दिसंबर, 1969 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने ई.वी. रामासामी पेरियार की पुस्तक ‘रामायण : अ ट्रू रीडिंग’ की अंग्रेज़ी और हिंदी प्रतियों को ज़ब्त करने का आदेश दिया था।
इस पुस्तक के प्रकाशक ब्राह्मणवाद के खिलाफ आजीवन संघर्ष करने वाले ललई सिंह यादव (1 सितम्बर 1911-7 फरवरी, 1993) थे। जिन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार के इस आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी। हाईकोर्ट ने इस सरकारी आदेश को निरस्त कर दिया। बाद में उत्तर प्रदेश सरकार हाईकोर्ट के इस आदेश के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट गई और वहां भी उसे मुंह की खानी पड़ी। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई की तीन जजों की पीठ ने की, जिसकी अध्यक्षता न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर ने की और इसके दो अन्य जज थे, पी .एन. भगवती और सैय्यद मुर्तज़ा फ़ज़ल अली।
इस तरह से ‘रामायण : अ ट्रू रीडिंग’ का मुक़दमा सुप्रीम कोर्ट पहुँचा। इस मामले की सुप्रीम कोर्ट में जो सुनवाई हुई वह काफ़ी दिलचस्प है। उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रतिबंध लगाने के आदेश को हाईकोर्ट से निरस्त किए जाने पर सुप्रीम कोर्ट में जो विशेष अनुमति याचिका दाख़िल की उसमें पुस्तक पर प्रतिबंध के बारे में जो बताया वह इस तरह से था –
“याचिकाकर्ता सरकार ने सीआरपीसी की धारा 99-ए के तहत ‘रामायण – अ ट्रू रीडिंग’ पुस्तक की अंग्रेज़ी और इसके हिंदी अनुवाद ‘सच्ची रामायण’ को ज़ब्त करने का आदेश जारी किया है। जिसके लेखक तमिलनाडु के पेरियार ई.वी.आर. हैं। आरोप है कि यह पुस्तक भारतीय नागरिकों के एक वर्ग, हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाती है।”
राज्य सरकार के वक़ील ने हाईकोर्ट में कहा कि राज्य सरकार की याचिका में कोई ख़ामी नहीं है और यह पुस्तक राज्य के विशाल हिंदू जनसंख्या की पवित्र भावनाओं पर प्रहार करती है और इस पुस्तक के लेखक ने बहुत ही स्षप्ट भाषा में महान अवतार श्री राम और सीता एवं जनक जैसे दैवी चरित्रों पर कलंक मढ़ा है जिसका हिंदू लोग आदर करते हैं और उनकी पूजा करते हैं।

परंतु, हाईकोर्ट ने इन दलीलों पर कोई ध्यान नहीं दिया और बहुमत के फ़ैसले से इस आदेश को इस संक्षिप्त आधार पर निरस्त कर दिया कि राज्य सरकार ने जिस राय के आधार पर आदेश जारी किया है उसका कोई कारण नहीं बताया है। हाईकोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 99-ए के तहत ऐसा करना ज़रूरी है।
राज्य सरकार ने इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने का आदेश जारी करने के क्रम में अपने फ़ैसले का कारण नहीं बताया था और कहा था कि धारा 99-ए के तहत ऐसा करना ज़रूरी नहीं है और इसके निहितार्थ से ही इसे समझा जा सकता है।
धारा 99-ए के तहत दिया गया कोई आदेश तभी सही माना जाएगा जब यह तीन शर्तों को पूरी करता हो –
- उस पुस्तक या दस्तावेज़ में ऐसी कोई बात लिखी गई हो;
- ऐसी सामग्री या तो भारत के नागरिकों के विभिन्न वर्गों के बीच शत्रुता या घृणा’ की भावनाओं को बढ़ावा देती हो या देने का इरादा रखती हो; और
- सरकार की राय के पीछे तथ्यों का विवरण दिया जाए
उपरोक्त इन तीनों शर्तों को पूरा होने के बाद ही सरकार अधिसूचना जारी कर संबंधित पुस्तक या दस्तावेज़ की सभी प्रतियों को ज़ब्त करने का आदेश दे सकती है।
इस दलील के प्रत्युत्तर में जो दलील दी गई वह यह थी कि कोड के तहत अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए जो घेरा बनाया गया है उसे सुविधा के लिए आशय के सिद्धांत के द्वारा कमतर नहीं किया जा सकता। यह अधिकार इतना मौलिक है कि इसके लिए कोड के तहत ज़रूरी नियमों का सख़्ती से पालन आवश्यक है। आपातकालीन स्थितियों को छोड़कर, मौलिक अधिकार आख़िरकार लोकतंत्र में मौलिक हैं।
सरकार के वक़ील का कहना था कि ज़ब्त की गई पुस्तक में जिन संदर्भों का आदेश में हवाला दिया गया है वे श्री राम, सीता और जनक के प्रति इतनी दुर्भावना से भारी हुई हैं कि अदालत को ख़ुद ही अंदाज़ा लगा लेना चाहिए की उत्तर प्रदेश के हिंदुओं की भावनाओं को इससे कितना ठेस पहुँचा होगा। वक़ील ने कहा कि सरकार की राय का आधार इस आदेश में अदृश्य स्याही से लिखा गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले पर पहुँचने से पूर्व कहा कि उसे इस मामले को मूलपाठ की दृष्टि से और दूसरा वृहत दृष्टिकोण से देखना होगा और इस आधार पर वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि हाईकोर्ट ने सरकार के आदेश को निरस्त कर कोई ग़लती नहीं की है और और यह अपील ख़ारिज कर दिए जाने लायक़ है। कोर्ट ने कहा कि धारा 99 ए के तहत अधिकार का प्रयोग क़ानून की प्रक्रिया के तहत ही हो सकता है। कोर्ट ने कहा कि जब धारा यह कह रही है कि आपको अपने निर्णय का आधार बताना होगा तो आप यह नहीं कह सकते कि इसकी ज़रूरत नहीं है और यह इसमें अंतर्निहित है। जब आप किसी चीज़ को लेकर चुप हैं तो इसका मतलब आप कुछ भी नहीं बता रहे हैं। कोर्ट ने कहा जब बोलना क़ानूनी कर्तव्य है, चुप रहना एक घातक दोष है…।”

राज्य सरकार द्वारा पुस्तक पर प्रतिबंध का कारण नहीं बताने पर पीठ ने जो कहा है वह महत्त्वपूर्ण है। महत्त्वपूर्ण इसलिए क्योंकि उसका कारण बताने में आगे की अपील का रास्ता खुला हुआ है। कोर्ट का कहना था –
“पुस्तक को ज़ब्त करने का कारण बताने से राज्य को मुक्त करने का मतलब होगा, जनता को दिए अधिकारों की गारंटी के ख़िलाफ़ इस तरह की ताक़तों को आज़माने की छूट देना। धारा 99-A में कहा गया है कि आपको इसका कारण बताना ही होगा और यह कहना कोई आधार नहीं हो सकता कि यह बताने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि यह इसमें अंतर्निहित है। कोई आदेश छोटा तो हो सकता है पर वह ख़ाली नहीं हो सकता। कोर्ट ने कहा कि कारण बताना वैधानिक रूप से ज़रूरी है क्योंकि धारा 99-C में कहा गया है कि पीड़ित पक्ष को राहत प्राप्त करने के लिए हाईकोर्ट में जाने की छूट है और यहाँ कोर्ट उन कारणों की जाँच करता है जिसके आधार पर उसने यह प्रतिबंध लगाया है और जिसका ज़िक्र उसने आदेश में किया है। कोर्ट सरकारी आदेश में दिए गए कारणों के आगे जाकर इसकी जाँच नहीं कर सकता और जब जानबूझकर या ग़लती से इसके कारण ही नहीं बताए गए हैं तो कोर्ट में अपील का महत्त्वपूर्ण अधिकार ही समाप्त हो जाता है।”
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सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई कर रही खंडपीठ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर मानवाधिकार और मौलिक अधिकारों की रक्षा को लेकर कितना सजग थे इस बात का परिचय उन्होंने निम्नलिखित उद्धरणों में स्पष्ट कर दिया। उन्होंने कहा, ‘हमारे देश के निर्माता मिल्स की इस प्रसिद्ध उक्ति और वोल्तेयर के इस प्रेरणास्पद उद्घोष का आदर करते थे।’ और हम उसका यहाँ उल्लेख करते हैं :
“अगर एक व्यक्ति को छोड़कर सम्पूर्ण मानव समुदाय की राय एक हो और सिर्फ़ एक ही व्यक्ति विरोधी राय रखता हो, तो मानव समुदाय द्वारा उस एक व्यक्ति की ज़ुबान बंद करना उतना उचित नहीं होगा जितना कि उस एक व्यक्ति द्वारा पूरे मानव समुदाय का ज़ुबान बंद करना, बशर्ते उसके पास ऐसा करने की ताक़त हो।(‘ऑन लिबर्टी’ नामक आलेख में मिल्स, पृष्ठ संख्या 19-20: थिंकर्ज़ लाइब्रेरी सं, वॉट्स) “तुम जो कहते हो, मैं उसे अस्वीकार करता हूं, परन्तु तुम्हारे यह कहने के अधिकार की रक्षा, मैं अंतिम श्वास तक करूंगा।” (वाल्तेयर, एस. जी. टालंटयर, द फ्रेंड्स ऑफ़ वाल्तेयर, 1907) ।

पीठ ने कहा, “समापन से पहले, हम यह स्पष्ट करते हैं कि हम पुस्तक की गुणवत्ता या उसकी भड़काऊ और अपमानसूचक शब्दावली पर कोई विचार व्यक्त नहीं करते हैं। यह कई कारक तत्वों की पेचीदगी पर निर्भर करता है। जो विचार रूढ़िवादियों को ठेस पहुँचा सकता है, वह प्रगतिशील समुदायों के लिए हास्यास्पद हो सकता है। जनश्रुति के आधार पर किसी एक धर्म, संप्रदाय, देश या समय के लिए जो विचार या शब्द अपमानजनक हो सकता है, वह दूसरों के लिए उतना ही पवित्र हो सकता है। रूढ़िवादियों को स्वामी विवेकानंद की इस फ़टकार पर अब भी रोष हो सकता है।”
पीठ ने कहा, “हमारा धर्म रसोई में है, हमारा ईश्वर वह बर्तन है जिसमें हम खाना पकाते हैं और हमारा धर्म कहता है – मुझे मत छूना मैं पवित्र हूँ’ ( जवाहरलाल नेहरू द्वारा उनकी ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ के पृ. 339 से उद्धृत)। मानव उन्नति का सूत्र है – स्वतंत्र विचार और उनकी अभिव्यक्ति। लेकिन जहाँ जनहित का प्रश्न हो, वहाँ सामाजिक अस्तित्व यथोचित नियंत्रणों का भी विधान करता है। न्यायिक समीक्षा की देखरेख में शासकीय विवेक संतुलन बनाए रखता है। हम न तो आपातकालीन स्थितियों की बात करते हैं और ना ही संवैधानिक रूप से पवित्र माने गए विशेष निर्देशों की, बल्कि हम तो सामान्य समय और व्यावहारिक कानूनों का समर्थन करते हैं जो सब के काम आए।
जाते-जाते हम अपीलकर्ता के अधिवक्ता से यह कहना चाहेंगे कि यदि राज्य सरकार वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए विवादित पुस्तक के विरुद्ध धारा 99 ए लागू करने के लिए खुद को विवश महसूस करे तो वह ऐसा करने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन निश्चित रूप से उसे अपने मत के आधारों के विवरण और धारा 99 सी के तहत कार्यवाही करने के कारणों की न्यायालयीय माँग को पूरा करना होगा। हमारा विस्तृत विचार-विमर्श कानूनी प्रश्नों को हल करता है और एक दूसरे के विरुद्ध तने विभिन्न उच्च न्यायालयों के निर्णयों में अन्तःस्थ या प्रत्यक्ष द्वंद्वों का समाधान प्रस्तुत करता है।”
कोर्ट ने कहा कि विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं के प्रति एक प्रसिद्ध माओवादी विचार उदार दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से इस प्रकार व्यक्त करता है-
“कला और विज्ञान की उन्नति को बढ़ावा देने के लिए सौ फूलों को खिलने तथा सौ विचारधाराओं के बीच वाद-विवाद का अवसर देने की नीति उपयोगी होती है।”
यह फ़ैसला जब आया तो उस समय देश में आपातकाल लगा था और इस मामले में फ़ैसला देते हुए पीठ ने इसका भी ज़िक्र किया :
“सावधानी के रूप में एक टिप्पणी। संवैधानिक रूप से घोषित आपातकाल के वर्तमान संदर्भ में, क़ानून को आपातकाल सम्बन्धी प्रावधानों में अंकित परिमित दायरों में रहकर ही कार्यवाही करनी पड़ेगी और यह निर्णय पूर्व-आपातकालीन कानूनी आदेश से संबंधित है। अतः हम अपील को खारिज करते हैं।”
सुप्रीम कोर्ट में ‘उत्तर प्रदेश बनाम ललई सिंह यादव’ नाम से इस मामले पर फ़ैसला 16 सितम्बर 1976 को आया और इस तरह यह फ़ैसला इस पुस्तक के प्रकाशक के पक्ष में रहा। पुस्तक पर लगे प्रतिबंध संबंधी राज्य सरकार के आदेश को निरस्त करने के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट ने सही माना और इसके ख़िलाफ़ राज्य सरकार की अपील को ख़ारिज कर दिया।
वैसे भारत में यह पहला मौक़ा नहीं था जब किसी पुस्तक को प्रतिबंधित किया गया हो। और भारत ही क्यों दुनिया भर में पुस्तकें प्रतिबंधित होती रही हैं और लेखकों को अदालत में घसीटा जाता रहा है। और ऐसा भी नहीं है कि ‘रामायण : अ ट्रू रीडिंग’ पर लगे प्रतिबंध को सुप्रीम कोर्ट द्वारा हटा लिए जाने के बाद देश में किसी अन्य पुस्तक पर प्रतिबंध नहीं लगा, उलटा, यह सिलसिला अभी भी जारी है और शायद ज़्यादा तीव्र हो गया है।
(काॅपी संपादन : सिद्धार्थ/एफपी डेस्क)
परिवर्द्धित : 7 मार्च, 2019, 2 :11 PM
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