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आठ साल बाद भी सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई का इंतजार कर रहे बथानी टोला के पीड़ित

वर्ष 1996 में बिहार में हुए बथानी टोला नरसंहार में रणवीर सेना ने 21 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। इस घटना को 24 साल बीत चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट में यह मामला पिछले 8 सालों से लंबित है। इस पूरे मामले पर चुनावी रंग में रंग चुके बिहार के सियासी गलियारों में चुप्पी छाई हुई है। क्या बथानी टोला के पीड़ितों को इंसाफ मिलेगा? नवल किशोर कुमार की खबर

बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। सत्ता पक्ष और विपक्ष सभी अपनी गोटियां लाल करने की जुगत में लगे हैं। जहां सत्ता पक्ष केंद्र में नरेंद्र मोदी और सूबे में नीतीश कुमार सरकार की उपलब्धियों के नाम पर जनता को लुभाने का प्रयास कर रहा है वहीं विपक्ष सरकार की खामियों को गिनाने में लगा है। लेकिन बिहार के राजनीतिक दलों के लिए बथानी टोला जैसे अनेक नरसंहारों के मामलों का कोई महत्व ही नहीं है।

बिहार में 1990 से लेकर 2002 के बीच उच्च जातियों के हिंसक गिरोह रणवीर सेना द्वारा किए गए अनेक नरसंहारों के पीड़ित इंसाफ के लिए सुप्रीम कोर्ट की तरफ आशा भरी निगाहों से देख रहे हैं। इस दौरान करीब तीन सौ से अधिक लोगों की हत्या हुईं। इनमें दलित, पिछड़े और पसमांदा मुसलमान शामिल थे। अधिकांश मामलों में निचली अदालतों ने सबूतों के आधार अभियुक्तों को उम्र कैद व कुछ को फांसी की सजा सुनाई। बाद में पटना हाईकोर्ट ने निचली अदालतों के आदेशों को खारिज कर दिया। हाईकोर्ट के फैसलों को पीड़ितों व राज्य सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। लेकिन 8 वर्ष से अधिक समय बीतने के बाद भी नरसंहारों के मामले की सुनवाई टलती जा रही है।  

ऐसा ही एक मामला बथानी टोला का है। 11 जुलाई 1996 को रणवीर सेना ने भोजपुर जिले के सहार प्रखंड के बथानी टोला नामक दलितों और पिछड़ों की बस्ती पर हमला बोलकर 21 लोगों की गर्दन रेतकर हत्या कर दी। इसमें याचिकाकर्ता नईमुद्दीन के दो बेटे आमिर सुबहानी (उम्र 7 वर्ष) और सद्दाम हुसैन (उम्र 11 वर्ष), दो बेटियां आसिमा (उम्र 3 माह), धनवरती (उम्र 18 साल), पतोहू नाजिमा खातून और बहन जैगून खातून भी शामिल थे। उन्होंने दूरभाष पर बताया कि “अब तो हम लोग सुप्रीम कोर्ट से भी निराश हो गए हैं”। उनके मुताबिक, अंतिम बार सुनवाई 2012 में हुई थी जिसमें कहा गया कि पूरे मामले की सुनवाई बड़ी खंडपीठ करेगी। लेकिन उसके बाद इस मामले में सुनवाई ही नहीं हुई है।”

बथानी टोला नरसंहार मामले में याचिकाकर्ता हैं नईमुद्दीन

नईमुद्दीन ने कहा “परिजनों के हत्यारों के खिलाफ हम लोग सुप्रीम कोर्ट की शरण में गए। परंतु सु्प्रीम कोर्ट के पास जज नहीं हैं जो हमारे मामले की सुनवाई करें। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। क्या सुप्रीम कोर्ट की मंशा यह है कि इस पूरे मामले को इतना लंबा खींचा जाए कि न याचिकाकर्ता रहें और ना ही अभियुक्त।”

भाकपा माले की नेता कविता कृष्णन का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट की उदासीनता से कई सवाल खड़े होते हैं। सुप्रीम कोर्ट अन्य सभी मामलों में शीघ्रता बरत रहा है जैसा कि उसने बाबरी मस्जिद मामले में किया। एक विशेष अभियान चलाकर मामले की सुनवाई हुई और सुप्रीम कोर्ट ने हिन्दुओं की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए फैसला सुनाया। लेकिन उसके पास बिहार में हुए नरसंहारों के मामले में सुनवाई करने के लिए जज उपलब्ध नहीं हैं। यह अपने-आप में एक बड़ा सवाल है।

सुप्रीम कोर्ट में पीड़ितों के वकील गौरव अग्रवाल के मुताबिक कई बार ऐसी सूचना मिलती है कि मामलों की सुनवाई होगी, परंतु हर बार मामला लिस्ट पर आ नहीं पाता। ऐसा क्यों हो रहा है, पूछने पर गौरव बताते हैं कि शीर्ष अदालत की अपनी नियमावली है और उसी के आधार पर मामलों की सुनवाई होती है।

बथानी टोला नरसंहार के बाद जब मृतकों का किया गया था सामुहिक दाह संस्कार

सुप्रीम कोर्ट द्वारा मामलों की सुनवाई नहीं होने की एक वजह यह भी है कि अब बिहार के राजनीतिक दलों के लिए यह कोई मुद्दा नहीं रह गया है। इसलिए चुनाव में इसे लेकर कोई सवाल खड़ा नहीं किया जाता है। हालांकि इस संबंध में पूछने पर माले नेता कविता कृष्णन कहती हैं कि हमारी पार्टी इन मामलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में खड़ी है। इसलिए मैं यह कह सकती हूं कि नरसंहारों के आरोपियों को सजा मिले, इसके लिए हमने लड़ाई को जिंदा रखा है। वहीं बिहार में सत्तासीन जनता दल यूनाईटेड के राष्ट्रीय महासचिव के. सी. त्यागी के अनुसार, राज्य सरकार ने कई मामलों में खुद ही संज्ञान लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। लिहाजा जदयू पर यह आरोप लगाना कि वह इन मामलों को लेकर उदासीन है, गलत होगा।

उल्लेखनीय है कि बथानी टोला नरसंहार 1996 में हुआ और तब से लेकर बिहार की राजनैतिक आबोहवा में काफी बदलाव आ चुका है। तब राजनीति में जगह बनाने के प्रयास में लगे नीतीश कुमार दिसंबर, 2005 से सत्ता में हैं। उन्होंने मुख्यमंत्री बनते ही जस्टिस अमीरदास आयोग को उस वक्त भंग कर दिया जब वह अपनी रिपोर्ट सरकार को समर्पित करने वाली थी। इस आयोग का गठन वर्ष 2002 में तत्कालीन मुख्यमंत्री राबड‍़ी देवी ने किया था। इसे रणवीर सेना के संरक्षकों के बारे में जांच करने की ज़िम्मेदारी दी गयी थी। बाद के दिनों में रणवीर सेना के मुखिया ब्रहमेश्वर सिंह को सबूतों के अभाव में रिहा कर दिया गया। जून, 2012 में उसकी हत्या के बाद यह राज राज ही रह गया कि वे लोग कौन थे जिन्होंने रणवीर सेना को संरक्षण दिया था।

बहरहाल, बिहार की राजनीति करवट बदल रही है। सामाजिक न्याय की विचारधारा अब दम तोड़ रही है। ऐसे में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बथानी टोला के पीड़ितों को न्याय दिलवाने के लिए कोई भी पहल नहीं कर रहा है। न राज्य सरकार और ना ही राज्य में सामाजिक न्याय के नाम पर राजनीति करने वाले राजनीतिक दल। यह स्थिति तब है जब दलित, पिछड़े और पसमांदा मुसलमान चुनावी राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। उनके नाम पर राजनीति की जाती है और सरकारें बनती-बिगड़ती हैं।

(संपादन : गोल्डी/अमरीश)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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