भगत सिंह की वैचारिक-यात्रा उनके दो लेखों, ‘अछूत समस्या’ (जून 1928); तथा ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’(अक्टूबर 1931) के उल्लेख के बिना अधूरी मानी जाएगी। उस समय तक भारतीय समाज और राजनीति में अस्पृश्यों से जुड़े प्रश्न महत्वपूर्ण हो चुके थे। हजारों वर्षों से शोषण और दमन का शिकार रहे दलित अपने अधिकारों के लिए एकजुट होने लगे थे। कुल जनसंख्या का पांचवां हिस्सा होने के कारण वे बड़ी राजनीतिक शक्ति भी थे। इसलिए उन्हें लुभाने के लिए इस्लाम, ईसाई आदि धर्मावलंबियों में होड़ मची हुई थी। ऐसे में भगत सिंह ने ‘विद्रोही’ उपनाम से ‘अछूत समस्या’ शीर्षक से लेख लिखा था, जो ‘किरती’ के जून 1928 अंक में प्रकाशित हुआ था। वे अछूतों की समस्याओं को वर्गीय समस्या के रूप में देख रहे थे। लेख में उन्होंने मदनमोहन मालवीय जैसे कांग्रेसी नेताओं के दोहरे चरित्र पर कटाक्ष किया था─
‘इस समय मालवीय जैसे बड़े समाज सुधारक, अछूतों के बड़े प्रेमी और न जाने क्या-क्या पहले एक मेहतर के हाथों गले में हार डलवा लेते हैं, लेकिन कपड़ों सहित स्नान किए बिना स्वयं को अशुद्ध समझते हैं!’
दलितों को गंदा और अपवित्र मानने वाली मानसिकता पर प्रहार करते हुए उन्होंने कहा था─‘वे गरीब हैं। गरीबी का इलाज करो। ऊंचे-ऊंचे कुलों के गरीब लोग भी कम गंदे नहीं रहते। गंदे काम करने का बहाना भी नहीं चल सकता, क्योंकि माताएं बच्चों का मैला साफ करने से अछूत नहीं हो जातीं।’ अस्पृश्यों को उनके आत्मगौरव की याद दिलाते हुए, वे आगे लिखते हैं─
‘हम मानते हैं कि उनके (अछूतों के) अपने जन-प्रतिनिधि हों। वे अपने लिए अधिक अधिकार मांगें। हम तो कहते हैं कि उठो! अछूत कहलाने वाले असली जनसेवको तथा भाइयो उठो! अपना इतिहास देखो। गुरु गोविंद सिंह की फौज की असली ताकत तुम्हीं थे। शिवाजी तुम्हारे भरोसे ही सब कुछ कर सके। जिस कारण उनका नाम आज भी जिंदा है। तुम्हारी कुर्बानियां स्वर्णाक्षरों में लिखी हुई हैं….लेंड एलिएनेशन एक्ट के अनुसार तुम धन एकत्र कर भी जमीन नहीं खरीद सकते….अपनी शक्ति को पहचानो और संगठनबद्ध हो जाओ। असल में स्वयं कोशिश किए बिना कुछ भी न मिल सकेगा….स्वतंत्रता की चाहत रखने वालों को गुलामी के विरुद्ध खुद विद्रोह करना पड़ना पड़ेगा….लातों के भूत बातों से नहीं मानते। संगठनबद्ध हो अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दे दो। तब देखना कोई भी तुम्हें तुम्हारे अधिकार देने से इन्कार करने की जुर्रत न कर सकेगा। तुम दूसरों की खुराक मत बनो। दूसरों के मुंह की ओर न ताको….तुम असली सर्वहारा हो। संगठनबद्ध हो जाओ। तुम्हारी कुछ हानि न होगी। बस गुलामी की जंजीरें कट कट जाएंगी। उठो और वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध बगावत खड़ी कर दो। धीरे-धीरे होने वाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा। सामाजिक आंदोलन से क्रांति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो। तुम ही तो देश का मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो। सोये हुए शेरो, उठो! और बगावत खड़ी कर दो।’’
‘मैं नास्तिक क्यों बना’ शीर्षक से एक और लेख है, जिससे भगत सिंह की विवेचनात्मक क्षमता का पता चलता है। 1930 में जिन दिनों भगत सिंह ने यह लेख लिखा, खुद को नास्तिक कहना आसान नहीं था। धर्म का भूत जनसाधारण के दिलो-दिमाग पर इस कदर सवार था कि धर्म-विहीन जीवन की संकल्पना ही उसके लिए असह् थी। हालांकि माधवाचार्य ने छह हिंदू दर्शनों में चार्वाक दर्शन को पहले स्थान पर रखा है; और चार्वाक दर्शन भारत का अकेला भौतिकवादी संप्रदाय नहीं था। इसके अलावा 62 भौतिकवादी दर्शनों का उल्लेख ‘दीघनिकाय’ में है, जो दर्शन बुद्ध के पहले से ही भारत में प्रचलित थे। बावजूद इसके इस देश में खुद को नास्तिक कहना सरल न था।

असुर, राक्षस जैसे गालीनुमा विशेषण पुरोहित वर्ग में नास्तिक लोगों के लिए ही रचे थे। सार्वजनिक जीवन में तो खुद को नास्तिक घोषित करना, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा था। खुद को नास्तिक घोषित करने के बावजूद जिन दो नेताओं ने भरपूर लोकप्रियता बटोरी, और समाज को प्रभावित करने में सफल रहे, उनमें पहले भगत सिंह, दूसरे दक्षिण के रामासामी पेरियार थे। हालांकि भगत सिंह के लिए ‘नास्तिकता इतनी नई चीज नहीं थी।’ भगत सिंह के अनुसार उन्होंने ‘ईश्वर को मानना तभी बंद कर दिया था’ जब वे अज्ञात नौजवान थे। आस्था और विश्वास ने मनुष्य और मनुष्यता का कितना नुकसान किया है, इसे वे अप्टन सिंक्लेयर के उद्धृण द्वारा समझाते हैं─
‘मनुष्य को दैवी शक्तियों में विश्वास करने वाला बना दो और उसके पास धन-संपत्ति आदि जो कुछ भी सब लूट लो। वह उफ् नहीं करेगा, यहां तक कि अपने आप के लूटने में खुद आपकी मदद करेगा। धार्मिक उपदेशों और सत्ताधारियों की मिलीभगत से ही जेलों, फांसियों, कोड़ों तथा शोषणकारी सिद्धांतों का निर्माण हुआ है।’
भगत सिंह को पढ़ते हुए प्रायः मैं अपने स्कूली दिनों में पहुंच जाता हूं। उन दिनों एक कहानी पढ़ी थी, जिसमें बालक भगत सिंह अपने पिता को खेतों में काम करते समय पूछता है कि ‘हम इन खेतों में बंदूकें क्यों नहीं बोते?’ उन दिनों बंदूक को ही क्रांति का अनिवार्य अस्त्र माना जाता था। स्कूल में एक अध्यापक महोदय हारमोनियम में रागनियां सुनाते थे। उक्त कहानी पर उन्होंने एक रागिनी तैयार की थी, जिसे वे तन्मय होकर सुनाते थे। आवाज इतनी ओजमय होती कि श्रोताओं के रोंगटे खड़े हो जाते। हर विद्यार्थी खुद को भगत सिंह समझने लगता था। लेकिन गांव के सामंती परिवेश में आपसी हिंसा को ही क्रांति समझ लिया जाता था। आज भी ऐसे बहुत से लोग हैं जो हिंसा और क्रांति के बीच फर्क नहीं कर पाते और क्रांति को बंदूक के नजरिये से देखते हैं। जबकि भगत सिंह ने अपनी प्रतिष्ठा वैचारिक क्रांति के दम पर हासिल की थी। उनके विचारों में मौलिकता भले ही न हो, मगर जिन विचारों और मूल्यों पर उनका विश्वास था, उनके साथ वे न केवल ईमानदारी से जिए, बल्कि दिखा दिया कि कोई भी विचार ऐसा नहीं है जिसे मनुष्य द्वारा अपने आचरण में उतार पाना असंभव हो।
‘थीसिस ऑन फायरबाख’ में मार्क्स ने लिखा है─‘दार्शनिकों ने इस संसार की तरह-तरह से व्याख्या की है। मुख्य समस्या है कि इसे बदला कैसे जाए?’ क्रांति के दर्शन को अपने जीवन में उतारकर भगत सिंह सिद्ध कर देते हैं कि विशाल पृथ्वी; तथा अनंत आसमान के नीचे ऐसा कुछ नहीं जो असंभव हो। चलते-चलते उनके लेख ‘युवक’(मई 1925) की कुछ पंक्तियां, जो आज भी उतनी ही प्रेरणास्पद हैं, जितनी 95 वर्ष पहले थीं─
‘अलविदा, अलविदा मेरे सच्चे प्यार
सेनाएं आगे बढ़ चुकी हैं
प्रिय, यदि तुम्हारे पास और रुका
तो कायर कहलाऊंगा मैं।
(सभी उद्धरण ‘भगत सिंह तथा उनके साथियों के संपूर्ण उपलब्ध दस्तावेज,’ संपादक सत्यम, राहुल फाउंडेशन, लखनऊ से लिए गए हैं)
(संपादन : नवल)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in
फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें
मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया