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दलित-बहुजन महिलाओं की नजर में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस

राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अभियान की महासचिव बीना पालिकल कहती हैं कि “देश को ब्रिटिश गुलामी से मुक्त हुए सात दशक से अधिक हो गया है, लेकिन लैंगिक असमानता के कारण दलित महिलाएं जाति के चंगुल और भेदभाव से मुक्त नहीं हुई हैं। हम सभी क्षेत्रों में बराबरी की मांग करते हैं। हम अपने लिए गरिमा के साथ जीने के अधिकार की मांग करते हैं।”

यूं तो अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस हर वर्ष 8 मार्च को मनाया जाता है। और इसमें कुछ महिलाएं जो सफलता के शिखर छू चुकी होती हैं वो इस दिन को जश्न के रूप में मनाती है। अनेक जगहों पर कार्यक्रम होते हैं। गोष्ठियां होती हैं। चर्चाएं होती हैं। महिला अधिकारों की बात की जाती हैं। स्त्री-पुरुषों की बराबरी की बात की जाती है। महिलाओं को उनके मानवीय अधिकारों के लिए जागरूक किया जाता है। कुछ नारे भी उछाले जाते हैं जैसे हम भारतीय नारी हैं, फूल नहीं चिंगारी हैं।

बताते चलें कि 1908 में न्यूयॉर्क शहर में 15 हज़ार महिलाओं ने काम के घंटे कम करने, बेहतर वेतन और वोट देने की मांग को लेकर प्रदर्शन किया था। इसी की स्मृति में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का आयोजन किया जाता है। भारत में भी अब इसे व्यापक स्तर पर मनाया जाने लगा है।

इस संबंध में दलित आर्थिक आधिकार आंदोलन व राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अभियान की महासचिव बीना पालिकल कहती हैं कि “देश को ब्रिटिश गुलामी से मुक्त हुए सात दशक से अधिक हो गया है, लेकिन लैंगिक असमानता के कारण दलित महिलाएं जाति के चंगुल और भेदभाव से मुक्त नहीं हुई हैं। हम सभी क्षेत्रों में बराबरी की मांग करते हैं। हम अपने लिए गरिमा के साथ जीने के अधिकार की मांग करते हैं।।”

राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अभियान में कार्यरत व आदिवासी समुदाय से आनेवाली सपना कहती हैं कि “आजादी के इतने सालो बाद भी हमारे देश में दलित-आदिवासी महिलाओं की स्थिति ठीक नहीं है। हर एक क्षेत्र में उनके साथ भेदभाव किया जाता है। फिर चाहे वह शिक्षा हो, चाहे वो नौकरी हो या चाहे वो घर परिवार ही क्यों न हो। उनकी स्थिति अत्यंत पिछड़ी है। उनकी इस स्थिति के पीछे शिक्षा की कमी, गरीबी, जातिगत भेदभाव और अंधविश्वास आदि है। उन्हें इन सबसे निकालने के लिए शिक्षा ही एकमात्र हथियार है।” 

बाएं से- बीना पालिकल, मानसी, सपना और डॉ. पूनम तुषामड़

दलित लेखिका और कवयित्री डॉ. पूनम तुषामड़ कहती हैं कि “अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को हमने विदेश से अडॉप्ट किया है। यह वहां की श्रमिक महिलाओं का क्रांतिकारी कदम था। वे काम के घंटे कम करना चाहती थीं। लेकिन हमारे यहां जो महिला दिवस मनाया जाता है तो उसमे श्रमिक महिलाओं का योगदान नगण्य होता है। जो यहां का उभरता हुआ कुलीन वर्ग है, उसी ने इसे पूरी तरह से अडॉप्ट किया है। साहित्य पर भी इसका प्रभाव पड़ा और सामजिक संरचना पर भी। लेकिन हमारे दलित समाज में तो दो-तीन प्रतिशत महिलाएं ही ऐसी हैं जो शिक्षित हैं और अपने हक-अधिकारों के लिए लड़ रही हैं। अगर वे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती हैं तो इसमें कोई बड़ी बात नहीं। सही मायने में अगर हम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाना चाहते हैं तो जमीनी स्तर पर जो महिलाएं हैं वहां तक शिक्षा और संविधान में उनके क्या अधिकार हैं, उन्हें बताना होगा। जब वह अपने अधिकारों को जानेंगीं और अपने अधिकारों को हासिल करने का प्रयास करेंगीं, तभी ये प्रयास सार्थक होंगे। नहीं तो अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस केवल दिखावटी सेलिब्रेशन बनकर रह जाएगा।”

सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़ीं मानसी कहती हैं कि “एक तो समाज की महिलाओं में जागरूकता की कमी है। लेकिन जो महिलाएं अपने अधिकारों के बारे जानती भी हैं वो उन्हें अपने जीवन में अपने अधिकारों की मांग नहीं करती हैं। हमारे समाज का ढांचा ही कुछ ऐसा है कि महिलाएं अपने अधिकारों को पाने के लिए पहल ही नहीं करतीं।”

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

राज वाल्मीकि

'सफाई कर्मचारी आंदोलन’ मे दस्तावेज समन्वयक राज वाल्मीकि की रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। इन्होंने कविता, कहानी, व्यग्य, गज़़ल, लेख, पुस्तक समीक्षा, बाल कविताएं आदि विधाओं में लेखन किया है। इनकी अब तक दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं कलियों का चमन (कविता-गजल-कहनी संग्रह) और इस समय में (कहानी संग्रह)।

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