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पैगासस प्रकरण : लोकतंत्र और दलित-बहुजन सशक्तिकरण को शिथिल करने का प्रयास

लोकतंत्र तो एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है और राजनीति में लोक-लाज की परंपरा रही है। परंतु इस वक़्त लोकतंत्र में निर्लज्ज तरीके से बहुत कुछ ऐसा हो रहा है, जिससे देश में लोकतंत्र की बुनियाद हिलती नज़र आ रही है। भंवर मेघवंशी की प्रतिक्रिया

प्रतिक्रिया

इजरायल की कंपनी एनएसओ ग्रुप टेक्नोलाजीज के जासूसी स्पाइवेयर पैगासस के ज़रिए भारत के सैंकड़ों लोगों के स्मार्ट मोबाइल के डेटा में सेंध लगाए जाने की सूचना सामने आने से सभी सकते में हैं। इसे लेकर केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार पर गंभीर आरोप लगाए जा रहे हैं कि उसके कहने पर ही एनएसओ ने भारतीय नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं व मीडिया कर्मियों की जासूसी की। इस संबंध में विश्व स्तर पर खबरें प्रकाशित हो रही हैं और इसे भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरनाक बताया जा रहा है। दरअसल, विश्व स्तर पर जतायी जा रही चिंता बेवजह नहीं है। जिन लोगों की जासूसी करायी गयी है उनमें चालीस मीडियाकर्मियों के अलावा पक्ष-विपक्ष के नेताओं, पूर्व जज, सुरक्षा एजेंसियों के पूर्व व वर्तमान प्रमुखों सहित सामाजिक कार्यकर्ता और उद्योगपति भी शामिल हैं।

गौर तलब है कि इस सनसनीखेज़ मामले का ख़ुलासा विश्व भर के 17 प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों ने किया है। इसके बाद से बहुत सारे सवाल खड़े होने लगे हैं। संसद के मानसून सत्र में यह मामला गूंज रहा है। वैसे भी भारत की आरएसएस नियंत्रित केंद्र सरकार का अपने ही नागरिकों की विदेशी कंपनी के ज़रिए जासूसी करवाने का बेहद गंभीर मामला सामने आने के बाद हलचल मचना स्वाभाविक हीहै।

वहीं एनएसओ का यह कहना है कि उसने केवल सरकारों को ही अपना उत्पाद बेचा है। इसका सीधा सीधा मतलब यह हुआ कि जो कुछ भी हुआ है, वह सरकार की जानकारी में हुआ है। देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की अनुमति के बिना तो जासूसी किया जाना संभव नहीं लगता है। ऐसे में केंद्र की सरकार की संलिप्तता से इनकार नहीं किया जा सकता है। लोकतंत्र में होना तो यह चाहिए कि लोकतंत्र की निगरानी करें, लेकिन दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का ढोल पीटने वाली सरकार उल्टा नागरिकों के निजता के अधिकार को छीनने में पूरी बेशर्मी से लगी हुई है।

कटघरे में नरेंद्र मोदी सरकार, विरोध करते लोग

बात इतनी सी नहीं है कि सरकारें तो कुछ लोगों पर निगरानी करती ही है और जांच व खुफिया एजेंसियां भी फोन आदि तो टेप करती ही है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि कुछ अवैधानिक और देश विरोधी गतिविधि लगे तो सर्विलांस पर लेने की एक प्रक्रिया है और उसकी इज़ाज़त हमारी कानूनी व्यवस्था में है, लेकिन यह नागरिकों, संविधान और सरकार के बीच का मामला है। इसमें विदेशी ताकतों का कोई हस्तक्षेप नहीं होता है। मगर पैगासस उस भरोसे पर चोट है जो सरकार और नागरिक के मध्य लिखित व अलिखित रूप से सदा मौजूद रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रतिबद्ध स्वयंसेवक नरेंद्र मोदी और अमित शाह की राजनीतिक जोड़ी ने जासूसी के ज़रिये भय और भयादोहन की एक खतरनाक राजनीति शुरू की है, जिसके सहारे वे आजीवन सत्तारूढ़ रहने के लिए प्रयासरत हैं।

लोकतंत्र तो एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है और राजनीति में लोक-लाज की परंपरा रही है। परंतु इस वक़्त लोकतंत्र में निर्लज्ज तरीके से बहुत कुछ ऐसा हो रहा है, जिससे देश मे लोकतंत्र की बुनियाद हिलती नज़र आ रही है। पैगासस जासूसी प्रकरण हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के ढह जाने का संकेत देता है और विदेशी दख़ल को भी साफ तौर पर साबित करता है।

सवाल यह है कि आखिर सरकार यह सब करने को क्यों आतुर है? क्या उसके पीछे कोई ऐसी ताकत है जो इजरायल से सांठगांठ करके भारतीय लोकतंत्र को ध्वस्त करने की कोशिश कर रहा है? हम भली-भांति जानते है कि भारत में लोकतंत्र विरोधी और इज़रायलवादी ताकतें कौन सी हैं और वे वर्तमान धर्मनिरपेक्ष संघीय ढांचे को मिटा कर इस देश को एक धार्मिक राष्ट्र बनाने पर तुली हुई है।

संघ का इजरायल से प्रेम और अपने देश के धार्मिक अल्पसंख्यकों से बदला लेने की प्रेरणा वे इजरायली मॉडल में देखते हैं। इनका भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का प्रोजेक्ट पूरा हो, इसके लिए संघ किसी भी हद तक जा सकता है। फिर इसके लिए भले ही उन्हें हमारी राष्ट्रीय संप्रभुता से ही क्यों नहीं समझौता करना पड़े। 

प्रथम दृष्टया तो ऐसा प्रतीत होता है कि एनएसओ का पैगासस जासूसी स्पाईवेयर हिंदू राष्ट्र की परियोजना में बाधक बनने वाले संभावित लोगों की ख़ुफ़ियागिरी करना तो है ही, अपनी ही पार्टी और संगठन तथा सरकार में मौजूद लोगों की निगरानी करना भी है ताकि निर्बाध रूप से असिमित समय तक सत्ता का स्वाद चखा जा सके।

इसे भारतीय राजनीति में एक नई परंपरा स्थापित करने की कोशिशों के रूप में भी देखा जाना चाहिए कि सरकार को अपनी एजंसियों पर भरोसा नहीं रह गया है और सरकार संविधानेतर सत्ताओं की गिरफ्त में है जो देश के संविधान, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष चरित्र के खिलाफ लंबे समय से सक्रिय हैं तथा अपने विरोधियों को अलोकतांत्रिक उपकरणों से परास्त करना चाहती है। इस पूरे प्रकरण से संघ के खतरनाक इरादों की आहट मिलती है।

पैगासस जासूसी प्रकरण विपक्ष की निजता तथा राजनीतिक गतिविधियों, कार्यकलापों व रणनीतियों पर भी चोट है। अगर विपक्ष के नेताओं और उनके सहायकों, मित्रों व सलाहकारों तथा रणनीतिकारों के मोबाइल में सेंध सरकार लगा चुकी है तो कैसे कोई सरकार के जन-विरोधी कदमों के विरुद्ध आंदोलन या विरोध प्रदर्शन गठित कर सकेंगे? यह लोकतंत्र को एकपक्षीय ध्रुव पर खींच ले जाने की साज़िश है और तानाशाही के आगमन का संकेत भी है।

प्रश्न यह भी उठता है कि इसके बाद नागरिकों की अभिव्यक्ति की आज़ादी और निजता के अधिकार को हम कैसे परिभाषित करेंगे? अगर कोई सत्ता प्रतिष्ठान से असहमत हो कर लिखना बोलना चाहें तो उसका क्या होगा? मीडिया अगर निजी विवेक का इस्तेमाल करते हुए सरकार पर सवाल उठाए तो क्या उसे इज़ाज़त होगी या उसकी ख़बर और कहानी सरकारी सेंसरशिप का शिकार हो जायेगी। यह घोषित आपातकाल से भी भयावह स्थिति है जब कहने के लिए लोकतंत्र का आवरण है, लेकिन हकीकत में लोकतांत्रिक अधिकार, ढांचे और प्रक्रियाएं पूर्णतः ध्वस्त है।

देश ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में हंगामा मचाने वाले इस जासूसी कांड पर भारत सरकार की प्रतिक्रिया किसी आपराधिक बयानबाज़ी की तरह सामने आती है। वह इस आरोप का कोई जवाब नहीं देती कि यह जासूसी किसने करवाई? क्या यह सरकार की रजामंदी से हुई या सरकार ने खुद यह कारनामा अंजाम दिया? सरकार स्पष्टीकरण नहीं दे रही है तथा संदेह का वातावरण निर्मित कर रही है। वह यह स्थापित करने के प्रयास में है कि यह मीडिया रिपोर्ट संदेहास्पद है जिस पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। साथ ही, वह इसके जारी किए जाने की टाइमिंग को मुद्दा बना रही है कि संसद के मानसून सत्र से ठीक पहले इसका जारी होना भारत को बदनाम करने और मोदी सरकार को अस्थिर करने का कुत्सित प्रयास हो सकता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यह इतिहास ही है कि वह कुतर्कों और बेसिर-पैर की बातों के सहारे सारे विमर्श को पटरी से उतारने में माहिर है। इस प्रकरण पर सत्ता पक्ष की प्रतिक्रिया संघी तरीके का ही प्रकटीकरण है। यह अपने राजनीतिक विरोधियों से बदला लेने की सबसे नई व सबसे घृणित परंपरा स्थापित करने का प्रयास है। यह हमारे राष्ट्र राज्य के लोकतांत्रिक चरित्र को तो बर्बाद करेगा ही नागरिकों के व्यक्ति स्वातन्त्र्य को भी बुरी तरह से प्रभावित करेगा।

इसके पहले भी भीमा कोरेगांव केस में भी इसी तरह से सामाजिक सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं के कम्प्यूटर में सेंध लगा कर मैलवेयर के ज़रिए सामग्री अधिरोपित की गई और फिर उनको सबूत बना कर 16 लोगों को बंदी बनाया गया है, जिनमें से एक स्टेन स्वामी की इलाज़ के अभाव में मौत भी हो चुकी है तथा अन्य लोग गंभीर शारीरिक, मानसिक संकट का सामना कर रहे हैं। वरवरा राव को छोड़कर किसी को ज़मानत नहीं मिल पाई हैं।

आरएसएस और उसके स्वयंसेवकों की सरकार भीमा-कोरेगांव केस की तरह ही मामले निर्मित करने के लिए भारत के सैंकड़ों नागरिकों के मोबाइल में पैगासस के द्वारा जासूसी करवा रही है, ताकि डाटा से छेड़छाड़ करके नागरिक स्वतंत्रता और राजनीतिक आज़ादी छीन लें और विपक्ष का गला घोंट कर एक तानाशाही राज कायम किया जा सके।

बहरहाल, पैगासस सिर्फ जासूसी प्रोजेक्ट नही है। यह हमारे अर्जित किये लोकतंत्र को बर्बाद करके फासीवाद की स्थापना का प्रोजेक्ट है। यह नागरिकों के नियंत्रण से बाहर जाती अनियंत्रित सत्ता की स्थापना का नग्न नृत्य है, जिसके परिणाम बेहद भयंकर होंगे। इसके ज़रिए संघ अपने ब्राह्मणवादी मनु स्मृति आधारित राष्ट्र की स्थापना करने का प्रयास कर रहा है और जो भी उसके ख़िलाफ़ बोलेंगे, वे सरकार के सर्विलांस पर हैं। इतनी अंधेरगर्दी पहले कभी नहीं थी। यह सबसे बुरा दौर है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

भंवर मेघवंशी

भंवर मेघवंशी लेखक, पत्रकार और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने आरएसएस के स्वयंसेवक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू किया था। आगे चलकर, उनकी आत्मकथा ‘मैं एक कारसेवक था’ सुर्ख़ियों में रही है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद हाल में ‘आई कुड नॉट बी हिन्दू’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। संप्रति मेघवंशी ‘शून्यकाल डॉट कॉम’ के संपादक हैं।

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