बीते दिनों बिहार के मेरे एक रिश्तेदार ने मुझसे पूछा कि, “आख़िर जेएनयू में हिंदुओं को पूजा करने से क्यों रोका जा रहा है?” जवाब देते हुए मैंने कहा कि, “जेएनयू में कभी किसी को पूजा करने से नहीं रोका जाता। मैंने वहां नौ साल बिताए हैं और अपनी आंखों से देखा है कि यूनिवर्सिटी में सालों से सरस्वती, दुर्गा और काली पूजा मनाया जाता है। लेकिन इससे पहले कभी कोई हंगामा नहीं हुआ था और सब कुछ शांति से हो रहा था। मगर इन दिनों कुछ लोग जानबूझकर धर्म के नाम पर हंगामा करना चाहते हैं और नफरत की आग में घी डालना चाहते हैं। भगवा संगठन से जुड़े छात्रों ने जानबूझकर मांस का विवाद खड़ा किया और उनकी गुंडागर्दी के ख़िलाफ़ बोलने वाले छात्रों पर पत्थरबाजी की थी।”
लेकिन मुझे बीच में रोकते हुए मेरे रिश्तेदार ने कहा कि “जेएनयू के छात्रों को ‘जय श्री राम’ क़हने से दिक़्क़त है, लेकिन उन्हें ‘अल्लाहु अकबर’ का जाप करने में कोई समस्या नहीं है।”
यह सुनकर मैंने सिर पकड़ लिया। घंटों तक सोचता रहा कि देश किधर जा रहा है? जेएनयू को लेकर क्या अफवाह फैलाई जा रही है? जेएनयू, लेफ्ट, कांग्रेस को मुसलमानों से जोड़कर बदनाम किया जा रहा है। हाल के दिनों में प्रोपेगेंडा फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ ने भी जेएनयू, विपक्ष और मुसलमानों पर भी निशाना साधा है और उनके ख़िलाफ़ काफ़ी दुष्प्रचार किया है।
वर्ष 2022 के लोकसभा उपचुनाव और आगामी विधानसभा चुनाव को देखते हुए भगवा शक्तियां नफरत की इस आग को जलाये रखने की पूरी कोशिश कर रही हैं। वे दिन-रात कोशिश कर रही हैं कि मुसलमानों को कुछ करने के लिए उकसाया जाए और फिर उनको कुचलने के लिए बहानों की तलाश की जाए।

मगर खुशी की बात है कि मुसलमानों ने अब तक बहुत धैर्य दिखाया है। खाने, हिजाब और अज़ान को लेकर जिस तरह हर दिन उनके जज़्बात के साथ खेला जा रहा है, वह देश की सेहत के लिए ठीक नहीं है। आरएसएस और बीजेपी को लगता है कि मुस्लिम विरोधी उनकी रणनीति हमेशा कामयाब होगी। अबतक भाजपा अल्पसंख्यकों को ‘खलनायक’ बनाने में सफल रही है, लेकिन उसे इस बात का अंदाज़ा नहीं है कि उसने भारत का कितना बड़ा नुकसान किया है।
आज मुसलमान ही नहीं, दलित भी परेशान हैं। आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन छीनी जा रही है। पिछड़े वर्ग को रोजी-रोटी के लिए दिन-रात मेहनत करनी पड़ती है। श्रमिकों की मजदूरी घट रही है, जबकि उनके काम की अवधि बढ़ रही हैं। किसान की हालत इतनी खराब है कि वह जितना पैसा खेती में खर्च करता है, कई बार उसे वह निकाल नहीं पाता।
यह सच है कि तमाम संस्थाओं पर सवर्णों का कब्जा है, लेकिन सबसे कड़वी सच्चाई यह भी है कि उच्च जाति की आबादी का एक बड़ा हिस्सा भी गरीबी के दलदल में डूब रहा है। कुछ दिन पहले जब मैं गांव से दिल्ली लौट रहा था, तो मैंने अपनी एक बुढ़िया चाची को प्रणाम किया। उन्होंने ने मुझे आशीर्वाद दिया मगर मुझसे उन्होंने ने सर पर लगाने वाला ‘ठंडा तेल’ की एक बोतल खरीदने को कहा। मेरी चाची ब्राह्मण हैं, मगर फिर भी उनके पास तेल खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं। शिक्षा प्राप्त करने के लिए गांव के नौजवान को हर मुश्किल से गुजरना पड़ रहा है। गरीबी एक जमीनी सच्चाई है, जिसके बारे में बात नहीं हो रही है। जबकि सारी लड़ाई को हिंदू बनाम मुसलमान कर दिया गया है।
यह सच है कि मुसलमानों भगवा शक्तियों के सीधे निशाने पर हैं। लेकिन मुसलमान यह कभी न समझे कि गैर-मुसलमानों की हालत बहुत अच्छी है। ज्यादातर लोग सरकार की नीति से प्रताड़ित हैं। पेट्रोल और डीजल की बढ़ती कीमतों ने किराए से लेकर सब कुछ महंगा कर दिया है। अर्थव्यवस्था बीमार है, लेकिन भगवा सरकार इसका ठीक से इलाज करने के बजाय हिंदू-मुस्लिम खेल खेलकर जनता का ध्यान असल सवाल से भटका कर रखना चाहती है।
आवश्यकता इस बात की है कि मुसलमानों पर हो रहे हमलों के खिलाफ गैर-मुसलमानों आगे आएं। मुसलमानों को भी यह समझना होगा कि उनकी स्थिति अन्य वंचित वर्गों के हालात से बहुत अलग नहीं है। अगर हम इस बात को समझ लें तो भगवा साम्प्रदायिक शक्तियों और नफ़रत के सौदागरों का खेल तमाम हो जाएगा।
(संपादन : नवल/अनिल)
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