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न्याय मन्दिर : महिलाओं का प्रवेश वर्जित है!

अरविंद जैन इस लेख में बता रहे हैं कि कैसे इस देश के न्यायालयों में महिलाओं को पहले तो वकालत करने से रोका गया और कैसे कानून बदला। साथ ही वे यह भी बता रहे हैं कि कैसे ‘मर्दाना’ साजिश के तहत आजतक सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनने से महिलाओं को रोका गया है

न्याय क्षेत्रे-अन्याय क्षेत्रे

आज से लगभग एक सौ तीन साल पहले (1916) की बात है एक थी रगीना…रगीना गुहा। बचपन से ही उसका सपना था “बड़े होकर कानून पढ़ना है और वकील बनना है”। पिता प्रियमोहन गुहा फौजदारी कानून के वकील थे। वकील साहब की चार बेटियों में से एक थी रगीना गुहा। संयोग से कलकत्ता विश्वविद्यालय में विधि विभाग की स्थापना (1909) हो गई। एम.ए. करने के बाद सपना देखते-देखते, रगीना जा पहुँची विधि विद्यालय और कानून पढ़ते-पढ़ते एक दिन, विधि स्नातक की सनद उसके हाथ में थी। अगले ही दिन रगीना ने वकील बनने के लिए, निर्धारित फॉर्म भरा और फीस सरकारी ख़ज़ाने में जमा करवा दी।

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लेखक के बारे में

अरविंद जैन

अरविंद जैन (जन्म- 7 दिसंबर 1953) सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं। भारतीय समाज और कानून में स्त्री की स्थिति संबंधित लेखन के लिए जाने-जाते हैं। ‘औरत होने की सज़ा’, ‘उत्तराधिकार बनाम पुत्राधिकार’, ‘न्यायक्षेत्रे अन्यायक्षेत्रे’, ‘यौन हिंसा और न्याय की भाषा’ तथा ‘औरत : अस्तित्व और अस्मिता’ शीर्षक से महिलाओं की कानूनी स्थिति पर विचारपरक पुस्तकें। ‘लापता लड़की’ कहानी-संग्रह। बाल-अपराध न्याय अधिनियम के लिए भारत सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति के सदस्य। हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा वर्ष 1999-2000 के लिए 'साहित्यकार सम्मान’; कथेतर साहित्य के लिए वर्ष 2001 का राष्ट्रीय शमशेर सम्मान

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