[बीते 19 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने मराठा आरक्षण के मामले में सुनवाई के दौरान सरकार से पूछा कि कितनी पीढ़ियों तक आरक्षण जारी रहेगा। शीर्ष न्यायालय ने 50 प्रतिशत की सीमा हटाए जाने की स्थिति में पैदा होने वाली असमानता को लेकर भी चिंता प्रकट की। इसे लेकर बहस चल रही है। सुप्रीम कोर्ट लोगों के निशाने पर है। इस संबंध में वंचित बहुजन अघाड़ी के अध्यक्ष प्रकाश आंबेडकर से फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार ने दूरभाष के जरिए बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत का संपादित अंश :]
अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार से पूछा है कि आरक्षित वर्गों को कितनी पीढ़ियों तक आरक्षण का लाभ दिया जाएगा। आपकी प्रतिक्रिया क्या है?
दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि सुप्रीम कोर्ट ऐसा सवाल करती है। अभी तीन दिन पहले ओबीसी के आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक जजमेंट दिया कि एससी और एसटी का आरक्षण संवैधानिक है। इसे संविधान से निकाला नहीं जा सकता। वहीं ओबीसी का आरक्षण संवैधानिक आरक्षण है, इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कोई टिप्पणी नहीं की। हमलोग यह मानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट की गरिमा अभी भी लोगों में बनी हुई है। समाज में उसका दर्जा है। उस दर्जे और गरिमा को बनाए रखना सुप्रीम कोर्ट का दायित्व है। ऐसी टिप्पणी करके सुप्रीम कोर्ट अपने उपर ही कीचड़ उछाल रही है। निचली अदालतों के जज भी यह मानते हैं कि आरक्षण संवैधानिक है, फिर सुप्रीम कोर्ट को अगर इतनी बेसिक बात नहीं समझ में आ रही है तो न्याय व्यवस्था कैसे चलेगी। हमारा मानना है कि सुप्रीम कोर्ट की लार्डशिप ऐसी टिप्पणी न करे तो उचित रहेगा। अगर सुप्रीम कोर्ट को कुछ कहना है, तो उसे जजमेंट के माध्यम से कहना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट टिप्पणी के माध्यम से कुछ कहता है, तो निश्चित रूप से इसका गलत अर्थ निकाला जाएगा। हमलोग ऐसी अपेक्षा रखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के जजों को ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट एवं अन्य अदालतों द्वारा ऐसी टिप्पणियां करना क्या उनके आरक्षण विरोधी रवैये को दर्शाता है?
जैसाकि मैंने पहले ही जिक्र किया है कि सुप्रीम कोर्ट की गरिमा कैसे बनी रहे, यह उसके ही हाथ में है। अगर सुप्रीम कोर्ट के जज अपनी गरिमा बनाए नहीं रख सकते तो लोग उनके खिलाफ निश्चित रूप से आवाज उठाएंगे और जनता मांग करेगी कि ऐसे जजों को निकाला जाए, जिन्हें संवैधानिक बात मालूम नहीं है कि जब तक संविधान चलेगा, तब तक आरक्षण रहेगा। राजनीतिक नेताओं को तो मुद्दा चाहिए, इसलिए वे अपने फायदे के लिए ऐसा करते हैं। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि ऐसे लोगों की मंशा समझे, वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। अपने बेंचों से ऐसे मुद्दों को निकाल बाहर करें। सुप्रीम कोर्ट को समझना होगा कि ये लोग झगड़ा लगाने की मंशा से ऐसा कर रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट में ओबीसी आरक्षण को लेकर सुनवाई चल रही है, जिसमें 11 जजों के खंडपीठ के गठन की बात कही गई है। ऐसा माना जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट आरक्षण की समीक्षा करेगी? अभी उसने राज्य सरकारों से जवाब-तलब भी किया है।
ओबीसी आरक्षण पर किन मुद्दों को लेकर सुनवाई चल रही है, उन मुद्दों को जाने बगैर कैसे कुछ कहा जा सकता है। ओबीसी आरक्षण पर पुनर्विचार के पीछे उनकी क्या मंशा है, सुप्रीम कोर्ट 11 जजों की बेंच क्यों बनाना चाहती है, जब तक पूरी बात सामने नहीं आ जाती है तब तक टिप्पणी करना सही नहीं होगा।
आरक्षण को लेकर अदालतों द्वारा हस्तक्षेप, जिनका उद्देश्य आरक्षण को प्रभावित करना होता है, ऐसे मामलों में सामाजिक और राजनीतिक संगठनों की भूमिका को आप कैसे देखते हैं?
अगर विधायिका में कमियां हैं तो किसी न किसी को तो पहल करनी ही होगी। कई बार यह पहल सुप्रीम कोर्ट करती है। अगर सुप्रीम कोर्ट को स्पष्ट तथ्य मुहैया नहीं कराया जाएगा तो वह आपके पक्ष में कैसे फैसला ले सकती है। जहां तक आरक्षण में पदोन्नति का मामला है तो निश्चित रूप से उत्तर प्रदेश की पूर्व मायावती सरकार की ही गलती मानी जाएगी। कोर्ट ने उससे दस्तावेज मांगे। सुप्रीम कोर्ट ने उससे कहा कि आप प्रोमोशन में रिजर्वेशन देना चाहते हैं, यह अच्छी बात है। मगर यह तो बताना ही पड़ेगा कि एससी व एसटी का रिजर्वेशन उनकी जनसंख्या की अनुपात से कम है या ज्यादा है। अगर कम है तो पदोन्नति में आरक्षण दिया जाना उचित है। लेकिन अगर ज्यादा है तो किस पर अन्याय होता है? लेकिन मायावती ने डाटा नहीं दिया। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब तक डाटा नहीं आ जाता, तब तक पदोन्नति में आरक्षण नहीं दे सकते और ना ही इसे लागू कर सकते हैं। फिर इसी तरह का निर्णय हर राज्य सरकार ने लेना शुरू कर दिया और कहा कि हमारे पास डाटा नहीं है, डाटा संग्रह में समय लग रहा है। फिर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब तक डाटा नहीं आ जाता है, तब तक इसे स्थगित रखो। इन मामलों को देखें तो हम पूरी तरह से न्यायपालिका पर दोषारोपण नहीं कर सकते। हमारे यहां राजनीति करने वाले नेताओं पर भी जिम्मेदारी आती है कि कोर्ट जो दस्तावेज मांगे, उसे उपलब्ध कराया जाए। हमारे पास डाटा नहीं है, हम डाटा संग्रह नहीं कर पा रहे हैं, इस तरह की जानबूझकर की जाने वाली बहानेबाजी का मतलब है कि आप दस्तावेज देना नहीं चाहते। तब सुप्रीम कोर्ट भी यही कहेगी, जब तक डाटा नहीं आ जाता, तब तक मैं इस पर जजमेंट नहीं करूंगा और इसे लागू भी नहीं किया जाएगा।
(संपादन : इमामुद्दीन/अनिल)
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