पर्दे के पीछे
(अनेक ऐसे लोग हैं, जो अखबारों की सुर्खियों में भले ही निरंतर न हों, लेकिन उनके कामों का व्यापक असर मौजूदा सामाजिक-सांस्कृतिक व राजनीतिक जगत पर है। बातचीत के इस स्तंभ में हम पर्दे के पीछे कार्यरत ऐसे लोगों के दलित-बहुजन मुद्दों से संबंधित विचारों को सामने लाने की कोशिश कर रहे हैं। इस कडी में प्रस्तुत है, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से संबद्ध समाज-राजनीतिकर्मी सुनील आंबेकर से कुमार समीर की बातचीत। स्तंभ में प्रस्तुत विचारों पर पाठकों की प्रतिक्रिया का स्वागत है। -प्रबंध संपादक)
बदलाव के लिए सामाजिक समरसता जरूरी : सुनील आंबेकर
- कुमार समीर
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के राष्ट्रीय संगठन मंत्री सुनील आंबेकर ने फारवर्ड प्रेस से खास बातचीत में कहा कि आरक्षण समय की मांग है और इसमें अभी काफी काम होना बाकी है। जब तक सामाजिक समरसता कायम नहीं होती है, तब तक यह जारी रहना चाहिए। प्रस्तुत है बातचीत का संपादित अंश :
कुमार समीर (कु. स.) : दलितों-ओबीसी के विकास और आरक्षण पर आपका क्या कहना है?
सुनील आंबेकर (सु.आं.) : सामाजिक रूप से पिछड़े तबके को सामाजिक व आर्थिक रूप से उन्नत बनाने के उद्देश्य से संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। बाद में मंडल कमिशन के बहाल किए जाने के बाद ओबीसी आरक्षण भी काफी उपयोगी साबित हुआ है। हालांकि इसमें कुछ हद तक सफलता मिली है, लेकिन इसमें अभी और काम होना बाकी है। संविधान को लागू हुए 70 साल होने को है लेकिन अभी तक इनका समुचित रूप से आर्थिक विकास नहीं हो पाया है। यह चिंता का विषय है। एक बात और बता दूं कि दलित विकास का ढिंढोरा पीटने से काम नहीं चलने वाला है, टुकड़ों में विकास संभव नहीं है। इस बात को गांठ बांध लेने की जरूरत है। गांवों, महिलाओं के विकास से ही बदलाव संभव है। समाज को बांटकर नहीं बल्कि सामाजिक समरसता बहाल कर ही विकास पथ पर बढ़ा जा सकता है। अभी इसकी कमी दिख रही है।

कु. स. : ऐसे में इसका आखिर तोड़ क्या है? क्या आरक्षण के तौर-तरीकों के पुनर्मूल्यांकन का समय आ गया है?
सु.आं. : सबसे पहले एक बात स्पष्ट कर दूं कि सामाजिक समरसता लाने के लिए आरक्षण जरूरी है। इसमें कहीं भी कोई भी संशय नहीं है और हमारे संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) का तो यह कमिटमेंट है। आरक्षण से ज्यादा से ज्यादा लोग लाभान्वित हों, यही हमारे संगठन की प्रमुख मांग रही है और इसपर आज भी हम कायम हैं।
कु. स. : ज्यादा से ज्यादा लोग लाभान्वित हों, यह कैसे संभव होगा? इसका कोई खाका है?
सु.आं. : देखिए, इसमें दो राय नहीं कि पिछले 70 साल से जाति के नाम पर राजनीति की जा रही है, लेकिन इसका लाभ उस जाति के लोगों तक समग्र रूप से नहीं पहुंच पा रहा है। महज 10-20 फीसदी लोग ही इस प्रक्रिया (आरक्षण) से लाभान्वित हो पा रहे हैं। हर जाति का एक बड़ा तबका इसके दायरे से अभी भी बाहर है। हमें इस तरफ ध्यान देना होगा कि आखिर कैसे इससे ज्यादा से ज्यादा लोग लाभान्वित हो सकें। यह तबका अभाव में है, इसलिए बहस हो रही है। समय है कि सबको मिलकर चाहे जिन्हें आरक्षण मिल रहा है या जिन्हें आरक्षण नहीं मिल रहा हेै, एकजुट होकर अभाव को खत्म करने की दिशा में आगे बढ़ें। जिस दिन ऐसा करने में हम सब सफल हो गए, उस दिन समाज में सामाजिक समरसता बहाल होने से कोई नहीं रोक सकता।
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कु. स. : अभाव खत्म करने के लिए और क्या किया जा सकता है?
सु.आं. : सालों पुरानी शिक्षा व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन कर हर वर्ग, हर जाति के लोगों को अभाव से मुक्त किया जा सकता है। इस दिशा में प्रयास शुरू हो चुके हैं और नई शिक्षा नीति से जल्द ही इसके परिणाम भी आने शुरू हो जाएंगे।
कु. स. : नई शिक्षा नीति के उन बिंदुओं पर प्रकाश डालें जिसके सहारे आप शिक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन का दावा कर रहे हैं?
सु.आं. : देखिए, देश भर में एक समान शिक्षा प्रणाली हो, यह सबसे जरूरी है और नई शिक्षा नीति में इसका खासतौर पर ध्यान रखा गया है। प्राथमिक शिक्षा की ही बात करें तो उसमें मल्टीपल यूज ऑफ स्कूल्स के साथ-साथ ग्रुप ऑफ स्कूल्स की बात की गई है ताकि गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं हो। ग्रामीण क्षेत्रों में अच्छे शिक्षकों की कमी भी इससे दूर की जा सकती है।
कु. स. : नई उच्च शिक्षा नीति में और क्या कुछ खास है?
सु.आं. : शिक्षा इंटीग्रेटेड हो, टुकड़े में नहीं सोचा जाय। पुरानी शैक्षिक संस्थाओं के री-स्ट्रक्चर पर बल देते हुए शिक्षा का स्वरूप क्या हो, इस पर फेज वाइज आगे बढ़ने की जरूरत पर बल दिया गया है। नई शिक्षा नीति में इसका ध्यान दिया गया है और क्रमबद्ध तरीके से नयी संस्थाओं को पुनर्गठित करने पर बल दिया जा रहा है। रिसर्च फाउंडेशन यूजीसी, एआइसीटीई जैसी संस्थाओं को एक जगह लाकर एक नई संस्था बनाए जाने का प्रस्ताव नई शिक्षा नीति में लाया गया है। इसके अलावा मेडिकल, एग्रीकल्चर, जर्नलिज्म आदि की अलग-अलग काउंसिल को भी एक छत यानी एक नई संस्था के तहत लाने का प्रस्ताव दिया गया है।
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कु. स. : संस्थाओं के एकीकरण से आखिर क्या फायदा होगा?
सु.आं. : इस बात को समझने के लिए सामान्य सा उदाहरण आपके सामने पेश करने जा रहा हूं। अभी बच्चे कॉमर्स, आर्ट्स, साइंस स्ट्रीम में पढ़ाई करते हैं, लेकिन नई शैक्षिक नीति के तहत हर बच्चा कॉमर्स, आर्ट्स व साइंस पढ़ेगा और यह वैश्विक प्रतिस्पर्धा में टिकने के लिए बहुत ही जरूरी है। अधिकांश विकसित देशों में इसी तरह की व्यवस्था के तहत पढ़ाई करवायी जाती है। प्रोफेशनल तरीके से पाठ्यक्रम तैयार कर बच्चों को हर विधा में पारंगत करने की जरूरत है ताकि मल्टीपल टास्क को हंसते-खेलते पूरा करने में वे सक्षम हो सकें।
कु. स. : वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए अंग्रेजीदा पाठ्यक्रम को बहाल करना तो इसके पीछे प्रमुख कारण नहीं है?
सु.आं. : एक बात बता दूं कि नई शिक्षा नीति में यह बात प्रमुखता से कही गई है कि अंग्रेजी के दबाव में नहीं आना है। बल्कि भारतीय भाषाओं के प्रोत्साहन के बारे में बल दिया गया है। यहां तक कि भारतीय भाषाओं का विश्वविद्यालय बनाए जाने पर जोर दिया गया है। हर भाषा का अध्ययन उसके पुराने और वर्तमान स्वरूप से करने की बात की गई है। इसके साथ-साथ अलग-अलग भाषाओं के साहित्य का अनुवाद कर उसका उपयोग किए जाने पर बल दिया गया है। इसलिए अंग्रेजीदा पाठ्यक्रम लागू करने की बात बिल्कुल बेमानी है, वैश्विक प्रतिस्पर्धा में टिकना, इसका मूल मकसद है।
कु. स. : अंत में आखिरी सवाल। तक्षशिला, विक्रमशिला जैसी शैक्षिक संस्थाओं को चलाने वाले देश में उच्च शिक्षा के मौजूदा हालात पर आपकी संक्षिप्त प्रतिक्रिया क्या है?
सु.आं. : इसमें कोई दो राय नहीं कि देश की गुलामी ने भारत की सात्विक शिक्षा परंपरा को तोड़ा है और साथ ही आजादी के बाद आए सरकारी तंत्र ने हमारे स्वर्णिम इतिहास को नकारा है। ऐसी शिक्षा व्यवस्था बनायी गई जिसने हमें अपनी जड़ों से काटा है। पाठ्यक्रम ऐसा हो जिससे भारतीयता को अक्षुण्ण रखा जा सके और शिक्षा रोजगारपरक हो। 21वीं सदी में छात्र और समाज के अनुरूप हमें पाठ्यक्रम तैयार करने होंगे।
(कॉपी संपादन : नवल)
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