अय्यंकाली (28 अगस्त, 1863 – 18 जून, 1941) पर विशेष
अय्यंकाली ने तत्कालीन त्रावणकोर राज्य, जिसमें आज का दक्षिण केरल और तमिलनाडु के कुछ ताल्लुके शामिल थे, में 1890 के दशक की शुरुआत में दलितों के मानवाधिकारों और शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार को लेकर संघर्ष शुरू किया। यह संघर्ष, अवर्ण संत श्री नारायण गुरु स्वामी द्वारा 1888 में अरुविप्पुरम में किये गए ‘इजावा शिव’ के ऐतिहासिक अभिषेक के बाद शुरू हुआ, जिसमें केरल की एक ऐसे आदर्श स्थान के रूप परिकल्पना की गयी, जहां सभी लोग बिना जाति और धर्म के भेदभाव के बंधुओं की तरह रहेंगे। नारायण गुरु ने दलित-बहुजनों का आह्वान किया कि वे अपनी मुक्ति के लिए शिक्षा प्राप्त करें और अपने सशक्तिकरण के लिए संगठित हों। यह आधुनिक काल में बौद्ध धर्म के त्रिरत्नों का पुनराविष्कार था। अय्यंकाली सच्चे अर्थों में जननेता थे। उन्होंने केरल के अछूतों को सामाजिक न्याय और नागरिक अधिकार दिलवाने के लिए आन्दोलनों और सामूहिक संघर्ष के सिलसिले की शुरुआत की। उन्होंने समाज के जनतंत्रीकरण और सुधार के लिए अय्या वैकुंधर और नारायण गुरु द्वारा किये गए काम को आगे बढ़ाया। वे त्रावणकोर के विधानमंडल, श्रीमूलम प्रजासभा के सदस्य थे और उन्होंने हाशियाकृत वर्गों की लड़ाई सभा के अन्दर भी लड़ी और उसके बाहर भी।
के.के. कोचु और उनके जैसे केरल के अन्य अग्रणी दलित लेखक और बुद्धिजीवी आज भी याद करते हैं कि कैसे टी.एच.पी. चेंतारासेरी द्वारा लिखित अय्यंकाली की पहली विस्तृत जीवनगाथा को पढने से उनके जीवन की राह बदल गयी। पी.जे. बेनोय जैसे समकालीन कवि और कलाकार हों या चन्द्रमोहन सत्यनाथन जैसे अंग्रेजी में लिखने वाले लेखक, सभी ने अय्यंकाली के उस ऐतिहासिक संघर्ष पर कविताएं लिखीं हैं, जो दलितों को आवागमन का अधिकार दिलवाने के लिए शुरू किया गया था। अय्यंकाली ने बैलगाड़ी की अपनी प्रसिद्ध यात्राओं के ज़रिए दलितों के इस अधिकार को पुरजोर ढंग से अभिव्यक्त किया था। मीना कन्दासामी नामक तमिल महिला लेखक ने अंग्रेजी में अय्यंकाली की जीवनी लिखी है।
अय्या या अय्यन एक प्राचीन तमिल शब्द है, जो केरल की भाषा में बुद्ध के सन्दर्भ में इस्तेमाल किया जाता है। बुद्ध को श्रध्दापूर्वक अय्यो पुतो या आर्य बुद्धो कहा जाता है। अय्यंकाली का जन्म केरल के वेंगानूर में 28 अगस्त, 1863 को माला और अय्यन के घर में हुआ था। वे पुलाया जाति के थे जो कि अछूत जाति मानी जाती थी। और इसलिए उन्होंने खुद भी जातिप्रथा का दंश झेला। जब वे वर्णाश्रम धर्म के विरुद्ध विभिन्न मोर्चों पर युद्ध का उद्घोष करने की तैय्यारी कर रहे थे, उस दौरान उन्होंने त्यकड़ अय्या और नारायण गुरु जैसे संतों और दार्शनिकों से मुलाकात की, जिन्होंने केरल में सामाजिक परिवर्तन की शुरुआत की थी।
ऐसा बताया जाता है कि त्यकड़ अय्या ने यह भविष्यवाणी की थी कि अय्यन एक दिन विधानमंडल के सदस्य बनेंगे और ‘राजा भी उनकी प्रशंसा करेंगे’। अय्यन ने संगठित होने के नारायण गुरु के सन 1903 के आह्वान के अनुरूप 1907 में साधुजन परिपालन संघम की स्थापना की। इस संगठन का मुखपत्र था साधु जन परिपालिनी। सन 1910 में प्रत्यक्ष रक्षा दैव सभा (पीआरडीएस) की स्थापना करने के पूर्व, पोय्कयिल अप्पचन भी इस संगठन के सदस्य थे।
अय्यंकाली ने 1891 से लेकर 1893 तक अनेक बार बैलगाड़ियों से यात्रा कर सड़कों और चौराहों पर दलित-बहुजनों के प्रवेश पर लगे प्रतिबन्ध को तोड़ा। इस संघर्ष की परिणिति, बलरामपुरम के नज़दीक चालिया स्ट्रीट पर हिन्दू लड़ाकों के साथ मुठभेड़ के रूप में हुई। दक्षिण त्रावणकोर में दलितों के लिए आवागमन का अधिकार हासिल करने हेतु चलाए गए ऐतिहासिक आन्दोलन में अय्यन ने उत्सवों के मौकों पर प्रयुक्त की जाने वाले सुसज्जित बैलगाड़ी, जिसे विल्लू वंडी कहा जाता है, का प्रयोग किया। इस बैलगाड़ी को दो सफ़ेद बैल, जिनके गले में घंटियां बंधीं होतीं थी, खींचते थे। इस घटनाक्रम ने कर्थिकप्पल्ली और करुनागापल्ली ताल्लुकों में 1850 और 1860 के दशकों में अर्रातुपुज्हा वेलायुधा पनिक्कर की घोड़े पर की गयी ऐतिहासिक यात्राओं और खेतिहर कामगारों की हड़ताल की याद ताज़ा कर दी।
अय्यन ने दलितों पर लगाये गए वेशभूषा संबंधी प्रतिबंधों और कल्लू माला जैसी अपमानजनक प्रथाओं को भी तोडा। कल्लू माला अनगढ़ पत्थरों की माला थी, जिसे दलित महिलाओं को पहनना होता था। कोल्लम में 1915 के पेरिनाड विरोध के बाद कल्लू माला के मुद्दे पर संघर्ष शुरू किया गया। अय्यन सफ़ेद वस्त्र और सफ़ेद पगड़ी पहन कर बैलगाड़ी पर सवारी किया करते थे। इससे हिन्दू सवर्ण आगबबूला हो जाते थे। अय्यन मूछें भी रखते थे, जिसकी अवर्णों को तत्समय इज़ाज़त नहीं थी। त्रावणकोर का राजपरिवार हिन्दू धार्मिक प्रथाओं का संरक्षक था। उसके द्वारा ब्राह्मणवादी कर्मकांड जैसे मुराजापम, तुलादानम और हिरण्यगर्भं संपन्न किये जाते थे। इसके अलावा मंदिरों में ब्राह्मणों के लिए आयोजित होने वाले भोजों का खर्च भी जनता से प्राप्त करों से उठाया जाता था। इन करों का एक बड़ा हिस्सा अवर्णों से प्राप्त होता था।
अय्यन ने 1904 में वेंगानूर में कुटी पल्ली कूडम या केरल के पारंपरिक स्कूल के स्थापना भी की। बाद में सवर्णों ने उसे जला दिया। वे दलित बच्चों को राज्य द्वारा पोषित स्कूलों में प्रवेश दिलवाने के लिए संघर्ष करते रहे और अंततः 1907 में इस आशय का शाही फरमान जारी करवाने में सफल रहे। परन्तु द्विज अधिकारियों ने 1910 तक इस फरमान को दबाए रखा। इस मुद्दे पर अनेक आन्दोलन और विद्रोह हुए और आखिरकार 1915 में इसे लागू कर दिया गया। उन्होंने दलित बच्चों को शिक्षा का अधिकार दिलवाने के लिए अर्रातुपुज्हा की तर्ज पर खेतिहर मजदूरों की हड़ताल भी करवाई। अछूतों के मूलभूत मानवीय अधिकारों और शिक्षा प्राप्त करने के उनके हक़ के लिए अय्यन द्वारा किये गए इन ऐतिहासिक संघर्षों के संदर्भ में नारायण गुरु ने जातिनिर्णयम और जातिलक्षणम नामक अपनी रचनाएं लिखीं।
आज के.के. कोचु और सन्नी कपिकाड जैसे दलित बुद्धिजीवी, अय्यन को मानव अधिकारों और शिक्षा के अधिकार के संघर्ष के नायक और प्रतीक के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं न कि ऐसे उग्र व्यक्तित्व के रूप में जिसने टकराव का रास्ता अपनाया। अय्यंकाली का सपना था कि उनके ‘अछूत समुदाय’ से कम से कम कुछ लोग ग्रेजुएट बन सकें। वे उस ज़मीनी प्रजातंत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसके लिए केरल पूरी दुनिया में जाना जाता है। इस दौर में जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और नायर सर्विस सोसाइटी (एनएसएस) द्वारा पिछले कई दशकों से केरल के समाज के हिन्दुकरण करने के अभियान के नतीजे समय समय पर सामने आते रहते हैं, अय्यंकाली की विरासत हमें सत्ता को ललकारने और सामूहिक प्रतिरोध करने की प्रेरणा देती है। चाहे वह सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का विरोध हो, केंद्र की सरकार के संरक्षण में हिन्दुकरण के प्रयास हों, संविधान में निहित सामाजिक न्याय की परिकल्पना को कमज़ोर करने की कोशिशें हो या फिर शिक्षा, नागरिकता या अल्पसंख्यक अधिकारों से जुड़े मसले हों – हम अय्यंकाली से सीख सकते हैं, उनसे प्रेरणा ले सकते हैं।
(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया संपादन : नवल)
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