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आज भी बंधुआ मजदूर हैं चाय बागान के श्रमिक : मुक्ति तिर्की

राजन कुमार से विशेष बातचीत में ‘दलित आदिवासी दुनिया’ के संपादक मुक्ति तिर्की बता रहे हैं पश्चिम बंगाल और असम के चाय बागानों में काम करने वाले आदिवासी श्रमिकों के बारे में। उनके मुताबिक वे दो सौ साल बाद भी बंधुआ मजदूर हैं। उन्हें न्यूनतम मजदूरी भी नहीं दी जा रही है। वहीं असम में उन्हें एसटी का दर्जा भी हासिल नहीं है

पश्चिम बंगाल के डुवार्स-तराई और असम के चाय बागानों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी दो सदियों से कार्यरत चाय बागान श्रमिकों की स्थिति काफी दयनीय है। ये मानव सूचकांक में निम्नतर स्तर पर हैं। यहां के श्रमिकों में कुपोषण एवं अन्य बीमारियां सामान्य बात है। यहां के चाय बागानों से कभी-कभी श्रमिकों के भूख से मरने की खबरें भी आती रहती हैं। इन्हीं मुद्दों पर वरिष्ठ आदिवासी बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता तथा दिल्ली से प्रकाशित साप्ताहिक अखबार ‘दलित आदिवासी दुनिया’ के प्रकाशक-संपादक मुक्ति तिर्की से राजन कुमार ने दूरभाष पर विशेष बातचीत की। मुक्ति तिर्की पश्चिम बंगाल के डुवार्स-तराई के चाय बागानों में ही पले-बढ़े हैं। मुक्ति तिर्की के पिता पियुस तिर्की खुद चाय श्रमिक यूनियन के नेता तथा चाय बागान में टीचर थे, साथ ही डुवार्स के अलीपुरदुआर संसदीय सीट से 5 बार सांसद भी रहे। स्वयं मुक्ति तिर्की को देशभर में आदिवासियों के ज्वलंत मुद्दों पर आवाज उठाने तथा आंदोलन करने के लिए जाना जाता है। उन्होंने शिबू सोरेन के साथ मिलकर झारखंड राज्य बनाने के लिए भी आंदोलन किया था। प्रस्तुत है बातचीत का संपादित अंश 


असम में दो सौ साल बाद भी एसटी दर्जा के लिए लड़ रहे आदिवासी चाय श्रमिक 

  • राजन कुमार

चाय बागानों में काम करने वाले आदिवासी मजदूरों के शोषण की खबरें आती रहती हैं। आखिर क्या वजह है कि न्याय नहीं मिलता? यह इसके बावजूद कि अनेक श्रमिक संगठनें भी इन इलाकों में सक्रिय हैं।

वैसे तो चाय बागान के श्रमिकों को न्याय दिलाने की प्रक्रिया प्लांटेशन लेबर एक्ट, 1951 के द्वारा संचालित होती है। लेकिन, सामान्य प्रक्रिया यह है कि श्रमिक अपनी शिकायतें श्रमिक संगठनों के माध्यम से चाय बागान मालिकों व मैनेजरों के संज्ञान में लाते हैं। रही बात श्रमिक संगठनों की तो वे विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा संचालित होते हैं। ये संगठन स्थानीय समिति के सहयोग से काम करते हैं। 

इस तरह इनके मालिक राजनैतिक दलों के नेता मुखिया गैर-आदिवासी या गैर-चाय बागान श्रमिक हैं। वे सभी राजधानी कोलकाता में रहते हैं। दूसरी तरफ चाय बागानों के स्थानीय नेता जो कि श्रमिक वर्ग से ही होते हैं और उनके पास श्रमिक कानूनों के संबंध में ज्ञान का अभाव रहता है। साथ ही उनमें चाय बागान मालिकों के सामने दृढ़ता से अपनी शिकायतें पेश करने की हिम्मत नहीं होती है।

एक वजह यह भी कि श्रमिकों के नीतिगत मामले सुदूर कोलकाता में सुलझाए जाते हैं, ऐसे में श्रमिकों के समस्याओं के निराकरण में विलम्ब ही नही, अक्सर अधूरे भी रह जाते हैं।

यदि चाय बागान का मालिक या मैनेजर ही श्रमिकों का शोषण करे तब श्रमिकों को न्याय कैसे मिलेगा? मैनेजर या मालिक खुद पर लगाए गए आरोप पर कैसे न्याय कर सकते हैं? 

मैं पहले सवाल के जवाब को थोड़ा और स्पष्ट कर दूं। आपका पिछला सवाल थोड़ा स्पष्ट नहीं था। चाय बागान में आवास, दवाई, राशन, पानी इत्यादि से संबंधित समस्या हो तो शिकायत मैनेजर या मालिक से ही की जाती है। लेकिन यदि मालिक या मैनेजर के खिलाफ कोई मामला हो तो लेबर कोर्ट जाएंगे। 

पहला सवाल भी श्रमिकों के समस्याओं से संबंधित था और यह भी कि आखिर उन्हें न्याय क्यों नहीं मिल पाता और वे बंधुआ मजदूर की तरह रहे हैं।

देखिए मैं भी आपको यही बताना चाहता हूं। बागान मालिक के खिलाफ ही शिकायत है तो वह कैसे निवारण करेगा? लेकिन यदि बगान के अंदर कोई विशेष समस्या है तो तो बागान मालिक से ही शिकायत करना होगा। लेकिन होता यह है कि यदि बागान मालिक शिकायत व समस्या का समाधान नहीं करता है तो फिर लेबर कोर्ट में जाना ही पड़ेगा। वैसे भी लेबर कोर्ट जाने का प्रावधान तो है ही। परंतु, वहां भी समस्या कम नहीं है। लेबर कोर्ट सुस्त है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि लेबर कोर्ट में आज तक किसी भी बागान मालिक के खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया गया है। इतिहास गवाह है कि आज तक कोई भी बागान मालिक जेल नहीं गया है। जब मर्जी तब ये बागान मालिक बागान गैर-कानूनी तरीके से बंद करके भाग जाते हैं। यहां तक कि मजदूरों के प्रोविडेंट फंड का पैसा भी जमा नहीं करते हैं। 

दलित आदिवासी दुनिया के प्रकाशक व संपादक मुक्ति तिर्की

इसका मतलब यह कि न तो बागान मालिकों पर कार्रवाई होती है और ना ही श्रमिकों को न्याय मिलता है?

बिल्कुल, श्रमिकों को न्याय मिलता ही नहीं है।

अच्छा तो क्या आपको लगता है कि चाय बागानों के मजदूरों के साथ नाइंसाफी की एक बड़ी वजह यह है कि ये प्रवासी हैं? मेरे कहने का मतलब यह है कि दूसरे प्रदेशों से आए हैं?

देखिए, चाय बागान श्रमिकों के प्रवासी या स्थानीय होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। भयानक घने जंगलों को साफ कर चाय की खेती की शुरुआत इन्ही श्रमिकों के पूर्वजों ने की थी। वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी काम करते आ रहे हैं। इसलिए प्रवासी या बाहरी होने के कारण शोषण के शिकार होने की बात नही है। आपको यह समझना होगा कि ब्रिटिश शासन काल में ब्रिटिश चाय कंपनियों ने ही ऐसा सिस्टम स्थापित किया कि ये बंधुआ मज़दूर होते हुए भी ख़ुश रहते हैं और कोई शिकायत नहीं करते हैं। इसका मूल कारण यह है कि इन्हें मालिकों द्वारा कुएं का मेंढक बनाकर रखा जाता है। इनके रहवास की व्यवस्था ऐसे की जाती है जिससे कि ये शेष दुनिया से कटे रहें। मतलब यह कि इन्हें किसी शहर या हाईवे से कम-से-कम 20-25 किलोमीटर दूर जंगलों के आस-पास बसाया गया है। वहां उन्हें किसी भी ज़रूरत के लिए नज़दीकी शहर की ओर जाने की ज़रूरत नहीं होती, क्योंकि उन्हें राशन, आवास आदि चाय बागान में ही उपलब्ध करा दी जाती है। बाहरी दुनिया से कटे रहने के कारण इन्हें तो यह भी महसूस नही होता कि इनका शोषण किया जा रहा है।

आपकी नजर में बागान श्रमिकों का किस तरह से शोषण हो रहा है?

देखिये, सबसे बड़ा शोषण तो यही है कि श्रमिकों को भूमिहीन और आवासहीन बनाकर रखा जा रहा है। नियमानुसार जो भी गैर-मजरुआ सरकारी जमीन का मामला है, उस जमीन पर यदि कोई पांच या दस साल घर बनाकर रह रहा है तो उसको उसका पट्टा (मालिकाना हक) मिलना चाहिए। यहां पर ये लोग डेढ़ सौ साल से हैं। वनाधिकार कानून के तहत भी ये लोग इस जमीन का पट्टा पाने का हकदार हैं। लेकिन कानूनी दांव-पेंच के सहारे इन्हें यह अधिकार नहीं दिया जा रहा है। आपको समझना होगा कि यहां दो बातें हैं। एक है कानूनी और दूसरी राजनीतिक। इसमें बागान मालिक, सरकार और राजनीतिक लोगों की आपसी मिलीभगत है कि यहां के श्रमिक बंधुआ मजदूर बने रहने को मजबूर हैं। दूसरी बात यह भी है कि सौ साल के दरमियान ये जहां से आए थे, मसलन झारखंड, छत्तीसगढ़ या देश के किसी अन्य हिस्से से, वहां से ये कट चुके हैं। वहां अब इनके पास जमीन-जायदाद नहीं है। वर्तमान में जहां ये काम कर रहे हैं, वही इनका ठिकाना है और पता भी। अपने निवासस्थल को ये सरकारी क्वार्टर बोलते हैं। अगर इन क्वार्टरों से इन्हें निकाल दिया जाए तो ये कहां जाएंगे। 

चूंकि इनके पास रहने की कोई और व्यवस्था नहीं है, जमीन-जायदाद नहीं है, ये क्वार्टर नहीं लौटाने को मजबूर हाेते हैं। अपने क्वार्टर को बचाने के लिए, वे यहां तक कि मुफ्त में भी काम करना पड़े तो करते हैं। प्रत्येक परिवार में 5 से 10 सदस्य होते हैं। पूरे परिवार के रहने के लिए क्वार्टर ही उनका सबकुछ है। और क्वार्टर तब मिलेगा जब ये लोग बागान में काम करेंगे। इसलिए इनकी मजबूरी है कि ये बागान में एक तरह से बंधुआ मजदूर की तरह काम करते रहें।

असल में इन्हें बंधुआ बनाए रखने का नियम ब्रिटिश काल से ही चला आ रहा है। ब्रिटिश चाहते थे कि ये लोग जबरदस्ती या लालच या फिर किसी भी वजह से जंगल में काम और जंगल को साफ करने के लिए यहां आये, यहीं रहकर काम करते रहें। फिर उस समय चाय कंपनियां ब्रिटेन की थीं और राज भी उन्हीं का था। इस वजह सेअंग्रेजी हुकूमत ने कानून ऐसा बना दिया कि ये लोग मजबूरीवश यहीं रह गए। अंग्रेजों ने इनके लिए पेयजल, खाना-पीना आदि का इंतजाम कर दिया ताकि ये यहीं पड़े रहें और बाहर न जायें। यहां तक कि बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मिल सके स्कूल भी खोलवा दिये।

न्यूनतम मजदूरी भी मयस्सर नहीं : दिन भर तोड़ी गयीं पत्तियों की टोकरियों को जमा कराने हेतु कतार में खड़ी चाय बागान की श्रमिक महिलाएं

ब्रिटिश काल में एक व्यवस्था यहां थी। इसे छोकरा गिनती कहा जाता था। इसके तहत सभी किशोरों की गिनती कर उन्हें काम दिया जाता था। उनके वेतन को छोकरा वेतन कहा जाता था। अब भी यह व्यवस्था यहां कायम है। ये मजबूर लोग यहां अभी भी इसी तरह की व्यवस्था के तहत काम करने को मजबूर हैं और संतुष्ट भी हैं। और कोई उपाय भी नहीं।

छोकरा गिनती की प्रक्रिया कितने वर्ष की उम्र में शुरु हो जाती है?

वैसे तो यह गिनती 14-15 साल की उम्र से ही हो जाती है।

लेकिन यह तो गलत है? बाल श्रम निषेध कानून का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन है।

आपने सही कहा। यह गलत है और ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन इस मुद्दे को किसी भी यूनियन या पार्टी ने आज तक उठाया ही नहीं है। यह बात न तो विधानसभा में और ना ही लोकसभा में कभी बहस का विषय बन पाया है। यह इसके बावजूद कि यहां कई लोकप्रिय संगठन हैं जो इन मजदूरों के लिए काम करने का दावा करती हैं। ये सिर्फ बड़ी-बड़ी रैलियां करते हैं। लेकिन मजदूरों की समस्याओं को लेकर कभी कोई आंदोलन नहीं किया। अभी कुछ छिटपुट छोटी-छोटी संस्थाएं या व्यक्ति इस बात को उठा रहे हैं। मजदूर भी जानते हैं कि यूनियन के मुखिया और नेता कलकत्ता में बैठे हैं। मतलब यह कि उनकी मिलीभगत है। यूनियन नेता, सरकार, बागान मालिक, मुख्यमंत्री, श्रम मंत्री सभी इसके हिस्सेदारी हैं। इसको ऐसे समझिए कि सरकार कलकत्ता में बैठी है और वे लोग (दुर्गा) पूजा में जब बोनस देने का टाइम होता है, राजनीतिक आका (मुख्यमंत्री ही बोलिए या किसी भी पार्टी का कोई बड़ा नेता) वहीं पर (यूनियन के) बॉस लोगों को खुश कर देते हैं, और मजदूरों को वंचित कर दिया जाता है। इस मामले में लेबर मीनिस्टर भी कुछ नहीं कर सकता। यह हाईलेवल गेम है। 

यानि आप यह कह रहें हैं कि चाय बागान श्रमिकों को बंधुआ मजदूर बनाने की प्रक्रिया में सभी लोग शामिल हैं। सरकार, यूनियन और बागान मालिक – सब शामिल है?

बिल्कुल। और बागान मालिक तो शामिल हैं ही। जो छोटे यूनियन हैं उनकी तो हिम्मत ही नहीं है कुछ बोलने की। उनको तो कुछ हिस्सा भी नहीं मिलता है। 

तो ये अलग ढंग की बंधूआ मजदूरी है जो दिख नहीं रही है, लेकिन ये बंधुआ मजदूर ही हैं?

जी हां, बिलकुल। 

यदि हम अन्य क्षेत्रों के मजदूरों के सापेक्ष इन मजदूरों की समस्याओं को समझना चाहें तो वे और कौन से हक और सुविधाएं हैं जिनसे ये वंचित किये जा रहे हैं? 

आपको इसके लिए इनके समाज को समझना होगा। इनकी अर्थव्यवस्था को भी समझना जरूरी होगा। जैसे गांव, बस्ती या फिर शहर में या बस्ती होती है, वैसे ही इनकी बस्तियां हैं। जैसे गांवों में रहने वाले लोगों के पास अपना खेत और घर होता है, वैसे ही इन इलाकों में भी कुछ लोग रहते हैं जिनके पास खेती है और घर है। इनमें अधिकतर राजवंशी समाज के लोग हैं जो कि अनुसूचित जाति में शामिल है। ये यहां के मूलनिवासी हैं। यानि ये लोग झारखंड या छत्तीसगढ़ से नहीं आए हैं। इनके पास जमीन है और ये लोग खेती-बाड़ी करते हैं। इनकी जीवन शैली ही अलग है। ये लोग आधे बंगाली हैं और बंगाली भाषा बोलते हैं। दूसरे चाय बागानों में काम करने वाले श्रमिक हैं। दोनों के जीवन में कोई समानता नहीं है। राजवंशी समुदाय के लोग शिक्षा में काफी रूचि रखते हैं इसलिए वे पढ़ लिखकर आगे बढ़ भी रहे हैं। श्रमिकों में जिस तरह की हीन भावना है, वैसी भावना उनमें नहीं है। बागान के श्रमिक मूलतः मजदूर हैं। ब्रिटिश काल में इन श्रमिकों को “कुली” के नाम से जाना जाता था। 

कृपया चाय बागान के मजदूरों के बीच शिक्षा और रोजगार मतलब यह सरकारी नौकरियों में उनकी हिस्सेदारी के संबंध में बताएं। इन क्षेत्रों में रहने वाले अन्य समुदायों की तुलना में इनमें क्या कोई फर्क आया है?

जीरो..जीरो। कोई फर्क नहीं आया है। सबसे पहली बात तो यह कि चाय बागान के लोगों का अन्य के साथ कोई तुलना हो ही नहीं सकती है। इसके कई कारण है। जैसे श्रमिकों के बच्चों की शिक्षा का माध्यम हिन्दी है जबकि सूबे में पढ़ाई का माध्यम बांग्ला है। चाय बागान के इलाकों में स्कूल सरकार ने नहीं, बल्कि क्रिश्चियन मिशनरियों ने शुरू किया है । ये संस्थान मुख्यत: रांची से संचालित होते हैं, जहां पठन-पाठन की भाषा हिंदी है। बंगाली मीडियम के छोटे-मोटे हाईस्कूल पहले यहां एक-दो प्रखंडों में भी थे। लेकिन पढ़ाई के लिए मुख्य तौर पर ईसाई मिशनियों द्वारा संचालित स्कूल ही हैं। 

श्रमिकों के बच्चे इन मिशनरी स्कूल के बदौलत ही कुछ पढ़-लिख पाते हैं। बहुत हुआ तो मैट्रिक कर लिया। अब होता यह है कि मैट्रिक के आगे की पढ़ाई करने के लिए इन्हें 50-60 किलोमीटर दूर जाना पड़ेगा, इसलिए भी परेशानियां आती हैं। यदि कोई आगे पढ़ना भी चाहे तो उसे वहीं कहीं रहना पड़ेगा। यदि हॉस्टल में व्यवस्था हो तो अलग बात है। परंतु, मुख्य बात यह है कि चाय बागान की तनख्वाह में पढाई का खर्च उठाना बहुत मुश्किल है। तो होता यह है कि अधिकांश बच्चे मैट्रिक के आगे पढ़ ही नहीं पाते। एक कारण और भी है कि हिन्दी मीडियम में पढ़े होने के कारण बांग्ला मीडियम में नहीं पढ़ सकते। इंग्लिश मीडियम के कुछ संस्थान हैं तो कोलकाता में हैं। मेरे जमाने में एक कॉलेज दार्जिलिंग में भी था।

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मूल बात यह है कि चाय बागान की तनख्वाह इतनी कम होती है कि लोग अपने बच्चों को आगे की पढ़ाई जारी रख नहीं पाते। अभी मैं जिस इलाके में हूं,यहां सिर्फ एक व्यक्ति आगे पढ़ पाया, जो बाद में पादरी बन गया। जो दो-चार लोग आगे पढ़ पाए हैं तो इसकी वजह यह कि उन्हें मिशन (चर्च) का सहयोग मिला।

हमारे एक मित्र हैं, वर्जिनियस खाखा। इन्होंने घर पर रहकर ही मैट्रिक किया था। खाखा आगे जाकर दिल्ली यूनिवर्सिटी के सोशल साइंस के विभागाध्यक्ष बने। बाद में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, मुंबई में डिप्टी डायरेक्टर और प्रोफेसर भी थे। अभी रिटायर हुए हैं। वे भी चाय बागान मजदूर के बच्चे हैं। वह राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य रह चुके हैं। साथ ही भारत सरकार की आदिवासी मामलों की समिति के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने 2014 में आदिवासियों के बारे में विस्तृत रिपोर्ट केंद्र सरकार को दिया है, लेकिन उस रिपोर्ट को संसद में सरकार ने पेश ही नहीं किया। बाद में सरकार ही बदल गई। एक वर्जिनियस खाखा ही उच्च स्तर पर चाय बागान से जा सके और एक उनके साढ़ू (पत्नी की बहन के पति) का नाम भूल रहा हूं। वह भी पादरी लाईन से आए हैं और चाय बागान से थे। दोनों ने उच्च घराने के एक नेपाली परिवार में शादी की। दोनों बहनें काफी पढ़ी-लिखी थीं। 

ऐसे किसी अपवाद को छोड़ दिया जाय तो सामान्य तौर पर कोई भी आदमी चाय बागान में पैदा होकर बड़े पद पर नहीं पहुंचा है। आज से 25 साल पहले “जनपथ समाचार” नामक अखबार था। उसके संपादक मेरे दोस्त थे, जो अब नहीं रहे। आजकल उनका बेटा उस अखबार को चलाता है। अब तो वह बहुत बड़ा अखबार हो गया है। उन दिनों मेरे संपादक मित्र ने मुझसे कहा कि आप चाय बागान के आदमी हैं, तो चाय बागान के बारे में आर्टिकल लिख दीजिए। मेरे पिताजी (पियुस तिर्की, अलीपुरदुआर से पांच बार सासंद) की वजह से उनसे अच्छा परिचय था । मैंने आर्टिकल लिख दिया। लेख लंबा होने के कारण उसे दो हिस्से में प्रकाशित किया गया। संपादक ने उस लेख का शीर्षक दिया – “इनमें से कोई बाबू तक नहीं बन पाया”। एकदम सटीक शीर्षक। इनमें से मतलब मजदूरों में से। बाबू मतलब क्लर्क। 

किसी आदिवासी के मालिक या मैनेजर बनने का सवाल ही पैदा नहीं होता। यहां तक कि कोई बाबू (क्लर्क) तक नहीं बन पाया। चाय बागानों में तीन कैटेगरी हैं – एक तो है मैनेजर, जो स्वयं ही एक कंपनी के समकक्ष होता है। भले ही वह वेतनभोगी है या कंपनी का नौकर है, लेकिन वहां वही गॉड, प्राइम मिनीस्टर, डिप्टी कमिश्नर सबकुछ है। उसके बाद के स्तर में आता है बाबू यानी क्लर्क। क्लर्क में भी एक होता है बड़ा बाबू जिसको बोलते हैं हेड क्लर्क। वो बाबुओं में सबसे बड़ा होता है। मैनेजर के बाद उसी का रोब चलता है। बाबू (क्लर्क) में समझ लिजिए कि 99 फीसदी बंगाली ही होते हैं। उसके बाद आते हैं कुली लोग। कुली मतलब चाय बागान के श्रमिक। ये लोग कुली ही रहते हैं, कुली के रूप् में ही जियेंगे और कुली के रूप में ही मरते रहेंगे। पीढ़ी दर पीढ़ी।

चाय बागानों से कई बार स्वास्थ्य समस्याएं, बीमारियां, कुपोषण या भुखमरी आदि की खबरें आती हैं। 

दरअसल कुपोषण तो होना ही है। अभी यहां पर लॉकडाउन में राशन फ्री दिया जा रहा है। जिसकी-जिसकी हाजिरी है उनको चावल तो बागान मालिक पहले से देते थे। गैर-हाजिर या किसी परिवार में एक ही आदमी का नौकरी है तो उसको उतना ही (एक आदमी का) राशन मिलेगा। जहां राशन की कमी होगी, वहां कुपोषण तो रहेगा ही। कुपोषण तो भयानक है। रही बात बीमारी से मरने का तो इलाज की कोई व्यवस्था नहीं है। जबकि प्लाटेंशन एक्ट के अनुसार हर चाय बागान में एक अस्पताल होना अनिवार्य है। यदि दो हजार से ज्यादा की आबादी हो तो एमबीबीएस-एमडी वाले डाक्टर के अलावा नर्स और कंपाउंडर भी होने चाहिए। आवश्यक दवाओं का प्रबंध होना चाहिए। 

परंतु इन सब प्रावधानों का पालन ही नहीं होता है। इसे कोई चुनौती ही नहीं देता। एमबीबीएस-एमडी तो शायद ही होंगे कहीं। कहीं होगा भी तो केवल कंपाउंडर होगा। उसमें भी कई तो नकली सर्टिफिकेट के आधार कंपाउंडर बने हैं। इसी तरह दवा भी नहीं होता है। दवा के नाम पर दो-चार रंगीन दवाओं के अलावा और कुछ नहीं होता। इस पर भी न कोई सवाल होता है और न ही कोई जांच करने के लिए आता है। दूरी की वजह से कोई जांच-पड़ताल करने आता नहीं है, और यदि कोई तो उन्हें मैनेजर जाकर खुश कर देगा। 

यहां तक कि आज जो प्रधानमंत्री स्वच्छ भारत की बात कह रहे हैं, यह सब तो प्लांटेशन एक्ट, 1950 और 1956 में पहले से ही दर्ज है। एक्ट के अनुसार हर मजदूर के आवास में टाॅयलेट होना चाहिए। यदि नहीं होगा तो बागान मालिक के खिलाफ कार्रवाई का प्रावधान है। लेकिन अभी तो कुछ भी नहीं है। अभी तो स्वच्छ भारत अभियान का पैसा लेकर के टाॅयलेट बना दिया। 

अभी आप बता रहे हैं कि अनाज फ्री में मिल रहा है तो अब वो बाध्यता खत्म हो गई जो पहले थी?

नहीं, पुराना हाजिरी वाला नियम तो रहेगा ही। पर अभी केंद्र सरकार कोरोना और लॉकडाउन की वजह से मुफ्त अनाज सबको दे रही है। आगे जब स्थिति सामान्य होगी तब फिर से केवल हाजिरी वालों को ही अनाज मिलेगा। यदि मजदूर काम में हाजिर नहीं रहे तो उनका राशन भी कट जाएगा।

प्लांटेशन एक्ट के अनुसार मजदूरों के लिए क्या-क्या प्रावधान हैं? 

वैसे तो इस कानून में कोई विशेष प्रावधान नहीं है। चाय बागान के मजदूरों से जुडी न्यूनतम हक़ की बात है, जिसका भी पालन ठीक से नहीं होता है। यदि यूनियन के नेता और श्रम अधिकारी गंभीर व सतर्क होंगे तो श्रमिकों को अपने अधिकारों से वंचित नही किया जा सकेगा। 

देखिये अभी क्या है कि 15-20 साल हो गए, इनके क्वार्टरों का मरम्मत भी नहीं हुआ है। न तो कोई अस्पताल है और न ही कोई स्कूल। मात्र एक प्राइमरी स्कूल है, जहां सभी बच्चे नहीं जाते हैं। वैसे ये लोग चाहते ही नहीं कि श्रमिकों के बच्चे पढ़े-लिख लें। पढ़-लिख लेंगे तो मजदूरी कौन करेगा। अंग्रेजों के समय में जो काम-चलाऊ दिनचर्या बनी थी, अब तो वही भी नहीं है।  

कानून तो है परंतु, उसको लागू नहीं करते और न ही कोई कानूनी कार्रवाई होती है। इसलिए आजतक किसी मैनेजर या मालिक को सजा नहीं हुई। बागान मालिकों ने मजदूरों को प्रोविडेंट फंड का करोड़ों रुपया नहीं दिया है। उसपर भी कोई कार्रवाई नहीं हुई। मालिकों ने बागान के नाम से बैंक ऋण लिया है, ऋण की राशि भी नहीं चुकायी। और तो और राज्य सरकार को जो लीज का पैसा देना है, वह राशि करोड़ों में है, उसका भी भुगतान नहीं किया है। लेकिन वहां भी सेटलमेंट कर लिया जाता है। इसपर भी कोई कार्रवाई नहीं होती। 

पहले तो चाय बागान के मालिक अंग्रेज ही थे और वही शासक भी थे, तो उन्होंने अपने लिए एक सुगम व्यवस्था बना लिया था कि सरकार, पुलिस, अन्य विभाग तथा मालिक एक तरफ और मजदूर एक तरफ। वहीं आज भी चल रहा है। 

पढ़ा-लिखा जो लड़का वहां बाबू है, उसको भी नहीं पता कि प्लांटेशन एक्ट क्या है। इसके बारे में यहां कोई चर्चा ही नहीं है। जो मैनेजर बोल दिया, वहीं नियम और कानून है। 

असम के चाय बागान के आदिवासी श्रमिक लंबे समय से अनुसूचित जनजाति का दर्जा मांग रहे हैं। उनकी यह मांग कितनी जायज है?

बिलकुल, उनकी मांग जायज है। अभी हम लोगों ने संसद में इसे लेकर सवाल भी उठवाया। सरकार की तरफ से जवाब आया कि ये प्रवासी मजदूर हैं। इसीलिए उनको अनुसूचित जनजाति का दर्जा नहीं दिया जाएगा। जबकि जो लोग झारखंड में एसटी वर्ग में शामिल हैं, उन्हें यहां यही दर्जा नहीं देने का कोई मतलब ही नहीं है। ये आदिवासी यहां दो सौ साल से अपनी सभ्यता-संस्कृति के साथ रह रहे हैं। तो इन्हें एसटी का दर्जा तो मिलना ही चाहिए। 

लेकिन बहुत से राज्यों में ऐसा होता है कि एक राज्य में कोई अनुसूचित जनजाति है तो दूसरे राज्य में उन्हें वही दर्जा नहीं मिलता। 

यह चलन तो सरकारों ने अपनी सुविधा के हिसाब से चलाया हुआ है। कई राज्यों में अजीब तरह के कानून हैं। जैसे मैं उरांव समुदाय का हूं तो रांची में मुझे उरांव ही माना जाएगा। लेकिन मैं वहां से गुमला चला गया या नदी के उस पार चला गया या बगल के ब्लॉक में चला गया तो मैं एसटी नहीं रहूंगा। यह तो मतलब मूर्खतापूर्ण कानून है। इसका विरोध होना चाहिए। मान लिया कि आप ग्रेजुएट हैं तो आप दिल्ली में भी ग्रेजुएट रहेंगे और लंदन में भी आप ग्रेजुएट रहेंगे। मान लिया आप इंडियन है तो आप यहां पर भी इंडियन हैं और अमेरिका में भी जाएंगे तो आपका पासपोर्ट भी तो इंडियन ही रहेगा। तो इसी तरह एसटी का भी एक विशेष प्रावधान है। इसका मतलब यह नहीं कि हम ट्रेन से चले गए गुवाहाटी तो हमारा पहचान ही खत्म हो गया। अधिकार ही खत्म हो गया। 

सिटिजनशिप एक्ट के तहत इसको अदालत में चुनौती दी जानी चाहिए। जन आंदोलन करना चाहिए। जन आंदोलन होते भी हैं, लेकिन सरकार तरह-तरह से उनका दमन कर देती है। पिछली बार एक लड़की (लक्ष्मी उरांव) के साथ बलात्कार हुआ था। खूब प्रचार किया गया ताकि लोग डर जाएं। लोगों के अंदर आक्रोश तो है, लेकिन दबा दिया जाता है। बहुत बुरी हालत है वहां की। और एक कारण राजनीतिक भी है कि वहां पर हमारी (चाय बागान श्रमिकों की) आबादी एक तिहाई है। तीन करोड़ में एक करोड़ चाय बागान श्रमिक आदिवासी हैं। अगर हम इनको संगठित कर लें तो अगला मुख्यमंत्री हमारे बीच से होगा। वहां पर जो स्थानीय हैं, नार्थ बंगाल की तरह, वे लोग भी छोटे-छोटे समुदाय में हैं। उनको अहोम बोलते हैं। जो लोग असम को अपना देश और खुद को राजा समझते हैं। हम लोगों के मुकाबले उनकी आबादी कम है। इसी तरह वहां बोडो समुदाय के लोग हैं, और भी छोटे-छोटे समुदायों के लोग हैं। जो मूल असमिया हैं, वे कतई नहीं चाहते हैं कि ये (चाय बागान श्रमिक) लोग जागरुक हों।

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एसटी की पहचान के मामले में राजनीतिक के अलावा शैक्षणिक भी है।ये लोग किसी भी तरह इनकी जागरुकता और उन्नति होने देना नहीं चाहते। उनके (असमिया के) रग-रग में समाया है कि वे उच्च वर्ग के हैं। वे लोग शुरू से ही चाय बागान श्रमिकों को बाहर से आए कुली (नौकर) ही समझते हैं। वैसे तो आसाम सरकार ने कुली आदिवासियों को खुश रखने के लिए कुछ उपाय भी किये हैं। जैसे कि जो नेता टाइप के लोग हैं उनको एनजीओ वगैरह बनाकर 10-20 या 50 लाख कुछ कार्य के लिए दे देती है । कुछ और सुविधाएं भी दी हैं जो बंगाल में नहीं है। जैसे हर जिला में टी-ट्राईब के लिए टी-भवन है। इनको कुली की जगह नाम ही दे दिया है टी-ट्राईब। नाम भर बदल दिया है। अब ये लोग उरांव, मुंडा, संथाल नहीं हैं, टी-ट्राईब हैं। और इसमें सरकार का तर्क है कि उरांव, मुंडा, संथाल तो चाय श्रमिकों को विभाजित करता है। और इस तरह टी-ट्राईब में चाय बागान में काम करने वाले सभी श्रमिक शामिल हो जाते हैं। फिर वे आदिवासी ना भी हों तो भी। उनमें उरांव, मुंडा, संथाल से आगे भी कुछ लोग हैं जो ज्यादा जागरुक हैं। आजकल वहीं लोग नेता हैं। कुछ लोहरा, तांती व अन्य समुदाय के लोग भी हैं, जो (राजस्थान के) मीणा की तरह होशियार हैं। वही लोग वहां पर आजकल नेता बने हैं। नेता मतलब एमपी-एमएलए वगैरह। 

यदि टी-ट्राईब के जरिए लोगों को एकजुट किया गया है तो इसमें गलत क्या है?

दरअसल इसको समझने की आवश्यकता है। जैसे कार्ल मार्क्स बोलता है कि एक मजदूर जाति होता है और एक पूंजीपति। उसी तरह से यहां पर सभी मजदूर को एक कैटेगरी में कर दिया है। लेकिन हमारा अलग इतिहास है। पांच हजार साल से सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर आजतक अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपना रीति-रिवाज, अपना लोक-आस्था को बचाकर रखे हैं। और आप कौन होते हैं हमारा नाम ही बदल देने वाले। सरकार की क्या हैसियत है और क्या हक है कि हमारा पहचान ही बदल दे। 

एक सवाल बागान श्रमिकों की भूमिहीनता के संदर्भ में है। क्या उन्हें जमीन पर कब्जा मिल जाये तो उनकी हालत बेहतर हो सकती है? 

जमीन पर अधिकार का मतलब हुआ, जिस आवासीय जमीन पर वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी चाय बागान श्रमिक के रूप में बसे हैं, वह ज़मीन लीज पर है। इसलिए इस आवासीय ज़मीन पर उनका हक बनता है। सरकार को चाहिए कि उस ज़मीन का पट्टा (मालिकाना हक) चाय बागान श्रमिकों के नाम जारी करे। यदि यह हो गया तो वे चाय बागान कंपनियों के बंधुआ मज़दूर के रूप में काम करने के लिए विवश नहीं होंगे।

आपके हिसाब से किस तरह के प्रयास की जरूरत है ताकि इन मजदूरों को वे सारे अधिकार मिल सकें, जिसके वे हकदार हैं?

श्रमिकों में एकता सबसे महत्वपूर्ण है। साथ ही इनसे जुड़े संगठनों फिर चाहे वे स्थानीय संगठन हों या फिर कोलकाता से संचालित संगठन हो, ईमानदारी से काम करें। अपनी दुकानदारी वाली भावना का परित्याग करें। तभी श्रमिकों को अधिकार दिलाया जा सकता है। 

पश्चिम बंगाल के डुवार्स में एक चाय बागान में चायपत्ती तोड़ती  आदिवासी महिला श्रमिक

लेकिन चाय बागान श्रमिक हमेशा से ही यूनियन नेताओं की बात मानकर उनके अनुसार चल रहे हैं, पर फिर भी अपने अधिकारों से वंचित हैं। ऐसी स्थिति में उनके पास क्या विकल्प है?

देखिए,मैंने पहले ही कहा कि चाय बागानों में किस तरह की राजनीति होती है। दो तरह के यूनियनें हैं। जिस यूनियन के पास जितने अधिक सदस्य होंगे, वे उतने ही तगड़े माने जाते हैं। अभी तो आरएसपी, सीपीएम, कांग्रेस, तृणमूल आदि दलों के भी संगठन हैं।

श्रमिकों के बीच इन संगठनों की बड़ी भूमिका रही है। एक वजह यह कि ये बाहरी दुनिया से अलग रखे जाते हैं। छोटी-छोटी बात के लिए भी लोग संगठनों के पास जाते हैं। शादी-विवाह का मसला से लेकर बड़े मामलों तक लोग नेताओं के पास ले जाते हैं। 

जब मैं छोटा था तो देखता था कि मियां-बीवी में झगड़ा होता था तो सुबह ही झगड़ा निपटाने मेरे पिताजी के पास आते थे। मुझे हंसी आती थी कि ये लोग घर का झगड़ा घर में ही क्यों नहीं निपटाते। तो यहां के लोगों की मानसिकता ही ऐसी है कि ये लोग अपने लीडर के भी बंधुआ मजदूर हो गए हैं। और अब तो यूनियन के साथ पंचायत के नेता भी शामिल हो गए हैं इस श्रेणी में। 

फिर तो इस तरह से संभव नहीं है कि उनमें एकजुटता आए या अपने अधिकारों को समझ सकें? 

संभव है। को-आपरेटिव के माध्यम से किया जा सकता है। को-आपरेटिव के माध्यम से चाय बागान को चलाया जा सकता है। महात्मा गांधी ने जब गुजरात में आंदोलन किया था। शुरुआत में उन्हें बिड़ला, कॉटन मिल वाले कुछ लोग वगैरह फाइनेंस करने वाले लोगों में थे। उसके बाद गांधीजी ने को-आपरेटिव का गठन किया। तो जनता इसमें शामिल हो गई और वे रोजी-रोटी, आजीविका के लिए निश्चिंत हो गए। जब वे आजीविका के लिए निश्चिंत हो गए तो मूवमेंट में भाग लेने लगे। क्योंकि उनके पास इतना टाइम था कि वो आजादी के मूवमेंट में भाग ले सकें। जब लोगों को आजीविका और रोज की रोटी मिल जाती है, तभी तो वह आगे की सोचेगा। 

वर्त्तमान में बागान मालिक जब मर्जी तब बागान बंद करके चला जाता है। ऐसे स्थिति में जिला स्तरीय श्रमिक नेता मजदूरों से बोलता है कि – अरे अभी 15-20 बागान बंद है। वहां लोग भूखाें मर रहे हैं, पानी तक के लिए तरस रहे हैं। तो ऐसे नेता लोग आंदोलन कैसे कर सकते हैं! ये नेता लोग यह भी बोलते हैं कि ज्यादा शोर-गुल करोगे, घेराव करोगे और बागान मालिक को तंग करोगे तो वह बागान बंद करके चल देगा। भूखों मरोगे तुम लोग। क्या करोगे। भूखा मरना चाहते हो या जो भी दाल-रोटी मिल रही है, उसी से काम चलाना चाहते हो। 

क्या को-आपरेटिव से चाय बागानों को चलाया जा सकता है? 

को-आपरेटिव के जरिए बहुत कुछ हो सकता है। इसमें युवाओं को जोड़ा जा सकता है। इन्हें भी रोजगार चाहिए। इन्हें शिक्षित और प्रशिक्षित किया जाय तो मुमकिन है कि वे संगठित होकर नई शुरूआत करें। वे को-ऑपरेटिव के जरिए न्यूनतम खर्च की व्यवस्था भी करेंगे। अभी जो यहां के स्थानीय स्तर के नेता हैं, उनके पास संसाधनों का घोर अभाव है। यहां तक कि फोन रिचार्ज कराने तक को पैसे नहीं हैं। वे अपनी आवाज कैसे उठाएंगे। एक बार ये संगठित हो जायें तो बहुत कुछ बदल सकता है। आज की पीढ़ी टीवी, इंटरनेट और अखबार आदि के जरिए बहुत कुछ देख रहा है। उनके अंदर आग है, तड़प है, ऊर्जा है। लेकिन कोई रास्ता नहीं नजर आ रहा है। 

2019 के आंकड़े के अनुसार भारत दुनिया में चाय का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक है। अच्छी गुणवत्ता वाली अधिकांश चाय निर्यात की जाती है। क्या आप मानते हैं कि भारत और दुनिया भर के चाय उपभोक्ताओं के लिए यह शर्म की बात है कि चाय का उत्पादन करने वाले चाय बागान श्रमिक काफी दयनीय जीवन जीने को मजबूर हैं?

निश्चित रूप से, यह भारत और दुनिया भर के चाय उपभोक्ताओं के लिए शर्म की बात है कि चाय बागान श्रमिकों को उचित मजदूरी नहीं मिल रही है और उन्हें राज्य सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी से काफी कम वेतन दिया जा रहा है। यह एक विडंबना है कि विश्व चाय दिवस के अवसर पर, जो यूएन द्वारा मनाया जाता है, चाय बागान कंपनियों के संघ ने राज्य के मंत्रियों को सम्मानित करते हुए अपने तरीके से विश्व चाय दिवस मानते है और बागान श्रमिकों को इस तरह के किसी भी उत्सव से दूर रखा था।

(संपादन: गोल्डी/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

राजन कुमार

राजन कुमार ने अपने कैरियर की शुरूआत ग्राफिक डिजाइर के रूप में की थी। बाद में उन्होंने ‘फारवर्ड प्रेस’ में बतौर उप-संपादक (हिंदी) भी काम किया। इन दिनों वे ‘जय आदिवासी युवा शक्ति’ (जयस) संगठन के लिए पूर्णकालिक सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में काम कर रहे हैं। ​संपर्क : 8368147339

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