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घृणा पर प्रेम की जीत के प्रतीक : जोतीराव फुले

हमारी बेटियों के साथ बलात्कार हो रहे हैं, उन्हें मौत के घाट उतारा जा रहा है. हमारे बेटे व्यभिचारी बन रहे हैं. उन्हें गोलियों से भूना जा रहा है. हमारे नाती-पोते क्या अनाथ होंगें? ऐसे समय में फुले इस देश से क्या कहते? “मैं सत्य के मार्ग पर चलने वाले एक महान व्यक्ति को उद्दृत करूंगा: दूसरों से साथ वही करो, जो तुम चाहते हो कि वे तुम्हारे साथ करें.” 

शनिवार, 7 दिसंबर 2019 की सुबह अख़बार खोलते ही उसमें छपी खबरें पढ़कर मुझे गहरी पीड़ा पहुंची. पहले पन्ने पर तेलंगाना पुलिस के साथ मुठभेड़ में चार युवाओं की मौत की खबर थी. वे एक पशुचिकित्सक युवती के साथ बलात्कार और उसकी हत्या के प्रकरण में आरोपी थे. उसके बाद मैंने उन्नाव, उत्तर प्रदेश की एक बलात्कार पीड़िता की मौत की खबर पढ़ी. जब वह अपने मामले की सुनवाई के लिए अदालत जा रही थी तब उसके बलात्कारियों और उनके साथियों ने उसे आग के हवाले कर दिया था. अगले पेज पर नई दिल्ली में एक व्यक्ति द्वारा अपनी पत्नी और बहू पर चाकू से हमला किए जाने की खबर थी. उसे संदेह था कि वे दोनों व्यभिचारिणी हैं. 

दिसंबर के महीने में पूरी दुनिया ‘बहुजन’ गुरु ईसा मसीह – जिन्होंने एक बढई परिवार में अवतार लिया था – के जन्म का उत्सव मनाती है. मुझे स्मरण है कि कुछ साल पहले मैंने इसी पाक महीने में संपूर्ण प्रेम की उनकी शिक्षा के बारे में एक लेख लिखा था. 

बाइबिल प्रेम का वर्णन इन शब्दों में करती है: प्रेम धैर्यवान है, प्रेम दयालु है, वह ईर्ष्या नहीं करता. प्रेम डींग नहीं हांकता, अहंकार नहीं करता, अभद्र व्यवहार नहीं करता, अपनी भलाई नहीं चाहता, झुंझलाता नहीं, बुराई का हिसाब नहीं रखता, अधर्म से आनन्दित नहीं होता, परन्तु सत्य से आनन्दित होता है. सब बातें सहता है, सब बातों पर विश्वास करता है, सब बातों की आशा रखता है, सब बातों में धैर्य रखता है. (कुरिन्थियों, अध्याय 13, पद 4-7)

महिलाओं के खिलाफ हिंसा के विरोध में एक प्रदर्शन

लेकिन, जो कुछ मैंने अख़बार में पढ़ा, वह इन पदों में अंतर्निहित शिक्षाओं से एकदम उलट जान पड़ा. इनमें से प्रत्येक घटना का विश्लेषण करने की ज़रुरत नहीं है. जो सच है, वह एकदम स्पष्ट है. युवाओं और अन्यों की जानें अकारण जा रहीं हैं. अभिवावकों को अपने बच्चों की जुदाई सहनी पड़ रही है. दो छोटे बच्चे अपनी मां और दादी के प्रेम से वंचित कर दिए गए हैं.   

हम प्रेम का राष्ट्र बनना चाहते हैं, या नफरत का? क्या हम चाहते हैं कि हमारी बेटियों के साथ बलात्कार हो और उनकी जान ले ली जाए? क्या हम चाहते हैं कि हमारे लड़के बलात्कारी बनें और अपनी जान गवाएं? क्या हम चाहते हैं कि हमारे नाती-पोते अनाथ हो जाएं? 

अगर बचपन से हम हमारे बच्चों को प्रेम करना सिखाएं तो क्या होगा?  

बहुजन दुनिया में ही हमारे सामने एक ऐसे व्यक्ति का उदाहरण है जिसके जीवन में प्रेम ही प्रेम था. उसमें नफरत थी ही नहीं. वह व्यक्ति थे जोतीराव फुले (11 अप्रैल, 1827 – 28 नवंबर, 1890). अपनी युवावस्था में फुले को उनके एक ब्राह्मण मित्र की बारात में इसलिए शामिल नहीं होने दिया गया क्योंकि वे नीची ‘जाति’ से थे. इससे उन्हें बहुत क्लेश हुआ. यह क्लेश बहुत आसानी से ब्राह्मणों के प्रति घृणा में बदल सकता था. परन्तु प्रेम के उस सिद्धांत – जिसे उन्होंने अपने स्कॉटिश मिशनरी स्कूल में सीखा और जीवंत देखा था – ने उन्हें क्षमा करना सिखाया. न केवल उन्होंने ब्राह्मणों को क्षमा किया वरन एक कदम और आगे बढ़कर, उन्होंने उन गर्भवती ब्राह्मणी विधवाओं की मदद भी की, जिन्हें उनके घरों से निकाल बाहर कर दिया गया था. 

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वे यह अच्छी तरह से समझते थे कि प्रेम का अर्थ होता है अपनी ओर से पहल कर अपने आसपास के समाज में यथास्थिति को बदलना.

तर्कतीर्थ लक्ष्मण शास्त्री जोशी की पुस्तक ‘जोतीराव फुले’ कहती है : 

“यह साफ़ हो गया था कि जोतीराव के कार्य और उनकी शिक्षाएं न केवल ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को चुनौती देने वालीं थीं वरन वे हिन्दू धर्म की जड़ों पर प्रहार कर रहीं थीं. इससे विक्षुब्ध कुछ कट्टरपंथियों ने जोतीराव की हत्या करने के लिए कुछ लोगों को तैयार किया. जोतीराव के घर पहुँचने पर हत्यारे उनसे चर्चा करने लगे. जोतीराव ने उनसे पूछा, ‘आप मेरी हत्या करने क्यों आए हैं? मैंने आपके साथ क्या गलत किया है?’ हत्यारों ने कहा, ‘हम सब को इस काम के लिए एक-एक हज़ार रुपए मिलेंगे.’ जोतीराव का जवाब था, ठीक है, मेरी गर्दन प्रस्तुत है. मैं जानता हूँ कि आपकी गरीबी आपको यह करने पर मजबूर कर रही है.’ जोतीराव की इस उदारता से हत्यारे इतने प्रभावित हो गए कि वे पछताते हुए उनके चरणों में गिर पड़े और उनके आजीवन समर्पित अनुयायी बन गए. उनमें से एक, धन्दिराम कुम्भार, ने शिक्षा प्राप्त की और आगे चलकर सत्यशोधक समाज के एक महत्वपूर्ण स्तम्भ बने.”  

जोतीराव फुले व सावित्रीबाई फुले की पेंटिंग

जिस एक चीज़ ने जोतीराव के लिए यह संभव बनाया होगा कि वे उनकी हत्या करने आये लोगों को ना सिर्फ माफ़ करे दें बल्कि उन्हें अपने नज़दीक रखें, वह है प्रेम, ना कि भय. जैसा कि बाइबिल कहती है, “संपूर्ण प्रेम भय मुक्त करता है”. 

जोशी, फुले के प्रेम का और उदाहरण देते हैं, जो तत्कालीन समाज में एक क्रन्तिकारी कदम रहा होगा. “जोतिराव ने अपने घर के नज़दीक स्थित पानी के एक टैंक को अछूतों के लिए खोल दिया क्योंकि म्युनिसपालिटी ने अछूतों को पानी उपलब्ध करवाने की कोई व्यवस्था नहीं की थी. गर्मियों में उन्हें पानी लाने दूर तक पैदल जाना पड़ता था. जोतीराव की जाति के लोगों ने उन्हें जाति-च्युत करने की धमकी दी. ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया था क्योंकि ईसाई मिशनरी यह नहीं मानते थे कि अछूतों के संपर्क से वे प्रदूषित हो जाएंगे. जोतीराव ने सामाजिक दबाव का मुकाबला करने में अनुकरणीय साहस का प्रदर्शन किया. वे मानते थे थी वे सहीं हैं.” 

ईश्वर के राज्य के बारे में बाइबिल की शिक्षाओं ने उन पर गहरा प्रभाव डाला. उन्होंने अपनी अंतिम कृति ‘सार्वजनिक सत्यधर्म पुस्तक’ में लिखा :  

“निर्मिक ने भोजन, फूलों और फलों का निर्माण इसलिए किया है ताकि सभी मनुष्य उनका आनंद ले सकें. महिलाओं और पुरुषों ने एक-दूसरे के प्रति भाईयों और बहनों की तरह परस्पर पवित्र प्रेमभाव को अपने ह्रदय में स्थान नहीं दिया. यही कारण है कि दुनिया में सत्य का ह्रास हुआ और चारों ओर दुःख और कष्टों का साम्राज्य स्थापित हो गया. पुरुषों ने अपनी माताओं, बहनों, बेटियों और बहुओं के साथ गुलामों जैसा बर्ताव किया. अगर वे महिलाओं के अधिकारों के आड़े नहीं आते तो निर्मिक का राज्य इस धरती पर उतर आता और फिर सभी पुरुष और महिलाएं सुखी और संतुष्ट होते… ? मैं सत्य के मार्ग पर चलने वाले एक महान व्यक्ति को उद्दृत करूंगा: दूसरों से साथ वही करो, जो तुम चाहते हो कि वे तुम्हारे साथ करें.” 


यह आखिरी पंक्ति ईसा मसीह के शब्द हैं. इतिहास में किसी ने भी प्रेम की इतनी मौलिक और सकारात्मक व्याख्या नहीं की है. यही नफरत के ज़हर की एकमात्र अचूक औषधि है.   

जोतीराव ने अपने गले में कभी क्रॉस नहीं पहना, जैसा कि कई तथाकथित ईसाई करते हैं. परन्तु उन्होंने ईसा मसीह की शिक्षाओं को अपने जीवन में जीया. 

उनकी पत्नी सावित्री से उन्हें बच्चे नहीं हुए. उनका परिवार चाहता था कि वे दूसरा विवाह कर लें. यहाँ तक कि सावित्री के पिता भी इसी पक्ष में थे. परन्तु फुले को यह मंज़ूर न था. उन्होंने कहा, “अगर किसी स्त्री को अपने पहले पति से बच्चे नहीं होते तो क्या उसके लिए दूसरी शादी करना जायज़ होगा? पहली पत्नी से संतान न होने की स्थिति में पुरुषों द्वारा दूसरा विवाह करने की प्रथा अत्यंत क्रूर है.” वे अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करते थे और उनकी भावनाओं के प्रति अत्यंत संवेदनशील थे. 

क्या हम अपने बच्चों को इस तरह का प्रेम करना सिखाते हैं? क्या हमारे लड़के यह देखते हैं कि वे अपनी पत्नी और बेटियों के साथ प्रेम और सम्मान का व्यवहार करते हैं? या  उनके लिए वे केवल संतान पैदा करने और घर का काम करने वाली वस्तु हैं?

क्या हम उन्हें क्षमा करते हैं जो हमारे साथ कुछ गलत करते हैं?

क्या हम हर व्यक्ति में ईश्वर की छवि देखते हैं, फिर चाहे वह किसी भी जाति, नस्ल या लिंग का हो? क्या हम हमारे आसपास के सभी लोगों का एक सा सम्मान करते हैं? 

क्या हम जोतीराव फुले जैसे व्यक्ति गढ़ेंगे या हम एक ऐसी पीढ़ी का निर्माण करेंगे जो प्रेम की बजाय केवल नफरत करना जानती हो?

(संपादन : नवल/सिद्धार्थ)   


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लेखक के बारे में

डा. सिल्विया कोस्का

डा. सिल्विया कोस्का सेवानिव‍ृत्त प्लास्टिक सर्जन व फारवर्ड प्रेस की सह-संस्थापिका हैं

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