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कोविड-19 : दक्षिण छत्तीसगढ़ के आदिवासी दिखा रहे रास्ता

बस्तर के भानपुरी, बालेंगा, टिकनपाल व इच्छापुर आदि पंचायतों के गांवों में बाहर से आने वाले श्रमिकों के बारे में प्रशासन तथा स्वास्थ्य विभाग को अवगत कराया जा रहा है। मौके पर ही मजदूरों की स्क्रीनिंग की जा रही है। जरूरत पड़ने पर आइसोलेट भी किया जा रहा है। बता रहे हैं तामेश्वर सिन्हा

कोरोना वायरस को लेकर भले ही देश में ताली-थाली बजाए और दीये जलाए गए हों, परंतु छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में लोग अपने ही तरीके से इस भयंकर बीमारी से अपना बचाव कर रहे हैं। इसके लिए वे अपने तरीके से लॉकडाउन के नियमों का पालन भी कर रहे हैं। खास बात यह है कि इसमें अंधविश्वास नहीं है। सभी एक-दूसरे को कोरोना से कैसे बचें, इसकी सलाह दे रहे हैं। वहीं बस्तर और गरियाबंद जिले के धुर आदिवासी इलाकों के कई गांवों में ग्रामीणों ने नाकेबंदी कर दी है। जिससे कोई भी बाहरी व्यक्ति गांव में प्रवेश नहीं कर सके। वे आने-जाने वाले हर आदमी पर नजर रख रहे हैं। इसके अलावा गांवों में पोस्टर-बैनर के जरिए लोगों को जागरूक बनाया जा रहा है। 

स्थानीय आदिवासी भाषाओं में संदेश जारी

एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि आदिवासियों के बीच कोरोना वायरस से बचाव के तेरीकों को गोंडी, हल्बी व भतरी भाषा में भी पहूंचाया जा रहा है। ऐसे संदेश आदिवासियों ने व्हाट्सअप व अन्य सोशल मीडिया के माध्यम से भेजा जा रहा है, जिससे आधुनिक तौर-तरीके की जानकारी भी दी जा रही है। इस तरह से एक तरफ आधुनिक तकनीक का सही उपयोग तो दूसरी ओर अपने परंपरागत तौर-तरीकों को भी आदिवासियों ने कोविड-19 से बचाव में अपनाया है।

ग्रामीणों की नाकाबंदी

इस बारे में गरियाबंद जिले के ग्रामीणों का कहना है कि कोरोना संक्रमण के चलते इस प्रकार की व्यवस्था की गई है। इसके लिए गांवों में सूचना पत्र लगाया गया है, जिसमें स्थानीय सरपंच का मोबाइल नंबर दिया गया है। इमरजेंसी की स्थिति में गांव में प्रवेश करने को इच्छुक व्यक्ति सरपंच के नंबर पर संपर्क कर अनुमति मिलने के बाद गांव मे प्रवेश कर सकता है। इसी प्रकार के इंतजाम बस्तर के मारकेल, धनपुंजी व बकावंड ब्लाक के अंदरूनी गांवों में भी किया गया है। 

गांव के बाहर नाकेबंदी

बताते चलें कि बस्तर से बड़ी संख्या में मजदूर तमिलनाडु, आंध्र, महाराष्ट्र, कर्नाटक और अन्य राज्यों में मजदूरी करने जाते हैं। कोरोना वायरस से संक्रमण को लेकर अब नियोक्ताओं द्वारा उन्हें भगाया जा रहा है। ऐसे में वे मजदूर किसी तरह छिपते हुए अपने घरों को लौट रहे हैं। इस तरह बस्तर के भानपुरी, बालेंगा, टिकनपाल व इच्छापुर आदि पंचायतों के गांवों में बाहर से आने वाले श्रमिकों के बारे में प्रशासन तथा स्वास्थ्य विभाग को अवगत कराया जा रहा है। मौके पर ही मजदूरों की स्क्रीनिंग की जा रही है। जरूरत पड़ने पर आइसोलेट भी किया जा रहा है। 

गांव के अंदर सरकारी नल से पानी भरते समय महिलाएं रख रही हैं सोशल डिस्टेंशिंग का ध्यान

उत्तर बस्तर कांकेर के गांव गोतपुर के सरपंच रिकेस नेताम ने बताया कि ग्रामीणों की मदद से गांव के अंदर आने वाले रास्तों में हमने बांस का बैरिकेड लगा रखा है। यहां गांव के युवा बारी-बारी से तैनात रहते हैं। यहां आस-पास के गांवों के लोगों को आने-जाने की मनाही नहीं हैं । गांव के लोगों को इमरजेंसी काम रहने पर ही गांव के बाहर जाने दिया जाता है। हमारे गांव में सरकारी राशन बांट दिया गया है तथा सब्जी आदि गांव में ही उपलब्ध हो जाता है। इसलिए गांव के बाहर लोग तभी जाते हैं जब  कोई अति आवश्यक काम पड़ता है। इसके अलावा गांव के अंदर भी हम लॉकडाउन का पूरा पालन कर रहे हैं। शारीरिक दूरी का पालन कर रहे हैं।

यह भी पढ़ें : जब डॉ. आंबेडकर हुए “सोशल डिस्टेंसिंग” के शिकार

कांकेर जिले के ही माकड़ी गांव के योगेश नरेटी कहते है कि जंगलों से मिलने वाले उत्पाद पर हम निर्भर हैं। लेकिन मौसम अनुकूल नहीं रहने और व्यापारियों की मनमानी के कारण हमारी परेशानी बढ़ी है। जैसे अभी महुआ का सीजन है। हमारे लोग महुआ बीनने में तथा उसे बेचने में लगे हैं। परंतु व्यापारी हमारे महुआ का वाजिब मूल्य नहीं दे रहे हैं। योगेश कहते हैं कि राज्य सरकार लॉकडाउन के दौरान हम आदिवासियों को भी दिहाड़ी मजदूरी उपलब्ध कराए। हमारी आर्थिक हालत बहुत खराब है। 

स्वच्छता की आदिवासी परंपरा

वहीं छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में स्वच्छता से जुड़ी परंपराएं भी हैं। समाजिक कार्यकर्ता नारायण मरकाम कहते हैं कि हमारी परंपरा में महामारियों से बचाव के अनेक तरीके बताए गए हैं। जैसे गांवों में महामारी से बचने आज भी भादो (बरसात के मौसम में) जात्रा (उत्सव) के दौरान तेल-हल्दी लाकर उसे सीमा से बाहर किया जाता है। जिस गांव में देव स्थापित रहता है, वहां ले जाकर देव को समर्पित कर दिया जाता है। इसके पहले गांव की साफ-सफाई की जाती है। सूर्य बाली के अनुसार कोइतुर (गोंड) आदिवासियों के बीच रोन रजगा का त्यौहार अपने आप ही स्वच्छता से जुड़ी परंपराओं की अभिन्न हिस्सा हैं।

(lसंपादन : नवल/गोल्डी)

लेखक के बारे में

तामेश्वर सिन्हा

तामेश्वर सिन्हा छत्तीसगढ़ के स्वतंत्र पत्रकार हैं। इन्होंने आदिवासियों के संघर्ष को अपनी पत्रकारिता का केंद्र बनाया है और वे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर रिपोर्टिंग करते हैं

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