परदे के पीछे
(अनेक ऐसे लोग हैं, जो अखबारों की सुर्खियों में भले ही निरंतर न हों, लेकिन उनके कामों का व्यापक असर मौजूदा सामाजिक-सांस्कृतिक व राजनीतिक जगत पर है। बातचीत के इस स्तंभ में हम पर्दे के पीछे कार्यरत ऐसे लोगों के विचारों को सामने लाने की कोशिश कर रहे हैं। इस कड़ी में हम प्रस्तुत कर रहे हैं, भारिप बहुजन महासंघ के संस्थापक व राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रकाश आंबेडकर का साक्षात्कार। स्तंभ में प्रस्तुत विचारों पर पाठकों की प्रतिक्रिया का स्वागत है। -प्रबंध संपादक)
- कुमार समीर
डॉ. भीमराव आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर दलित राजनेता और वकील हैं। वे भारिप (भारतीय रिपब्लिकन पक्ष) बहुजन महासंघ के संस्थापक व राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और महाराष्ट्र से लोकसभा व राज्यसभा सांसद रह चुके हैं। वे दलित-बहुजन एका के पक्षधर हैं। इस एका का इस साल होने जा रहे महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में कितना असर पड़ेगा, आरक्षण को लेकर देश में चल रही बहस, भूमिहीनता आदि मुद्दों पर प्रस्तुत है फारवर्ड प्रेस प्रतिनिधि कुमार समीर की उनसे हुई बातचीत का संपादित अंश :
कुमार समीर (कु.स.) : इस साल (2019) हुए लोकसभा चुनाव में दलित बहुजनों की एकता दरक गयी इसका असर सीटों पर भी पड़ा। क्या अब फिर से इस एकता के बनने की कोई उम्मीद आप देख पा रहे हैं?
प्रकाश आंबेडकर (प्र.आं.) : दलित-बहुजनों की एकता दरक गयी, यह कहना सरासर ग़लत है। सच्चाई यह है कि इस एका की बढ़ती ताकत को रोकने के लिए प्रयास किए गए और यह कोशिश आज भी जारी है। लेकिन बता दूं कि पारिवारिक पार्टी कांग्रेस और सवर्णों की पार्टी भाजपा इस प्रयास में बिल्कुल सफल नहीं होने वाली है। इनकी साजिश को दलित-बहुजन समझ चुके हैं और अब तक जो ये पार्टियां इस तरह की राजनीति करती आयी हैं, वह बिल्कुल नहीं चलने वाली है। इनकी दुकानदारी बंद होकर रहेगी।
कु.स. : राजनीतिक पार्टियों की इस तरह की दुकानदारी कैसे बंद होगी, जबकि समाज के भीतर ही नाराजगी चरम पर है मसलन, दलित समाज का एक तबका उत्तर प्रदेश में मायावती से तो महाराष्ट्र में रामदास आठवले से नाराज़ चल रहा है कमोबेश हर राज्य में दलित समाज अपने अपने मौजूदा दलित नेताओं से खुश नहीं हैं? ऐसे में क्या आपको लगता है कि आज का दलित समाज एक नया नेतृत्व चाहता है?
प्र.आं. : आपकी बातों से काफी हद तक सहमत हूं कि दलित नेताओं से जो अपेक्षाएं थीं, उस पर वे लोग बिल्कुल खरे नहीं साबित हुए। समाज का भला करने की बजाय खुद का भला करने में जुट गए, ऐसे में आम लोगों की नाराजगी का बढ़ना स्वभाविक ही है। जहां तक बदलाव की बात है तो यह तो प्रकृति का नियम है जब जो चीज फिट नहीं बैठेगा, उसकी जगह दूसरा लेगा। दलित समाज के नेताओं के साथ जो कुछ इन दिनों दिख रहा है या देखने को मिल रहा है, वह सब आम लोगों को नजरंदाज करने का ही परिणाम है।

कु.स. : दलित समाज के नेतृत्व को लेकर आपके पास कोई नई योजना है? अगर है तो उसके ब्लू प्रिंट के बारे में बताएं? साथ ही इन दिनों महाराष्ट्र में आप समाज के लिए क्या कुछ खास कर रहे हैं?
प्र.आं. : विधानसभा चुनाव तक फिलहाल मैंने स्वयं को महाराष्ट्र तक ही सीमित रखा है। लेकिन चुनाव बाद देश भर में दलित-बहुजनों को जोड़ने की मुहिम शुरू करने की योजना है। यह सब कैसे और किसके किसके सहयोग से होगा, इसके बारे में बाद में विस्तृत जानकारी मुहैया कराई जाएगी लेकिन अभी महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव को ही फोकस किया है। इस विधानसभा चुनाव के बारे में बता दूं कि इस बार के चुनाव में मुख्य मुकाबला भाजपा-शिवसेना व वंचित बहुजन आघाड़ी[1] के बीच होना निश्चित है। एनसीपी-कांग्रेस का वजूद बिल्कुल खत्म होने जा रहा है और वंचित बहुजन आघाड़ी काबिज होने जा रहा है।
कु.स. : आप राजनेता के साथ साथ वकील भी हैं, इसलिए इस सवाल का ग्राउंड रिएलिटी के साथ आपसे जवाब की उम्मीद है कि न्यायिक सेवा में आरक्षण की दरकार है या नहीं? इस पर आपकी राय क्या है?
प्र.आं. : न्यायिक सेवा में आरक्षण होना चाहिए क्योंकि वहां इंडिपेंडेंसी दिखाई नहीं दे रही है। हमारे दादा बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने जूडिशली को इंडिपेंडेंट रखने की बात प्रमुखता से की थी और कहा था कि अमेरिका की तरह बिल्कुल नहीं होना चाहिए जहां सुप्रीम कोर्ट नामिनेट करती है। कोलिजियम सिस्टम आदि दोषपूर्ण व्यवस्था पर भी तत्काल रोक लगनी चाहिए ताकि न्यायिक व्यवस्था पर पहले की तरह विश्वास बना रहे।
कु.स.: जाति आधारित जनगणना पर आपकी राय क्या है?
प्र.आं- जाति आधारित जनगणना होनी चाहिए ताकि पता लग सके कि कौन-कौन सी जातियां कितनी-कितनी संख्या में किस रूप में रह रहीं हैं और किन-किन जातियों का नामोनिशान मिट गया है। सच तो यह है कि बुद्धिजीवी, प्लानर्स ने कास्ट बेस्ड इकोनॉमी में सोनार, लोहार, नाई आदि जातियों को तवज्जो नहीं दी जिससे इनके समक्ष रोजी-रोटी का संकट उत्पन्न हो गया। इसी तरह 1930 छोटी जातियों का नामोनिशान तक नहीं हैं। जनगणना से यह भी पता लग सकेगा कि कौन-कौन सी जातियों का इकोनोमिक रीवाल्यूशन में जनसंहार कर दिया गया। साथ ही हमें इस बात के लिए भी सजग रहना होगा कि दूसरा इकोनोमिक रीवाल्यूशन अगर होता है तो और जातियों का नरसंहार ना हो, नामोनिशान नहीं मिटे।
कु.स. : ओबीसी उपवर्गीकरण को आप किस रूप में देखते हैं ?
प्र.आं. : सोशल जस्टिस के लिए सवर्णों से अलग हटकर आरक्षण की व्यवस्था की गई लेकिन इसमें सच्चाई है कि यह ओबीसी के एक क्लास तक ही सीमित रह गई। ओबीसी में शामिल सभी जातियों के लोगों को अवसर मिले। इसलिए मेरी नज़र में ओबीसी उपवर्गीकरण सही दिशा में उठाया गया कदम है।
कु.स. : अति पिछड़ी जातियों की एक बड़ी समस्या भूमिहीनता की है बिहार सहित कई अन्य राज्यों में दलित भूमिहीनों को भूमि देने की योजनाएं हैं। क्या राष्ट्रीय स्तर पर कोई पहल की जा सकती है?
प्र.आं. : भूतपूर्व राष्ट्रपति के. आर. नारायण ने अपने कार्यकाल में गवर्नरर्स लैंड रिकॉर्ड कमिटी का गठन किया था जिसका मकसद देश भर में सरकारी जमीन कितनी है, इसका पता लगाना था क्योंकि तब कई राज्य इस तरह की जानकारी देने से कतरा रहे थे, बहाना बना रहे थे। कमिटी ने रिपोर्ट सौंप दी लेकिन इसे सार्वजनिक नहीं किया गया, जिसके कारण आम लोगों तक जानकारी नहीं पहुंच पाई। सरकार के पास रिपोर्ट है। उसकी मंशा सही हो तो जरूरतमंदों को राष्ट्रीय स्तर पर भूमि वितरण की पहल शुरू की जा सकती है।
कु.स. : सरकार की कौशल विकास केन्द्र योजना एक महत्वपूर्ण योजना थी जिनमें शिल्पकार समाज के लोगों का कौशल विकास संभव था लेकिन अब यह योजना फेल होती दिख रही है। आख़िर इसकी क्या वजहें हैं ?
प्र.आं. : सच कहें तो सरकार की यह महत्त्वाकांक्षी योजना अपनी दोषपूर्ण नीतियों की वजह से दम तोड़ती हुई दिखाई दे रही है। सरकार की इस योजना ने जातिवाद को बढ़ाने का काम किया है। इसमें व्यवस्था दी गई कि जिस सेक्टर में जो जातियां काम कर रही हैं, उन्हीं का स्किल डेवलपमेंट किया जाए, जबकि यह आप्शन खुला होना चाहिए ताकि जो जिस सेक्टर में चाहे अपने हुनर को निखार सके।
कु.स. : सरकारी विभागों में नौकरियां आउटसोर्स की जा रही है। इस तरह आरक्षण की हकमारी हो रही है इस पर आपका क्या कहना है?
प्र.आं. : यह सब कुछ साजिश के तहत किया जा रहा है। सवर्ण समाज पे कमीशन के माध्यम से खुद को मजबूत कर चुका है और अब जब गैर सवर्णों की बारी आने की हुई तो कांट्रेक्ट सिस्टम बहाल कर दिया गया है। इससे समान काम के लिए समान वेतन की बहाली से बचा गया है, जो सरासर ग़लत व गैरसंवैधानिक है।
कु. स. : अंत में एक सवाल हाल में आए विभिन्न सर्वेक्षणों के अनुसार मीडिया में कुछ ऊंची कही जाने वाली जातियों का कब्जा है क्या आपको लगता है कि मीडिया जैसे क्षेत्र में जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है वहां भी सार्वजनिक प्रतिनिधित्व के लिए आरक्षण लागू किया जाना चाहिए?
प्र.आं. : हर जगह, हर क्षेत्र में आरक्षण जरूरी नहीं है। इंसानों को बदलने के लिए यह दवा नहीं है। इस बात को भी हम सबों को समझने की जरूरत है।
(संपादन : नवल)
संदर्भ :
[1] आघाड़ी मराठी शब्द है। हिंदी में इसका अर्थ गठबंधन होता है। प्रकाश आंबेडकर ने वंचित बहुजन आघाड़ी नामक एक राजनीतिक दल का गठन 20 मार्च 2018 को किया।
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