वंचित वर्ग के आंदोलन का विश्व में एक अलग इतिहास है और उसका एक अपना मुकाम है। विश्व स्तर पर वंचितों के आंदोलन का इतिहास दलित पैंथर के जिक्र के बिना पूरा नहीं हो सकता। बहुत थोड़े ही समय (करीब 5 साल 1972-77) तक चले इस दलित आंदोलन ने भारत में अपनी अमिट छाप छोड़ी है। फारवर्ड प्रेस, दिल्ली द्वारा प्रकाशित और दलित पैंथर के सह-संस्थापकों में से एक ज. वि. पवार द्वारा लिखित “दलित पैंथर : एक आधिकारिक इतिहास” एक दस्तावेज़ है, जिसके आधार पर 1970 के दशक में महाराष्ट्र में हुए क्रांतिकारी दलित आंदोलन के सभी पहलुओं को समझा जा सकता है।
दलितों के उत्पीड़न व शोषण के खिलाफ शुरू हुआ यह आंदोलन अमेरिकी अश्वेतों के “ब्लैक पैंथर” आंदोलन से प्रभावित था। ब्लैक पैंथर की स्थापना अमेरिका में 15 अक्टूबर, 1966 को हुई थी, जबकि दलित पैंथर का जन्म भारत में 29 मई, 1972 को हुआ। इस प्रकार देखें तो विश्व के दो प्रमुख देशों में वंचितों का आंदोलन एक ही तेवर में लगभग समकालीन सुर्खियों में रहे।
जिस समय भारत में दलित पैंथर की स्थापना हो रही थी, महाराष्ट्र में दलितों के साथ छूआछूत की भावना और जातिगत शोषण की स्थिति चरम पर थी। दैनिक अखबार दलितों के शोषण की खबरों से भरे होते थे। बेलगाम सामंती वर्ग शोषण कर रहा था। पुलिस प्रशासन शोषकों के साथ खड़ा था और राज्य सरकार मानों इस शोषण को मौन सहमति दे रही थी। शिवसेना के गुंडे दलितों के साथ अत्याचार कर रहे थे। कांग्रेस की सरकार दलितों की नहीं सुन रही थी।
दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं, अपने खेतों में बेगारी कराना, दलित बस्तियों के कुओं में मल-मूत्र डालना, विरोध करने पर उन्हें बहिष्कृत करना, यह सब उच्च जातियों के लोगों के हर रोज का काम हो गया था। ऐसी परिस्थिति में उस समय दलितों के लिए काम कर रही राजनीतिक पार्टी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) भी कुछ नहीं कर पा रही थी। यह भी कहा जा सकता है कि आरपीआई शोषक पार्टियों की तरफ थी।
ऐसे समय में दलित पैंथर की स्थापना हुई। ज. वि. पवार के मुताबिक, दलित पैंथर के शुरुआती दौर में उनके अलावा नामदेव ढसाल, राजा ढाले, दया पवार, अर्जुन डांगले, विजय गिरकर, प्रहलाद चेदवनकर, रामदास सोरटे, मारुति सरोटे, कुडी राम थोरात, उत्तम खरात और अर्जुन कस्बे जैसे लोग शामिल थे। सभी दलित लेखक थे। कुछ लेखकों की गिनती नामी मराठी साहित्यकारों में होती थी।
दलित पैंथर के पहले बयान में कहा गया कि महाराष्ट्र में जातिगत पूर्वाग्रह चरम पर है और सामंती वर्ग के लोग बेलगाम हो गए हैं। धनी किसान, सत्ताधारी और ऊंची जातियों के गुंडे जघन्य अपराध कर रहे हैं। इस तरह के अमानवीय जातिवादी तत्वों से निपटने के लिए मुंबई के विद्रोही युवकों ने एक नए संगठन “दलित पैंथर” की स्थापना की है।
महाराष्ट्र के दलितों के अंदर प्रतिरोध का साहस पैदा करनेवाले इस आंदोलन की शुरूआत मुंबई के ढोर चाल (छोटी जातियों के लिए प्रयुक्त शब्द) इलाके (जहां नामी कवि नामदेव ढसाल रहा करते थे) और कमाठीपुरा फर्स्ट लेन (सफाई कर्मचारियों के लिए आवंटित मकान जिसे सिद्धार्थ नगर भी कहा जाता था, जहां ज. वि. पवार रहते थे) में हुई।
दलित पैंथर के सामने राह आसान नहीं थी। 12 अगस्त, 1972 को एरण गांव में घटी एक घटना ने पूरे महाराष्ट्र को हिला कर रख दिया था। वहां रामदास नारनवरे नामक एक दलित किसान की क्रूरतापूर्वक हत्या कर दी गई। उसके पास 8 एकड़ भूमि थी और चार भाई मिलकर शांति और प्रसन्नतापूर्वक जीवनयापन कर रहे थे। अपने आत्म-सम्मान और अपनी आत्मनिर्भरता के कारण वे गांव के सामंतों की आंखों की किरकिरी बने हुए थे। इसीलिए सामंती लोग उन्हें सबक सिखाने का मौका ढूंढ रहे थे। उस समय गांव में हैजा की बीमारी से 2 लोगों की मृत्यु ने उन्हें यह मौका दे दिया। सामंतों ने बैठक बुलाई और निर्णय लिया कि गांव की देवी से सलाह लेंगे। एक भक्त के ऊपर देवी आई और उन्होंने इसके लिए रामदास नारनवरे को ही जिम्मेदार बताया। उन्होंने बताया कि नाारनवरे श्मशान घाट जाकर शैतान को प्रसन्न करने के लिए तांत्रिक प्रयोग करते हैं। इसी कारण गांव में हैजा फैला है। इससे बचाव का एक ही तरीका है नारनवरे की बलि।
गांव के सामंतों ने विचार करना शुरू किया कि बलि देने का क्या तरीका होगा। वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मनुस्मृति में वर्णित तरीका ही सबसे बढ़िया होगा। वह उन्हें जबरदस्ती पड़ोसी गांव पाटनसावंगी के मुखिया के पास ले गए। मनुस्मृति में निर्धारित नियमों के अनुसार नारनवरे की बलि दी गई। पहले उसके कान और नाक काटे गए फिर गला। उसके शव को एक कुएं में फेंक दिया गया। शव 2 दिन तक कुएं में पड़ा रहा। पुलिस ने इस मामले को यह कहकर रफा-दफा कर दिया कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत की वजह पानी में डूबने से हुई बताई गई है। क्योंकि मृतक दलित था इसलिए इस मामले को दबा दिया गया और लाश को दफना दिया गया। परंतु मीडिया को इस नृशंस हत्याकांड की खबर लग गई और इस बारे में दैनिक अखबारों में खबर छपने लगी तब शव को फिर से निकालकर पोस्टमार्टम करवाना पड़ा। तब कहीं जाकर मामला खुला। इस मामले में 9 लोगों को गिरफ्तार किया गया।
दलित पैंथर एक समय पूरे महाराष्ट्र में सक्रिय था। जहां कहीं भी दलितों के साथ शोषण की सूचना मिलती। सारे पैंथर वहां पहुंच जाते और दलितों को न्याय दिलाने का प्रयास करते हैं। एक बार राजगुरूनगर तहसील के अस्खेड़गांव में किसी उच्च जाति के व्यक्ति ने दलित किसान बिठूर दगड़ु मोरे की कनपटी पर बंदूक सटाकर 30 एकड़ भूमि को जबरन कब्जा कर लिया और उसमें फसल लेने लगा। जैसे ही दलित पैंथर को इसकी सूचना मिली, मुंबई से 92 दलित पैंथर तुरंत गांव पहुंचे और उनके दबाव के कारण पीड़ित दलित को जमीन वापस मिली और मुआवजा भी। इसी तरह जहां भी शोषण होता दलित पैंथर खड़े हो जाते।
अत्याचार के खिलाफ कार्रवाईयों के साथ ही दलित पैंथर के सदस्य अखबारों, साहित्यिक पत्रिकाओं में भी कॉलम लिख रहे थे। कविताएं लिख रहे थे। गौरतलब है कि दलित पैंथर के सभी सदस्य गरीबी से जुझ रह थे। परिवार चलाने को कोई टैक्सी चलाता, तो कोई कपड़ा मिल में मजदूर था। वहीं कुछ सरकारी नौकरियों में भी थे।
गैर दलितों के साथ भी खड़ा रहा दलित पैंथर
दलित पैंथर शोषण के खिलाफ खड़े थे। कुछ प्रगतिशील सवर्ण भी दलित पैंथर के साथ थे। इसके कारण उन्हें अपनी नौकरी में समस्या आती थी। बड़े अधिकारी उन्हें सस्पेंड करने या नौकरी से बर्खास्त करने की नोटिस देते। दलित पैंथर के सदस्य ऐसी घटनाओं के खिलाफ उठ खड़े होते और उन्हें न्याय दिलाते थे। इस प्रकार यह संगठन दलितों में किसी एक जाति तक सिमटा हुआ नहीं था।
दलित पैंथर के संबंध में अब तक चार किताबें लिखी जा चुकी हैं। इनके लेखक हैं – ज. वि. पवार, नामदेव ढसाल, अजय कुमार, शरण कुमार लिंबाले। दलित आंदोलन को समझने के लिए और खास तौर पर दलित पैंथर के आंदोलन को समझने के लिए इन चारों किताबों को पढ़ना जरूरी है।
पवार अपनी किताब में बताते हैं कि जगन्नाथ पुरी के शंकराचार्य निरंजन तीर्थ ने एक बार कहा था कि कोई मोची चाहे कितना ही पढ़ लिख ले वह मोची ही रहेगा और एक अछूत हमेशा अछूत ही रहेगा। दलित पैंथर को यह बर्दाश्त नहीं था। दलित पैंथर ने जगह-जगह शंकराचार्य का विरोध किया और महाराष्ट्र में उनके हर कार्यक्रम में बाधा डाली गई। शंकराचार्य इतना डर गए कि कई सालों तक महाराष्ट्र नहीं गए।
दलित पैंथर के सदस्य न केवल निर्भीक थे, बल्कि वे बहुत ही सूझ-बूझ के साथ बड़े बदलाव के लिए रणनीतियां बनाते और अमल में लाते भी थे। एक बार दलित पैंथर ने महाराष्ट्र में दलितों पर हो रहे हमले के विरोध में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की रैली में विरोध करने का प्रेस रिलीज जारी किया। स्थानीय प्रशासनिक तंत्र सकते में था। उन्होंने प्रधानमंत्री से दलित पैंथर के नेताओं की मुलाकात करवाई ताकि कार्यक्रम निर्विघ्न आयोजित किया जा सके। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि दलित पैंथर कितने प्रभावशाली थे।
दलित पैंथर ने राजनीति को भी गहरे रूप में प्रभावित किया, हालांकि ज.वि. पवार का कहना है कि दलित पैंथर एक गैर-राजनीतिक सामाजिक संगठन था। वह डॉ. आंबेडकर के पथ का अनुगामी है। दलित पैंथर के 5 साल के अल्पकालीन संघर्ष के दौरान कइ पैंथरों को जान की कुर्बानी भी देनी पड़ी। कई साथी पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारे गए।
दलित पैंथर आंदोलन के बंद होने के बारे में ज.वि. पवार अपनी किताब में बताते हैं कि दलित पैंथर के पतन का सबसे बड़ा कारण था पैंथरों के बीच में कई गुटों का उभर जाना। कई बार यह होता था कि एक ही शहर में दलित पैंथर के अलग-अलग कार्यक्रम, अलग-अलग गुट के लोग करते थे। इससे आम जनता और कार्यकर्ताओं में कन्फ्यूजन पैदा होता था। कुछ जगह दलित पैंथर के लोग पद में आने के बाद वसूली का धंधा करते थे और खुद दलितों का शोषण करने लगे थे। इसीलिए एक प्रेस रिलीज जारी करके दलित पैंथर को आधिकारिक रूप से भंग कर दिया गया।
बहरहाल, दलित पैंथर के बाद कोई भी ऐसा संगठन सामने नहीं आया है, जो उसकी कमी पूरी करता हो। कुछ लोगों ने जरूर दावा किया कि वह दलित पैंथर अभी भी चला रहे हैं। लेकिन वह सिर्फ कागजों में ही रहा। हाल के दिनों में भीम आर्मी की सक्रियता बढ़ी है और भीम आर्मी के सदस्य दलित पैंथर की तरह ही काम कर रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि भीम आर्मी को दलित लेखकों का साथ नहीं मिला।
समीक्षित पुस्तक – दलित पैंथर : एक आधिकारिक इतिहास
लेखक – ज.वि. पवार
प्रकाशक – फारवर्ड प्रेस
मूल्य – 500 रुपए (सजिल्द), 250 रुपए (अजिल्द)
ऑनलाइन खरीदें – अमेजन, फ्लिपकार्ट
थोक खरीद के लिए संपर्क – (मोबाइल) : 7827427311,
ईमेल : fpbooks@forwardpress.in
(उपरोक्त समीक्षा “लेखकों के जमीनी आंदोलन का नाम है दलित पैंथर” शीर्षक से 29 दिसंबर, 2019 को रायपुर, छत्तीसगढ़ से दैनिक नवभारत में पूर्व प्रकाशित का संपादित रूप है)
(संपादन: नवल/गोल्डी)