उत्तर भारत में ठंड अपने शबाब पर है, लेकिन उत्तर प्रदेश में इत्र व्यापारियों पर आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी की छापेमारी से सियासी पारा ऊपर चढ़ गया है। सवाल न सिर्फ इन एजेंसियों की आज़ादी पर है बल्कि चुनावों को प्रभावित करने की क्षमता पर भी है। ऐसा पहली बार नहीं है कि इन एजेंसियों के दुरुपयोग के आरोप लगे हैं, लेकिन पिछले सात साल में हुए तमाम चुनावों से पहले इन एजेंसियों की एकतरफा कार्रवाई विपक्षी पार्टियों को शिकायत का मौक़ा तो देती ही है।
साल के आख़िरी दिन आख़िरकार आयकर विभाग के अधिकारी समाजवादी पार्टी के एमएलसी पुष्पराज उर्फ पम्मी जैन के ठिकानों पर छापेमारी करने पहुंच गए। इससे पहले आयकर विभाग पीयूष जैन नाम के इत्र व्यापारी के यहां छापेमारी करने पहुंच गया था। समाजवादी पार्टी का आरोप था कि निशाना इत्र कारोबार करने वाले पुष्पराज जैन ही थे, लेकिन पी. जैन का पता लगाते हुए आयकर विभाग के अधिकारी ग़लती से दूसरे इत्र व्यापारी पीयूष जैन के यहां पहुंच गए। आयकर अधिकारी पहुंचे ग़लती से थे, लेकिन वहां क़रीब दो सौ करोड़ रुपए नकद और ज़ेवरात उनके हाथ लगे।
इसके बाद भाजपा और समाजवादी पार्टी पीयूष जैन को एक दूसरे का आदमी साबित करने में जुट गए। समाजवादी पार्टी के आरोपों को मज़बूती तब मिली जब अदालत में जीएसटी सतर्कता महानिदेशालय ने कहा कि पीयूष जैन के यहां से बरामद पैसा टर्नओवर का है और इसपर पैनल्टी समेट क़रीब 52 करोड़ की देनदारी बनती है। समाजवादी पार्टी ने आरोप लगाया कि सरकार ने “अपने आदमी” को बचा लिया। ख़ैर, आयकर विभाग आख़िरकार पम्मी जैन के ठिकानों तक भी पहुंच गया। इसके अलावा कई और व्यापारियों के यहां छापेमारी हुई जो इत्र और गुटका व्यापार से जुड़े हैं।
सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने देर किए बिना प्रेस कान्फ्रेंस बुलाई और आरोप दोहराया कि यह छापेमारी पीयूष जैन के यहां बरामद पैसे और संपत्ति की बरामदगी के बाद खीज मिटाने के लिए की गई है। साथ ही उन्होंने कहा कि हर चुनाव से पहले केंद्र सरकारी की एजेंसियां विपक्षी पार्टियों और उनसे जुड़े लोगों को परेशान करने में जुट जाती हैं। अगर पिछले कुछ समय में हुए प्रदेशों के विधानसभा चुनावों के दौरान हुई घटनाओं पर नजर डाली जाए तो अखिलेश यादव का आरोप सही नज़र आता है।
बंगाल में विधानसभा चुनाव से पहले ममता बनर्जी और उनके क़रीबी आयकर विभाग के अलावा प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआई के निशाने पर थे। इसी तरह तमिलनाडु में हुए विधान सभा चुनाव से पहले मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन को आयकर विभाग ने निशाना बनाया। बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले राजद, और मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक में कांग्रेसी नेता केंद्रीय एजेंसियों के निशान पर रहे। आख़िर ऐसा क्या है जो विधानसभा चुनाव के आसपास केंद्रिय एजेंसियां सक्रिय हो जाती हैं और सिर्फ विपक्षी दलों को निशाना बनाती हैं?

इसका सीधा जवाब है चुनाव में धनबल की भूमिका। यह किसी से छिपा नहीं है कि चुनाव बिना पैसे के नहीं लड़े जा सकते। रैली, गाड़ी, संसाधन, कार्यकर्ता, प्रचार, प्रसार हर चीज़ पैसे से है। इस लिहाज़ से चुनाव ऐसे भी बराबरी पर नहीं लड़े जाते। सत्ताधारी दल को संसाधनों का फायदा तो मिलता ही है, सरकारी कार्यक्रमों को प्रचार का माध्यम बना लेने की भी आसानी है। हमने पिछले सात साल में देख है किस तरह प्रधानमंत्री और बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्री चुनावों के आसपास सरकारी घोषणाओं, प्रचार कार्यक्रमों और सरकारी दौरों की झड़ी लगा देते हैं। ज़ाहिर तौर पर इससे प्रचार का प्रचार है और इसमें न तो पार्टी को ख़र्च करना पड़ता है और ना ही प्रत्याशी को।
ऐसे में विपक्ष के प्रचार को सीमित कर दिया जाए और संसाधन ख़त्म कर दिए जाएं तो चुनाव तक़रीबन एकतरफा हो जाता है।
हालांकि बंगाल, तमिलनाडु, राजस्थान, मध्यप्रदेश और दिल्ली के चुनाव नतीजे बताते हैं कि जनता बहुत हद तक इन बातों का मतलब समझती है। रही सही कसर अति उत्साह में भाजपा कार्यकर्ता ही इस तरह की बातों का खुलासा करके ख़ुद पूरी कर देते हैं। बहरहाल, केंद्रीय एजेंसियों को कार्रवाई ज़रूर करनी चाहिए लेकिन उनकी निष्पक्षता पर सवाल उठे बिना। केंद्रीय ऐजेंसियों में सरकारी दख़ल सीमित करने की मांग ऐसे में बेमानी है। सरकार जब ख़ुद ही संस्थाओं को तोड़ने में लगी है तो इस तरह की मांग के शायद ही कोई मायने हैं।
लेकिन इस तरह के चुनाव का आख़िर मतलब क्या रह जाता है? चुनाव सुधार की मांग करने वाले लंबे अरसे से सरकारी ख़र्च पर पूरा चुनाव कराने, दलों के बीच ग़ैर-बराबरी दूर करने, और धन का दुरुपयोग रोकने की मांग करते रहे हैं। चुनाव के दौरान संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को प्रचार से अलग रखने की मांग भी उठती रही है। यानी पार्टी चुनाव लड़े और सरकारी पदों पर बैठे व्यक्ति इससे दूर रहें। लेकिन पिछले कुछ सालों में हमने चुनाव के दौरान राज्यपाल, राष्ट्रपति और सेनाध्यक्ष तक को राजनीतिक भाषा बोलते सुना है। क्या यह स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है?
(संपादन : नवल/अनिल)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in
फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें
मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया