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आरएसएस क्यों कर रहा है किसानों के साथ गद्दारी?

भंवर मेघवंशी के मुताबिक, हिंदुत्व के ध्वजवाहकों और शोषकों का चोली-दामन का साथ रहा है। हिन्दू महासभा हो अथवा संघ अथवा जनसंघ व्यापारियों और राजे-रजवाड़ों की कृपा से अपने संसाधन जुटाते रहे हैं और उनके प्रति नरमदिल भी बने रहे हैं। आरएसएस का तो सबसे बड़ा आर्थिक सहयोग गुरु दक्षिणा के रूप में व्यापारी वर्ग से ही आता रहा है

विगत पंद्रह दिनों से किसान दिल्ली को घेर कर बैठे हैं। ठंड में किसान सड़कों पर हैं और सत्ताधारी अपने महलों में हैं अथवा उत्सवों में व्यस्त हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार खुद के मन की बात तो करते हैं मगर देश के जनगण के मन की बात नहीं सुनते। उनके सहयोगी जिस भाषा में बात करते हैं और आईटी सेल नामक उनकी साइबर आर्मी जिस तरह से किसानों के मुद्दे को भटकाने और किसानों को बदनाम में लगी हुई है, उसकी तो कोई मिसाल ही नहीं है। कुल मिलाकर अनाज उगाने वाला किसान देशद्रोही साबित किया जा रहा है और कारपोरेट और राज्य मिलकर तय कर रहा है कि देश में खेती किसानी का भविष्य क्या होगा?

प्रधानमंत्री और उनके कैबिनेट सहयोगी बार-बार यह जता रहे हैं कि उनके द्वारा लाए गये तीनों कृषि कानून किसान के लिये हितकर हैं और इससे कृषि क्षेत्र में निवेश बढ़ेगा तथा कोल्ड स्टोरेज एवं फ़ूड सप्लाई चेन का आधुनिकीकरण होगा। मोदी तो इन कानूनों को देश के किसानों की नई आज़ादी बता चुके हैं। भाजपा और उससे जुड़े संस्था-संगठन घर-घर जाकर नए कृषि कानूनों का फायदा भी लोगों तक बता चुके हैं। इसके बावजूद भी देश के किसान मानने को तैयार नहीं हैं। ऐसा लगता है कि किसानों का भरोसा मोदी सरकार और उनकी पार्टी पर से ख़त्म हो चुका है।

पहले तीनों कानूनों पर चर्चा कर लें। पहला कानून है, कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020। इसके बारे में सरकारी दावा है कि यह कानून किसान को अपनी उपज मंडियों से बाहर सीधे बाज़ार में बिना दूसरे राज्यों को टैक्स चुकाए बेचने का अधिकार देता है। सरकार के हिसाब से यह उसका क्रांतिकारी कदम है। लेकिन किसान कह रहे है कि यह मंडियों को ख़त्म करने का प्रयास है और किसानों को बाज़ार के हवाले करने की साजिश है। दूसरा कानून है मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अनुबंध अधिनियम 2020। इसके मुताबिक किसान संविदा आधारित खेती कर सकेंगे और उसकी अपने स्तर पर मार्केटिंग भी कर सकते हैं। जबकि किसान सशंकित हैं कि छोटी जोत वाले किसान इस व्यवस्था में पिसकर रह जाएंगे। उनको कोई पूछने वाला नहीं रहेगा। किसनों का तो यहां तक कहना है कि सरकार इसके ज़रिए उन्हें अपनी ही खेत का मालिक से नौकर बनाने जा रही है। तीसरा कानून है आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम 2020। यह कानून उत्पादन, भंडारण के अलावा दलहन, तिलहन और प्याज की बिक्री को युद्ध जैसी असाधारण परिस्थितियों के अलावा नियंत्रण से मुक्त करने की बात कहता है। कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि यह जमाखोरी बढ़ाने वाला कानून है। किसान भी यही मानते हैं कि यह जमाखोरी को कानूनी संरक्षण देने का सरकारी प्रयास है।

आरएसएस सुप्रीमो मोहन भागवत व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

जाहिर तौर पर किसानों की आशंका और डर की वजह बहुत साफ है कि सरकार इन कानूनों की आड़ में कृषि क्षेत्र को कारपोरेट ताकतों के हवाले करने की कोशिश में लगी है। वहीं सरकार बार-बार एक ही राग अलाप रही है कि इन कानूनों से कृषि बाजार, प्रसंस्करण और कृषि निवेश के क्षेत्र में असीम संभावनाएं खुल जाएं , यह किसानों को बहुत सारे विकल्प देगा, उनकी उपज की सबसे बढ़िया और समयबद्ध कीमत मिल सकेगी तथा खेती-किसानी में अच्छा निवेश आएगा। प्रधानमंत्री ने तो यहां तक कहा है कि – “काफी सोच-विचार के बाद संसद ने कृषि सुधारों को कानूनी जामा पहनाया है, इन सुधारों से न सिर्फ किसानों के अनेक बंधन समाप्त हुए हैं ,बल्कि उन्हें नए अधिकार भी मिले हैं और नए अवसर भी।”

सवाल यही है कि आखिर वे कौन से तत्व हैं जिनके कारण आरएसएस और भाजपा के लिए किसानों की वाजिब मांगें कोई मायने नहीं रखतीं। धरती को मां कहकर वंदना करने वाली विचारधारा की पार्टी की सरकार इस धरती की संतानों को सड़कों पर उतरने के लिये मजबूर किए हुए है और तरह-तरह के आरोप लगाकर उन्हें राष्ट्रद्रोही बताने की कोशिश में लगी हुई है। यह भाजपा और उसके जनक आरएसएस की दोहरी मानसिकता ही है कि वे किसानों के साथ होने का दंभ तो भरते हैं, परंतु उनकी वैचारिकी और कार्य व व्यवहार में खेत, किसान और गांव-समाज कहीं भी नजर नहीं आते हैं।

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भाजपा का थिंक टैंक आरएसएस है। वही उसके लिये वैचारिक खुराक तैयार करता है और नेपथ्य से सारे नेरेटिव गढ़ता है। इसलिए कृषि क्षेत्र पर आए इस संकट के लिये वह भी बराबर का ज़िम्मेदार है। वैसे भी उसके चिंतन की बेईमानी यह है कि वह किसान और मजदूरों के बजाय व्यापारियों, ज़मींदारों और मालिकों के पक्ष में बोलता रहा है।

यह सर्वविदित है कि हिंदुत्व के ध्वजवाहकों और शोषकों का चोली-दामन का साथ रहा है। हिन्दू महासभा हो अथवा संघ अथवा जनसंघ, सभी व्यापारियों और राजे-रजवाड़ों की कृपा से अपने संसाधन जुटाते रहे हैं और उनके प्रति नरमदिल भी बने रहे हैं। आरएसएस का तो सबसे बड़ा आर्थिक सहयोग गुरु दक्षिणा के रूप में व्यापारी वर्ग से ही आता रहा है। बाज़ार और साम्प्रदायिकता में गलबहियां कोई नई बात नहीं है। इसलिए कभी भी आरएसएस और उसके अनुषांगिक संगठनों ने बाज़ार के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया है।

राष्ट्रद्रोही या राष्ट्र का अन्नदाता? दिल्ली-हरियाणा के सिंघु बार्डर पर आंदोलनरत  किसान

जिन कृषि कानूनों का देश के किसान जमकर विरोध कर रहे है, उनके खिलाफ आरएसएस के किसान संगठन भारतीय किसान संघ की ओर से छिटपुट विरोध के स्वर निकाले गए हैं, परंतु उनकी अत्यंत सधी हुई प्रतिक्रिया में ही संघी वैचारिकता की बेईमानी साफ झलकती है। प्रथम दृष्टया ही ऐसा लगता है कि जैसे यह बनावटी आपत्ति है। यह आपसी सहमति से बनाई गई असहमति है जिसे हमारे ग्रामीण इलाकों में नूराकुश्ती कहा जाता है और राजनीति में भाईचारा मैच। क्रिकेट में इसे मैच फिक्सिंग माना जाता है। लगभग वैसा ही भाईचारा खेल, संघ के स्वदेशी जागरण मंच और भाजपा की केंद्र सरकार के मध्य नजर आता है।

वैसे भी संघ का अपना कोई स्वतंत्र आर्थिक चिंतन तो है नहीं। भारतीय किसान संघ का गठन 4 मार्च,1971 को संघ द्वारा किया गया। तबसे लेकर अब तक कोई बड़ा कृषि दस्तावेज अथवा किसान आंदोलन भी संघी जमात की तरफ से किया गया हो, दृष्टिगोचर नहीं होता है। बस समय-समय पर बयान देने का कागज़ी काम किया जाता रहा है। जब भाजपा विपक्ष में होती है तो संघी किसान मजदूर संगठनों की भाषा आक्रामक हो जाती है और जब भाजपा की सरकार होती है तो घुमावदार बयानों के ज़रिए किसानों को भ्रमित किया जाता है।

तो आखिर इनका किसान संघ करता क्या है जब वह किसानों के साथ खड़ा नहीं होता? न आंदोलन करता है और ना ही अपना कोई स्पष्ट दर्शन बताता है। फिर उसकी भूमिका क्या रहती है? क्या वह संघी जमात का एक और संगठन मात्र है या उसका वास्तव में किसान हितकारी कोई उल्लेखनीय काम भी है? 

वर्तमान समय में चल रहे किसान आंदोलन में भी उसकी कोई भूमिका नहीं है, अलबत्ता उसने 8 दिसम्बर के भारत बंद से खुद को अलग दिखाकर अपनी स्थिति को स्पष्ट जरुर कर दिया है कि वो तीनों कृषि कानूनों के संबंध में किसानों के साथ नहीं, बल्कि केंद्र की किसान विरोधी सरकार के पाले में खड़े हैं।

जहां एक ओर देश भर के दर्जनों किसान संगठन सरकार से नाउम्मीद होकर आंदोलन को और अधिक तीव्र करने का ऐलान कर चुके हैं वहीं भारतीय किसान संघ आंशिक असंतुष्टि के पश्चात अंततः संतुष्ट होने का दिखावा कर रहा है। संघी विचारक हितेश शंकर किसानों के आंदोलन पर पांचजन्य नामक संघी मुखपत्र में लिख चुके है कि “सच यह है कि इस आंदोलन को किसी अन्य आंदोलन की तरह देखना भूल हो सकती है, क्योंकि किसानों की बजाय इसे अराजक तत्व चले रहे हैं।” संघी प्रकाशन पूछ रहे हैं कि ‘क्या उन्माद के आढ़ती काटेंगे आंदोलन की फसल?’

आरएसएस और उसके दुष्प्रचार तंत्र ने किसान आंदोलन को बदनाम करने, मुद्दे को भटकाने और कृषि कानूनों को कृषक हितैषी बताने का काम शुरू कर दिया है। कहा जा रहा है कि इस आन्दोलन की विदेशी फंडिंग हो रही है, इसमें खालिस्तान के समर्थन में नारे लग रहे है, प्रतिबंधित संगठन जस्टिस फॉर सिख ( जेएफएस) सक्रिय है। यहां तक कि पाकिस्तान प्रायोजित कहने से भी नहीं चूक रहे है। लगे हाथों भिंडरावाले का नाम भी घसीटा जा रहा है, शाहीनबाग, जेएनयू की वामपंथी गैंग और अराजक नक्सल समर्थक सिविल सोसायटी की मौजूदगी जैसे  जुमले भी गोदी मीडिया के ज़रिए उछाले जा रहे हैं ताकि आंदोलन को देश विरोधी और आतंकी चरित्र का बताया जा सके।

एक तरफ संघ की सोची समझी योजना रहती है कि कैसे उत्पीडित जमातों को ही दोषी ठहरा दिया जाय। उनको राष्ट्रवाद की कसौटी पर कसकर राष्ट्रद्रोही साबित किया जाय और हर असहमति और विरोध के स्वर को पाकिस्तान प्रायोजित बता दिया जाय। दूसरी तरफ भारतीय किसान संघ जैसे बाज़ार के हमदर्द दक्षिणपंथी किसान संगठन क्रान्तिकारी व प्रगतिशील किसान आंदोलनों के प्रति हिकारत का भाव पैदा करते हुए परंपरागत खेती, वैदिक खेती और गौ-माता आधारित गौ-जैविक खेती जैसी बाते करते रहते हैं। उसके लिये चिन्तन शिविर लगाते है और सभा सम्मलेन करके लोगों को भ्रमित करने के अपने मूल काम में जुटे रहते है।

अगस्त 2019 में ‘किसान एव कृषि समस्याओं’ पर आयोजित क्षेत्र चिन्तन वर्ग में भारतीय किसान संघ के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष जुगल किशोर मिश्र ने कहा था कि “समाज को उत्तम अनाज देना किसान का ध्येय होना चाहिए, आज देश में विषमुक्त खाद्यान्न मिलना कठिन होता जा रहा है और इसके आने वाले समय में गंभीर परिणाम होंगे।” इनको किसान का क्या ध्येय होना चाहिए, यह तो याद रहता है,  परंतु ये प्रधानमंत्री को यह कहने का साहस नहीं रखते हैं कि सरकार का किसानों के प्रति क्या ध्येय और दायित्व होना चाहिए।

संघ और उसके अनुषांगिक संगठन कितने किसान हितैषी हैं यह तो इससे भी जाहिर हो जाता है कि वह गाय की रक्षा के नाम पर किसानों की गाय व बैल आधारित पूरी इकोनोमी को ध्वस्त कर चुका है। गांवों में लगने वाले पशु मेले बंद हो चुके हैं और हरेक गांव में आवारा पशुओं का मेला लगा हुआ है, जो खेतों को चट कर जाते हैं। इस तरह किसान बर्बाद हो रहा है और गौ-रक्षकों की गौशालाएं आबाद हो रही हैं।

कुल मिलाकर संघ कभी भी किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक अस्मिताओं का पक्षधर नहीं रहा है और ना ही होगा। उसकी गर्भनाल बाजार से जुडी है। वह बाजार को नियंत्रित करने वाली शक्तियों के साथ जुड़ा है और आज इन तीन कृषि कानूनों के बाद भारत का किसान कारपोरेट से लूटने के लिये असहाय अवस्था में बाज़ार के हवाले कर दिया गया है। अगर आप इस राष्ट्रवादी शोषण के खिलाफ बोलेंगे तो संघ व भाजपा वाले आपको राष्ट्रद्रोही घोषित कर देंगे। राष्ट्रवाद की आड़ में राष्ट्र को लूटने का यह राष्ट्रीय कार्यक्रम चल रहा है। बोलना मना है। 

(संपादन : नवल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

भंवर मेघवंशी

भंवर मेघवंशी लेखक, पत्रकार और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने आरएसएस के स्वयंसेवक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू किया था। आगे चलकर, उनकी आत्मकथा ‘मैं एक कारसेवक था’ सुर्ख़ियों में रही है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद हाल में ‘आई कुड नॉट बी हिन्दू’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। संप्रति मेघवंशी ‘शून्यकाल डॉट कॉम’ के संपादक हैं।

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