जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक प्रो. बद्री नारायण इन दिनों बहुजन बुद्धिजीवियों के निशाने पर हैं। इसके केंद्र में है संस्थान द्वारा हाल में की गयीं नियुक्तियां, जिनमें ओबीसी के कॉलम ‘नन फाऊंड सूटेबिल’ यानी एनएफएस लिख दिया गया। हालांकि संस्थान ने एक नया विज्ञापन जारी कर दिया है लेकिन बहुजन बुद्धिजीवियों का आक्रोश कम होने का नाम नहीं ले रहा। उनका कहना है कि संस्थान हाल की सभी नियुक्तियों को खारिज करे।
इस संबंध में प्रसिद्ध साहित्यकार व इतिहासकार सुभाषचंद्र कुशवाहा ने फेसबुक पर अपने पोस्ट में लिखा है– “जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान की नियुक्तियां, ओबीसी /दलित हकमारी का मात्र ताजा उदाहरण हैं। खेला पहले से होता रहा है। सभी शिक्षण संस्थानों में भरे द्रोणाचार्य, वंचित तबके की नियुक्तियों को खत्म करने में लगे रहे हैं। वर्तमान समय में उनकी पहली मंशा थी, आरक्षण का संवैधानिक अधिकार खत्म हो। ऐसा करने में अड़चनें थीं लिहाजा ट्रैक बदल लिया गया। कहा गया कि आरक्षण है, रहेगा, कभी खत्म न होगा। यह कह कर आरक्षित वर्ग को लॉलीपॉप थमाया गया लेकिन तुरन्त, असंवैधानिक तरीके से ईडब्ल्यूएस को 10 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया गया। इसके बाद पूरी निर्लज्जता से सीटों की डकैती शुरू हुई। सामान्य सीटों को जगह-जगह सवर्ण सीटें मान लिया गया। कहीं-कहीं मामला कोर्ट में गया तो कभी उनके पक्ष में, कभी वंचित तबके के पक्ष में फैसला आया। एक रूपता न बनी। डकैती अलग-अलग संस्थानों में चलती रही। कभी कानून बना कि रिक्त पदों के लिए चार से कम पद और आरक्षण न होगा तो वेकेंसियां 3-3 सीटों की निकलने लगीं। रोस्टर का खेला हुआ। विश्वविद्यालय के बजाय, डिपार्टमेंट को इकाई मान कर डकैतियाँ पड़ीं।
“अब डकैती का मुख्य हथियार बने, इंटरव्यू बोर्ड की बात की जाए जहां सामान्य सीटों को बद्री नारायण जैसों ने सवर्ण सीटें बना दिया है। इन सवर्ण सीटों के चयन बोर्ड में केवल सवर्ण सदस्यों का होना नियमानुसार है। वहीं ओबीसी या दलित सीटों के इंटरव्यू बोर्ड में ओबीसी या दलित बोर्ड का होना नियमानुसार नहीं है। आरक्षित श्रेणी की नियुक्तियों में मात्र आरक्षित वर्ग के एक-एक ऑब्ज़र्वर रखे जाते हैं जो मूकदर्शक होते हैं। वे चाहकर भी इंटरव्यू को प्रभावित नहीं करते। उन्हें कोई अंक देने का अधिकार नहीं होता। होता वही है, जो सवर्ण अध्यक्ष चाहें।

“तो बद्रीनारायण जैसों की डकैतियों को रोकने के लिए जरूरी है, एपीआई निर्धारण और उसके द्वारा न्यूनतम योग्यता पूरी करने वाले को किसी भी दशा में एनएफएस न किया जाए। एपीआई अंकों का 85 प्रतिशत मेरिट के लिए लिया जाए। इंटरव्यू को मात्र 15 प्रतिशत वेटेज मिले या अगर एपीआई को 50 प्रतिशत वेटेज मिले तो 50 प्रतिशत लिखित परीक्षा का हो। इंटरव्यू खत्म हो। अगर इंटरव्यू बोर्ड बने भी तो सभी प्रकार की सीटों के इंटरव्यू बर्ड में समान अधिकार के साथ वंचित तबके के सदस्यों की भागीदारी 50 प्रतिशत से कम न हो। उन्हें अंक देने का अधिकार हो केवल शोपीस बनने के लिए न हों। इंटरव्यू के अंक सार्वजनिक हों कि किस मेम्बर ने किसे, कितना अंक दिया। यह सब न होगा तो, कहने को आरक्षण रहेगा, खत्म न होगा मगर सभी सीटें द्रोणाचार्य हजम कर जाएंगे। ओबीसी के हिस्से में एनएफएस होगा। याद रखिये, अब नहीं चेते तो कभी नहीं। अंगूंठा काटने वाले द्रोणाचार्य नंगई और मनमर्जी करने को तैयार हैं।”
वहीं, वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने लिखा है– “एनएफएस को कहीं आप इसे आईएफएस जैसा मत समझ लीजियेगा! यह भारतीय विदेश सेवा या भारतीय वन सेवा जैसी कोई राष्ट्रीय सेवा नहीं है। यह ‘नन फाऊंड सूटेबिल’ का संक्षिप्त रूप है। आजकल तीन शब्दों वाला यह ‘शब्द-समूह’ भारतीय उच्च शिक्षण संस्थानों, खासकर हिन्दी भाषी राज्यों के संस्थानों में बहुत लोकप्रिय है। इसका मतलब है कि नियुक्ति की प्रक्रिया में ‘योग्य नहीं पाये गये’ है।
“पिछडे वर्ग (ओबीसी) की पृष्ठभूमि से आने वाले अभ्यर्थियों के मामले में एनएफएस का अंधाधुंध प्रयोग हो रहा है। अनारक्षित, यहां तक कि हाल के वर्षो में सृजित एक नयी श्रेणी ईडब्ल्यूएस के मामले में एनएफएस का टैग शायद ही कभी लगता है!
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“प्रोफेसर, निदेशक या वाइस चांसलर की नियुक्ति होती तो एनएफएस टैग का कुछ मतलब समझने लायक होता! पर असिस्टेंट प्रोफ़ेसर जैसे अपेक्षाकृत जूनियर पद की नियुक्ति में इसके प्रयोग का मतलब कोई कैसे समझे! इस पद के लिए उम्मीदवारों/अभ्यर्थियों की बेशुमार संख्या लाइन में होती है। उनमें कोई भी योग्य न मिले; ऐसा सिर्फ अपनी इस पावन-पुण्य भूमि, खासतौर पर हिन्दी भाषी राज्यों में ही संभव है! और फिर हाल का प्रकरण तो अपने अति-पवित्र प्रयागराज का है।
“ऐसा लगता है, एनएफएस भी ‘आरक्षित’ हो गया है सिर्फ पिछड़े वर्गो या आदिवासियों के मामले में! पिछले दिनों हमने किसी नियुक्ति प्रक्रिया में एसटी के संदर्भ में भी एनएफएस का प्रयोग देखा था।
“पिछडे वर्गो के मामले में एनएफएस का ताजातरीन टैग देखना हो तो अपने उत्तर प्रदेश में आइये। पंत जी के नाम पर अपने इलाहाबाद में स्थापित इस महत्वपूर्ण समाज अध्ययन संस्थान में सहायक प्रोफेसर की नियुक्ति प्रक्रिया में सभी वर्गो से योग्य और योग्यतम लोग मिल गये, पर पिछड़े वर्ग से एक न मिला! ओबीसी से सभी ‘अयोग्य लोग’ ही इंटरव्यू बोर्ड तक पहुचे थे।
“केंद्र से लेकर राज्य तक, राजनैतिक और शैक्षणिक सत्ता के शीर्ष पर बैठे हे ‘महामहिम-गणों’, आपकी महिमा अपरंपार है! खासतौर पर राजनीतिक-सत्ता पर आसीन महामहिमो, आप सचमुच कितने उस्ताद हैं, जिन्हें आपकी सत्ताएं और संस्थाएं ‘अयोग्य’ बताती रहती हैं, उन सामाजिक समूहों की आबादी का बड़ा हिस्सा आपको ‘योग्यतम’ मानते हुए अपने वोट से आपको सत्ता-शीर्ष पर बैठाता आ रहा है। आप उन पिछड़ों को ‘हिन्दुत्व’ का शर्बत पिला-पिला कर अपनी योग्यता से चमत्कृत कर देते है!
“आप अद्भुत हैं, अनोखे हैं, अद्वितीय हैं! आपकी ‘जय-जयकार’ यूं ही नहीं होती है! एनएफएस श्रेणी वालों के पास ‘दिमाग’ और ‘प्रतिभा’ भले न हो, ताली बजाने का जोर जरूर है। तालियाँ बजवाइये, खूब बजवाइये पर याद रखिये, जिस दिन इन युवाओं के बीच से कोई नया ईमानदार और समझदार नेतृत्व उभरेगा, आपका सारा मायाजाल, छल-प्रपंच, सबकुछ छिन्न-भिन्न हो जायेगा!”
प्रसिद्ध आलोचक वीरेंद्र यादव के मुताबिक– “हिंदी का एक कवि जो स्वयं को हाशिये के समाज के पैरोकार के रुप में प्रस्तुत करता है। जो इतना कोमल और सहृदय है कि ‘प्रेमपत्र’ बचाना उसकी मानवीय आर्द्रता का प्रमाण है। वही बहेलिये के रुप में जब समाज के हाशिये की पृष्ठभूमि से आई नई मेधा का अपने निदेशकत्व वाले संस्थान में उच्चतम रेटिंग के बावजूद ‘नन फाउंड सूटेबिल’ का टैग लगाकर शिकार करता है; तब देश की संवैधानिक संस्था उसके इस खेल को किन विंदुओं पर प्रश्नांकित करती है। इसका खुलासा आज देश के सर्वाधिक विश्वसनीय अंग्रेजी समाचारपत्र ‘दि हिन्दू’ ने किया है। हिंदी के साहित्यिकों को इस प्रश्न से मुखामुखम करना है कि इस संवैधानिक प्राविधान विरोधी कुकृत्य को लेकर वे स्वयं कहां खड़े हैं? यानि बकौल ‘मुक्तिबोध– पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?’”
(संपादन : नवल/अनिल)
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