रामस्वरूप वर्मा (22 अगस्त, 1923 – 19 अगस्त, 1998) पर विशेष
भारत में चिंतन की दो स्पष्ट धाराएं रही हैं। एक द्विज और दूसरी बहुजन। दूसरे शब्दों में कहें, तो किसी भी चीज को देखने की भारत में दो बिलकुल विपरीत विश्वदृष्टियां रही हैं – एक बहुजन विश्वदृष्टि और दूसरी ब्राह्मणवादी विश्वदृष्टि। रामकथा और राम पर आधारित महाकाव्यों के संदर्भ में भी दोनों दृष्टियां निरंतर टकराती रही हैं।
आर्य-द्विज ब्राह्मणवादी परंपरा के आदर्श नायक दशरथ पुत्र राम हैं और उन पर सबसे बड़े महाकाव्य वाल्मीकि की रामायण और उत्तर भारत में तुलसी की रामचरितमानस है। जहां एक ओर द्विज अध्येता, लेखक और पाठक राम को आदर्श नायक और रामायण एवं रामचरितमानस को महान महाकाव्य मानते रहे हैं वहीं दूसरी ओर बहुजन नायकगणों की दृष्टि में दशरथ पुत्र राम और उन पर आधारित महाकाव्य, बहुजनों पर द्विजों के वर्चस्व के उपकरण हैं।
यह अकारण नहीं है कि करीब-करीब सभी बहुजन नायकों ने राम और उनकी रामकथा पर लिखा है और बताया है कि कैसे राम न तो ईश्वर हैं, न आदर्श नायक और ना ही कोई धार्मिक व्यक्तित्व। बहुजन नायकों का यह भी कहना है कि वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस आर्य-ब्राह्मण श्रेष्ठता और बहुजनों पर द्विजों के वर्चस्व की स्थापना के लिए लिखे गए ग्रंथ हैं। ये किसी भी तरह से धार्मिक ग्रंथ नहीं हैं, जैसे बुद्ध के त्रिपिटक, बाइबिल और कुरान हैं।
रामकथा के बारे में ई.वी.रामसामी पेरियार, डॉ. आंबेडकर, पेरियार ललई सिंह यादव, स्वामी अछूतानंद, चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’, अमर शहीद जगदेव प्रसाद, संतराम बी.ए., मोतीराम शास्त्री, रजनीकांत शास्त्री, भदन्त आनंद कौशल्यायन, कंवल भारती और तुलसीराम आदि चिंतकों-लेखकों ने विस्तार से लिखा है। इन सभी ने एक स्वर से रामायण और राम को शूद्रों (पिछड़ों), अतिशूद्रों (दलितों), महिलाओं और आदिवासियों पर वर्चस्व कायम करने की विचारधारा वाला काल्पनिक चरित्र और ग्रंथ कहा है तथा यह भी बताया है कि कैसे अनार्यों को ही राक्षस-राक्षसी कहकर राम ने उनका कत्लेआम किया। पेरियार ने ‘सच्ची रामायण’, डॉ. आंबेडकर ने ‘राम और कृष्ण की पहेली’ (‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ किताब में), स्वामी अछूतानंद ने ‘रामराज्य न्याय’, चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’ ने ‘ईश्वर और उनके गुड्डे’, पेरियार ललई सिंह यादव ने ‘शंबूक बध’, मोतीराम शास्त्री ने ‘रावण तथागत’, रजनीकांत शास्त्री ने ‘हिंदू जाति का उत्थान और पतन’, भदन्त आनंद कौशल्यायन ने ‘राम की कहानी राम की जुबानी’, कंवल भारती ने ‘त्रेता युग का महा हत्यारा’, और तुलसीराम ने ‘क्या अयोध्या बौद्ध नगरी थी?’ में रामकथा व राम के पिछड़े, दलित, आदिवासी तथा महिला विरोधी चरित्र को उजागर किया है।
गाय-पट्टी (हिंदी प्रदेश) में रामकथा का सबसे मुख्य ग्रंथ तुलसीदास कृत रामचरितमानस है। गाय-पट्टी के बहुजन नायक रामस्वरूप वर्मा (22 अगस्त, 1923 – 19 अगस्त, 1998) ने अपनी एक किताब ‘ब्राह्मण महिमा, क्यों और कैसे’ में राम और रामचरितमानस के वर्ण-जातिवादी स्वरूप और स्त्री विरोधी चरित्र पर विस्तार से लिखा है। यह किताब रामस्वरूप वर्मा द्वारा स्थापित अर्जक संघ द्वारा प्रकाशित है। वर्मा जी ने यह किताब रामचरितमानस लिखे जाने के चार सौ वर्ष पूरे होने के अवसर पर केंद्र सरकार द्वारा रामचरितमानस चतुष्शताब्दी समारोह मनाने और उस समारोह का मुख्य अतिथि तत्कालीन राष्ट्रपति वी.वी. गिरि को बनाने और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा इसकी अध्यक्षता करने के निर्णय के खिलाफ लिखा था।
दरअसल, इस आयोजन के खिलाफ वर्मा ने तत्कालीन राष्ट्रपति वी.वी. गिरि और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी सहित कई लोगों को पत्र लिखे थे। यह किताब उन्हीं पत्रों का संग्रह हैं। इसके पहले उन्होंने उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी द्वारा इस समारोह के लिए एक लाख रूपए देने के निर्णय के खिलाफ ‘मर्यादा पुरूषोत्तम या ब्राह्मण गुलाम’ शीर्षक एक लेख 4 जून, 1973 को लिखा। फिर 8 अगस्त, 1974 को उन्होंने ‘ क्या रामचरितमानस एक धार्मिक ग्रंथ है?’ शीर्षक से एक लेख उस समय लिखा, जब 1974 में ही उत्तरप्रदेश विधानसभा के मानसून सत्र में एक विधायक द्वारा रामचरितमानस के पन्ने फाड़ने पर द्विजों द्वारा हंगामा किया गया। एक तीसरा लेख उन्होंने तब लिखा, जब 24 दिसंबर, 1974 को तमिलनाडु में उत्तर भारत की रामलीला और उसमें रावण को जलाने का विरोध करते हुए रावण लीला का आयोजन हुआ और उसमें रावण की जगह राम, लक्ष्मण और सीता के 19 फीट ऊंचे पुतले जलाए गए। इसके बाद उत्तर भारत में द्विजों ने काफी हो-हल्ला मचाया। इसका जवाब देते हुए रामस्वरूप वर्मा ने 15 मार्च, 1975 को ‘राम-रावण काल्पनिक पात्र’ शीर्षक से एक लेख लिखा।
राम के चरित्र को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए किए जा रहे रामचरितमानस चतुष्शताब्दी समारोह का विरोध करते हुए उन्होंने लिखा कि भारतीय संविधान समता, न्याय और धर्मनिरपेक्षता पर आधारित है, सरकार वर्ण-जाति व्यवस्था और स्त्री-पुरूष गैर-बराबरी को समर्थन देने वाली रामचरितमानस का प्रचार-प्रसार करके संविधान विरोधी कार्य कर रही है। वर्मा जी का मानना था कि हिंदी क्षेत्र में पंडित तुलसीदास का रामचरितमानस ब्राह्मणवाद का सबसे प्रबल प्रचारक है और यह ग्रंथ ब्राह्मणों की महिमा को बढ़ाने और कायम करने के लिए लिखा गया है। इसके प्रमाण के तौर वे रामचरितमानस की बहुत सारी पंक्तियां भी अपने लेखों में उद्धृत करते हैं। जैसे-
पूजिय बिप्र सकल गुणहीना। शूद्र न गुणगन ज्ञान प्रवीना।।
सापत ताड़त परूष कहन्ता। बिप्र पूज्य अस गावहिं सन्ता।।
पुन्य एक जग महुं नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र करि पूजा।।
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपट करइ द्विज सेवा।।
मंगल मूल बिप्र परितोषू। दहइ कोटिकुल भूसूर रोषू।। (उद्धृत, ब्राह्मण महिमा क्यों और कैसे? रामस्वरूप वर्मा, पृ.16)
इस अंश में उद्धृत पहली चौपाई में कहा गया है कि ब्राह्मण गुणहीन भी हो, तो भी उसकी पूजा करनी चाहिए और शूद्र गुणवान एवं विद्वान हो तब भी उसकी पूजा नहीं करनी चाहिए। दूसरी चौपाई इससे भी आगे बढ़कर कहती है कि संतों के अनुसार, यदि ब्राह्मण श्राप देता है, प्रताड़ित करता है और कठोर वचन कहता है, तब भी पूजनीय होता है। तीसरी चौपाई कहती है कि ब्राह्मण के अलावा संसार में कोई दूसरा पूजनीय नहीं होता है, ब्राह्मण की मन, वचन और कर्म से पूजा करनी चाहिए। चौथी चौपाई द्विजों (जनेऊधारियों) का गुणगान करते हुए कहती है कि ऐसे व्यक्ति पर ऋषियों और देवताओं की कृपा रहती है, जो सारे कपट त्याग द्विजों की सेवा करते हैं और चौथी चौपाई कहती है कि ब्राह्मण के संतुष्ट होने से कल्याण होता है और उनके नाराज होने से करोड़ों कुल नष्ट हो जाते हैं। ऐसे अनेक दोहों और चौपाईयों से रामचरितमानस भरा पड़ा है, जो बार-बार यह रेखांकित करता हैं कि ब्राह्मण ही सर्वश्रेष्ठ है।
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स्वयं रामचंद्र भी सोते-जागते, हर कार्य करने से पहले ब्राह्मणों के चरणों की याद करते रहते हैं, उन्हें सिर नवाते हैं और उनका आशीर्वाद लेते हैं-
सुमिरि शम्भु गुरु बिप्रपद। किए नींद वश नैन।
बन्दि बिप्र सुर गुर पितु माता। पाइ असीस मुदित सब भ्राता। ( बालकांड, 358)
अस कहि रथ रघुनाथ चलावा। बिप्र चरन पंकज सिरु नावा।।( लंकाकांड, 90)
सकल द्विजन्ह मिलि नायउ माथा। धर्म धुरंधर रघुकुल नाथा।। ( उत्तरकांड, 5)
इस प्रकार जहां एक ओर रामचरितमानस ब्राह्मणों-द्विजों की श्रेष्ठता को स्थापित करती है, वहीं दूसरी ओर गैर-ब्राह्मणों को बार-बार नीच ठहराती है। रामस्वरूप वर्मा तत्कालीन राष्ट्रपति और तत्कालीन प्रधानमंत्री को संबोधित करते हुए लिखते हैं कि संविधान की समता की भावना के पूर्णतया विपरीत रामचरितमानस जहां एक ओर ब्राह्मणों-द्विजों को गैर-ब्राह्मणों और महिलाओं की तुलना में श्रेष्ठ ठहराती है, वहीं गैर-ब्राह्मणों एवं महिलाओं को नीच कहती है। तुलसी की नजर में गैर-ब्राह्मण और महिलाएं एक ही कोटि की हैं। इसकी पुष्ट करने के लिए वर्मा जी तुलसी की निम्न चौपाई उद्धृत करते हैं-
ढोल गंवार शूद्र पशु नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी (रामचरितमानस, सुंदरकांड, 59)
रामचरितमानस में जगह-जगह गैर-ब्राह्मण जातियों का नाम लेकर भी उन्हें अधम और नीच कहा गया है। जैसे-
जे वर्णाश्रम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा।।
आभीर, यवन, किरात, खस। स्वपचादि अति अघरूप जे।। (उद्धृत, रामस्वरूप वर्मा बालबोधिनी टीका, उत्तरकांड, पृ.1041)
अर्थात तेली, कुम्हार, भंगी, बहेलिया, कोल, कलवार अधम वर्ण के लोग हैं, ये पापी कौमें हैं। इसके साथ रामचरितमानस यह भी कहती है कि अहीर, मुसलमान और किरात अत्यंत पतित हैं।
केवट जाति को रामचरितमानस में देवताओं के मुंह से नीच कहलावा गया है-
यहि सम निपट नीच कोउ नाहि। बड़ वशिष्ठ सम को जग माहि। (अरण्यकांड, पृ.492)
खुद निषाद को मुख से भी उसे नीच कहलवाया गया है-
लोक वेद सब भांतिहि नीचा। जासु छांह छुई लेइय सींचा। (अरण्यकांड, 462)
रामराज्य की सबसे बड़ी खूबी तुलसीदास वर्णाश्रम धर्म का पालन बताते हैं-
वर्णाश्रम निज-निज धरम निरत वेद पथ लोग। (रामस्वरूप वर्मा, पृ.18)
इस पर टिप्पणी करते हुए रामस्वरूप वर्मा लिखते हैं कि तय सी बात है कि रामराज्य में यदि वर्णाश्रण धर्म का ही पालन हो रहा था, तो उसमें सबसे ज्यादा फायदा ब्राह्मणों को था।
तुलसीदास के रामचरितमानस के अनुसार जहां वर्णाश्रम धर्म का पालन रामराज्य की सबसे बड़ी विशेषता है, वहीं शूद्र द्वारा द्विजों की बराबरी करना, अपने ज्ञान पर गर्व करना और द्विजों से यह कहना कि हम तुमसे कम नहीं है, कलयुग का सबसे बड़ा लक्षण है-
बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन। हम तुम्हते कछु घाटि।।
जानइ ब्रह्म सो विप्रवर। आंखि देखावहिं डाटि।। ( उत्तरकांड, 1013)
ऐसी बहुत सारी चौपाईयों और दोहों के उदाहरण देकर रामस्वरूप वर्मा यह प्रमाणित करते हैं कि रामचरितमानस मूलत: ब्राह्मणों के वर्चस्व को स्थापित करने एवं बनाए रखने के लिए लिखी गयी है।
रामचरितमानस के ब्राह्मणवादी चरित्र और गैर-ब्राह्मणों, गैर-द्विजों के वर्ण-जाति के आधार पर घृणा की विस्तार से विवेचना करने के बाद रामस्वरूप वर्मा रामचरितमानस की स्त्री विरोधी मानसिकता को उजागर करते हैं।रामचरितमानस के रचनाकार तुलसीदास, जैसा कि ऊपर जिक्र किया जा चुका है, शूद्रों के साथ महिलाओं को भी प्रताड़ित करने की वकालत करते हैं। तुलसीदास पूरी तरह महिलाओं की स्वतंत्रता के खिलाफ हैं। वे कहते हैं कि जैसे बहुत तेज बरसात होने पर खेतों की मेड़ टूट जाते हैं, उसी तरह से स्वतंत्र होने पर नारियां बिगड़ जाती हैंं-
महावृष्टि चलि फूट कियारी। जिमि स्वतंत्र होई विगरहि नारी।। ( उद्धृत, रामस्वरूप वर्मा, पृ.11)
इस पर टिप्पणी करते हुए रामस्वरूप वर्मा लिखते हैं कि भारत का संविधान लिंग के आधार कोई भेदभाव नहीं करता, फिर आज के युग में ऐसे रामचरितमानस की क्या जरूरत है जो नारी स्वतंत्रता की विरोधी हो। वे यह भी पूछते है कि जब पुरूष स्वतंत्र रह सकता है, तो स्त्री स्वतंत्र क्यों नहीं रह सकती?
इतना ही नहीं तुलसीदास ने महिलाओं को सभी दुखों का खान कहा है-
एक मूल बहु शूल प्रद। प्रमदा सब दुख खानि।। ( वही, पृ.12)
तुलसी ने महिलाओं को स्वभावत: अत्यन्त कामुक और व्यभिचारिणी कहा। यहां तक वह भाई, पिता और पुत्र के प्रति भी कामवासना से भर जाती हैं और खुद को व्यभिचार से रोक नहीं पाती हैं-
भ्राता पिता पुत्र उरगारी। पुरुष मनोहर निरखत नारी।
होहिं विकल सक मनहिं न रोकी। जिमि रविमणिं द्रव रविहिं विलोकी।। ( वही, पृ.14)
इतना ही नहीं, तुलसी यह भी घोषित कर देते हैं कि महिलाओं में आठ अवगुण तो हमेशा ही रहते हैं, इनसे कोई महिला मुक्त नहीं हो सकती है-
नारी स्वभाव सत्य कवि कहहीं। अवगुण आठ सदा उर रहहीं।।
साहस, अनृत चपलता माया। भय अविवेक अशौच अदाया।। ( वही, पृ.15)
ऐसी स्त्री विरोधी चौपाईयों को उद्धृत करके रामस्वरूप वर्मा ने रामचरितमानस के स्त्री विरोधी चरित्र को उजागर किया है।
रामचरितमानस के वर्ण-जातिवादी और स्त्री-विरोधी चरित्र को उजागर करने के बाद वर्मा जी विभिन्न बिंदुओं के तहत राम के असली चरित्र को उद्घाटित करते हुए लिखते हैं- “पंडित तुलसीदासकृत रामचरितमानस में राम न मर्यादा पालक थे, न महापुरुष। वे शुद्ध रूप से जातिवादी, अधर्मी और उदात्त गुणों से हीन थे। वे ब्राह्मणद्रोहियों के दुश्मन और ब्राह्मणों के मन, वचन, कर्म से गुलाम थे। उन्होंने दूसरों को भी ब्राह्मणों की गुलामी करने का उपदेश दिया और स्वयं भी उसके लिए सारे कुकर्म किए। (‘ब्राह्मण महिमा क्यों और कैसे?’, रामस्वरूप वर्मा, पृ.43)
(संपादन : नवल/अमरीश)
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