h n

पेरियार की नजर में ‘शुचिता’

यदि स्त्रियां वास्तव में अपनी आजादी चाहती हैं, तो उन्हें शुचिता की अवधारणा को जो लिंग के आधार पर स्त्री और पुरुष के लिए अलग-अलग न्याय का प्रावधान करती है – को तत्काल नष्ट कर देना चाहिए। उसके स्थान पर स्त्री-पुरुष दोनों के लिए एकसमान, स्वःशासित शुचिता की अवधारणा विकसित होनी चाहिए। पढ़ें, पेरियार का यह आलेख

[पेरियार की गिनती बीसवीं शताब्दी के महान विचारकों और समाज सुधारकों में की जाती है। उनका चिंतन बहुआयामी तथा अपने समय से बहुत आगे था। जहां अन्य समाज सुधारक सती प्रथा, विधवा विवाह, बाल विवाह जैसी कुरीतियों के समाधान में उलझे हुए थे, पेरियार स्त्री समानता, स्वाधीनता तथा उनके नागरिक अधिकारों के पक्ष में जोरदार तरीके से अभियान चला रहे थे। 1934 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘पेन्न यीन अदीमाई आनल’, स्त्री-विमर्श की दृष्टि से भारतीय भाषाओं की पहली मौलिक पुस्तक कही जा सकती है। चाहें तो हम इसे भारत में स्त्री-विमर्श का पहला ‘मेग्नाकार्टा’ (अधिकारपत्र) भी कह सकते हैं। इस पुस्तक में पेरियार के, ‘कुदीआरसु’ में 1926 से 1931 के बीच प्रकाशित लेखों में से दस चुने हुए लेखों को शामिल किया गया था। पुस्तक के फ़्रांसिसी अनुवाद का विमोचन जुलाई 2005 में पेरिस में किया गया था।  

पुस्तक का मूल तमिल से अंग्रेजी में अनुवाद मीना कंडासामी ने ‘व्हाई वूमेन वर इनस्लेव्ड’ (स्त्रियों को गुलाम क्यों बनाया गया?) शीर्षक से किया है। प्रकाशक हैं– पेरियार सेल्फ रेस्पेक्ट प्रोपेगेंडा इंस्टीट्यूशन, चैन्नई। यह लेख उसी पुस्तक के 2019 में प्रकाशित तीसरे संस्करण के प्रथम लेख की हिंदी रूपांतर है। भारतीय मनीषा स्त्री की शुचिता पर जोर देती है। हिंदू धर्मशास्त्रों में पतिव्रता स्त्री का बड़ा महिमामंडन किया गया है। पेरियार इसे स्त्री की दासता का सबसे बड़ा कारण मानते हैं। लेख में वे शुचिता की जिस तरह तात्विक विवेचना करते हैं, वह अन्यत्र दुर्लभ है।]

स्त्रियों को गुलाम क्यों बनाया गया?

यदि हम तमिल शब्द ‘कार्पू’ (शुचिता) के घटक तत्वों के आधार पर इसकी विवेचना करें, तो पाएंगे कि मूल शब्द ‘काल’ से इसकी उत्पत्ति हुई है, जिसका अभिप्राय है– ‘सीखने के लिए’। यदि हम इस शब्द को जैसा कि इस कहावत ‘कार्पू येनप पदुवथु सोलथिरंबमई’ कहावत में प्रयुक्त हुआ है – पर नजर डालें तो पाएंगे कि ‘कार्पू’ शब्द का अभिप्राय, ‘किसी के वचन पर खरा उतरना’ है (यही इस कहावत के मायने हैं)। इस तरह इस शब्द में सत्यनिष्ठा, सच्चाई और समझौते की शर्तों पर ईमानदारी से टिके रहने की भावना समाविष्ट है। 

यदि हम ‘कार्पू’ शब्द का उसकी समग्रता में विश्लेषण करें, तो इसे ‘मगालिर नीराई’ (स्त्रियों के सद्गुणों) को दर्शाने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। यहां हम यह समझने में असमर्थ हैं कि ‘नीराई’ (सद्गुण) शब्द को विशेषतः स्त्रियों पर कब से थोप दिया गया। ‘नीराई’ शब्द का पर्याय– अभेद्यता (अविनाशिता), दृढ़ता अथवा शुचिता है। मगर किसी के लिए भी यह सिद्ध करना असंभव है कि ‘कार्पू’ सिर्फ स्त्रियों के संबंध में प्रासंगिक है। हम केवल उसके अर्थ खोज सकते हैं– ‘अविनाशी’, मजबूत और टिकाऊ।

यदि हम ‘अविनाशी’ शब्द का समग्र विवेचन करें तो यहां उसका सही अर्थ है– शुद्ध, अर्थात ‘अविकारित’ और अकलुषित। अंग्रेजी में भी ‘प्योर’ (शुद्ध) शब्द का आशय किसी अविकारित वस्तु या विचार से है। ऐसी वस्तु से है जिसे खराब न किया गया हो। इस तरह अंग्रेजी शब्द ‘चेस्टिटी’ (शुचिता) का अर्थ है– ‘वर्जिनिटी’(कौमार्य)। यदि हम संदर्भ में समझा जाए तो, यह शब्द स्त्रियों तथा पुरुषों में से किसी एक के पक्ष में परिभाषित नहीं है। अपितु संपूर्ण मानव जाति को लक्षित है। और इसका अर्थ है– ‘लिंग विशेष की सीमा से परे, परमशुद्धता की अवस्था।’ कुल मिलाकर ‘शुचिता’ का संबंध सिर्फ स्त्रियों से नहीं है। इसे इस तरह से भी देखा जा सकता है कि जब कोई पुरुष/स्त्री सहवास करता/कर चुका होता है, उन दोनों की अनुवर्ती पवित्रता के बावजूद, वह (चाहे स्त्री हो या पुरुष) अपनी शुचिता को गंवा देता है। 

केवल ‘इंडो-आर्यन’ भाषा संस्कृत में ‘शुचिता’ को पतिव्रता (निष्ठावान पत्नीपन) के रूप में परिभाषित किया गया है। मैं समझता हूं कि यहीं, इसी जगह (इसी भाषा में) पराधीनता की अवधारणा को शुचिता शब्द में समाविष्ट कर दिया गया था। ‘पतिव्रता’ शब्द स्पष्ट रूप से स्त्री-पराधीनता की स्थिति को दर्शाता है। न केवल इसलिए कि इसका अभिप्राय ऐसी पत्नी से है जो, ‘अपने पति को भगवान का दर्जा देती है; पति की दासी बनकर रहने को ही जो अपना ‘संकल्प’ (व्रत) मान लेती है, और अपने पति के अलावा वह किसी अन्य पुरुष का विचार तक नहीं रखती। इसलिए भी कि ‘पति’ शब्द का आशय ही स्वामी, रहनुमा और सर्वेसर्वा से है।

यद्यपि, तमिल शब्द ‘थलायवी’ (नेतृत्व करने वाली महिला) अथवा ‘नायकी’ (नायिका) पत्नी के ही बोधक हैं, किंतु इन शब्दों का उपयोग विशिष्ट अवस्था में तब किया जाता है जब कोई स्त्री प्रेम की अवस्था में हो। जैसे कि ‘थलायवी’ शब्द का प्रयोग उसके वास्तविक अर्थों में नहीं किया जाता, ऐसी स्त्री के संदर्भ में नहीं जो विनीत भाव से जीवन में तल्लीन हो। यही नहीं, उसके समकक्ष शब्दों ‘नायकन’ (नायक) और ‘नायकी’ (नायिका) का प्रयोग भी सिर्फ महाकाव्यों, कहानियों और विशेषरूप से ऐसी जगह मिलता है, जहां स्त्रियों और पुरुषों के मनोरथ पर जोर दिया गया हो। इसी तरह समानधर्मी शब्दों ‘नायकन-नायकी’ (नायक-नायिका) तथा ‘थलायवन-थलायवी’ का प्रयोग प्रेम के विभिन्न चरणों तथा इच्छाओं को दर्शाने के लिए किया जाता है, जबकि शुचिता की अवस्था केवल स्त्रियों से संदर्भित है, जिनसे कहा जाता है कि वे अपने-अपने पति को अपना स्वामी और भगवान समझें।

ई. वी. रामासामी पेरियार (17 सितंबर, 1879 – 24 दिसंबर, 1973)

इस मामले में, तिरुवेल्लुवर के विचारों को लेकर मैं थोड़ा भ्रमित हूं। मैं महसूस करता हूं कि तिरुक्कुल के छठे अध्याय, ‘वाझकई थुनेईनलम’ (जीवनसाथी का महत्त्व), 91वें अध्याय ‘पेन्नवझी चेराल’ (स्त्रियों के नेतृत्व में) तथा कुछ अन्य स्वतंत्र दोहों में, स्त्री के संदर्भ में चरम दासता और घटियापन का वर्णन किया गया है। यहां तक कह दिया गया है कि जो स्त्री देवताओं को पूजने के बजाय अपने पति की पूजा करती है, उसके आदेश पर बादल भी बरसने लगते हैं, स्त्री को हमेशा अपने पति की सेवा करनी चाहिए – इसी तरह के अनेक घटिया विचार उसमें मिलते हैं। 

यदि कुछ लोग इससे असहमत हैं, तो मैं उनसे तिरुक्कुरल के छठे और 91वे अध्यायों का पढ़ने का आग्रह करूंगा, खासतौर पर इसके बीस दोहों (दोहे जैसा दो पंक्तियों का छंद) को, उनके मूल स्वरूप में पढ़ें। न कि उनकी टीकाओं के माध्यम से। सामने कोई भी आए, उनके चरम तर्कों की परवाह किए बिना, अंतत: मैं उनसे एक ही तथ्य पर ध्यान देने का आग्रह करूंगा कि, ‘यदि इन पदों की रचना करने वाले तिरुवेल्लुवर पुरुष न होकर कोई स्त्री रहे होते, क्या तभी वे इन्हीं विचारों का चित्रण कर रहे होते? इसी तरह यदि स्त्रियों ने ही, स्त्रियों के बारे में धर्मशास्त्रों सहित दूसरी पुस्तकें भी रची होतीं, अथवा स्त्रियों ने ‘शुचिता’ शब्द को परिभाषित किया होता, तब क्या वे भी ‘शुचिता’ को ‘पतिव्रता’ जैसा ही अर्थ देतीं?

चूंकि ‘शुचिता’ को ‘पतिव्रता’ के रूप में परिभाषित किया गया है और चूंकि धन-संपत्ति, आमदनी और शारीरिक बल की दृष्टि से पुरुष को स्त्री की अपेक्षा अधिक बलशाली बनाया गया है, सो इसने ऐसी परिस्थितियों को जन्म दिया है, जो स्त्री पराधीनता को बनाये रखने के पक्ष में हैं। दूसरी ओर मनुष्य यह सोचकर मूर्ख बना रहता है कि ‘शुचिता’ से संबंधित कोई भी अवधारणा उसके ऊपर लागू नहीं होती। पुनश्चः, पितृसत्तात्मकता ही एकमात्र कारण है जिससे ऐसे शब्द जो दिखाएं कि शुचिता पुरुष के लिए भी उतनी ही अभीष्ट है, हमारी भाषाओं से गायब कर दिए गए है।

यह नहीं कहा जा सकता कि किसी देश, धर्म अथवा समाज ने इस विषय को लेकर ईमानदारी से काम किया है। केवल रूस (सोवियत भूमि) इसका अपवाद है। उदाहरण के लिए, हालांकि ऐसा प्रतीत होता है कि यूरोपियन स्त्रियों को ढेर सारी स्वाधीनता है, बावजूद इसके श्रेष्ठत्व और हेयत्व का बोध वहां ‘पति’ और ‘पत्नी’ के पर्यायवाची के रूप में निर्दिष्ट किए गए शब्दों में साफ नजर आता है। यहां तक कि वहां का कानून भी स्त्री को पुरुष की आज्ञाकारिणी बने रहने को आवश्यक मानता है।  

पुनश्चः कुछ समाजों में परदे की प्रथा लागू है। वहां स्त्रियों की घर की चौखट पार करने की आजादी नहीं होती। यदि जाना ही हो तो उन्हें मुंह को ढंककर जाना पड़ता है। वहां एक पुरुष अनेक स्त्रियों से विवाह कर सकता है, जबकि स्त्री को एक से अधिक पुरुषों से विवाह करने की अनुमति नहीं होती। और अपने देश में, हमारे यहां तो स्त्री पर अनेकानेक प्रतिबंध हैं। एक बार पुरुष की विवाहिता बन जाने के बाद मृत्युपर्यंत, स्त्री से उसकी स्वाधीनता छिन जाती है। उसका पति अनेक स्त्रियों से विवाह कर, उसके सामने घर में रह सकता है, और यदि पत्नी अपने पति के घर में हो, तब भी आपसी विश्वासहीनता के कारण वह अपने पति से केवल भोजन की अपेक्षा कर सकती है। पति पर अपनी कामेच्छाओं की संतुष्टि हेतु दबाव डालने का उसे कोई अधिकार नहीं है।

यह कहना मुश्किल है कि केवल कानून और धर्म ही इसके लिए जिम्मेदार हैं। चूंकि स्त्रियों ने हालात से खुद समझौता कर लिया है, इस कारण स्थिति दुस्संशोध्य/दीर्घस्थायी हो चुकी है। ठीक ऐसे ही जैसे शताब्दियों पुरानी परंपरा के चलते उन लोगों ने जिन्हें निम्न जाति का घोषित किया गया था, मान लिया था कि वे सचमुच निम्न जाति के हैं। इस कारण उनमें सिर झुकाने, छिपने या दूर हटकर सवर्णों के लिए रास्ता खाली करने की होड़-सी मच जाती है। इसी तरह, स्त्रियां भी सोचती हैं कि वे पुरुष की संपत्ति हैं। इसके मायने हैं कि उन्हें पुरुष के अधीन रहना चाहिए और मनुष्य के गुस्से का पात्र नहीं बनना चाहिए। इस कारण वे अपनी स्वाधीनता की भी चिंता नहीं करतीं। 

यदि स्त्रियां वास्तव में अपनी आजादी चाहती हैं, तो उन्हें शुचिता की अवधारणा को जो लिंग के आधार पर स्त्री और पुरुष के लिए अलग-अलग न्याय का प्रावधान करती है – को तत्काल नष्ट कर देना चाहिए। उसके स्थान पर स्त्री-पुरुष दोनों के लिए एकसमान, स्वःशासित शुचिता की अवधारणा विकसित होनी चाहिए। बलात विवाह, जिसमें बिना किसी प्रेम-भाव के, सिर्फ शुचिता की रक्षा के नाम पर, लोगों को एक-दूसरे के साथ दांपत्य जीवन में बांध दिया जाता है – का नाश हो जाना चाहिए।

निर्दयी धर्म और कानून, जो शुचिता/पतिव्रता धर्म के नाम पर स्त्रियों को पति की पशुवत हरकतों को भी सहते जाने का आदेश देते हैं – उन्हें नष्ट हो जाना चाहिए।

यही नहीं, समाज की क्रूर व्यवस्थाएं, जो यह अपेक्षाएं करती हैं कि शुचिता और पवित्रता के नाम पर हृदय में उमड़ते प्रेम और अनुराग को दबाकर, ऐसे व्यक्ति के साथ रहना चाहिए जिसके साथ न प्रेम हो न ही अनुराग – तत्क्षण बंद हो जाना चाहिए। 

इसलिए, कोई व्यक्ति समाज में तभी वास्तविक शुचिता, प्राकृतिक शुचिता, एवं संपूर्ण स्वाधीन शुचिता के दर्शन कर सकता है, जब इन क्रूरताओं का अंत हो जाए। ऐसा जोर-जबरदस्ती से कभी नहीं होगा, न ही विभिन्न लिंगों के लिए अलग-अलग कानून बना देने से होगा, न ही यह शक्तिशाली वर्ग द्वारा कमजोरों के लिए कलमबद्ध निर्देशों के दम पर यह संभव है, इससे केवल दासवत और थोपी गई शुचिता ही संभव है। 

मैं तो यहां तक कहूंगा कि इसकी तुलना में समाज में दूसरा और कोई घिनौना कृत्य ही नहीं है।

कुदीआरसु

8 जनवरी, 1928 

(अनुवाद : ओमप्रकाश कश्यप, संपादन : नवल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

ई. वी. रामास्वामी पेरियार

संबंधित आलेख

पढ़ें, शहादत के पहले जगदेव प्रसाद ने अपने पत्रों में जो लिखा
जगदेव प्रसाद की नजर में दलित पैंथर की वैचारिक समझ में आंबेडकर और मार्क्स दोनों थे। यह भी नया प्रयोग था। दलित पैंथर ने...
राष्ट्रीय स्तर पर शोषितों का संघ ऐसे बनाना चाहते थे जगदेव प्रसाद
‘ऊंची जाति के साम्राज्यवादियों से मुक्ति दिलाने के लिए मद्रास में डीएमके, बिहार में शोषित दल और उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय शोषित संघ बना...
‘बाबा साहब की किताबों पर प्रतिबंध के खिलाफ लड़ने और जीतनेवाले महान योद्धा थे ललई सिंह यादव’
बाबा साहब की किताब ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’ और ‘जाति का विनाश’ को जब तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने जब्त कर लिया तब...
जननायक को भारत रत्न का सम्मान देकर स्वयं सम्मानित हुई भारत सरकार
17 फरवरी, 1988 को ठाकुर जी का जब निधन हुआ तब उनके समान प्रतिष्ठा और समाज पर पकड़ रखनेवाला तथा सामाजिक न्याय की राजनीति...
जगदेव प्रसाद की नजर में केवल सांप्रदायिक हिंसा-घृणा तक सीमित नहीं रहा जनसंघ और आरएसएस
जगदेव प्रसाद हिंदू-मुसलमान के बायनरी में नहीं फंसते हैं। वह ऊंची जात बनाम शोषित वर्ग के बायनरी में एक वर्गीय राजनीति गढ़ने की पहल...