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जयपाल सिंह मुंडा : झारखंड के उपेक्षित ‘मारंग गोमके’

एक महान आदिवासी नेता, झारखंड आंदोलन को बेहतर नेतृत्व देने वाला नेता और एक महान खिलाड़ी जिसके नेतृत्व में गुलाम भारत ने पहली दफा ओलंपिक हॉकी में गोल्ड मेडल जीता। एक सरल, सहज आदिवासी, जो कांग्रेसियों के छल-कपट को समझ नहीं पाया। बता रहे हैं देवेंद्र शरण

हर साल 20 मार्च को झारखंड के महान नेता, शिक्षाविद और हॉकी के अभूतपूर्व खिलाड़ी रहे मारंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा को उनकी परिनिर्वाण दिवस के मौके पर याद किया जाता है। मारंग गोमके एक उपाधि है, आदिवासी परंपरा में इसे सबसे बड़ा नेता कहा जाता है। यह उनकी प्रासंगिकता आज भी आदिवासी जीवन में जल, जंगल, जमीन के संघर्ष आबुआ दिसुम आबुआ राज से जुड़ा है।

जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व में झारखंड आंदोलन और उसकी नियति का अद्भुत लेखा-जोखा प्रस्तुत करने के लिए उनकी जीवनी और राजनीतिक जीवन को अलग-अलग बांटकर देखना होगा। मसलन, प्रारम्भिक जीवन, प्रवासी जीवन और राजनीतिक गतिविधियां।

प्रारम्भिक जीवन

जयपाल सिंह मुंडा का जन्म झारखंड (सन् 2000 के पूर्व बिहार) की राजधानी रांची से करीब 18 किलोमीटर दक्षिण, खूंटी जिले के टकरा पाहनटोली में हुआ था। खूंटी से मात्र पांच मील अर्थात आठ किलोमीटर दूरी पर अवस्थित टकरा पाहनटोली (सरना धर्म के पुजारियों का टोला) है, जो अब लगभग ईसाई गांव में तब्दील हो गया है। यहां एक चर्च और प्राइमरी स्कूल है। जयपाल सिंह मुंडा का प्रारम्भिक नाम प्रमोद पाहन था। जयपाल सिंह ने अपनी जीवनी में लिखा है मेरा नाम किसने और कब बदला, मुझे नहीं मालूम। वह 1911 की 3 जनवरी थी, जिस दिन मेरा नाम बदल गया होगा। तब मैं 8-10 साल का रहा होउंगा। घर के लोग मुझे प्रमोद कहते थे और 3 जनवरी के पहले तक यही नाम था। लेकिन, 3 जनवरी, 1911 को जब मैं अपने बाबा (पिता) अमरू पाहन की उंगली थामे, सकुचाते हुए रांची के संत पॉल स्कूल पहुंचा तो न सिर्फ मेरी पैदाइश की तारीख बलद गयी, बल्कि मेरा नाम ही बदल गया।

संत पॉल स्कूल नाम लिखाने से पहले ही टकरा के प्राइमरी स्कूल के शिक्षक लूकस सर से हिंदी और गणित की शिक्षा प्राप्त कर चुके थे। संत पॉल स्कूल के तत्कालीन प्रधानाध्यपक कैनन कॉसग्रोव थे। उन्होंने अपनी पारखी नजरों से जयपाल सिंह की प्रतिभा को परख लिया था। छात्र जयपाल पढ़ाई में जितने तेज थे, उतने ही खेलकूद और अन्य गतिविधियों में अग्रणी थे। कॉसग्रोव उनकी इस बहुमुखी प्रतिभा से प्रभावित थे, बल्कि उन्हें अपना सर्वप्रिय छात्र बना लिया था। जयपाल सिंह को संत पॉल में पढ़ते हुए छह साल हो गए थे कि 1918 में कॉसग्रोव सेवानिवृत होकर इंग्लैंड चले गए।

कॉसग्रोव लौटते वक्त अपने साथ छात्र जयपाल सिंह को भी इंग्लैंड ले जा रहे थे। जब चारों ओर खबर फैल गई कि कॉसग्रोव भारत छोड़कर इंग्लैंड अपने देश वापस जा रहे हैं… लेकिन, जिस बात की चर्चा ज्यादा थी और जिस बात से लोग हैरत में थे, वह यह थी कि कॉसग्रोव अपने संग मुझे ले जा रहे थे।

रांची में रहते हुए जयपाल सिंह को सबसे ज्यादा अपनी मां की याद आती थी। वह अक्सर अपनी मां को यादकर भावुक हो जाते थे। मां को याद करते हुए वे लिखते हैं– मैं मां का बहुत प्यारा था।… मां एक साधारण आदिवासी औरत थी। ममत्व और दयालुता से भरी-पुरी बहुत ही सुंदर, पर एक रूढ़िवादी स्त्री थी। दस-पन्द्रह दिनों के भीतर वह एक बार जरूर रांची आती थी, मुझसे मिलने। आने पर मुर्गा बनाती। वह कॉसग्रोव को बहुत पसंद नहीं करती थी। इस बात से हमेशा सशंकित रहती थी कि कॉसग्रोव मुझे ईसाई बना देगा। शायद इसलिए कॉसग्रोव भी दूरी बरतते थे। लेकिन, मैं मां की इच्छा का सम्मान नहीं रख सका। मेरी नजदीकियां कॉसग्रोव के साथ लगातार बढ़ती गईं और उसने मुझे ईसाई बना ही दिया।

प्रवासी जीवन

जयपाल सिंह ने अपनी स्मरण में इंग्लैंड की यात्रा का विस्तृत वर्णन किया है। अपनी आत्मकथालो विर सेन्दरा में वे बताते हैं कि उनमें यात्रा को लेकर बड़ी घबराहट और उत्साह थापासपोर्ट बनाने के लिए पीटर कुमार ने हमारा फोटो खींचा। इतना भी समय नहीं था कि मैं गांव जाकर अपने बाबा (पिता) को इस बात की सूचना दे सकूं, उनसे सहमति ले पाऊं। कॉसग्रोव ने यात्रा के लिए मेरे वास्ते एक ग्रे रंग का सूट बनवाया। इससे पहले मैंने कभी सूट नहीं पहना था। हम लोग बंगाल-नागपुर रेलवे के प्रथम श्रेणी से कलकत्ता गये। फिर वहां से बॉम्बे के लिए रवाना हुए। बॉम्बे पहुंचकर कॉसग्रोव ने टिकट लिया और टमटम पर बैठकर ही जहाज की ओर बढ़े।

जयपाल सिंह मुंडा की तस्वीरें

जहाज में कॉसग्रोव अलग केबिन में थे। जबकि मेरी बर्थ दो यात्रियों वाले कूप में थी। यह मेरी पहली समुद्री यात्रा थी। इस समुद्री यात्रा ने मुझे आश्चर्य में डाल दिया और कई भौगोलिक जानकारियां भी दी। जैसे रेड सी लाल नहीं है। यात्रा के दौरान कोई खास परेशानी नहीं हुई, न ही समुद्री बीमारियों की चपेट में आया। सिवाय शुरुआती यात्रा के पहले दो-तीन दिन बुखार के, जो शायद लगातार यात्राओं और हवा-पानी के बदलाव से हुआ होगा।

जहाज से उतरकर 20 दिसम्बर को हम लोग ट्रेन से डार्लिगटन के लिए रवाना हुए। वहां पहुंचने के बाद दो गोरी लड़कियों ने हमारा समान उतारा। गोरे लोग भी कुली होते हैं, यह देखकर मुझे धक्का लगा। … मिसेज रॉवर्ट ने मेरे रहने की अच्छी व्यवस्था कर रखी थी। … जल्दी कुछ दिनों के भीतर तीन धनी दयालू बहनें— मार्गेट, एलिस और पैट्रिसिया – के अभिभावकत्व में मुझे सौंप कर कॉसग्रोव अपने डायोसिस में चले गये।

सन् 1922 में संत जॉन्स कॉलेज ऑक्सफोर्ड से उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की। उन्हें बिशप नाइट द्वारा हर्टफोर्डशायर फेलोशिप दी गई। वर्ष 1926 में जयपाल सिंह ने राजनीति, राजनीति और शिक्षा में स्नातक की शिक्षा पूरी की। 1926 में ही उन्होंने हॉकी टीम का प्रतिनिधित्व किया और उन्हें ब्लू हॉकी खिलाड़ी का सम्मान प्राप्त हुआ।

सन् 1928 में उन्होंने ओलम्पिक में भारतीय हॉकी की कप्तानी की थी। ओलम्पिक में स्वर्ण पदक हासिल कर भारत का नाम दुनिया में ऊंचा किया और रंगभेदी यूरोपीय समाज को हतप्रभ कर दिया। इसी दौरान जयपाल सिंह इंडियन सिविल सर्विस (आईसीएस) अधिकारी के लिए चयनित हुए, लेकिन जब उन्हें भारत के हॉकी टीम का कप्तान बनाया गया तो छुट्टी मांगने गये कि वे ओलम्पिक से लौटकर प्रशिक्षण पूरा कर लेगें, किन्तु उन्हें छुट्टी नहीं मिली। जयपाल सिंह लिखते हैं मुझे आईसीएस और हॉकी, इनमें से किसी एक चुनना था। मैंने अपने दिल की आवाज सुनी। हॉकी मेरे खून में था। मैं फैसला किया– हॉकी।

सुभाषचंद्र बोस की तरह जयपाल सिंह मुंडा ने देश के लिए आईसीएस जैसी प्रतिष्ठित नौकरी छोड़ दी। पर जिस हॉकी के लिए उन्होंने ने आईसीएस की नौकरी छोड़ी थी, उसी हॉकी की कप्तानी उन्हें 1928 के नवम्बर महीने में त्यागनी पड़ी। विश्व प्रसिद्ध भारतीय हॉकी खिलाड़ी ध्यानचंद ने अपनी आत्मकथा गोल में इस बात की चर्चा की है। ध्यानचंद गोल में लिखते हैं कि उन्हें और पूरी टीम को यह जानकर धक्का लगा कि जयपाल सिंह उनकी कप्तानी नहीं करने वाले हैं। हवा में कई कहानियां तैर रही थीं, पर सच क्या था, किसी को भी पता नहीं था। क्या जयपाल सिंह टॉप लेवल पर चल रहे भेदभाव के राजनीति के शिकार थे?”

अब आईसीएस और हॉकी की कप्तानी छोड़ने के बाद उनके पास कोई निश्चित करियर नहीं रह गया था। यद्यपि जयपाल सिंह ऑक्सफोर्ड से अर्थशास्त्र में एमए थे, इसलिए उन्हें सम्मानजनक नौकरी मिल सकती थी, लेकिन वे नौकरी के पक्ष में नहीं थे। फिर भी लंदन में तीन महीने का प्रोवेशन खत्म करने के बाद उन्हें भारत में बर्मा ऑयल कंपनी के मुख्य अधिकारी के तौर पर कलकत्ता भेजा गया।

बर्मा ऑयल कंपनी के उच्चाधिकारी रहते हुए उनकी जान पहचान उच्च वर्गीय ब्रिटिश एंग्लो इंडियंस, फ्रेंच और प्रसिद्ध भारतीयों से हुई। इनमें से पंकज गुप्ता और दिलीप चौधरी से उनकी दोस्ती बढ़ती गई। दिलीप चौधरी जिसे जयपाल सिंह मुंडा दिलू भी कहते थे, से प्रगाढ़ता के कारण उनकी मुलाकात तारा बनर्जी से हुई, जिनसे दार्जिलिंग में उन्होंने प्रेम विवाह किया था। तारा बनर्जी के बारे में जयपाल सिंह लिखते हैं कि “वह दार्जलिंग की अघोषित राजकुमारी थी। बहुत ही सुंदर, घुड़सवारी और नृत्य में पारंगत। उसने अपने प्यार के शहद का ऐसा घेरा मेरे चारों ओर डाला कि उससे बाहर निकलना मेरे लिए असंभव हो गया।”

तारा बनर्जी राजनीतिक रूप से अत्यंत प्रतिष्ठित बंगाली परिवार की बेटी थीं। तारा के नाना ओमेश चंद्र बनर्जी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सह-संस्थापक और पहले अध्यक्ष थे। मां एग्नेस मजूमदार और पिता जी. के. मजूमदार की बंगाली समाज में काफी प्रतिष्ठा थी। जयपाल सिंह ने तारा को शादी के लिए प्रस्ताव दिया और तारा तथा उसके परिवार से सहमति मिलते ही दार्जिलिंग में दोनों का विवाह 1932 में ईसाई रीति से हो गया।

जयपाल सिंह कुछ दिनों तक पारिवारिक जीवन का आनंद ले ही रहे थे कि ऑयल कंपनी ने उनकी नौकरी के कॉन्ट्रैक्ट का नवीनीकरण करने से मना कर दिया। आजीविका की तलाश में उन्हें अफ्रीका जाकर एक कॉलेज में शिक्षक की नौकरी करनी पड़ी। तारा कुछ दिन साथ रहकर दार्जिलिंग वापस लौट आईं। इसी बीच जयपाल सिंह एक अफ्रीकी महिला ग्रेस के मोहपाश में पड़ गए। यह बात 1934-36 की है।

सन् 1937 में वे रायपुर के राजकुमार कॉलेज में रहे। लेकिन, कॉलेज के प्रिंसिपल स्मिथ पीयर्स से ठन जाने के कारण जयपाल सिंह को कॉलेज की नौकरी त्यागनी पड़ी। जल्द ही उन्हें बीकानेर राज्य में नौकरी मिल गई। लेकिन, ईमानदारी के कारण वहां भी नौकरी छोड़नी पड़ी और फिर वे कश्मीर राजा हरि सिंह के बेटे कर्ण सिंह को पढ़ाने के लिए चले गए। कश्मीर की आबोहवा तारा को रास नहीं आई और वह बीमार हो गईं। अतः जयपाल सिंह को कश्मीर छोड़ना पड़ा। 

राजनीतिक गतिविधियां ( 1938-1970)

जयपाल सिंह की राजनीतिक जीवन की शुरुआत दिसम्बर, 1938 से होती है जब वे पटना (बिहार) आए और फिर रांची। इसके बाद अपने गांव टकरा पाहनटोली भी गए। इंग्लैंड जाने के ठीक बीस साल बाद अपने गांव की उनकी यह पहली यात्रा थी।

जयपाल सिंह के राजनीति में आने से पहले झारखंड का सामाजिक और राजनीतिक वातावरण गरम था। सन् 1910-12 में छोटानागपुर उन्नति समाज के अलावा छोटानागपुर कैथोलिक सभा, मुंडा सभा, खेड़िया सभा और किसान सभा के प्रमुख थे।

छोटानागपुर उन्नति समाज की तरफ से भियोडो सोसे, राय साहब बंदी उरांव, पाल दयाल, ढेवले उरांव और जुएल लकड़ा इत्यादि ने साइमन कमीशन को छोटानागपुर प्रांत के लिए मांग पत्र दिया। ब्रिटिश सरकार ने यह मांग नामंजूर कर दी।

वहीं 1938 ई. में 30-31 मई को दो दिवसीय आदिवासी एकता सम्मेलन बुलाया गया। इसमें छोटानागपुर उन्नति समाज, छोटानागपुर कैथोलिक सभा, मुंडा सभा, खड़िया सभा और किसान सभा की करीब 255 प्रतिनिधि शामिल हुए। इसी सभा मेंआदिवासी महासभा नामक एक राजनीतिक संगठन का गठन हुआ। 

इसी दरमियान एक बार पटना से रांची लौटने के बाद जयपाल सिंह सीधे खूंटी अपने गांव पहुंचे और पूरा एक दिन अपनी मां के साथ गुजारा। पिता का देहांत हो चुका था और मां बेटे को देखकर रो रही थी। उन्होंने मां से राजनीति में जाने के बारे में बात की। मां बोली, तुम्हें जो पसंद है वही करो। लेकिन, किसी से धन्यवाद की आशा मत करना।

अगले दिन 20 जनवरी, 1939 में रांची में आदिवासी महासभा विशाल आमसभा बुलाई गई और सर्वसम्मति से आदिवासी महासभा का नेतृत्व जयपाल सिंह मुंडा को सौंपा गया। अपने भाषण में उन्होंने कहा– “मैं पूर्ण निष्ठा के साथ स्वयं को उस कार्य के लिए जो आप मुझे सौंप रहे हैं, उसकी महती उत्तरदायित्व तथा महान कठिनाइयों को पूरी तरह समझते हुए समर्पित करता हूं। यह मेरा सतत प्रयत्न रहेगा कि मैं अपने कर्तव्य का निर्वहन पूरी सच्चाई, सम्पूर्णता तथा शुद्ध अंतःकरण के साथ करूं।”

जयपाल सिंह के नेतृत्व में आदिवासी महासभा संगठित और मजबूत हुई। जयपाल सिंह गर्मजोशी से 1939 में जिला पार्षदी के चुनाव में जुट गए। लेकिन, चुनाव के सप्ताह-दस दिन पहले 25 अप्रैल, 1939 को उड़ीसा-झारखंड सीमा पर बसे सिमको गांव में ब्रिटिश सैनिकों ने हजारों आदिवासियों को चारो तरफ से घेर लिया और सैकड़ों आदिवासियों की हत्या कर दी। मुंडा, उरांव, खड़िया व 36 मौजा के आदिवासी निर्मल मुंडा के नेतृत्व में गंगा स्टेट द्वारा कई गुना लगान बढ़ाए जाने का शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। इस घटना ने जयपाल सिंह को हिलाकर रख दिया। फिर भी उन्होंने आदिवासी जनता के हितों के लिए चुनाव में भाग लिया। रांची जिला में 25 में से 16 और खूंटी जिले में 25 में से 22 सीटों पर आदिवासी महासभा ने परचम लहराया।

इधर कांग्रेस नेतृत्व आदिवासी महासभा की बढ़ती शक्ति और जन समर्थन को लेकर चिंतित हो गई। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और ठक्कर बापा ने आदिवासी महासभा में फूट डालने की रणनीति बनाई। हिंदू बनाम ईसाई आदिवासी के सांप्रदायिक तनाव को उभारने की कोशिश की गई। आदिवासी महासभा में फूट डालने में वे कामयाब हो गए और आगे चलकर आदिम जाति सेवक मंडल के रूप में आदिवासियों के बीच (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद से भी पहले) हिंदूकरण की प्रक्रिया की शुरुआत हुई। जुलाई, 1939 में ढेबले उरांव ने गैर ईसाई आदिवासियों का एक नया संगठन बनाया और सनातन आदिवासी महासभा की घोषणा कर दी।

18 दिसम्बर, 1939 को कांग्रेस से असंतुष्ट चल रहे नेताजी सुभाषचंद्र बोस को आदिवासी महासभा की एक जनसभा में जयपाल सिंह ने आमंत्रित किया। नेताजी ने अपने भाषण में स्वतंत्रता आंदोलन को मजबूत करने पर जोर दिया। आदिवासी महासभा ने भी पूर्ण स्वराज की लड़ाई में साथ देने का वादा किया। सन् 1940 में आदिवासी महासभा की भागीदारी से सुभाष बाबू की विशाल जनसभा हुई। दो दिन बाद कांग्रेस का अधिवेशन होना था तो आदिवासी महासभा ने रांची बंद का ऐलान किया। इससे गांधी संभवत: नाराज हो गए।

जयपाल सिंह मुंडा आदिवासियों के बीच लोकप्रिय हो चुके थे। आदिवासी महासभा के आह्वान पर भारत छोड़ो आंदोलन में आदिवासियों ने चाईबासा, सारंडा, संथाल परगना, लोहरदगा, पुरुलिया, धनबाद, हजारीबाग, गिरिडीह व रांची सभी जगहों पर भाग लिया। स्वतंत्रता आंदोलन में हिंसात्मक और अहिंसात्मक दोनों तरीके से लड़ाई लड़ी गई।

सन् 1946 के आते-आते देश का माहौल आजादी के रंग में रंगने लगा था। ब्रिटिश हुकूमत का जाना तय हो चुका था। इसी दौरान 8 जून को रांची में आदिम जाति सेवा मंडल नामक एक संस्था भी गठित की गई, जिसका मुख्यालय निवारणपुर में खोला गया। गौरी शंकर डालमिया ने संथाल परगना क्षेत्र में संथाल पहाड़िया सेवा मंडल बनाया। इसके दो साल बाद 1948 में सभी संस्थाओं को मिलाकर कांग्रेस ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और ठक्कर बापा के नेतृत्व में भारतीय आदिम जाति सेवक संघ का गठन किया गया।

आजादी के बाद भी आदिवासी महासभा जल, जंगल और जमीन को लेकर आंदोलन जोरदार तरीके से चला रहा था। लेकिन, इसी बीच 1 जनवरी, 1948 को खरसावां के साप्ताहिक बाजार, खरसावां को उड़ीसा में शामिल करने के विरोध में विशाल जुलूस का आयोजन किया गया था। उड़ीसा सरकार को स्मार-पत्र देकर लौटते हुए आदिवासियों पर अचानक गोलियों की बौछार की गई, जिसमें बड़ी संख्या में बड़े-बूढ़े, बच्चे और महिलाएं मारे गए। 11 जनवरी को आदिवासी महासभा ने इस गोलीकांड के विरोध में सभा का आयोजन किया। इस सभा को संबोधित करते हुए जयपाल सिंह मुंडा ने कहा, हम लगभग उन एक हजार आदिवासियों के प्रति अपना दुख प्रकट करते हैं, जो पहली जनवरी को उड़ीसा प्राधिकरण के इशारे पर मारे गए और दूसरा छोटानागपुर के शासकीय विभाजन को रोकने के लिए। राममनोहर लोहिया ने इसे दूसरा जलियांवाला बाग कहा।

खरसावां जनसंहार की बात पर ही 28 फरवरी, 1948 को रांची में आदिवासी महासभा का अधिवेशन हुआ। आदिवासी महासभा पूरी तरह से सांस्कृतिक, सामाजिक आंदोलन से बढ़कर एक राजनैतिक पार्टी के रूप में अपनी पहचान स्थापित करना चाहती थी।

1 जनवरी, 1950 को जमशेदपुर के करनडीह मैदान में आयोजित ऐतिहासिक अधिवेशन में आदिवासी महासभा अपने को पूरी तरह से राजनीतिक संगठन घोषित करते हुए इसका नया नामझारखंड पार्टी कर दिया। इसमें आदिवासी और सदानों (कृषि कार्य आदि में आदिवासियों का साथ देनेवाले स्थानीय गैर-आदिवासी) को एकजुट करते हुए जयपाल सिंह मुंडा ने कहा कि झारखंड पार्टी झारखंड में निवास करने वाले प्रत्येक आदिवासी और गैरआदिवासियों की एक राजनीतिक संस्था है।

जयपाल सिंह दो वर्षों तक संविधान सभा की बैठकों में अत्यंत व्यस्त रहे। इस दौरान उन्होंने आदिवासियों के पक्ष में जोरदार तरीके से अपना पक्ष रखा। जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व में स्वतंत्र भारत के पहले आम चुनाव में झारखंड पार्टी ने झारखंड में कांग्रेस को पूरी तरह शिकस्त दी। 1952 के इस चुनाव में झारखंड पार्टी बिहार विधानसभा के 32 और लोकसभा की 4 सीटों पर विजयी रही।

जयपाल सिंह के इस विजय ने कांग्रेस के नेताओं को बड़ी चुनौती दी। जिससे घबराई कांग्रेस ने दूरगामी चाल चली। श्रीलंकन मूल की सुंदरी जहांनारा को जयपाल सिंह का प्राइवेट सचिव बना दिया। तारा बनर्जी से एक दशक से अलग रह रहे जयपाल सिंह मुंडा जल्दी ही स्त्री स्नेह में पिघल गए। उन्होंने औपचारिक रूप से तारा बनर्जी से संबंध विच्छेद कर लिया और 7 मार्च, 1952 को अपने से बीस साल छोटी जहांनारा से विवाह कर लिया। इधर तारा अपने बच्चों के साथ इंग्लैंड जाकर बस गईं।

स्वतंत्रता मिलते ही सांस्कृतिक और भाषायी आधार पर राज्यों के गठन की मांग जोरों से उठने लगी। 1953 में प्रधानमंत्री नेहरू ने सैयद अफजल अली की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय राज्य पुनर्गठन आयोग की घोषणा की। हृदयनाथ कुंजरू और के.एम. पणिक्कर भी इसके सदस्य बनाए गए। आयोग ने 22 अप्रैल, 1954 को बिहार का दौरा किया। झारखंड पार्टी के सभी 32 विधायकों ने स्वतंत्र झारखंड राज्य की मांग की और स्मार पत्र सौंपा। लेकिन, झारखंड राज्य की मांग की उपेक्षा की गई। इस बीच बिहार के कांग्रेसी नेतागण जयपाल सिंह मुंडा को गलत सूचना दी कि पंडित नेहरू उन्हें झारखंड के विषय पर वार्ता करने के लिए दिल्ली बुलाया है। यद्यपि जयपाल सिंह मुंडा ने श्रीकृष्ण सिंह से कहा कि चूंकि पुनर्गठन आयोग रांची आने वाला है, इसलिए मैं दिल्ली नहीं जा सकता। लेकिन, बिहार के नेताओं ने उन्हें समझाया कि बस नेहरूजी से भेंटकर आप उसी दिन लौट आइए। जयपाल सिंह मुंडा दिल्ली चले गए। लेकिन, प्रधानमंत्री की ओर से जब कोई बुलावा नहीं आया तो दो दिन बाद अपने प्रयास से वे नेहरूजी से मिले। प्रधानमंत्री ने वार्ता संबंधी किसी संभावना से इंकार कर दिया। वे लौटकर रांची गए, लेकिन तब तक पुनर्गठन आयोग जा चुका था।

आयोग ने सुशील बागे जैसे झारखंड पार्टी के बड़े नेताओं से स्पष्ट कहा कि हम तो सिर्फ पार्टी के अध्यक्ष जयपाल सिंह मुंडा से ही मिलेगें और किसी से नहीं। झारखंड के आंदोलनकर्ताओं का विचार है कि पुनर्गठन आयोग के दौरे के समय यदि जयपाल सिंह मुंडा होते तो 1956 में ही झारखंड राज्य बन जाता। आयोग का तर्क था कि आदिवासी झारखंड में बहुमत नहीं रखते और दूसरा भाषायी आधार पर भी इसका पुनर्गठन नहीं हो सकता। 1957 में झारखंड पार्टी के 34 विधायक और 5 सांसद निर्वाचित हुए। इस दौरान जहांनारा के प्रभाव और जिद के आगे उन्हें झुकना पड़ा और उसे (जहांनारा) को राज्यसभा भेजना पड़ा। जबकि उनकी पसंद हरमन लकड़ा थे। धीरे-धीरे झारखंड पार्टी ने गैरआदिवासी लॉबी घुस गई और जयपाल सिंह को अपने गिरफ्त में ले लिया। जयपाल सिंह उनकी बातें आंख मूंदकर मानने लगे, जिसका असर यह हुआ कि आदिवासी नेतागण उनसे दूर जाने लगे।

1962 के चुनाव में जयपाल सिंह मुंडा का जादू छंट गया और झारखंड पार्टी के मात्र 22 विधायक और 4 सांसद ही निर्वाचित हुए। 20 जून, 1963 को जयपाल सिंह मुंडा ने अपनी रही-सही साख भी खत्म कर दी, जब तानाशाही तरीके से फैसला लेते हुए उन्होंने झारखंड पार्टी का विलय कांग्रेस में कर दिया।

विलय के विरोध में इग्नेस कुजुर, थियोडोर सुटीन, एन.ई. होरो और हरिहनाथ सहदेव ने विलय विरोधी अलग झारखंड पार्टी बना ली।

झारखंड पार्टी का कांग्रेस पार्टी ने विलय के बाद जयपाल सिंह पर झारखंड आंदोलन को बेचने का आरोप लगा। इस दौरान झारखंड पार्टी कई टुकड़े में बंट गई। एन.ई. होरो ने झारखंड पार्टी बना लिया और उसका चुनाव चिन्ह नागाड़ा था। 13 मार्च, 1970 बहुबाजार, रांची में झारखंड पार्टी का सम्मेलन हुआ। उसमें जयपाल सिंह मुंडा को भी आमंत्रित किया गया। सम्मेलन को संबोधित करते हुए जयपाल सिंह ने कहा था– झारखंड पार्टी का कांग्रेस में विलय मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल थी।

20 मार्च, 1970 को उनका देहांत हो गया। जानकार बतलाते हैं कि वह 19 मार्च, 1970 को कलकत्ता से होते हुए दिल्ली पहुंचे। मरने से कुछ घंटे पहले उनकी प्रथम पत्नी तारा से मुलाकात हुई थी। मृत्यु संदिग्ध हालत में दिल्ली आवास पर हुई थी। कुछ नेताओं और साहित्यकार ने जयपाल सिंह के कमजोरियों का भी जिक्र किया है। साहित्यकार रोज केरकेट्टा के अनुसार, विलायत से लौटने के बाद जयपाल सिंह मुंडा अपने माता-पिता से मिलने नहीं के बराबर गए। रामदयाल मुंडा के अनुसार, दुर्योग से उनके राजनैतिक जीवन के तीन निर्णय आंदोलन के लिए अत्यंत घातक सिद्ध हुए–

1) राज्य पुनर्गठन आयोग के समक्ष अपनी बात न रख पाना

2) द्वीतीय पत्नी के रूप में जहांनारा से विवाह

3) 1963 में झारखंड पार्टी का कांग्रेस में विलय

एक चौथी भूल भी मानी जाती है– झारखंड पार्टी में बाहरी लोग का हस्तक्षेप।

अफसोस है कि जयपाल सिंह मुंडा का मूल्यांकन निर्मम रूप से एकपक्षीय है। उनका सही मूल्यांकन समग्रता में होना चाहिए। एक महान आदिवासी नेता, झारखंड आंदोलन को बेहतर नेतृत्व देने वाला नेता और एक महान खिलाड़ी जिसके नेतृत्व में गुलाम भारत ने पहली दफा गोल्ड मेडल जीता। आईसीएस जैसी नौकरी को त्यागकर आंदोलन के लिए सब कुछ न्यौछावर कर देने वाला व्यक्ति और एक सरल, सहज आदिवासी, जो कांग्रेसियों के छल-कपट को समझ नहीं पाया। जैसे कि छल से एकलव्य से अंगुठा मांग लिया गया था, 

बहरहाल, आदिवासियों के लिए उनका संघर्ष संविधान सभा में उनके भाषण में साफ झलकता है। यही उन्हें मारंग गोमके यानी सबसे बड़े नेता के रूप में स्थापित करता है। इसके बावजूद वर्ष 2000 में झारखंड के अलग बनने के बाद उन्हें जो सम्मान मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया है।

संदर्भ : मरङ गोयके जयपाल सिंह मुंडा, अश्विनी कुमार पंकज, प्रभात प्रकाशन, 2020 

(संपादन : समीक्षा सहनी/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

देवेन्द्र शरण

लेखक रांची विश्वविद्यालय, रांची के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं। उनकी प्रकाशित कृतियों में ‘शेड्यूल्ड कास्ट्स इन दी फ्रीडम स्ट्रगल ऑफ इंडिया’ (1999), ‘भारतीय इतिहास में नारी’ (2007), ‘नारी सशक्तिकरण का इतिहास’ (2012) और ‘मेरे गीत आवारा हैं’ (काव्य संग्रह, 2009) शामिल हैं।

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शीर्ष नेतृत्व की उपेक्षा के बावजूद उत्तराखंड में कमजोर नहीं है कांग्रेस
इन चुनावों में उत्तराखंड के पास अवसर है सवाल पूछने का। सबसे बड़ा सवाल यही है कि विकास के नाम पर उत्तराखंड के विनाश...
मोदी के दस साल के राज में ऐसे कमजोर किया गया संविधान
भाजपा ने इस बार 400 पार का नारा दिया है, जिसे संविधान बदलने के लिए ज़रूरी संख्या बल से जोड़कर देखा जा रहा है।...