समकालीन राजनीतिक परिदृश्य का एक मुआयना
लोकतान्त्रिक राजनीतिक ढाँचे में राजनीतिक दल तो होते हैं, लेकिन दलों के आधार कुछ ख़ास सामाजिक समूह होते हैं। दरअसल राजनीतिक पार्टियां किन्ही सामाजिक समूहों के सामुदायिक स्वार्थों या मांगों का प्रकटीकरण करती हैं। उपनिवेशवाद से आज़ादी के लिए जो राष्ट्रीय संघर्ष हो रहा था, वह जबतक अंग्रेजीराज के विरुद्ध बना रहा, तबतक कोई ख़ास मतभेद नहीं उभर सका। लेकिन जैसे ही लगा आज़ादी निकट है सामाजिक स्वार्थ बलबलाकर प्रकट होने लगे। राष्ट्रीय संघर्ष का नेतृत्व करने वाली संस्था कांग्रेस को जिन्ना और उनके सहयोगी हिन्दू पार्टी कहने लगे। दरअसल वह अपने मुस्लिम लीग का औचित्य सिद्ध कर रहे थे। कांग्रेस के भीतर ही सोशलिस्ट विचार के लोग सीएसपी (कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी) बनाकर किसानों और मज़दूरों के सामाजिक-आर्थिक हितों की वकालत करने लगे थे। इस प्रयास में किसानों-मज़दूरों का एक हिस्सा कांग्रेस से जुड़ भी गया। इन तबकों की वकालत करते हुए कम्युनिस्ट पार्टी भी बनी।
आज़ादी मिलने के बाद सामाजिक-राजनीतिक ध्रुवीकरण अधिक तीव्र हुए। आर्थिक-सामाजिक परिवर्तनों के कारण एक नया समाज भी बनने लगा था। इसकी एक अलग सोच, एक अलग विचारधारा थी। इसे मध्यवर्ग कहा जाता है। नए उत्पादन संबंधों से विकसित यह एक ऐसा तबका था, जो स्वभावतः प्रगतिशील सोच रखता था। जवाहरलाल नेहरू जैसे नेता इसकी पसंद थे। मोटे तौर पर कांग्रेस पार्टी को इसका समर्थन मिला; लेकिन कांगेस केवल इस तबके की पार्टी नहीं थी, वह एक पंचमेल पार्टी थी। कमोबेश आज भी वह ऐसी ही है। लेकिन सामाजिक स्तर पर एक संभव प्रगतिशील चेहरा बनाये रखने की इसकी कोशिश हमेशा रही है। नेहरू-इंदिरा के ज़माने तक सांप्रदायिक ताकतों के आगे कांग्रेस ने घुटने टेकने से इंकार किया। राजीव गाँधी के दौर में इसने हिन्दू और मुस्लिम दकियानूसी पक्ष का समर्थन करने की भूल जरूर की; शाहबानो मामले और रामजन्मभूमि मामले में दखल देकर। लेकिन इसकी भारी कीमत उसे चुकानी पड़ी। आज तक कांग्रेस उसकी भरपाई नहीं कर सकी है।

कांग्रेस के विरुद्ध एक तरफ सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट थे, जिनकी शिकायत थी कि कांग्रेस आर्थिक-सामाजिक बदलावों के लिए उचित ठोस कार्रवाइयां नहीं कर रही है, वहीं जनसंघ जैसा दक्षिणपंथी समूह था, जो मामूली बदलावों के लिए भी कांग्रेस की आलोचना कर रही थी। जनसंघ का समर्थन वे सामाजिक समूह कर रहे थे, जिनका स्वार्थ इन बदलावों से प्रभावित होता था। इनमें राजे-रजवाड़े, जमींदार और कुलक कृषक समूह था। जनसंघ की विशेषता थी कि उसने दक्षिणपंथी आर्थिक सोच के साथ दकियानूसी हिंदुत्व को भी नत्थी कर लिया। इससे पण्डे-पुरोहितों का एक तबका भी इनका अनुगामी हो गया। क्योंकि उन्हें महसूस हुआ कि यही राजनीतिक दल उनके सामाजिक-आर्थिक हितों का समर्थन करते हैं। जनसंघ का नया रूप भारतीय जनता पार्टी हुआ तब भी वह प्रतिबद्धता बनी रही।

इसकी राजनीतिक प्रतिक्रिया होनी थी, हुई भी। गुजरात और बिहार आंदोलनों के सामाजिक आधारों का विश्लेषण आज तक नहीं हुआ है। बिहार का जयप्रकाश आंदोलन उन लोगों के नेतृत्व में चला जो इंदिरा गाँधी के प्रगतिशील आर्थिक नीतियों के विरुद्ध थे। इनसे समाजवादी जुड़ गए थे। 1977 में बिहार जनता पार्टी आरक्षण के सवाल पर बहुत आसानी से टूट गयी। कैलाशपति मिश्र और जगन्नाथ मिश्र को इकठ्ठा होते देर नहीं लगी। यह सामाजिक स्वार्थों का जुड़ाव था। सामाजिक स्वार्थों के प्रकटीकरण ऐसे ही होते हैं ।
मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि राजनीति पर सामाजिक आधारों के प्रभाव और जुड़ाव का एक लम्बा सिलसिला रहा है। कोई भी राजनीतिक दल बिना सामाजिक आधार के जीवित नहीं रह सकता। हम आज की राजनीति में भी इसे देख सकते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने करिश्मा किया था। वह था हिंदुत्व की राजनीति से पिछड़ावादी राजनीति को एकमेव कर देना। यूपी में बहुत पहले कल्याण सिंह ने इसे प्रांतीय स्तर पर संभव किया था। नरेंद्र मोदी ने इसे राष्ट्रीय फलक तक विकसित कर दिया। आप कह सकते है कि वह राष्ट्रीय स्तर के लालू प्रसाद बन गए । मोदी बिना किसी हया के चुनावी सभाओं में सीधे या प्रकारांतर से अपनी जाति का उल्लेख करते रहे । निश्चय ही उन्होंने एक असाध्य को संभव बनाया। लेकिन इसका निर्वहन मुश्किल था। दो परस्पर विरोधी सामाजिक समूहों का हित साधना मुश्किल होता है। जमींदार और किसान अथवा पूंजीपति और मज़दूर को एकसाथ खुश रखना असंभव होता है। पिछले चार वर्षों में यही हुआ है। आर्थिक क्षेत्र में मोदी सरकार नोटबंदी और शून्य बैलेंस पर खाता खोलने जैसी चीजों से आगे नहीं बढ़ सकी। इसके मुकाबले बैंक घोटाले अधिक चर्चित हुए। किसानों को खुश रखने में वह विफल हो गयी। अनुसूचित जातियों के उत्पीड़न मामले पर दखल देकर वह किसी एक को खुश रखने में नाकामयाब हुई। दोनों पक्ष उससे दूर चले गए। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में उसे इसके नतीजे देखने पड़े।
आनेवाले चुनाव में मोदी के सामाजिक आधार ध्वस्त होते दिखलाई पड़ते हैं। पिछड़े तबके वाला उनका पाठ पुराना पड़ गया। काठ की हांडी दुबारा नहीं चढ़ती। आज पिछड़े तबकों का उनके साथ कोई भावनात्मक लगाव नहीं है। किसान उनसे दूर गए हैं। किसानों का समूह पिछड़े और अगड़े दोनों सामाजिक समूहों से बना है। लेकिन पिछड़े तबकों की यहां बहुलता है। उनके आर्थिक-सामाजिक हितों को विकसित करने में मोदी विफल हुए हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि मोदी की मुश्किलें बहुत हैं। भाजपा यदि यह सोचती है कि मोदी अपने भाषण से कांग्रेस या उसके नेता राहुल गाँधी को पीछे छोड़ देंगे तब वह गलती कर रहे हैं। भारत की जनता जब ठान लेती है कि इसे हराना है ,तो वह हरा ही देती है। यह नहीं सोचती कि कौन जीत रहा रहा है।
(कॉपी संपादन : अर्चना)
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