बीते 18 जून को झारखंड के सरायकेला में तबरेज़ अंसारी उन्मादी भीड़ की हिंसा के शिकार हो गए। इस घटना ने भारत में मुसलमानों के बीच ख़ौफ़ और नाराज़गी का माहौल एक बार फिर पैदा कर दिया है। इसके विभिन्न पहलुओं यथा अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ बढ़ते घृणा-जनित अपराधों, फ़ासीवादी रुझान दर्शाती सरकार और विपक्ष और मीडिया की भूमिका के संबंध में जेएनयू के पूर्व छात्र उमर खालिद ने विस्तार से बातचीत की :
तबरेज़ अंसारी की मौत के बाद मॉब लिंचिंग के खिलाफ आपने राष्ट्रीय स्तर पर हुए विरोध प्रदर्शन में आपने समन्वयक की भूमिका निभायी। क्या विरोध प्रदर्शन सरकार को यह मानने के लिए बाध्य कर सकते हैं कि भारत में लिंचिंग एक सामान्य घटना हो गयी है?
मैं ऐसे किसी मुग़ालते में नहीं हूँ कि दिन भर चलने वाले विरोध प्रदर्शनों से परिस्थितियों में ज़्यादा बदलाव आएगा। लेकिन इस देश के नागरिकों के लिए यह एक चुनौती है कि वे इस सरकार को भी संविधान का अनुपालन करने के लिए मजबूर करें, जो संवैधानिक मूल्यों की बजाय आरएसएस द्वारा अपनायी गयी अपनी खुद की फ़ासीवादी सोच के आधार पर चलती है। मैं मानता हूँ कि इसे एक दिन में हासिल नहीं किया जा सकता, बल्कि यह धर्म और जाति के आधार पर लोगों के बीच दरार पैदा करने वाली मानसिकता के ख़िलाफ़ रोज़मर्रा की जंग की शुरुआत है। आरएसएस ने अपने विभिन्न संगठनों के रूप में पूरे देश में एक व्यापक नेटवर्क स्थापित कर दिया है – ज़मीनी तौर पर भी और ऑनलाइन भी – जहां नफ़रत की आग को हवा दी जा रही है और लोगों को भारत के इतिहास का एक विकृत पाठ पढ़ाया जा रहा है। मुसलमानों की एक आक्रामक छवि दर्शाने की कोशिश की जा रही है और हिन्दुओं को अल्पसंख्यकों द्वारा हज़ारों सालों से लेकर आज तक दबाया हुआ बताया जा रहा है। यह सिर्फ़ सोशल मीडिया पर ही नहीं दिखाई देता, बल्कि जिस तरह से मुख्यधारा की मीडिया पर न्यूज़ डिबेट्स को एक निश्चित दिशा दी जा रही है और जो व्यवहार सत्तारूढ़ पार्टी के लोग विपक्ष के प्रवक्ताओं के साथ करते हैं, खासकर अल्पसंख्यक समुदाय से आने वालों के साथ। वहां भी यह प्रवृत्ति साफ़-साफ़ नज़र आती है। उदाहरण के तौर पर, कुछ साल पहले बीजेपी के प्रवक्ता संबित पात्रा द्वारा टीवी पर बड़े ही आक्रामक लहज़े में बात करते हुए, एक मुस्लिम पैनेलिस्ट को ‘मौलाना’, ‘मुल्ला’ जैसे शब्द कहकर उन्हें अपनी बात रखने से रोकते हुए देखा गया था। जब एक प्रवक्ता द्वारा इस तरह का बर्ताव किया जाता है तो उसके दबंग समर्थकों तक यही सन्देश पहुँचता है कि वे भी सड़कों पर इस तरह का बर्ताव कर सकते हैं और सड़कों पर तो इसका रूप कहीं ज़्यादा अश्लील, भौंड़ा होता है। उनके द्वारा बनाए गए व्यापक नेटवर्क को देखते हुए, हमें हर जगह इस विचारधारा के प्रतिकार में एक काउंटर-नेटवर्क स्थापित करना होगा, क्योंकि इस देश का हर नागरिक इससे प्रभावित होता है।
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