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अब मंडल पर भारी कमंडल

तमाम दंगे ख़ासतौर पर उन जगहों पर हुए हैं जहां दलित, अति-पिछड़े, और मुसलमान बरसों से साथ-साथ रहते चले आए हैं। इन वर्गों के बीच सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रिश्तों के गहरी जड़ें हैं। लेकिन जब धर्म की बात आई तो यह वर्ग आमने-सामने खड़े हो गए। ज़ाहिर है इन दंगों का मक़सद मज़हब से कहीं आगे है। बता रहे हैं सैयद जै़ग़म मुर्तजा

वर्ष 1990-91 के बाद से ही दलित और पिछड़ी जातियों की सामाजिक न्याय की लड़ाई में मुसलमान सहयोग करते रहे हैं। देश भर में मुसलमान-दलित-ओबीसी गठबंधन ग़ैर-भाजपाई, ग़ैर-कांग्रेसी दलों की जीत का आधार रहा है। यह सहयोग सिर्फ चुनाव या राजनीतिक आंदोलन तक सीमित नहीं रहा है। हाल के वर्षों में भी दलितों के ख़िलाफ अत्याचार से जुड़े मामले हों या फिर सामाजिक अधिकार से जुड़े सवाल, अल्पसंख्यक हर बार दलितों के साथ खड़े नज़र आए हैं। लेकिन इस गठबंधन को सांप्रदायिक शक्तियों की नज़र लग गई है। हाल के दिनों में देश के कई राज्यों में हुई तथाकथित धर्म आधारित हिंसक घटनाएं इसी तरफ इशारा कर रही है।

दिल्ली के दक्षिणपुरी, मध्य प्रदेश के खरगौन, राजस्थान के करौली, औऱ बिहार के मुज़फ्फरपुर में हुई हिंसा में क्या समानताएं हैं? एक, सब जगह एक जैसे जुलूस निकले। सभी जगह हाथों में हथियार लहराते लोग धार्मिक नारों की जगह दूसरे धर्म के ख़िलाफ नारेबाज़ी कर रहे थे। इन जुलूसों का निशाना दूसरे के धर्मस्थल या धार्मिक आस्था से जुड़ी जगहें थीं। एक ही पैटर्न पर पथराव शुरु हुआ और फिर एक ही पैटर्न पर पीड़ितों के ख़िलाफ सरकारी कार्रवाईयां हुईं। लेकिन इसके अलावा एक और भी समानता है इन दंगों में। ग़ौर से अगर इन जुलुसों में शामिल चेहरे देखे जाएं तो सब समान नज़र आते हैं।

यह तमाम दंगे ख़ासतौर पर उन जगहों पर हुए हैं जहां दलित, अति-पिछड़े, और मुसलमान बरसों से साथ-साथ रहते चले आए हैं। इन वर्गों के बीच सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रिश्तों के गहरी जड़ें हैं। लेकिन जब धर्म की बात आई तो यह वर्ग आमने-सामने खड़े हो गए। ज़ाहिर है इन दंगों का मक़सद मज़हब से कहीं आगे है। यह उस गठबंधन को तोड़ने की कोशिश भी जो 1990 के दशक में तैयार हुआ। साफ है, इस बार कमंडल की समर्थक शक्तियां मंडल की काट साथ लेकर आई है और इनसे निपटने के लिए दलित-बहुजनों के वैसे सक्षम नेता नहीं हैं जो 1990 के दशक में सक्रिय थे। इन नेताओं में कांशीराम, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद का नाम शामिल है। कांशीराम की विरासत मायावती के पास है और मुलायम सिंह यादव व लालू प्रसाद ने अपने बेटों को अपनी राजनीतिक विरासत सौंप दी है।

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हालांकि दंगों का अंतिम मक़सद तो चुनावी समीकरणों की जोड़-तोड़ ही है, लेकिन इसमें और भी बहुत कुछ टूट रहा है। इसका सबसे बुरा असर न सिर्फ हिंसा के शिकार, बल्कि इस सबमें शामिल वर्गों पर भी पड़ना है। कौन नहीं जानता कि 1990 के बाद के चेतना काल में कैसे दलित और पिछड़ी जातियों ने अपराधों का रास्ता छोड़कर सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक विकास का रास्ता चुना। इसी काल में यानी 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने का बाद मुसलमानों में भी शैक्षणिक और सामाजिक विकास को लेकर नई चेतना नज़र आई है। जिस तरह यह वर्ग आगे बढ़े हैं, ज़ाहिर है बहुत से लोगों के लिए यह खटकने वाली बात है।

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लेकिन हैरत की बात है कि सामाजिक, आर्थिक, और शैक्षणिक विकास का असर अपने समाज पर देखनेवाले वापस उस काल में जाना चाहते हैं, जो अंधकार भरा है। जिन बच्चों के हाथ में क़लम और किताबें होनी चाहिएं, वह हाथों में तलवार और तमंचे लहराते घूम रहे हैं। यह यक़ीनन पिछड़े और दलित वर्गों के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। लेकिन इस चिंता को दरकिनार करके उनके बच्चे हिंसा में इस्तेमाल हो रहे हैं। हाल के दंगों में जिन हाथों में तलवार और तमंचे थमाकर जुलूसों में झोंका गया है उनमें अधिकतर दलित और पिछड़े हैं। जिन लोगों के ख़िलाफ उनको झोंका जा रहा है, वह उनकी लड़ाई में साझीदार रहे हैं। 

यक़ीनन ग़रीबी, पिछड़ापन, और सामाजिक प्रतिस्पर्धा के अलावा हाल के वर्षों में फैली बेरोज़गारी और बढ़ी ग़रीबों की संख्या के चलते इस तरह की आपराधिक प्रवृत्ति का बढ़ना हैरान नहीं करता। ख़ुद सरकार बता रही है कि देश में अस्सी करोड़ से ज़्यादा परिवार राशन के थैलों पर निर्भर हैं। ऐसे में थोड़ा सा लालच, थोड़ा सा उकसावा, या थोड़ी सा प्रोत्साहन किसी को भी हिंसा की तरफ धकेलने के लिए काफी है। लेकिन यही सोचकर ख़ामोश तो नहीं बैठा जा सकता। फिर इन सबका हल क्या है? क्या हम यह सोचकर घर में बैठ जाएं कि सत्ता के संरक्षण में सांप्रदायिकता बढ़नी है और हम इसमें कुछ नहीं कर सकते?

यक़ीनन यह वक़्त घर में बैठने का नहीं है। जिस दौर में शोषित वर्गों को आपस में लड़ाकर सियासत का चारा बनाया जा रहा है उस दौर में सभी वर्गों के समझदार लोगों की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह ज़मीन पर उतरें। माहौल भले ख़राब है, लेकिन इसके ज़िम्मेदार यही लोग हैं, जिन्होंने अपने बच्चों को हालात पर छोड़ दिया है। क्यों नहीं इन बच्चों को बताया जा रहा कि उनका भविष्य अंधकारमय किया जा रहा है? मान लीजिए हिंसा में शामिल इन लड़कों पर मुक़दमा भी करना पड़े तो सरकार का क्या जाएगा? सरकार को तो इससे फायदा ही होना है। एक तो नौकरी, शिक्षा जैसे सवालों से पीछा छूट जाएगा, दूसरे इन वर्गों की संभावित चुनौती भी ख़त्म हो जाएगी।

इस तरह के दंगे सांप्रदायिक शक्तियों के लिए दोहरा फायदा लेकर आते हैं। एक तो उनका कोर वोटर ख़ुश है कि अल्पसंख्यक ठिकाने लगे। दूसरे, अस्सी फीसदी लोगों का सामाजिक, राजनीतिक गठबंधन छिन्न-भिन्न होने से संख्या में कम होने के बावजूद विशिष्ट वर्ग की सत्ता और प्रभुत्व बने रहते हैं। ऐसे में दलित और पिछड़ों की राजनीति करने वालों के लिए यह काल बेहद बुरा है। दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक ही आपस में लड़ मरेंगे तो फिर सामाजिक न्याय का झंडा कैसे लहराता रहेगा? यह तमाम सवाल हैं जो इस वक़्त दलित और पिछड़ों का नेतृत्व करने वालों के सामने खड़े हैं। यह नेतृत्व अगर इस काल में ख़ामोश रह गया तो आगे की राजनिति में ग़ैर-प्रासंगिक होने से नहीं बच पाएगा।

(संपादन : नवल/अनिल)


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सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

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