छत्तीसगढ़ में ‘राम’ को जबरन थोपा जा रहा है। सूबे की सरकार पूरी ताकत के साथ इस प्रयास में जुटी है कि राम, प्रांत की बहुजनवादी संस्कृति में पुख्ता तरीके से स्थापित हो जायें। इसके लिए सरकार ने 51 स्थानों को चिन्हित किया है। इस योजना को राम वनगमन पथ विकास योजना का नाम दिया गया है। बताया जा रहा है कि वनवास के समय राम छत्तीसगढ़ के जंगलों में भी आए थे।
कहने की आवश्यकता नहीं कि यह सब अनुचित है। इसके खिलाफ आंदोलन होना चाहिए। अभी पूरे विश्व में कोविड-19 का संक्रमण है। तमाम सरकारें इसे नियंत्रित करने में लगी हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल राम वनगमन पथ बनाने के लिए प्रशासनिक अमले के साथ बैठक कर रहे हैं। यह एक तरह से उनकी विफलता को छिपाने की कोशिश है। अभी संक्रमण के दौर में इसकी कोई जरूरत ही नही थी।
दिलचस्प बात यह है कि सरकार की तरफ से जो बातें कही जा रही हैं उनका कहीं कोई जिक्र नहीं मिलता है। उदाहरण के लिए मेरे ही गांव में, जहां मैं रहता हूं, लोगों को पता नहीं है कि राम कभी यहां आए थे। एक दिन सरकार के आदेश पर राम वन गमन का बोर्ड लगा दिया गया। जिस स्थान पर यह बोर्ड लगाया गया है, वह हमारे पुरखों का स्थान है। हम लोग उसे चिट्पीन माता के स्थान के नाम से जानते हैं। इस संबंध में सभी स्थानीय लोग जानते हैं परन्तु सरकार को इसकी जानकारी नहीं है। जाने उसे किस ग्रंथ या फिर किस इतिहासकार की पुस्तक से यह जानकारी मिल गयी है कि हमारी चिट्पीन माता यानी हमारी पुरखा का स्थान राम का स्थान है।

खैर, यह तो एक उदाहरण मात्र है जो मेरी आंखों के सामने है। ऐसे ही मामले अब और इलाकों से सामने आ रहे हैं। गोंड संस्कृति में रावण और महिषासुर को पुरखा माना जाता है। आज भी दशहरा के मौके पर रावण वध का आयोजन होता है या फिर दुर्गा के हाथों महिषाासुर का वध दिखाया जाता है तो छत्तीसगढ़ के गोंड आदिवासी इसका विरोध करते हैं। हाल के वर्षों में यह विरोध तेजी से बढ़ा है। दूसरी तरफ द्विज, जो हमारे प्रांत की संस्कृति पर कब्जा करना चाहते हैं, उनके द्वारा झूठे मामलों में हमारे लोगों को फंसाने की घटनाएं भी बढ़ी हैं। वर्ष 2016 में तो मेरे खिलाफ भी एक मामला दर्ज कराया गया।
इस बीच जहां एक तरफ मुख्यमंत्री भूपेश बघेल राम को स्थापित करने के चक्कर में एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं वहीं दूसरी तरफ उनका विरोध भी हो रहा है। उनका विरोध करनेवालों में स्वयं उनके पिता नंदकुमार बघेल शामिल हैं। यह सुखद है। हाल ही में धमतरी जिले के तुमाखुर्द में उन्होंने गांववालों के साथ मिलकर राम वनगमन पथ योजना के तहत सरकार द्वारा चिन्हित स्थल पर लगाए गए बोर्ड को उखाड़ फेंका और वहां बौद्ध विहार का बोर्ड लगा दिया। नंदकुमार बघेल लंबे समय से मूलनिवासियों की सांस्कृतिक अस्मिता की लड़ाई लड़ रहे हैं। इस कारण यह कहा जा सकता है कि पिता के विरोध की वजह से भूपेश बघेल सकते में हैं।
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असल में द्विज संस्कृति में अनगिनत देवी-देवता हैं और सबके पीछे कोई न कोई कहानी बना दी गयी है। इन कहानियों और प्रतिमाओं के जरिए यहां के मूलनिवासियों की संस्कृति को रौंदने की तैयारी की जा रही है। आश्चर्य इस बात का है कि यह सब भूपेश बघेल के कार्यकाल में हो रहा है, जो स्वयं पिछड़े वर्ग से आते हैं। यह कहना तो बिल्कुल ही अतिरेक होगा कि वे यहां के लोगों की संस्कृति और परंपरा को नहीं जानते। वस्तुत: यह सवाल बड़ा है कि आखिर वह वजह क्या है कि वे यह आत्मघाती कदम उठाने को मजबूर हैं?
क्या इसकी वजह यह है कि वे अपने लिए दूसरा कार्यकाल सुनिश्चित कर लेना चाहते हैं? वैसे उनकी पार्टी, यानी कांग्रेस, के इतिहास और चरित्र को ध्यान में रखकर आंकलन करें तो यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस में भी आरएसएस से जुड़े तत्व रहे हैं। उन्हें भी मूलनिवासियों की संस्कृति से उतना ही परहेज है जितना कि आरएसएस को।
दरअसल, यह समझने की बात है कि हिंदू धर्म को जबरन क्यों थोपा जा रहा है। क्या इसलिए क्योंकि मूलनिवासियों की प्रकृति-आधारित संस्कृति उनके मनमाफिक विकास में बाधक है? कहने का मतलब यह कि वे आदिवासियों की जल-जंगल-जमीन पर कब्जा तब तक नहीं कर सकते जब तक कि उनकी संस्कृति की हत्या न कर दें। यही वजह है कि यहां के लोगों को शबरी के बारे में बताया जा रहा है। शबरी रामायण की एक पात्र है जिसके बारे में कहा गया है कि उसने राम को अपने जूठे बेर खिलाए थे।
मैं यह मानता हूं कि भूपेश बघेल की यह चाल कामयाब नहीं होगी क्योंकि राम का नाम जप कर वे जिन लोगों का वोट पाना चाहते हैं, वे भाजपा के समर्थक हैं। चाहे वह राम वनगमन पथ योजना को लागू करें या फिर छत्तीसगढ़ में दूसरा अयोध्या ही क्यों न बनवा दें, द्विज तो उन्हें वोट देने से रहे। प्रांत के मूलनिवासियों की संस्कृति और परंपराओं पर कुठाराघात अवश्य हो रहा है।
मैं मानता हूं कि राज्य सरकार जो कुछ कर रही है, वह पूरी तरह से गैर-कानूनी है। हमारे यहां पेसा एक्ट लागू है। पांचवीं अनुसूची में शामिल होने के कारण ग्राम पंचायत की भूमिका निर्णायक है। यदि सरकार को किसी योजना को अंजाम देना भी है तो वह ग्राम पंचायतों से सलाह-मशविरा करे। ऐसा नहीं चलेगा कि सरकार के मन में जो आए वह करती फिरे। लेकिन यह नहीं हो रहा है। सरकार अपने हिसाब से स्थलों का चुनाव कर रही है। उसके फैसले में स्थानीय लोग शामिल नहीं हैं। यह सब जबरदस्ती थोपने की कोशिश है। हम लोग लॉकडाउन के बाद विरोध में ग्राम सभा से प्रस्ताव पारित कर सरकार को दे देंगे। हम वोट बैंक बनाने के लिए आदिवासी और पिछड़ों को राम की बलि नही चढ़ने देंगे।
(तामेश्वर सिन्हा से बातचीत के आधार पर)
(संपादन : नवल/अमरीश)