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बहुजन साहित्य में अवधारणामूलक शब्द किसके हैं?

सांस्कृतिक वर्चस्व के संघर्ष जितने बारीक होते हैं, परिवर्तनवादी साहित्य को उतना ही सतर्क और चेतना संपन्न होने की जरूरत होती है

फारवर्ड प्रेस के प्रिंट संस्करण से

बहुजन साहित्य हम किसलिए लिखना चाहते हैं? क्या राजनीति की तरह साहित्य में प्रतिनिधित्व चाहते हैं और क्या चाहते हैं कि हिन्दी साहित्य के सत्ता संसार में बहुजन साहित्यकारों को अच्छी-खासी जगह हासिल हो सके ? क्या हमारा उद्देश्य बहुजन साहित्य से सांस्कृतिक स्तर पर परिवर्तनवादी साहित्य की रचना करना है ? मैं यहां एक रूपक प्रस्तुत कर रही हूं। मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानती हूं जो बहुत शान से अपने नाम के साथ अपनी जाति के संबोधन को भी लिखते हैं। वे बहुजन समाज के सदस्य हैं। लेकिन जो बोलते हैं उसकी भाषा साहित्यिक हिन्दी होती है। अपनी भाषा भूलकर उन्होंने यह भाषा सिखी है और हिन्दी साहित्य में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इस संघर्ष में उनकी मुख्य शिकायत बहुजनों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार के रूप में सिमटी होती है।

रविदास जयंती के एक कार्यक्रम में एक वक्ता ने रविदास के प्रगतिशील विचार और कविता का एक चित्र सामने रखा। प्रगतिशीलता का अर्थ यहां सप्ष्ट करना जरूरी है। इसमें परिवर्तन की दिशा में निरंतरता बनी रहती है और उसकी समीक्षा होती रहती है। वक्ता ने भारत में जाति में बंटे समाज और बहुजनों के शोषण को थोड़ा ही व्याख्यायित करने की कोशिश की तो सुनने वाले उनकी बातों से असहज महसूस करने लगे जो उनके हाव-भाव से साफ -साफ दिख रहा था। इनके बाद के वक्ता ने जाति को भूलकर मानव बनने की हिमायत की। यह कहते हुए कि जाति न पूछो साधो की, पूछ लीजिए ज्ञान। उन्होंने दो-तीन बातों पर बहुत जोर दिया। एक तो यह कि रैदास के गुरु रामानंद थे। जबकि उससे पहले के वक्ता ने स्पष्ट रूप से रखा था रैैदास का गुरु स्वयं परमात्मा था। किसी और के गुरु होने का साक्ष्य ही नहीं मिलता। लेकिन वर्चस्ववादी धारा बार-बार किसी के गुरु होने पर बहुत बल देती है। जबकि कबीर ने भी लिखा है कि ब्राह्मण गुरु जगत का साधु का नाही। लेकिन ब्राह्मण को गुरु बनाने का दंभ इस समय भी जाता नहीं है। दूसरी ओर, जब भी किसी दलित साधक, विचारक या कवि की चर्चा होती है तो उसकी विरासत किन्हीं ब्राह्मणवादी प्रतीकों में खोजने की कोशिश की जाती है। रैदास को लेकर भी एक कहानी सुनाई गई कि गंगा नदी ने उन्हें कंगन भेंट किया और वो उपहार भी कैसे एक ्रब्राह्मण के हाथ रैदास को भिजवाया। ब्राह्मण ने लालच में आकर वो कंगन रैदास को न देकर राजा को दिया। राजा ने रानी को भेंट किया। लेकिन स्त्रियां स्वभाव से ही गहनों के प्रति लालची होती हैं तो रानी ने उस कंगन के जोड़े की मांग की जो कि उस ब्राह्मण के पास नहीं था। इसीलिए रैदास से संपर्क किया गया और उन्होंने रानी को यह कहते हुए अपने पास से दूसरा कंगन दिया कि यह गंगा की भेंट है जो उन्हें मिली है। यह एक कथा है।

इसके बरक्स रैदास के बारे में लोक में जो एक कथा सुनी जाती है। उनसे ईश्वर से मिलने का प्रमाण मांगा गया। जाहिर तौर पर वर्चस्ववादी सभ्यता के पोषक लोगों द्वारा ही, क्योंकि ईश्वर पर उनका ही कॉपीराइट है। लेकिन रैदास ने जो कहा उससे पहले यह एक घटना की प्रस्तुति यहां जरूरी है। मेरी एक बुआ की शादी उड़़ीसा के उस गांव में हुई जो आदिवासी बाहुल्य इलाका था और जिनके खाने में चींटी और कई तरह के कीट भी शामिल थे। उनके घर में काम करने के लिए आने वाली आदिवासी महिला बिजली के बल्ब के आस-पास उडऩे वाले पतंगों को सुबह बुहारकर ले जाती थी और सिल पर पिसकर चटनी जैसा व्यंजन तैयार कर लेती थी। इन पतंगों का स्वाद कैसा होता है ? एक दिन यह पूछे जाने पर उसने जवाब दिया-दीदी एकदम दुधिया-दुधिया लगता है। उसके इस जवाब पर मेरी बुआ का पूरा परिवार उसका मजाक उड़ाता हुआ हंसा, यह कहते हुए कि दूध कभी चखा है कि दुधिया स्वाद का तुझे पता भी हो।


ऐसे ही रैदास से पूछा गया था कि भई ईश्वर को कभी देखा है ? यह सवाल तुलसी से नहीं पूछा गया। बल्कि कहा गया कि चित्रकूट के घाट पर लगी संतन की भीड़, तुलसीदास चंदन घिसत तिलक देत रघुबीर। तो कहां तुलसीदास, कहां राम-लक्ष्मण, लेकिन दोनों मिले थे। इस अटकलबाजी की स्वीकृति सहज ही लोक दे देता है। पर रैदास से सवाल पूछा जाता है और रैदास एक संत और भक्त की गरिमा से जवाब देते हैं-हां, देखा है, यहीं, इसी जगह, जिस बर्तन में चमड़ा भिगोता हूं उसी में रोज अपने ईश्वर से भी मिल लेता हूं। लेकिन रविदास जयंती पर बोलने वालों ने भक्त कवि के इस आत्म स्वाभिमान को ब्राह्मण गुरु और गंगा के पानी में धो-पोंछकर बहा दिया। आखिर क्या कारण है कि दलित कवियों को मापने का निकष-कसौटी उस वर्चस्व की परंपरा से ढूंढकर लाए जाते हैं जिस रूढी के जंगल को कवि अपनी कविता से कांट-छांटकर बाहर निकालता है और रैदास को गंगा तक जाने की जरूरत क्या थी जिसे एक तबके ने नदी भी नहीं रहने दिया और अपना हमाम बना लिया कि पाप किया और गंगा में डुबकी लगाकर बहा दिया। और गंगा ने रैदास को दिया भी तो क्या सोने का कंगन। बेकार-बेकाम अंत में रानी के काम आने वाला। लोहे का औजार दिया होता तो जूते गांठने के काम आता। इसीलिए जबरन कथा खड़ी की जाए तो यही होता है। उसमें प्रयुक्त प्रतीक आने वाले समय में अपना भेद खुद ही खोल देते हैं। शमशेर याद आते हैं-बात बोलेगी हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही। इसीलिए गंगा और रैदास का ये संबंध काल के प्रवाह में टिकने वाला नहीं है। रैदास जीवित रहेंगे अपने चमड़ा भिगोने वाले उसी बर्तन में ईश्वर को देखते हुए।


कोई भी जयंती या कार्यक्रम एक रचना होती है। रैदास की जयंती में वह सारे उपकर्म हुए जिनका विरोध संत कवियों ने किया था। बड़ी-सी तस्वीर पर फूल-माला अर्पित किया गया और बार-बार दोहराया गया कि आज का दिन एक पावन दिन है। प्रसाद भी चढ़ाया गया। क्या पावन और पवित्र की जगह हमारे पास इस दिन को चिन्हित करने का कोई सलीका, कोई शब्द नहीं था। जैसे मानवीय गरिमा का दिन, सामाजिक न्याय का दिन, समतामूलक समाज संरचना का दिन। खुद संत कवियों ने पावन और अपावन की धारणा का जोरदार खंडन किया है, क्योंकि इसी एक शब्द में लपेटकर बहुसंख्यक जनता को हाशिये पर खड़ा कर दिया गया। अगर नई संस्कृति की बात करते हैं तो उसे बनाने के सारे औजार भी बदलने होंगे। जय भीम कहने में जो गर्व और स्वाभिमान महसूस किया जाता है, क्या उसकी पड़ताल नहीं की जानी चाहिए। जय यहां एक अवधारणा के तौर पर दोहराया जाता है। बोलो भीम, जागो भीम की चेतना पैदा करने वाली भाषा में एक दूसरे के भीतर स्वाभिमान और गर्व की अनुभूति नहीं होती है। भाषा में मूल बात अवधारणामूलक शब्द किसके हैं ? इससे परिवर्तन की निरंतरता या प्रतिनिधित्व की हिस्सेदारी तय होती है। अपने साहित्य की भाषा अपनी अवधारणाओं के साथ विकसित की जा सकती है और वही परिवर्तन की निरंतरता बनाए रख सकती है। बहुजन साहित्य का उद्देश्य खुद को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल बनने का होना चाहिए। लेकिन विडंबना देखें कि रैदास रविदास हो गए। ऐसे न जानें कितने नामों का ब्राह्मणीकरण किया जा चुका है और हमारी साहित्यिक चेतना को खटकती भी नहीं है। सांस्कृतिक वर्चस्व के संघर्ष जितने बारीक होते हैं, परिवर्तनवादी साहित्य को उतना ही सतर्क और चेतना संपन्न होने की जरूरत होती है।

(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल 2013 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

सपना चमड़िया

सपना चमड़िया चर्चित कवयित्री हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के राजधानी कॉलेज में पढ़ाती हैं

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