना था, जबकि ब्राह्मणवादी संप्रदाय छद्म रूप से जातिवाद को बढ़ावा दे रहे थे।”
राजेन्द्र प्रसाद सिंह का यहां सारगर्भित चिंतन ही नहीं उभरता है बल्कि संस्कृति और साहित्य के वे गंभीर अध्येता भी रहे हैं। सिद्ध साहित्य से लेकर आधुनिक काल के सवर्ण कवियों, लेखकों के बारे में वे गहरे तर्क करते हैं। बहुजन समाज के लेखकों तथा शिक्षाविदों को साहित्य संबंधी जानकारी सुलभ कराते हैं इस आशय से कि वे भी ब्राह्मणवादी लेखकों तथा चिंतकों से कम नहीं है!
पुस्तक में बजरंग बिहारी तिवारी, वीरेंद्र यादव, देवेंद्र चौबे तथा अमरेंद्र कुमार शर्मा बहुजन साहित्य या ओबीसी साहित्य के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए दिखते हैं। बजरंग बिहारी तो ओबीसी साहित्य पर सीधे–सीधे जातिवादी लेबल लगाते हैं। जबकि देवेंद्र चौबे और अमरेंद्र कुमार शर्मा घुमा–फिरा कर अपनी बात कहते हैं। लेकिन सुधीश पचौरी का व्यंग्य इस पुस्तक में छापने का संपादक का क्या औचित्य रहा, यह मेरी समझ के बाहर की बात है। हो सकता है संपादक की समझ में आया हो।
वरिष्ठ साहित्यकार और चिंतक चौथीराम यादव ने पुस्तक में शामिल अपने आलेख में ओबीसी नायकों का गंभीरता से रेखांकन किया है। आलेख के शुरुआत में ही वे लिखते हैं, “हमारे देश में जितने भी सांस्कृतिक आंदोलन हुए, उनमें ओबीसी नायकों की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण रही है। सामाजिक परिवर्तन में उनके योगदान को नकारना बेमानी होगा। बहुजन समाज के प्रवक्ता और आधार स्तंभ दोनों आंबेडकर रहे हैं। इसके मद्देनजर अगर आंबेडकर से पहले के ओबीसी नायकों पर बात की जाए तो उन्होंने दलित आंदोलन के जरिए जो सबसे पहला काम किया, वह धार्मिक वर्चस्व को तोड़ने का था। चूंकि तब समाज में जाति, धर्म, संप्रदाय की श्रेष्ठता के बोध तले ब्राह्मणवादी व्यवस्था कायम थी, इसलिए सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक विषमता बहुत बुरी तरह फैली हुई थी। ओबीसी समाज से जो नायक निकले, उन्होंने इस विषमता को तोड़ने के लिए ब्राह्मणवाद और सामंतवाद के खिलाफ आवाज उठाई। चूंकि ब्राह्मणवादी विचारधारा की पोषक सामंतवादी व्यवस्था होती है, इसलिए सामाजिक विषमता को खत्म करने के लिए इसके खिलाफ आवाज उठनी भी जरूरी थी। ब्राह्मणवाद वर्ण-व्यवस्था का समर्थन करने के साथ–साथ मनुष्य के ऊपर मनुष्य की श्रेष्ठता का समर्थन करता था और आदमी को आदमी से अलग करता था। इसी कारण धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक शोषण के खिलाफ आंदोलन की जरूरत महसूस हुई।”
इस बारे में वे जोतीराव फुले, शाहूजी महाराज, पेरियार, ललई सिंह यादव तथा रामस्वरुप वर्मा आदि का संदर्भ देते हैं। इसी आलेख में वे बताते हैं कि कोल्हापुर के राजा शाहूजी महाराज ने कैसे अपने राज्य में सबसे पहले दलितों–पिछड़ों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण देकर हर क्षेत्र में समतामूलक समाज की स्थापना की शुरुआत की। इसी तरह से हरिनारायण ठाकुर अपने आलेख में ओबीसी साहित्य का स्वागत करते हुए इसके अच्छे भविष्य की संभावना व्यक्त करते हैं। वहीं जयप्रकाश कर्दम लिखते हैं, “इससे अच्छी कोई बात नहीं हो सकती कि असमानता, अन्याय, अस्पृश्यता और शोषण के विरुद्ध दलित और ओबीसी सबकी एक सामूहिक आवाज हो। महत्वपूर्ण होगा कि ओबीसी लेखक ब्राह्मणवादी–सामंतवादी साहित्य और साहित्यकारों के प्रभाव और छाया से बाहर निकलें।”
“बहुजन साहित्य की प्रस्तावना” पुस्तक में अन्य आलेख अश्विनी कुमार पंकज, कंवल भारती, मुसाफिर बैठा, अरविंद कुमार, संजीव चंदन, अनिता भारती, संदीप मील, वामन मेश्राम, अरुंधति राय आदि के हैं। जिन्होंने बहुजन साहित्य के पक्ष में अपने तर्क दिये हैं। वहीं डॉ. गंगा सहाय मीणा का “आदिवासी साहित्य विमर्श : चुनौतियां और संभावनाएं” भी है। इनके अलावा शरण कुमार लिंबाले तथा राजेन्द्र यादव के साक्षात्कार भी पुस्तक में दिए गये हैं।
पुस्तक के आखिर में (यानी पृष्ठ 121 से 123 तक), “सिर्फ द्विजों में ही होती है साहित्यिक प्रतिभा?” के तहत ज्ञानपीठ अवार्ड और साहित्य अकादमी से नवाजे गये द्विजों की सूची दी गई है, जो आँखे खोल देने वाली है कि कैसे सवर्ण जाति के अधिकांश चतुर, चालाक और बेईमान साहित्यकारों, चिंतकों ने बड़ी राशि के पुरस्कारों को हड़पा है।
पुस्तक में कुल मिलाकर इतिहास भी है और राजनीति भी। साथ ही कुटिल सवर्ण समीक्षकों की कलाकारी भी, कैसे वे शब्दों से खेलते हैं। अंत में धूमिल को याद करते हुए कहूंगा कि –
कुछ शब्द तैयार करते हैं
कुछ शब्दों की खाते हैं
पर एक वे हैं
जो न शब्द तैयार करते हैं
और न शब्दों की खाते हैं
वे सिर्फ शब्दों को
स्टील के खांचों में
उबलती हुई धातु के रूप में
गिरते देखते हैं
वे ही शब्दों से संस्कृति का विकास करते हैं
और संस्कृति से
आदमी को जातियों के खानों
में बैठाते हैं।
किताब : बहुजन साहित्य की प्रस्तावना (लेख-संग्रह)
संपादक : प्रमोद रंजन व आयवन कोस्का
मूल्य : 100 रुपए (किंडल) 150 रुपए (पेपर
बैक), 300 रुपए (हार्डबाऊंड)
पुस्तक सीरिज : फारवर्ड प्रेस बुक्स, नई दिल्ली
प्रकाशक : द मार्जिनलाइज्ड, वर्धा/दिल्ली
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( पुस्तक वार्ता अंक 76-77 ,मई-अगस्त 2018 में प्रकाशित )
(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ/एफपी डेस्क)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in
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मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया
दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार