“अंदर से धिक्कार उठेगी, बाहर से हुंकार
मंत्री लेकिन सुना करेंगे अपनी जय-जयकार
सौ का खाना खाएंगे, पर लेंगे नहीं डकार
मरो भूख से, फौरन आ धमकेगा थानेदार
लिखवा लेगा घरवालों से- ‘वह तो था बीमार’“
– नागार्जुन की “वह तो था बीमार” शीर्षक कविता से
वर्ष 1955 में लिखी गई नागार्जुन की यह कविता आज भी चीख चीख कर कह रही है कि हमारा डिजिटल होना कोई मायने नहीं रखता क्योंकि सामाजिक व्यवस्था के मामले में हम आज भी वहीं खड़े हैं, जहां से हम चले थे। आज भी हम मनुवाद के शिकार हैं जिसमें संसाधनों का बंटवारे का आधार वर्ण व्यवस्था है। इसका प्रमाण भूख से होने वाली मौतें हैं। इनमें दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए शत प्रतिशत आरक्षण है। एक बार फिर एक दलित परिवार पांच साल की बच्ची की मौत भूख से हुई है।
सनद रहे कि 28 सितंबर, 2017 को झारखंड के सिमडेगा जिले में 11 वर्षीया दलित संतोषी कुमारी भात–भात रटते-रटते मर गई थी। इस घटना के ठीक दो साल और आठ महीने बाद 16 मई को लातेहार की एक 5 वर्षीया दलित बेटी निमनी कुमारी की भूख से मौत की खबर सरकारी व्यवस्था की पोल खोल रही है। तुर्रा यह कि प्रदेश सरकार और उसका तंत्र ईमानदारी से अपनी विफलता स्वीकारने व समुचित कार्रवाई करने के बजाय थेथरई पर उतर आया है।

मृतका निमनी कुमारी लातेहार जिला के मनिका प्रखण्ड अन्तर्गत डोंकी पंचाय के हेसातु गांव की थी।
लातेहार जिला मुख्यालय से लगभग 40 किमी दूर मनिका प्रखण्ड अन्तर्गत डोंकी पंचायत का एक गांव है हेसातु। यहां लगभग 110 परिवार रहते हैं। इनमें शामिल खैरवार (आदिवासी), तेली (ओबीसी) और कुम्हार (ओबीसी) जाति के लोगों के अलावा 35 भुईयां (दलित) परिवार के लोग भी रहते हैं। ये सभी भूमिहीन हैं। इन दलित परिवारों में से एक है जगलाल भुईयां का परिवार। उसके 8 बच्चों में क्रमशः रीता कुमारी (13 वर्ष), गीता कुमारी (12 वर्ष), अखिलेश भुईयां (10 वर्ष), मिथुन भुईयां (8 वर्ष), निमनी कुमारी (5 वर्ष,अब मृत), रूपन्ती कुमारी (3 वर्ष), मीना कुमारी (2 वर्ष) और चम्पा कुमारी (4 माह) हैं।
होली में 15 किलो चावल लेकर आया था मृतका का पिता
जगलाल अपने 2 बच्चों के साथ लातेहार शहर के निकट सुखलकट्ठा में ईंट पाथने का काम करके अपना व अपने परिवार का पेट पालता था। वह होली के समय केवल 15 किलो चावल लेकर घर आया था। होली के बाद वह सुखलकट्ठा फिर चला गया। लेकिन लॉकडाउन के कारण काम ठप्प रहा। आर्थिक तंगी बनी रही। किसी तरह परिवार की भूख मिटाने की कोशिश करता रहा। बीते 17 मई की सुबह वह अपनी बच्ची की मौत की खबर सुनकर घर पहुंचा। लेकिन वह अभागा अपनी मृत बच्ची की एक झलक भी नहीं देख पाया, क्योंकि ग्रामीणों ने पहले ही लाश को गाड़ दिया था।
घटना के संबंध में मृतका की मां कलावती देवी ने बताया कि पिछले करीब पांच दिनों से घर में खाना नहीं बन रहा था और परिवार के सभी सदस्य खाली पेट रहने को मजबूर थे। उसके पहले वह गांव में इधर–उधर से मांग कर खाना जुटा रही थी लेकिन बाद में लोगों ने भी उसे कुछ देने बंद कर दिया था। घटना के दिन सुबह बच्ची बिल्कुल सामान्य थी। दोपहर साढे़ बारह बजे के करीब 4-5 अन्य बच्चों के साथ वह नदी में नहाने गई थी। उधर से आने के बाद उसे हल्का बुखार था। उसने उल्टी की और फिर शाम को वह अचानक बेहोश हो गई। आस–पास के लोगों ने फरका (मिर्गी बीमारी) समझकर घरेलू इलाज करना शुरू किया। जब तक लोग मनिका को अस्पताल ले जाने के लिए गाड़ी आदि की व्यवस्था करते, तब तक बच्ची की जान जा चुकी थी।
जगलाल भुईंया का परिवार भुखमरी का शिकार था। गांव की सहिया दीदी (आशा कार्यकर्ता) भी इस बात को स्वीकारती हैं कि उनके घर में अनाज नहीं था।
मृतका के घर का किया मुआयना, नहीं मिला अनाज का एक दाना : ज्यां द्रेज
प्रख्यात अर्थशास्त्री व नरेगा सहायता केन्द्र के सदस्य ज्यां द्रेज बताते हैं कि उन्होंने अपने सहयोगी पचाठी सिंह और दिलीप रजक के साथ घर का मुआयना किया। उन्होंने पाया कि कि अनाज का एक दाना भी घर में नहीं था। हां, घटना की जानकारी मिलने के बाद सवालों से बचने के लिए मनिका के अंचलाधिकारी व प्रभारी प्रखंड विकास पदाधिकारी नंद कुमार राम ने आनन-फानन मृतका के घर में करीब चालीस किलो चावल और 5 हजार रुपए भिजवा दिये। अनाज के नाम पर केवल यही अनाज घर में मिला।

ज्यां द्रेज बताते हैं कि ”कलावती अपने बच्चों को खिलाने के लिए संघर्ष कर रही थी। उसे अपने जन–धन योजना खाते में 500 रुपए की एक किस्त और स्कूल व आंगनबाड़ी से थोड़ी मात्रा में भोजन या नकदी के अलावा सरकार से कोई सहायता नहीं मिली थी। वह और उसके बच्चे इधर–उधर से उधार लेकर या मांगकर कभी–कभी कुछ खा लिया करते थे।”
वे बताते हैं कि जब हमने कलावती से पूछा कि पिछले कुछ दिनों में वह और उसके बच्चे क्या खा रहे थे? तो वह बिलखते हुए बोली, “जब हमारे पास खाने के लिए कुछ नहीं है, तो हम क्या खा सकते हैं?”
न रोजगार न राशन
इस घटना ने सरकारी दावों की पूरी पोल खोल दी है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून में ऐसे भूमिहीन दलित परिवारों को स्वतः शामिल करने के प्रावधान के बावजूद इन्हें राशन कार्ड से वंचित रखा गया। सिर्फ यही नहीं, गांव में 5 सदस्यों वाले विनोद भुईयां के एक अन्य भूमिहीन परिवार को सफेद कार्ड (202100010836) थमा दिया गया है। पलामू प्रमण्डल में ऐसे हजारों दलित भूमिहीन परिवार हैं जिन्हें या तो सफेद कार्ड थमा दिया गया है या जिनके राशन कार्ड हैं ही नहीं।
मांग-आधारित मनरेगा योजना के लाभ से भी मृतका के गांव के लोग वंचित हैं। स्वयं उसके पिता जगलाल भुईयां के जॉब कार्ड (JH-06-004-006-004/59032) को भी 2 सितंबर, 2013 को ही प्रशासन ने निरस्त कर दिया था। ऐसा केवल एक उसके साथ ही नहीं हुआ बल्कि गांव के करीब डेढ़ दर्जन ऐसे परिवार हैं, जिनके जॉब कार्डों को बिना किसी वैध कारण के 4-5 साल पहले ही निरस्त कर दिया गया।
क्या सरकारी तंत्र की निष्क्रियता का यह ठोस प्रमाण नहीं है कि अभावग्रस्त हेसातु व नैहरा में किसी तरह का मनरेगा कार्य नहीं चल रहा है।
झारखण्ड नरेगा वाॅच के संयोजक जेम्स हेरेंज बताते हैं ”सरकार ग्राम पंचायत के मुखिया के माध्यम से जरूरतमन्द परिवारों को 10 किलो खाद्यान्न देने का ढिंढोरा पीट रही है। वह ऐसे परिवारों के लिए जले में नमक छिड़कने जैसा है।
एक पंचायत के लिए केवल दस हजार रुपए
ग्राम पंचायत मुखिया पार्वती देवी का कहना है कि “लॉकडाउन शुरू होने के समय मुझे पूरी पंचायत के लिए दस हजार रूपए आपदा राहत के तहत सरकार ने दिए थे। वे कब के खत्म हो चुका हैं। इधर सरकार लगातार लॉकडाउन की अवधि बढ़ा रही है। लेकिन आपदा राहत में राशि आवंटित करना तो दूर पंचायत के खाते में 13वें वित्त आयोग की जो राशि पड़ी है, उसे आपदा राहत मद में उपयोग करने हेतु 15 दिन पहले प्रखण्ड विकास पदाधिकारी को मार्गदर्शन हेतु लिखे गए पत्र का उक्त अधिकारी ने संज्ञान नहीं लिया। इसके अतिरिक्त हेसातु गांव से 36 ऐसे लोगों की सूची डीलर के सहयोग से प्रखण्ड विकास पदाधिकारी को सौंपी गई है, जो खाद्यान्न संकट का सामना कर रहे हैं। लेकिन इस पर भी सरकारी अधिकारी ने किसी तरह की कार्रवाई नहीं की।”

अभावग्रस्त गांवों में सरकार नदारद
बताते चलें कि ग्राम पंचायत के खरबनवा टांड़ गांव में दीदी किचन चलाया जा रहा है। लेकिन यह हेसातु गांव से दूर है। इस कारण ज़रूरतमंद वहां नहीं पहुंच पाते। हेसातु गांव में प्राथमिक विद्यालय है, लेकिन इतनी आबादी होने के बाद भी यहां आंगनबाड़ी केन्द्र नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के विपरीत, इस गांव में आंगनबाड़ी केन्द्र खोलने के लिए जिला प्रशासन को ग्रामीणों द्वारा बच्चों की सूची के साथ 2010 में दिया गया आवेदन ठंडे बस्ते में है।
हेसातु गांव के ठीक बगल में पगार और शैलदाग गांव है जहां के राशन डीलर को मार्च महीने के खाद्यान्न की कालाबाजारी के आरोप में जिला प्रशासन ने निलंबित कर दिया है। लेकिन जिला प्रशासन उस डीलर पर आज तक न तो आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के तहत प्राथमिकी दर्ज करा पाया है और ना ही राशन से वंचित परिवारों को खाद्यान्न वितरण करवा पा रहा है। मनिका के सेमरी गांव के 175 राशन कार्डधारियों की भी ठीक यही पीड़ा है।
झारखण्ड नरेगा वाॅच के संयोजक जेम्स हेरेंज कहते हैं, ”भोजन के अधिकार पर काम कर रहे सामाजिक संगठनों की हमेशा से मांग रही है कि प्रत्येक जरूरतमंद परिवार को राशन कार्ड से जोड़ा जाए, खासकर भूमिहीन दलित, आदिवासी परिवारों को। सभी दालित आदिवासी व दलित गांव और टोलों में आंगनबाड़ी केन्द्र खोले जाएं। लोगों को भूखमरी से बचाने के लिए दीदी किचन जैसी व्यवस्था को आंगनबाड़ी तथा विद्यालय के स्तर पर प्रारंभ किया जाए। प्रत्येक गांव एवं टोलों में युद्ध स्तर पर मनरेगा योजनाओं को शुरू किया जाए। सरकार एक मजबूत शिकायत निवारण प्रणाली की व्यवस्था करे।”
खून में चीनी से भूख की जांच
लातेहार के जिला चिकित्सा पदाधिकारी डा. एस. पी. शर्मा से जब बच्ची की भूख से हुई मौत के संबंध में पूछा गया तो तो उन्होंने कहा कि ‘अभी तय नहीं है कि निमनी कुमारी की मौत भूख से ही हुई है। हमने जांच टीम गांव में भेजी है। वे बच्ची के परिवार वालों के खून में चीनी की मात्रा की जांच करेंगे। अगर चीनी की मात्रा कम मिलेगी तभी समझा जाएगा कि परिवार को खाना नहीं मिला था। लेकिन अगर चीनी का स्तर सामान्य हुआ तो समझा जाएगा कि उन्हें भोजन की कमी नहीं हुई है।”
दूसरी तरफ चिकित्सक मानते हैं कि खून में चीनी की मात्रा की जांच से इसकी पुष्टि नहीं की जा सकती है कि मौत की वजह भूख है। बोकारो में चिकित्सक डा. श्रीकांत ने दूरभाष पर बताया कि मेडिकल साइंस में अभी तक यह जाने का कोई तरीका नहीं है किसी भी मौत की वजह भूख है। इसकी वजह यही कि लंबे समय तक भूख के कारण शरीर के अंदर की प्रतिरोधक क्षमता खत्म होने लगती है। फिर मौत किसी भी कारण से हो सकती है। मानव शरीर में ब्लड शुगर की मात्रा तब तक बनी रहती है जब तक कि शरीर के अंग पूरी तरह काम करना न बंद कर दे। ऐसे में मृतका के परिजनों के खून में ब्लड शुगर की जांच से इसकी पुष्टि तो कभी नहीं हो सकती कि मृतका की मौत की वजह भूख से हुई। चूंकि खाना खा लेने या फिर शर्बत आदि पी लेने से ब्लड शुगर की मात्रा आधे घंटे के अंदर सामान्य हो जाती है।
डोंकी पंचायत की मुखिया पार्वती देवी ने बताया कि ”17 मई की रात को कुछ सरकारी लोग आए थे जिसमें एकाध नर्स भी थीं। उन्होंने निमनी कुमारी के परिवार वालों की कुछ जांच किया है। क्या जांच किया, हमें नहीं पता।”
बहरहाल, लॉकडाउन के कारण जहां एक तरफ देश के हर प्रमुख शहर से अप्रवासी मजदूर अपने बाल बच्चों के साथ जैसे तैसे पैदल अपने घरों की ओर कूच कर रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ गांवों में जगलाल भुईयां सरीखे लाखों गरीब परिवार हैं, जिनके बच्चे भूख से मरने को विवश हैं।
(संपादन : नवल/अमरीश)