h n

चौधरी चरण सिंह, जातिवाद के खिलाफ लड़ने वाले अग्रणी बहुजन किसान नेता

महेश चौधरी बता रहे हैं जाट समुदाय से आने वाले चौधरी चरण सिंह के बारे में। उनके मुताबिक, किसानों के हितैषी के रूप में उनकी पहचान तो राष्ट्रव्यापी रही ही, सामाजिक न्याय के लिए भी वे प्रतिबद्ध रहे

चौधरी चरण सिंह (23 दिसंबर, 1902 – 29 मई, 1987) पर विशेष

केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में बनाए गए तीन कृषि कानूनों के विरोध में देश भर के किसान आंदोलनरत हैं। ऐसे में देश के इतिहास के सबसे बड़े किसान-नेता चौधरी चरण सिंह का नाम और यादें चर्चा में आनी हीं हैं| उनके जन्मदिन को ‘किसान-दिवस’ के रूप में पूरा देश मनाता आया है लेकिन इस बार किसान आन्दोलन के चलते इस दिन का महत्व बढ़ गया है। 

भारत के पांचवें प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का जन्म 23 दिसम्बर, 1902 को उस वक़्त के यूनाइटेड प्रोविंसिस और आज के उत्तर प्रदेश के मेरठ ज़िले के नूरपुर गाँव में मध्यम वर्गीय जाट कृषक चौधरी मीर सिंह और नेत्रा कौर के घर में हुआ था। उनके पुरखे वल्लभगढ़ के निवासी थे, जो कि वर्तमान में हरियाणा में है| उनके दादा 1857 के स्वाधीनता संग्राम में महाराजा नाहर सिंह के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लडे थे| नाहर सिंह को ब्रिटिश हुकूमत ने दिल्ली के चांदनी चौक पर फ़ाँसी पर लटका दिया दिया तो उनके दादा मेरठ आकर बस गए थे। चौधरी चरण सिंह के  पिता पांच एकड़ जमीन के जोतदार थे, मतलब किरायेदार किसान| पिता बेटे को पढ़ा-लिखाकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में उतारना चाहते थे इसलिए आर्थिक तंगी में भी खूब पढ़ाया| 

जातिगत भेदभाव के रहे खिलाफ

विज्ञान में स्नातक, इतिहास में स्नातकोत्तर और फिर वकालात की पढाई करके 1928 में चरण सिंह गाजियाबाद में वकालत करने लगे| कबीर और गांधी के विचारों से वे बहुत प्रभावित थे पढाई के दौरान ही वे जातिगत भेदभाव के सख्त खिलाफ हो गए थे थे| जवाहरलाल नेहरु द्वारा 1929 में पूर्ण स्वराज का नारा देने के बाद वे गाजियाबाद में कांग्रेस कमेटी की स्थापना कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े| आज़ादी की लड़ाई के दौरान वे तीन बार जेल गए। पहली बार 1930 में नमक कानून तोड़ने के लिए 6 महीने के लिए, 1940 में व्यक्तिगत सत्याग्रह के लिए एक साल और फिर 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन में 15 महीने जेल में रहे| पढने-लिखने में रुचि के चलते जेल में रहते हुए दो ‘जेल डायरियां और ‘शिष्टाचार नामक किताब लिखी|

भूमिहीन किसानों के रहे पक्षधर

सन 1937 में कांग्रेस ने पहली बार चुनाव लड़ने का निर्णय लिया और चरण सिंह मेरठ की छपरौली विधानसभा सीट से 34 वर्ष की उम्र में विधायक चुनकर आये| भूमिहीन और कर्ज के बोझ तले दबे किसानों के लिए कुछ करने की लालसा से 1938 में ‘कृषि उत्पाद बाजार बिल और 1939 में ‘किसान कर्ज माफ़ी बिल लेकर आये जिसने उस वक़्त की ब्रिटिश सरकार और साहूकारों की प्रताड़ना से किसानों को भारी राहत दी| इन दोनो बिलों की चौतरफा प्रशंसा हुई और बाद में लगभग सारे प्रांतों की सरकारें ये बिल लायीं| इस तरह चरण सिंह अब किसानों और ग्रामीणों के हितरक्षक के तौर पर जाने जाने लगे| 

चौधरी चरण सिंह (23 दिसंबर, 1902 – 29 मई, 1987)

आरक्षण की संकल्पना पर उस वक़्त भी उनकी समझ और सहमति कितनी गहरी थी इसे जानने के लिए 1947 में लिखा उनका लेख “सरकारी सेवाओं में किसानों की संतानों के लिए पचास फ़ीसदी आरक्षण क्यों?” जरुर पढ़ा जाना चाहिए| चरण सिंह इसमें वो आंकड़े और विचार देते है जो बाद में ‘मंडल कमीशन का आधार साबित हुए| वे 1931 की जनगणना के आंकड़ों को आधार बनाकर लिखते है कि देश की 75 फ़ीसदी से ज्यादा आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले किसानों को सरकारी व्यवस्था में उचित ‘प्रतिनिधित्व देने के लिए आवश्यक है कि उन्हें पचास फ़ीसदी आरक्षण दिया जाए| इसमें वे किसानों, भूमिहीन किसानों, कृषि-श्रमिकों और कृषि-आधारित अन्य कार्य करने वालों को शामिल करते है और उन्हें एक वर्ग के तौर पर देखते है| वे आगे लिखते है कि यह गरीबी या अमीरी का नहीं बल्कि प्रतिनिधित्व का मसला है क्योंकि अगर हमारे हालातों को जानने और समझने वाले लोग व्यवस्था में नहीं होंगे तो कैसे वे नीति-निर्माण और उसके क्रियान्वयन में हमारे हितों की रक्षा सुनिश्चित कर पाएंगे| मेरिट के सिद्धांत को नकारते हुए वे लिखते है की ये कैसी मेरिट जो आपने कुछ चुनिंदा आधारों पर तय की है, जिसमें न सम्पूर्ण ज्ञान की परीक्षा हो सकती है ना ही समान रूप से मूल्यांकन| वे कहते है कि न्यूनतम योग्यता निश्चित रूप से होनी चाहिए, लेकिन मेरिट तो शक्तिशाली लोगों का बनाया हुआ विचार है क्योंकि उसके आधार पर चुना हुआ अधिकारी जब कृषि विभाग संभालता है तो उसका पूर्व ज्ञान किसी काम नहीं आता, उसमें तो सदियों से संचित ग्रामीण ज्ञान ही काम आएगा| वे इसमें न्यायालयों और न्याय प्रक्रिया पर भी सवाल उठाते है और कहते है कि न्यायालयों में ज्यादातर ग्रामीण मामले आते हैं, लेकिन न्याय करने वाले ज्यादातर कभी गांव गए भी नहीं तो उनके द्वारा किसानों-गरीबों के हालातों को समझा जाएगा, इसकी उम्मीद  करना भी बेमानी है| वे कार्ल मार्क्स के ‘वर्ग संघर्ष सिद्धांत सहित बहुत सारे विद्वानों के लिखे हुए लेख और बहुत सारी रिपोर्ट्स को संदर्भित करते हुए कहते है कि चाहकर भी स्वाभाविक रूप से एक व्यक्ति पूर्णतः निरपेक्ष नहीं हो सकता और अनचाहे में भी अपने वर्गीय हितों की रक्षा करता ही है, इसलिए शासन-प्रशासन में ही नहीं बल्कि न्यायपालिका में भी सभी वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण दिया जाना चाहिए|

मंत्री के रूप में चौधरी चरण सिंह

चौधरी चरण सिंह ने 1937 के बाद 1946, 1952, 1962 एवं 1967 में विधानसभा में छपरौली-बागपत का प्रतिनिधित्व किया। वे 1946 में पंडित गोविंद बल्लभ पंत की उत्तर प्रदेश में अंतरिम सरकार में संसदीय सचिव बने और राजस्व, चिकित्सा एवं लोक स्वास्थ्य, न्याय, सूचना इत्यादि विभिन्न विभागों में कार्य किया। जून, 1951 में उन्हें राज्य के कैबिनेट मंत्री के रूप में न्याय तथा सूचना विभाग का प्रभार दिया गया। बाद में 1952 में वे डॉ. सम्पूर्णानन्द के मंत्रिमंडल में राजस्व एवं कृषि मंत्री बने। अप्रैल, 1959 में जब उन्होंने पद से इस्तीफा दिया तब वे राजस्व एवं परिवहन विभाग मंत्री थे। इसके बाद 1960 में सी.बी. गुप्ता की सरकार में गृह एवं कृषि मंत्री और 1962 से सुचेता कृपलानी की केबिनेट में वे कृषि एवं वन मंत्री रहे। उन्होंने 1965 में कृषि विभाग छोड़ दिया एवं स्थानीय स्वशासन विभाग का प्रभार संभाल लिया। इस तरह आजादी के बाद उन्होंने लगातार कई विभाग संभाले और कुछ बेहद महत्वपूर्ण कार्य किये जिसमें 1952 में जमींदारी प्रथा उन्मूलन बिल, जिसने जमींदारी-प्रथा से मुक्ति दिलाई और जमीन जोतने वाले को ही जमीन का मालिक बनाया, शामिल है| दूसरा, 1954 में ‘उत्तर प्रदेश भूमि संरक्षण बिल जिसे ‘भूमि हदबंदी या ‘जोत अधिनियम के नाम से भी जानते है, इस से अधिकतम जमीन रखने की सीमा तय कर दी गयी, जिस से भूमिहीन किसानों और कृषि-श्रमिकों को भी जमीन पर मालिकाना हक मिल सके| इसके अलावा बहुत सारे भूमि-सुधार और किसान हितैषी काम करने के चलते वे ‘किसान-मसीहा की छवि पाने लगे। लेकिन इस दौरान उन्होंने कुछ काम ऐसे भी किये जिसकी चर्चा बहुत कम या बिलकुल ही नहीं होती| क्योंकि ये चर्चाएँ करना न तो उनको जातिवादी करार देने वाले विरोधियों के एजेंडा को सूट करती हैं और ना ही उनकी जाति के चलते उनके समर्थक बने लोगों को हजम होती है|

उन्होंने जाति की समाप्ति और सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए गंभीर प्रयास किये जिनकी चर्चा करना बेहद आवश्यक है| कुछ चुनिंदा बाते हम यहां कर लेते हैं। जाति एक ‘ग्रेडेड इनइक्वलिटी होती है इसको वे अच्छे से जानते थे और दलित और अति-दलित के फ़र्क को भी समझते थे। इसलिए जब 1952 में उत्तर प्रदेश के कृषि मंत्री बतौर उनके द्वारा जमींदारी-प्रथा उन्मूलन बिल लाने के बाद पटवारियों ने विरोध में इस्तीफ़े दिए तो उन्होंने हजारों लेखपालों की भर्ती की। उसमें दलितों को 16 फ़ीसदी आरक्षण दिया 

उल्लेखनीय है कि यह वह समय था जब वर्तमान आरक्षण व्यवस्था लागू नहीं हो पायी थी| ऐसे में उनका मजबूती से ये निर्णय लेना बहुत लोगों के मस्तिष्क में बनी हुई छवि के बिलकुल विपरीत ही रहा होगा लेकिन उनके आदर्शों के बिलकुल अनुकूल था| वे राजनेताओं और सार्वजनिक पदों पर बैठे लोगों के जातीय सभाओं/महासभाओं में जाने और उनका हिस्सा/सदस्य बनने के सख्त खिलाफ थे| साथ ही जाति के नाम पर बनी संस्थाओं के इतने धुर विरोधी थे कि उन्होंने बतौर केबिनेट मंत्री ऐसी संस्थाओं का अनुदान यह कहते हुए रोक दिया था की जब तक नाम से जाति नहीं हटाओगे तब तक अनुदान नहीं दिया जाएगा| इन संस्थाओं में उनकी जाति के नाम से पर बनी संस्थाएं भी थीं, इनमें से मेरठ के ‘जाट कॉलेज के प्रतिनिधि उनसे मिलने आए तो उनको फटकार लगाई और जाति के नाम पर दुबारा नहीं आने का साफ़ सन्देश दिया| ‘राजपूत नेशनल हाई स्कूल, मेरठ के प्रधानध्यापक द्वारा उनके निर्णय पर सवाल उठाने के जवाब में उन्होंने उन्हें 13 फरवरी, 1959 में लिखे ख़त में अपने इस निर्णय के पीछे अपनी समझ को साफ़-साफ़ व्यक्त करते हुए कहा कि जाति का नाम ही नहीं, बल्कि जाति का अस्तित्व भी मिटा दिया जाना चाहिए| वे कहते है कि आप मुझे आपकी जाति के खिलाफ बता रहे है और मेरी जाति के लोग मुझे अपना विरोधी मानते है| मेरे स्वजातीय लोग भी मेरा विरोध करते है और मानते है कि मैं ऐसा करके गलत कर रहा हूं। लेकिन मेरे आदर्श मुझे ऐसा ही करने की प्रेरणा देते हैं। भले उसके लिए मुझे किसी का भी विरोध क्यों ना झेलना पड़े| अंततः उन सबको अपनी संस्थाओं के नाम बदलने पड़े या फिर अनुदान से हाथ धोना पड़ा| बाद की कुछ सरकारों ने उनके निर्णय को बदला। लेकिन वे अपने निर्णय पर अडिग रहे|

जाति के सवाल पर नेहरू से मतभेद

उन्हें समझने का दूसरे महत्वपूर्ण दस्तावेज उनके द्वारा 1958 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु से किया गया पत्राचार है। इनमें से दो पत्र जातिवाद के खिलाफ उनके विचारों को दर्शाते हैं, जिसमे वे नेहरु से मांग करते है कि जाति को ख़त्म करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण हथियार है अंतरजातीय विवाह, इसलिए ऐसे विवाहों को प्रोत्साहित करने के लिए कम से कम राजपत्रित एवं उनसे उच्च पदों पर अंतरजातीय विवाह किये हुए विवाहित या इस आशय का शपथ-पत्र देने वाले अविवाहितों को ही योग्य माना जाना चाहिए| वे इसके पीछे तर्क देते है कि जो जाति भेद को अपने निजी जीवन में नकार चुके हैं, वे सार्वजनिक जीवन में भी जाति से ऊपर उठकर ही काम करेंगे| साथ ही, वे कहते हैं कि जैसे स्नातक एक योग्यता है, वैसे ही जाति-भेद मिटाना और उसे अपने जीवन में अपनाना भी एक अतिरिक्त योग्यता ही है| हालांकि नेहरु इस मांग के जवाब में लिखे पत्र में ‘निजता और निजी चुनाव की स्वतंत्रता’ का हवाला देते हुए उनके इस सुझाव को नकार देते हैं| एक दूसरा पत्र, उन्होंने नेहरु को प्रधानमंत्री द्वारा मेरठ कॉंग्रेस कमेटी में ‘जाटवाद के हावी होने के वक्तव्य के जवाब में लिखा। वे लिखते है कि मैंने ना तो कभी अपने निजी जीवन में और ना ही सार्वजनिक जीवन में जातिवाद किया और ना ही मैं ऐसी सोच रखता हूं। बल्कि मैंने तो ताउम्र ऐसे प्रयास किये है कि जाति का खात्मा हो सके| ऐसे में यह आरोप बेहद पीड़ादायक हैं| 

वे आगे लिखते है कि सार्वजनिक जीवन में रहने वाले व्यक्ति को कभी भी जातीय सभाओं / महासभाओं में न तो शामिल होना चाहिए और ना ही उनका हिस्सा/सदस्य बनना चाहिए| वे लिखते है की कांग्रेस में बहुत सारे नेता ऐसा कर रहे हैं। लेकिन उन्होंने न कभी ऐसा किया है ना ही कभी भविष्य में करेंगे| वे यहां तक लिखते है कि जाति व्यवस्था भारत के विभाजन का भी कारण रही है क्योंकि इसी के चलते मुस्लिम समुदाय में यह असुरक्षा घर कर गई कि बहुसंख्यक हिन्दू जब अपने ही समाज के लोगों के साथ जाति के आधार पर ऐसा अमानवीय व्यवहार और भेदभाव करते हैं तो कल जब देश आज़ाद होगा तो अपने संख्या बल का दुरुपयोग कर वे दूसरे धर्म के लोगों के साथ तो जाने किस तरह का बर्ताव करेंगे| 

जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने

उत्तर प्रदेश कांग्रेस की ब्राहमणवादी जड़ों के चलते उनके साथ लगातार हो रहे भेदभाव और अनदेखी से दुखी होकर उन्होंने भारी मन से 1967 में कांग्रेस छोड़ दी और भारतीय क्रांति दल (बीकेडी) के नाम से अलग पार्टी बनाई, जिसने जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी और स्वतंत्र पार्टी के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश की पहली गैर-कांग्रेस सरकार बनाई चरण सिंह गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री बने, जो दो साल ही चल पायी। कांग्रेस के विभाजन के बाद फरवरी 1970 में वे दूसरी बार वे कांग्रेस के समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। हालांकि राज्य में 2 अक्टूबर 1970 को राष्ट्रपति शासन लागू करने के चलते इस बार भी ज्यादा दिन सरकार नहीं चला पाए। उन्हें किसान वर्ग में हिन्दू-मुस्लिम एकता कायम करने के लिए भी जाना जाता है कबीरपंथी होने के नाते वे धार्मिक सहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को अच्छे से समझते थे| उनके मुख्यमंत्री काल के दौरान 1968 में जब देश भर में सांप्रदायिक दंगे हुए तो देश के सबसे बड़े प्रांत में उन्होंने एक भी जगह दंगा नहीं होने दिया| यह उनकी ही विरासत थी कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों में लम्बे समय तक सांप्रदायिकता नहीं पनपी हालांकि पिछले दो दशकों में हालात बदल गए हैं|

अब समय आ गया था उनके फिर से जेल जाने का वे शुरू से ही इंदिरा गांधी के आलोचक और धुर विरोधी रहे। 1970 के बाद वे केन्द्रीय राजनीति में गैर-कांग्रेस पार्टियों को उनके खिलाफ एक करने में लग गए| बढ़ते विरोध को देखते हुए इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाकर देश के तमाम बड़े विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया इनमें चरण सिंह भी थे। आपातकाल हटने पर देश की पहली गैर-कांग्रेस सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले चरण सिंह पहले गृह मंत्री और बाद में वित्त मंत्रालय के साथ उप-प्रधानमंत्री बने| इस दौरान उन्होंने किसान-बहुजन हित के कई महत्वपूर्ण फैसले लिए| इसमें विभिन्न प्रकार की कृषि-सब्सिडी देना, नाबार्ड की स्थापना, अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना और सबसे महत्वपूर्ण था मंडल कमीशन बनाना| लम्बे समय से शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़ा वर्ग, जिसे मोटे तौर पर देश की आबादी का 54 फ़ीसदी माना जाता था, की सामाजिक न्याय की गुहार आखिर सुनी गयी| हालांकि कमीशन की रिपोर्ट आते-आते हालात बिलकुल बदल गए और लम्बे समय तक वह रिपोर्ट ठंडे बस्ते में पड़ी रही, जिसे बाद में चरण सिंह की ही विरासत वाली जनता दल की सरकार दुबारा बनने पर लागू किया जा सका|

इंदिरा ने दिया सहयोग और धोखा

इसके पहले बदले राजनैतिक समीकरणों में 28 जुलाई, 1979 को चौधरी चरण सिंह समाजवादी पार्टियों तथा कांग्रेस (यू) के सहयोग से प्रधानमंत्री बनने में सफल हुए। काँग्रेस (आई) और सी. पी. आई. ने इन्हें बाहर से समर्थन प्रदान किया। मतलब यह कि वे अपनी ही विरोधी इंदिरा गांधी के समर्थन से प्रधानमंत्री बने, लेकिन बहुमत साबित करने से पहले ही इंदिरा गांधी ने समर्थन वापसी की घोषणा कर दी, जिसके चलते चरण सिंह बिना संसद का सामना किए ही इस्तीफ़ा देने पर मजबूर हो गए| बताया जाता है की इंदिरा गांधी ने समर्थन वापसी का निर्णय चरण सिंह द्वारा प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद उनके घर आकर धन्यवाद नहीं देने के चलते नाराज़ होकर लिया था||

मध्यावधि चुनाव जीतकर इंदिरा प्रधानमंत्री बनीं और कांग्रेस चरण सिंह के प्रति ज्यादा हमलावर होती चली गयीं इसी दौरान भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हुई और शुरूआती कुछ वर्ष के बाद बीजेपी ने भी चरण सिंह के खिलाफ दुष्प्रचार शुरू कर दिया| राजनैतिक कारणों के चलते जहां विरोधी दल उनको बदनाम करने में लगे रहे, वहीँ वे लगातार किसान-बहुजन के हितों की लड़ाई लड़ते रहे| कांशीराम के साथ व्यापक बहुजन एकता के प्रयास किये जो काफी हद तक सफल भी रहे। बहुत कुछ प्रयास चल ही रहे थे कि 29 मई, 1987 को 84 वर्ष की आयु में वे चिरनिद्रा में लीन हो गए| 

ताउम्र कबीरवाणी को जीवन में उतारने वाले चौधरी चरण सिंह नेहरु युग में कांग्रेस में रहते हुए राममनोहर लोहिया के समाजवाद को मानते थे। वे किसानवादी, बहुजनवादी और समाजवादी राजनैतिक सोच का अतुल्य संगम थे, जिसका फायदा यह देश उतना नहीं उठा पाया, जितना उठा सकता था| 

(संपादन : नवल/अमरीश)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

महेश चौधरी

लेखक स्वतंत्र शोधकर्ता एवं पत्रकार है

संबंधित आलेख

पढ़ें, शहादत के पहले जगदेव प्रसाद ने अपने पत्रों में जो लिखा
जगदेव प्रसाद की नजर में दलित पैंथर की वैचारिक समझ में आंबेडकर और मार्क्स दोनों थे। यह भी नया प्रयोग था। दलित पैंथर ने...
राष्ट्रीय स्तर पर शोषितों का संघ ऐसे बनाना चाहते थे जगदेव प्रसाद
‘ऊंची जाति के साम्राज्यवादियों से मुक्ति दिलाने के लिए मद्रास में डीएमके, बिहार में शोषित दल और उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय शोषित संघ बना...
‘बाबा साहब की किताबों पर प्रतिबंध के खिलाफ लड़ने और जीतनेवाले महान योद्धा थे ललई सिंह यादव’
बाबा साहब की किताब ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’ और ‘जाति का विनाश’ को जब तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने जब्त कर लिया तब...
जननायक को भारत रत्न का सम्मान देकर स्वयं सम्मानित हुई भारत सरकार
17 फरवरी, 1988 को ठाकुर जी का जब निधन हुआ तब उनके समान प्रतिष्ठा और समाज पर पकड़ रखनेवाला तथा सामाजिक न्याय की राजनीति...
जगदेव प्रसाद की नजर में केवल सांप्रदायिक हिंसा-घृणा तक सीमित नहीं रहा जनसंघ और आरएसएस
जगदेव प्रसाद हिंदू-मुसलमान के बायनरी में नहीं फंसते हैं। वह ऊंची जात बनाम शोषित वर्ग के बायनरी में एक वर्गीय राजनीति गढ़ने की पहल...