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बेड़ियां तोड़ती स्त्री : करुणा प्रीति

इस लेख में अरविन्द जैन बता रहे हैं कि वैध-अवैध बच्चों के बीच यही कानूनी भेदभाव (सुरक्षा कवच) ही तो है, जो विवाह संस्था को विश्व-भर में, अभी तक बनाए-बचाए हुए है। वैध संतान की सुनिश्चितता के लिए- यौन शुचिता, सतीत्व, नैतिकता, मर्यादा और इसके लिए स्त्री देह पर पूर्ण स्वामित्व तथा नियंत्रण बनाए रखना, पुरुष का ‘परम धर्म’ माना (समझा) जाता है

न्याय क्षेत्रे-अन्याय क्षेत्रे

एक अनब्याही मां का नाम है ‘करुणा’। करुणा (ईसाई) है। करुणा सुशिक्षित युवा है, आत्मनिर्भर है। करुणा अदालत से अपने बच्चे की संरक्षक घोषित करने की प्रार्थना करती है। करुणा पर 120 साल से अधिक पुराना कानून[1] लागू होता है। इस कानून के प्रावधानों में अनब्याही माँ के ‘अवैध’ बच्चे की संरक्षता (‘गार्जियनशिप’) के मामले में, बच्चे के पिता को भी शामिल करना जरूरी था/है। करुणा ने अदालत का दरवाजा खटखटाया तो ज़िला अदालत के न्यायाधीश उसकी याचिका यह कह कर खारिज कर दी कि पहले बच्चे के पिता का नाम और पता बताओ, ताकि उसे नोटिस भेज कर बुला सकें, पूछ सकें कि उसे कोई ‘एतराज’ तो नहीं! अपरिहार्य कारणों से, वह बच्चे के पिता का नाम और पता बताना नहीं चाहती (मान लो अगर उसे नाम या पता या दोनों मालूम ही ना हो तो?)

करुणा ने उच्च न्यायालय में अपील[2] दायर की तो दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति वाल्मीकि मेहता ने उसकी अपील[3] ठुकराते हुए कहा कि (अनब्याही) एकल माँ से सम्बंधित उसके दावे पर, बच्चे के पिता को नोटिस जारी करने के बाद ही फैसला किया जा सकता है। कानून में यही लिखा है! न्यायमूर्ति को लगता है कि “शायद कोई (वकील) उसे सही सलाह नहीं दे पा रहा”। न्यायमूर्ति कानून के ‘रखवाले’ भी हैं और ‘कैदी’ भी!

चार साल बाद (2015) देश के मीडिया ने यह समाचार प्रमुखता से बताया-सुनाया “अनब्याही माँ ही अपने बच्चे की कानूनी अभिभावक है”। दरअसल विशेष याचिका पर सुनवाई के बाद (दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय को बदलते हुए) देश की सर्वोच्च अदालत के विद्वान् न्यायमूर्ति विक्रमजीत सेन और जस्टिस अभय मनोहर सप्रे की खंडपीठ ने ‘ऐतिहासिक फैसला’[4] सुनाते हुए कहा कि अनब्हाही माँ को अपने बच्चो की संरक्षता (‘गार्जियनशिप’) के लिए, पिता की मंजूरी की जरूरत नहीं होगी। वह पुरुष (पिता) की सहमति के बिना भी, अपने बच्चे की कानूनन अभिभावक है। उसे बच्चे के पिता का नाम बताने के लिए, बाध्य नहीं किया जा सकता। बच्चे  के हित में यह जरूरी है कि उसके पिता को नोटिस देने की आवश्यकता से छुटकारा दिया जाए।

अदालत ने अपने फैसले में कहा कि ऐसे मामलों में न केवल माँ का नाम ही काफी होगा, बल्कि अनब्याही माँ को बच्चे के बाप की पहचान बताने की भी कोई जरूरत नहीं। सर्वोच्च अदालत ने अपने आदेश में कहा कि जब भी एक एकल अभिभावक या अविवाहित माँ अपने बच्चे के जन्म प्रमाण पत्र के लिए आवेदन करे, तो सिर्फ एक हलफनामा पेश किए जाने पर बच्चे का जन्म प्रमाण पत्र जारी कर दिया जाए। 

न्यायमूर्तियों ने दुनिया भर के अनेक दीवानी और दूसरे न्यायाधिकार क्षेत्रों का हवाला,समान नागरिक संहिता, सरला मुद्गल केस, और विभिन्न देशों में प्रचलित कानूनी दृष्टिकोण का जिक्र करते हुए कहा कि ‘कोई सरोकार नहीं रखने वाले पिता के अधिकारों से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण, नाबालिग बच्चे का कल्याण है। ऐसे मामलों में जहाँ पिता ने अपनी संतान के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है, उसे कानूनी मान्यता देना निरर्थक है। यह सरकार का कर्तव्य है कि प्रत्येक नागरिक के जन्म का पंजीकरण करने के लिए, आवश्यक कदम उठाए जाएं। आधुनिक समय और समाज में माँ ही अपने बच्चे की देखभाल के लिए सबसे बेहतर है और शब्द ‘ममता’ इस भाव को व्यापक रूप से व्यक्त करता है। 

लेकिन अदालत ने ‘बच्चे द्वारा अपने माता-पिता की पहचान जानने के अधिकार की रक्षा’ करते हुए, अपीलकर्ता से पूछताछ की, बेटे को पिता के नाम से अवगत कराने की आवश्यकता के बारे में भी बताया और तमाम विवरण के साथ ‘बच्चे के बाप का नाम एक लिफाफे में सीलबंद कर (करवा) दिया’, जिन्हें न्यायालय के स्पष्ट निर्देश के बाद ही पढ़ा जा सकता है।

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कहना कठिन है कि ऐसा करते हुए न्यायमूर्तियों के चेतन-अवचेतन में, ‘पिता के प्रेत’ कैसे और क्यों सक्रिय हो गए! यह फैसला एक समस्या को सुलझाने की कोशिश में, अनेक मसलों को उलझा रहा है।यहाँ भविष्य के सवाल हैं कि अगर बालिग स्त्री ‘सहजीवन’ में रह सकती है, उसे माँ बनने या ना बनने का अधिकार है, ‘कृत्रिम गर्भाधान’ से भी मां बन सकती है, निजी जीवन की गोपनीयता का हक़ है, विवाहित स्त्री भी पर-पुरुष से यौन सम्बंध बना सकती है, फिर भी उसे बच्चे के पिता का नाम (बंद लिफ़ाफ़े में लिख कर रखने) बताने के लिए, कानून की सर्वोच्च अदालत ने क्यों विवश किया? क्यों? इसका जवाब कौन और कब देगा!

क्षमा करें मी लार्ड! करुणा की पहचान छिपाने के लिए आप अपने निर्णय में जिसे ‘एबीसी’ कह (समझ) रहे हैं। दिल्ली हाईकोर्ट के निर्णय में उसका नाम करुणा ही लिखा-लिखाया गया था/है।) करुणा को ‘एबीसी’, सुचित्रा को ‘मिस एक्स’ और अन्य स्त्री को ‘एक्स वाई जेड’ कहने (समझने) से उनकी असली ‘पहचान’ नहीं बदलेगी। इन सबके लिए सवाल अस्मत या अस्तित्व का नहीं, अस्मिता का है। ये सब कुछ दाव पर लगाने के बाद ही अदालत तक पहुँची हैं।

करुणा उर्फ ‘एबीसी’ ईसाई होने की बजाए, हिन्दू होती तो कानून[5] या अदालत इतने सवाल ना पूछते। वहाँ कानून स्पष्ट है कि वैध संतान का संरक्षक पिता और अवैध संतान की संरक्षक माँ ही होगी।हालांकि बिना विवाह के बच्चा, सब धर्म-कानूनों में अवैध, नाज़ायज ही माना जाता है। निरंतर बदलते समय और समाज के साथ-साथ, कानूनों में भी तो संशोधन होना चाहिए। मगर कौन करे और क्यों?

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सबसे अधिक हास्यास्पद कानूनी प्रावधान यह है कि नाबालिग पत्नी का ‘संरक्षक’ उसका पति होता है, भले ही पति खुद ‘नाबालिग’ हो। कारण यह कि कानून[6]  अभी भी ‘बाल विवाह’ को पूर्ण रूप से ‘अवैध’ नहीं मानता। क्यों? संसद जवाब दे! इसीलिए ना कि विवाह तो ‘पवित्र संस्कार’ है और पति को अपनी पत्नी से बलात्कार तक का ‘कानूनी अधिकार’ है। और करुणा…अनब्याही करुणा (माँ) अपने बच्चे की ‘संरक्षकता’ के लिए करती रहे, ज़िला अदालत से सुप्रीमकोर्ट तक की सालों लंबी ‘बाधा दौड़’!

सच यह है कि पितृसत्तात्मक समाजों में, विवाह संस्था के ‘अंदर’ पैदा हुए बच्चे वैध मगर विवाह संस्था के बाहर (अनब्याही, विधवा या तलाकशुदा स्त्री से) पैदा हुए बच्चे अवैध  कहे, माने (समझे) जाते हैं। न्याय की नज़र में, ‘वैध’ संतान सिर्फ पुरुष की और ‘अवैध’ स्त्री की होती है। इसीलिए वैध संतान का ‘प्राकृतिक संरक्षक’ पुरुष (पिता) और ‘अवैध’ की संरक्षक स्त्री (अनब्याही, विधवा या तलाकशुदा माँ) होती है। उत्तराधिकार के लिए वैध संतान और वैध संतान के लिए-वैध विवाह होना अनिवार्य है।’अवैध संतान’ पिता की संपत्ति के कानूनी वारिस नहीं हो सकते। हाँ, माँ की सम्पत्ति (अगर हो तो) में बराबर के हकदार होंगे। मतलब यह कि जो वैध और कानूनी है, वो पुरुष का और जो अवैध या गैर-कानूनी है, वो स्त्री का। वाह! क्या कानूनी बँटवारा है!

कुछ साल पहले हिन्दू कानून में वैध बच्चों  की संरक्षता के बारे में, गीता हरिहरन केस में सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्तियों का निर्णय[7] यह था कि पति की ‘अनुपस्थिति’ में ही, पत्नी को संरक्षक माना जा सकता है। गीता हरिहरन निर्णय पर विस्तृत टिप्पणी पढ़ने के लिए देखें लेख ‘बच्चों पर माँ के अधिकार’।[8]

दरअसल, वैध-अवैध बच्चों के बीच यही कानूनी भेदभाव (सुरक्षा कवच) ही तो है, जो विवाह संस्था को विश्व-भर में, अभी तक बनाए-बचाए हुए है। वैध संतान की सुनिश्चितता के लिए- यौन शुचिता, सतीत्व, नैतिकता, मर्यादा और इसके लिए स्त्री देह पर पूर्ण स्वामित्व तथा नियंत्रण बनाए रखना, पुरुष का ‘परम धर्म’ माना (समझा) जाता है। विसंगति और अन्तर्विरोध देखिये कि विवाह से पूर्व या बाद में वयस्क स्त्री-पुरुष द्वारा सहमति से यौन संबंध (सहजीवन) अब कोई कानूनन अपराध (‘व्यभिचार’) नहीं।

सुप्रीम कोर्ट  के विद्वान पांच न्यायमूर्तियों (दीपक मिश्रा, खानविलकर, नरीमन, धनन्जय चंद्रचूड और इंदु मल्होत्रा) की संवैधानिक पीठ द्वारा ‘व्यभिचार’ के प्रावधान[9] को असंवैधानिक घोषित करने के निर्णय[10] के बाद से अब बालिग स्त्री-पुरुष  किसी से भी सहमती से यौन रिश्ते बना सकते हैं। दूसरे पुरुष की पत्नी के साथ, यौन संबंध भी कोई अपराध नहीं रहा। आपस में पति-पत्नियां बदलना (‘वाइफ स्वैपिंग’) विधान-सम्मत हो गया है।

उपरोक्त क़ानूनों की आड़ में भले ही फलता- फूलता रहे ‘आनंद बाजार’ और ‘देह व्यापार’! वेश्या, ‘काल-गर्ल’ या ‘एस्कोर्ट’ से यौन सम्बन्ध बनाना भले ही ‘अनैतिक’ हो, मगर पुरुष ग्राहक पर कोई अपराध नहीं। पकड़ी गई तो, ‘वेश्या’ को ही जेल जाना होगा। विडम्बना यह है कि भारतीय (मानुष) समाज में वैवाहिक पार्टनर के बीच ही यौन संबंध ‘नैतिक’ है, बाकी सब ‘अनैतिक’, जबकि कानून का ‘नैतिकता’ या ‘अनैतिकता’ से कोई लेना-देना नहीं है। कानूनी जाल-जंजाल में ऐसे और भी बहुत से प्रावधान हैं, मगर उन पर फिर कभी।

कोई भी स्त्री-पुरुष (सिवा मुस्लिम) पति/पत्नी के जीवित रहते, दूसरा विवाह नहीं कर सकता (अगर पहली पत्नी को एतराज़ हो)। दण्डनीय अपराध है।[11] पहली पत्नी के जीवित रहते दूसरा विवाह करे, तो ऐसा विवाह रद्द माना जायेगा। मतलब- यह कोई शादी नहीं। लेकिन दूसरे विवाह से पैदा हुए बच्चे ‘वैध’ माने-समझे जायेंगे’ दूसरा विवाह दंडनीय अपराध लेकिन केवल तब, जब ‘पहली पत्नी’ या उसके पिता-माता भाई-बहन-पुत्र या पुत्री आदि अदालत में शिकायत करे। पुलिस खुद चाहे तो भी, इसमें कुछ नहीं कर सकती। अब ऐसे में महान भारतीय सभ्यता-संस्कृति, संस्कारों की सीलन से भरे घर में ‘चुप्पी’ या ‘मौन व्रत’ साधे बैठी रहे, तो समाज सेवी महिला संघठन या मर्दों द्वारा एकतरफा बने-बनाये ‘कानून’, क्या कर लेंगे?

जी हां! फिलहाल यही और ऐसे ही हैं हमारे कानून। पुरुषों की यौन कामनाओं के लिए कानून के तमाम ‘चोर दरवाजे’ और उनके अवैध बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए, न्याय मंदिरों के दरवाजे हमेशा खुले हैं। स्त्री सिर्फ अपने ‘अवैध’ बच्चों की अभिभावक या संरक्षक हो सकती है। सच कहूं तो पुरुषों ने अपने हित में कैसे-कैसे कानून बनाये हैं-पढ़-सोच कर ही डर लगता है। स्त्री के संदर्भ में भारतीय ‘कानूनी जाल-जंजाल’, किसी जानलेवा ‘चक्रव्यूह’ से कम तो नहीं। इतने ‘क्रूर’ कानूनों में घिरी, ‘करुणा’ क्या करे!

संदर्भ :

[1] द गार्जियन एंड वार्डस एक्ट, 1890

[2] करुणा प्रीति बनाम दिल्ली राज्य, (एफएओ 346/2011, दिनांक 8 अगस्त, 2011)

[3] वही, एफएओ 346/2011

[4] एबीसी बनाम दिल्ली राज्य (एआईआर 2015 सुप्रीमकोर्ट 2569, दिनांक 6 जुलाई, 2015)

[5] हिन्दू अल्पव्यस्कता और अभिभावकता अधिनियम, 1956 की धारा 6

[6] बाल विवाह निषेध अधिनियंम, 2006

[7] गीता हरिहरन बनाम रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया (एआईआर 1999 सुप्रीमकोर्ट 1149)

[8] औरत होने की सज़ा (2006 संस्करण, पृष्ठ 64)

[9] भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 497

[10] जोसफ शाइन बनाम भारत सरकार (रिट पेटिशन क्रिमिनल 194/2017, दिनांक 27.09.2018)

[11] भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 494

(कॉपी संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

अरविंद जैन

अरविंद जैन (जन्म- 7 दिसंबर 1953) सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं। भारतीय समाज और कानून में स्त्री की स्थिति संबंधित लेखन के लिए जाने-जाते हैं। ‘औरत होने की सज़ा’, ‘उत्तराधिकार बनाम पुत्राधिकार’, ‘न्यायक्षेत्रे अन्यायक्षेत्रे’, ‘यौन हिंसा और न्याय की भाषा’ तथा ‘औरत : अस्तित्व और अस्मिता’ शीर्षक से महिलाओं की कानूनी स्थिति पर विचारपरक पुस्तकें। ‘लापता लड़की’ कहानी-संग्रह। बाल-अपराध न्याय अधिनियम के लिए भारत सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति के सदस्य। हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा वर्ष 1999-2000 के लिए 'साहित्यकार सम्मान’; कथेतर साहित्य के लिए वर्ष 2001 का राष्ट्रीय शमशेर सम्मान

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