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रणदीप हुड्डा जैसे लोग शिक्षित होकर भी शिक्षित नहीं कहे जा सकते

सिनेमा कलाकार रणदीप हुड्डा द्वारा बसपा प्रमुख के खिलाफ की गई अश्लील टिप्पणी के केंद्र में वह दर्शन है जिसमें भारत के द्विज व सामंत विश्वास करते हैं। क्या आपने किसी पढ़े-लिखे जागरूक दलित-बहुजनों को किसी सवर्ण महिला के बारे में अभद्र टिप्पणी करते देखा है? पूनम तुषामड़ का विश्लेषण

भारतीय समाज में दो परंपराएं रही हैं। एक परंपरा है वैदिक अथवा सनातनी। इस परंपरा के केंद्र में मनुवाद है।

दूसरी परंपरा बहुजन-श्रमण परंपरा है। आज इसके केंद्र में जोतीराव फुले (11 अप्रैल 1827 – 28 नवंबर 1890), पेरियार इरोड वेंकट रामासामी (17 सितंबर 1879 – 24 दिसंबर 1973) और डॉ. भीमराव आंबेडकर(14 अप्रैल 1891 – 6 दिसंबर 1956) के विचार हैं। महिलाओं के दृष्टिकोण से भी ये दो परंपराएं ही रही हैं। पहली परंपरा में महिलाओं को स्वतंत्रता और समानता नहीं है। वहीं दूसरी परंपरा स्त्री को जीवन के सभी क्षेत्रों में स्वतंत्रता और समानता की हिमायती है। 

इतिहास गवाह है कि महिलाओं को समुचित अधिकार देने की कोशिश डॉ. आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल में की थी, जिसका विरोध तब सवर्ण और सामंती मानसिकता वालों ने किया था। जबकि डॉ. आंबेडकर ने इस बिल में यह प्रस्ताव किया कि किसी भी बालिग लड़का-लड़की को अपना जीवनसाथी चुनने का पूर्ण अधिकार है, इसमें जाति-पांति या धर्म की कोई भूमिका नहीं होगी, न ही माता-पिता किसी बालिग लड़के या लड़की को अपना मनचाहा जीवन-साथी चुनने से रोक सकते हैं। इस बिल में आंबेडकर ने हिंदू महिलाओं को तलाक का अधिकार भी प्रदान किया था। साथ ही महिलाओं को संपत्ति में भी अधिकार का प्रावधान था।

हालांकि बाद के दिनों में कुछेक प्रावधान किए भी गए लेकिन हजारों वर्षों से वर्चस्ववाद को कायम रखने वाला भारतीय समाज में प्रभाव बहुत कम पड़ा है। एक उदाहरण बीते दिनों सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हुआ वीडियो है। यह वीडियो हालांकि 9 साल पुराना है जिसमे सिने कलाकार रणदीप हुड्डा बसपा प्रमुख मायावती पर अभद्र और अश्लील टिप्पणी कर रहे है। इस वीडियों में स्वयं वह एक ‘डर्टी जोक’ यानि ‘भद्दा मज़ाक’ कहकर लोगों को सुना रहे हैं। यह वीडियो जैसे ही वायरल हुआ, लोगों की खासी प्रतिक्रियाएं आने लगीं। सोशल मीडिया पर रणदीप हुड्डा के खिलाफ दलित-बहुजनों में आक्रोश नज़र आया। प्रश्न यह है कि क्या ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी द्विज व सामंती मानसिकता वाले व्यक्ति ने किसी दलित-बहुजन समाज की महिला पर अभद्र, अश्लील अथवा जातिसूचक टिप्पणी की हो? क्या अकेले रणदीप हुड्डा ही इस प्रकार की जातिवादी, लैंगिक टिप्पणी करने के अपराधी हैं?

रणदीप हुड्डा, सिने कलाकार

जाहिर तौर पर इस सवाल का जवाब नहीं है। इसके पूर्व अकेले मायावती पर ही अनेक राजनीतिक और गैर राजनीतिक लोगों ने निशाना साधा है। इस देश की सत्तासीन पार्टी भाजपा के ही एक नेता ने केरल में उनके खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी की। इसके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश में एक भाजपा नेता ने मायावती के उपर पर अभद्र टिप्पणी की। हालांकि इस प्रकार की अभद्र या आपत्तिजनक टिप्पणियां करने वालों का हर बार जमकर सामाजिक और कानूनी विरोध भी हुआ। बाद में यह भी हुआ कि जन-दबाव के चलते लोगों द्वारा माफ़ी भी मांग ली गई।

लेकिनप्रश्न यही है कि क्या ऐसे मामले केवल माफी से समाप्त हो जाते हैं‍? क्या इन तथाकथित द्विज जाति से ताल्लुक रखने वालों व सामंती मानसिकता वालों को सदी दर सदी किसी जाति विशेष कि महिला अथवा व्यक्तियों को अपमानित करने और उनके खिलाफ अश्लील, अभद्र टिप्पणी या आपत्तिजनक व्यवहार करने का अधिकार प्राप्त है?

यह बात भी विचारणीय है कि क्या ये लोग किसी प्रकार की प्रसिद्धि पाने के लिए ऐसा करते हैं या इनकी पारिवारिक और सामाजिक ‘परवरिश’ ही ऐसी की जाती है, जहां बचपन से इनके भीतर फलित-पोषित जातीय संस्कार इन्हें ऐसा करने को प्रेरित करते हैं?

रणदीप हुड्डा के पहले क्रिकेटर युवराज सिंह ने भी दलित-बहुजनों का सार्वजनिक तौर पर अपमान किया था। क्या ये भूल जाते हैं कि इन्हें ‘पब्लिक फिगर’ या ‘सेलेब्रिटी’ बनाने वालों में समाज का एक बड़ा तबका है जो श्रमजीवी है और दलित-बहुजन है।

हालांकि रणदीप हुड्डा के फिल्मी करिअर को देखें तो उन्होंने कई फिल्मों में ऐसे किरदार निभाए हैं जो उनके वास्तविक चरित्र से मेल नहीं खाते। जहां एक और तो वे ‘हाई वे’ जैसी बहुचर्चित फिल्म में वे एक बच्ची के साथ यौन उत्पीड़न के मामले में नायक की तरह नजर आते हैं।

सामान्यत तौर पर फ़िल्में और उनमें भूमिकाएं निभाने वाले ये नायक-नायिकाएं अक्सर सामाजिक यथार्थ को दर्शाने और समाज में बड़े बदलाव एवं आदर्श स्थिति स्थापित करने में सहायक होते हैं। सामाजिक समस्याओं, रूढ़ियों और यथार्थ को चित्रित करने के उद्देश्य से बनी ऐसी अनेक ऐसी फिल्में हैं, जिन्होंने समाज की अनेक रूढ़ियों को तोड़ने और समाज परिवर्तन अथवा मानसिकता तक में बदलाव कर दिया। इन फिल्मों में नायक अथवा नायिका की भूमिका में दिखने वाले ये कलाकार अपने द्वारा अभिनीत चरित्र से जनता का ह्रदय परिवर्तन करने में सफल हो जाते हैं, किन्तु असल जिंदगी में अपने व्यक्तित्व में वे किसी प्रकार का बदलाव नहीं करना चाहते। 

दरअसल यहां सवाल यह भी है कि आखिर इतनी जातीय घृणा रणदीप हुड्डा जैसे लोगों में आती कहाँ से है। जबकि हम 21वीं सदी की लोकतांत्रिक प्रणाली से संचालित व्यवस्था में जी रहे हैं, जहां संवैधानिक व्यवस्था के चलते सभी को समान अधिकार प्राप्त हैं। देश में लिंग, जाति, धर्म, नस्ल और वर्ण के आधार पर भेदभाव किये जाने पर दंड का प्रावधान है। इतना ही नहीं, महिलाओं के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 354-ए, धारा 354-डी में महिला के प्रति अश्लील इशारों, अश्लील टिप्पणियों, पीछा करने पर कठोर कारावास की सजा या जुर्माना या दोनों लगाए जा सकते हैं। 

लेकिन कहना होगा कि समान में कानूनी प्रावधानों का असर धरातल पर नहीं दिख रहा है, जिसकी एक बानगी रणदीप हुड्डा जैसे लोग हैं। ऐसे किंतने केस हैं जिन में ऐसे अपराधियों के खिलाफ तुरंत मुकदमा दर्ज होता है और अपराधी को कठोर दंड मिलता है? ज्यादातर आरोपी अपने राजनैतिक, सामाजिक या आर्थिक स्तर का लाभ उठा कर साफ़ बच निकलते हैं। यही कारण है कि समाज में न तो महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में कमी आई है और ना ही आज तक लिंग और जाति आधारित उत्पीड़न की घटनाओं पर रोक ही लग पाई है। 

एक अन्य कारण और मुझे इस प्रकार की मानसिकता के पीछे स्पष्ट दिखाई देता है। वह है हमारी दोष पूर्ण शिक्षा पद्धति जो शायद रणदीप हुड्डा और युवराज सिंह जैसे न जाने कितने युवाओं को पढ़ा लिखा मानकर उनके सफलता के द्वार खोल देती है, जहां पहुंचकर उनका जातीय और लैंगिक अहम् दोगुना हो जाता है। जबकि शिक्षा का उत्तरदायित्व समाज की तरक्की के लिए बेहतर इंसान बनाना है। रणदीप हुड्डा जैसी लोग शिक्षित होकर भी शिक्षित नहीं कहे जा सकते जो समाज की आधी आबादी यानि महिला चाहे वह किसी धर्म, वर्ग, जाति अथवा समुदाय की हो उसे सम्मान और समानता देना नहीं जानते। 

बहरहाल, मसला केवल रणदीप हुड्डा तक सीमित नहीं है। मूल सवाल यही है कि दलित-बहुजन महिलाएं ही इनकी टिप्पणियों के केंद्र में क्यों होती हैं? क्या कभी किसी पढ़े-लिखे जागरूक दलित-बहुजन को किसी सवर्ण व्यक्ति अथवा महिला को उसकी जाति, वर्ण अथवा लिंग के आधार पर अपमानित करने की खबरे सुनी हैं? शायद नहीं क्योंकि दलित-बहुजन महिला-पुरुष दोनों कठोर संघर्ष ओर परिश्रम की उपज होते हैं और वे जीवन के प्रत्येक क्षण में एक-दूसरे के सहयोग, श्रम व महत्व को भलीभांति जानते समझते हैं।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

पूनम तूषामड़

दिल्ली में एक दलित परिवार में जन्मीं डॉ. पूनम तूषामड़ ने जामिया मिल्लिया से पीएचडी की उपाधि हासिल की। इनकी प्रकाशित रचनाओं में "मेले में लड़की (कहानी संग्रह, सम्यक प्रकाशन) एवं दो कविता संग्रह 'माँ मुझे मत दो'(हिंदी अकादमी दिल्ली) व मदारी (कदम प्रकाशन, दिल्ली) शामिल हैं। संप्रति आप आंबेडकर कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में अतिथि अध्यापिका हैं।

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