चंद्रशेखर (20 सिंतबर, 1964 – 31 मार्च, 1997) पर विशेष
बीते 31 मार्च को चंद्रशेखर को उनकी शहादत के मौके पर याद किया गया। उन्हें मानने वाले प्यार से उसे ‘चंदू’ कहते हैं। जब चंद्रशेखर भगत सिंह की विरासत को पुनर्परिभाषित कर रहे थे तब वह दौर था जब इतिहास के अंत की घोषणा हो रही थी। पूंजीवाद से आगे सोचने पर सवाल खड़ा हो रहा था। हमारे मुल्क में भी वैश्वीकरण-उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों का डंका बज रहा था। छात्र-नौजवानों के सामने गुलाबी सपने परोसे जा रहे थे और क्रांतिकारी परिवर्तन के संघर्ष व राजनीति को अप्रासंगिक बताने का शोर था। सामाजिक न्याय की राजनीति के साथ ही भाजपा-आरएसएस की चुनौती भी उभर रही थी। धुंध व अंधेरे, हताशा, निराशा व पस्तहिम्मती के दौर में इतिहास के ऐसे मोड़ पर चंद्रशेखर ने भगत सिंह के रास्ते आगे बढ़ने का काम किया। आगे का रास्ता खोला।
चंद्रशेखर अकसर अपने भाषणों में ‘पाश’ की प्रसिद्ध पंक्ति दुहराते थे– ‘सबसे खतरनाक है हमारे सपनों का मर जाना’। ‘पाश’ की ही एक कविता की पंक्ति है–
…. मसलन : आदमी का एक और नाम मेन्शेविक है
और आदमी की असलियत हर साँस के बीच को खोजना है
लेकिन हाय-हाय! …
बीच का रास्ता कहीं नहीं होता….
भगत सिंह और ‘पाश’ की तरह ही चंद्रशेखर ने न जीवन और न ही राजनीतिक बदलाव के संघर्ष में बीच को खोजने-बीच का रास्ता तलाशने की कोशिश की। मध्यमवर्गीय सपनों-आकांक्षाओं की सीमाओं में वे नहीं रुके।
कुशवाहा (ओबीसी) परिवार में जन्मे चंद्रशेखर बिहार के सीवान जिले के बिंदुसार नामक गांव के रहने वाले थे। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा गांव के बाद सैनिक स्कूल तिलैया से हासिल की थी। वे एनडीए में चुने गये थे। लेकिन उन्होंने आगे की पढ़ाई के लिए एनडीए छोड़ा। पढ़ाई के क्रम में जेएनयू गये और वहां से पीएचडी तक की पढ़ाई पूरी की। उन्होंने जेएनयू छात्रसंघ में एक बार उपाध्यक्ष और लगातार दो बार अध्यक्ष होने का रिकॉर्ड बनाया।

चंद्रशेखर कहा करते थे– “… आने वाली पीढ़ियां हमसे पूछेंगी तुम तब कहां थे जब समाज में संघर्ष की नयी शक्तियों का उदय हो रहा था, जब हमारे समाज की हाशिए पर डाल दी गयी आवाजें बुलंद होने लगी थीं …यह हमारी जिम्मेदारी है कि सच्चे धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, आत्मनिर्भर, समतामूलक भारत के निर्माण के लिए उस संघर्ष का हिस्सा बनें।”
उनके ही शब्दों में– “हमारे स्वाधीनता आंदोलन में बड़ी तादात में विद्यार्थी विश्वविद्यालयों से बाहर निकलकर आंदोलन में शरीक हुए। हमें भी विश्वविद्यालयों से बाहर निकलना चाहिए, क्योंकि हम समाज के उस तबके से हैं, जिसे कुछ सुविधाएं हासिल हैं। हम विश्वविद्यालयों में आने वाले लोग, अपने आपको शिक्षित बनाते हैं, ज्ञान हासिल करते हैं, दुनिया को समझते-बूझते हैं। इसलिए समाज की हकीकतों को समझने और उसका विश्लेषण करने में हम ज्यादा सक्षम हैं। ठीक इसीलिए यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम अपने ज्ञान को फैलाएं। हमने समाज से जो भी लिया है, हमें समाज को वापस देना होगा।”
इन्हीं जिम्मेदारियों के साथ चंद्रशेखर छात्र आंदोलन में सक्रिय रहे और फिर सीवान आए। सीवान उनके लिए पार्लियामेंट पहुंचने भर का प्लेटफॉर्म नहीं था, और ना ही केवल पार्लियामेंट जाने भर की जद्दोजहद तक के लिए वे आए थे। वे सीवान को क्रांतिकारी लोकतांत्रिक बदलाव के संघर्ष की प्रयोगभूमि बनाने के स्वप्न के साथ दिल्ली से बिहार आए। वे वहीं शहीद हुए, जहां पैदा हुए थे। लेकिन यह अनायास हुई शहादत नहीं थी, बल्कि उन्होंने जो रास्ता चुना था, जो संघर्ष की जो जमीन चुनी थी, वहां पहले से ही यह संभावना थी।
वे छात्र जीवन में सबसे पहले एआईएसएफ के साथ जुड़े। वामपंथी राजनीति की पुरानी धारा से राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। एआईएसएफ के बिहार राज्य उपाध्यक्ष भी रहे। लेकिन जेएनयू पहुंचने के बाद वे वामपंथी राजनीति की एक अलग किस्म की धारा-भाकपा(माले) के छात्र संगठन आइसा से जुड़े। खासतौर पर भाकपा(माले) के नेतृत्व में भोजपुर से सीवान तक की जमीनी लड़ाई में सामाजिक न्याय का आयाम महत्वपूर्ण है, जिसके संघर्ष में मेहनतकश बहुजनों की सामाजिक-राजनीतिक दावेदारी का प्रश्न केंद्र में रहा है और मेहनतकश बहुजन ही इस लड़ाई की ताकत भी रहे हैं। हिंदी पट्टी के वाम-लोकतांत्रिक आंदोलन में भोजपुर से सीवान तक की लड़ाई की खास बात यह रही है कि यह लड़ाई समाज के सबसे हाशिए के छोर से आगे बढ़ी है। जरूर किसी बदलाव के संघर्ष के क्रांतिकारी लोकतांत्रिक चरित्र-अंतर्वस्तु के लिए यह महत्वपूर्ण होता है कि वह किस छोर से आगे बढ़ रही है, वह समाज के किन हिस्सों की दावेदारी को बुलंद करते हुए आगे बढ़ रही है, उसके मुद्दे क्या हैं।
चंद्रशेखर ने जेएनयू की पारंपरिक वामपंथी छात्र राजनीति की सीमाओं से परे जाते हुए क्रांतिकारी छात्र आंदोलन को गढ़ने और उसमें सामाजिक न्याय का आयाम जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। छात्र जीवन के बाद उन्होंने सीवान का रूख किया। वे एआईएसएफ और सीपीआई तक नहीं रुके। वे बीच की तलाश में नहीं रुके। वे सीवान सर्वहाराओं को संगठित करने आए।
जरूर ही भाजपा-आरएसएस से लड़ने की जरूरत और आवश्यक बड़ी एकता के बीच चंदू की शहादत ने लकीर खींच रखी है, जो आगे का रास्ता व दिशा तय करने के लिए बेहद जरूरी है। बड़ी एकता के बीच में भी चंदू भटकने, गुम होने से बचाते हैं! अपना छोर पकड़े रहें। बीच का रास्ते न भटकें, यह बताते हैं।
चंदू विधानसभा-संसद में होते या नहीं, लेकिन जरूर ही उनके लिए प्राथमिकता सड़कों की लड़ाई होती। वे समाज के सबसे हाशिए के छोर से इस लड़ाई में होते! उनके लिए लड़ाई में टिके रहने के लिए विधानसभा-संसद की कुर्सी की जरूरत नहीं होती!
(संपादन : नवल/अनिल)
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