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नरम हिंदुत्व नहीं, सामाजिक न्याय से पार लगेगी कांग्रेस की डूबती नैया

अगर सोनिया गांधी चाहती हैं कि कांग्रेस एक ताकत के साथ सत्ता में आए और समाज के हाशिए पर पड़े लोगों के लिए काम करे तो उन्हें अपनी पार्टी के दरवाजे दलित, आदिवासी, पिछड़े और अकलियत के लिए सच्चे मन से खोलने होंगे। बता रहे हैं अभय कुमार

बीते दिनों राजस्थान के उदयपुर में कांग्रेस के द्वारा ‘नवचिंतन संकल्प शिविर’ का आयोजन किया गया। 15 मई, 2022 को दिल्ली से प्रकाशित दैनिक “जनसत्ता” में एक खबर के मुताबिक़ भारत की सबसे पुरानी पार्टी दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक को 50 फ़ीसद को संगठन के अंदर में प्रतिनिधित्व देने का मन बना रही है। चिंतन शिविर में बनी सामाजिक न्याय समन्वय समिति के सदस्य के राजू ने बयान दिया है कि “कांग्रेस का संविधान एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यकों को 20 फ़ीसद आरक्षण देता है। समूह ने फ़ैसला किया है कि एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदायों को प्रखंड स्तरीय कमेटी से लेकर कांग्रेस कार्य समिति तक सभी समितियों में 50 फ़ीसदी स्थान दिया जाए। कुछ लोगों की राय है कि इन समुदायों के लिए प्रतिनिधित्व को 50 फ़ीसदी से अधिक किया जाए। हालांकि फ़िलहाल यही तय हुआ है कि इसे 50 फ़ीसदी किया जाए।”

सवाल यह है कि जब समाज में बहुजन यानी एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक आदि की आबादी लगभग 85 प्रतिशत है, तो वे सामाजिक और सरकारी संस्थानों में इक्के-दुक्के ही क्यों नज़र आते हैं? क्या यह बात कांग्रेस पार्टी नहीं समझती है कि समाज की एक बड़ी आबादी को बाहर रखने से देश का बड़ा नुक़सान हो रहा है? आख़िर बहुजन समाज के लोग पार्टी के अंदर जगह नहीं बना पाएंगे तो किस मुंह से वे जनता से अपनी पार्टी के लिए वोट मांगेंगे? कांग्रेस को चाहिए कि वह अपनी तारीखी गलती से सीखे और पार्टी के अंदर जिसकी “जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी” के आधार पर हाशिए के लोगों को पार्टी के अंदर लाए। 

इसमें दो राय नहीं कि अगर कांग्रेस में बहुजनों की वाजिब हिस्सेदारी दी जाय और महिला आरक्षण जिसमें बहुजन महिलाओं के लिए अलग से कोटा हो और इसको चुनावी एजेंडा बनाया तो उसका सामाजिक दायरा बढ़ जाएगा। और अगर कांग्रेस सामाजिक न्याय के इन सवालों के साथ लेकर आगे बढ़ती है तो उसकी राह में बहुत सारे कांटे भी बिछाए जाएंगे। वर्चस्ववादीवादी मीडिया सबसे पहले आगे आएगा और कांग्रेस से यह सवाल करेगा कि किस आधार पर उसने कोटा देने का फ़ैसला किया है। वह देश को जातिवाद में धकेलने और सवर्णों के साथ अन्याय करने का भी आरोप कांग्रेस के ऊपर लगाएगा। मीडिया के इस मुहिम में पर्दे के पीछे सारी जातिवादी और पूंजीवादी ताकतें रहेंगी। इसलिए कांग्रेस को अभी से तैयारी करने की ज़रूरत है। अगर कांग्रेस ने जातीय जनगणना का समर्थन अभी से करना शुरू कर दिया और इसको लेकर जनता के बीच में चली गई तो वह मीडिया के आरोपों का जवाब देने में एक बेहतर हालात में होगी। जब कोटा पर सवाल उछाला जाएगा तो वह आत्मविश्वास के साथ बोल सकती है कि अगर कोटा पर आपको ऐतराज है तो जातीय जनगणना करा लीजिए। दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जाएगा। 

जिस दिन कांग्रेस के नेता इस कदर ‘बोल्ड’ होकर बोलना शुरू कर देंगे, जातिवादी ताक़तों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाएगी। मगर सब से बड़ा सवाल है कि क्या कांग्रेस अपनी पुरानी गलती से सीखना चाहती है? या फिर वह आधा तीतर आधा बटेर बने रहना चाहती है? 

कांग्रेस की लगातार होती हार और उसके सीमित होते सामाजिक दायरे के लिए पार्टी के अंदर मौजूद ब्राह्मणवादी ताक़तें हैं, जो पार्टी को प्रगतिशील बनाना नहीं देना चाहते हैं। बीमारी इधर और इलाज उधर के तर्ज़ पर जातिवादी और पूंजीवादी मीडिया पार्टी की हार का ठीकरा गांधी परिवार, ख़ासकर राहुल गांधी, पर फोड़ना चाहता है। 

आज कल कांग्रेस को बुरा-भला कहना एक फैशन हो गया है। राहुल गांधी को “पप्पू” बना दिया गया है और इस तरह दिन रात प्रचारित किया जा रहा है कि राहुल से राजनीति की कोई समझ नहीं है और उनसे बड़ा कोई निकम्मा नेता देश में नहीं है। जबकि दूसरी ओर प्रचारित यह किया जा रहा है कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिन रात काम करते हैं। 

हालांकि कांग्रेस के ख़िलाफ़ भाजपा लंबे समय से दुष्प्रचार कर रही है। मगर उसको कामयाबी तब मिली जब वह सत्ता में आई। 1977 में जनता सरकार के दौरान संघ विचारधारा से ग्रसित पत्रकार मीडिया हाउस में घुसे। मगर जब अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी सत्ता में आए तो मीडिया संघ विचारधारा की तर्जुमान बन गया। 1990 की दहाई तक ऊंची जाति के लोग भाजपा की तरफ़ नहीं गए थे और बड़ी तादाद में वे कांग्रेस के कट्टर समर्थक होते थे। जब बिहार में लालू प्रसाद यादव और जनता दल की लहर थी तो ब्राह्मण पूरी कोशिश करते थे कि उनका हर एक वोट कांग्रेस को ही जाए। इतना ही नहीं, वे दलित और दीगर निचली जाति के मतदाता के वोट को धांधली के तहत पहले ही कांग्रेस के पक्ष में डाल देते थे। वह ऐसा इसलिए करते थे कि उनको डर था कि दलित और पसमांदा कहीं सामाजिक न्याय की पार्टी को वोट न दे दें। सामंती लोग कांग्रेस के पक्ष में बूथ भी लूटा करते थे। 

उदयपुर में कांग्रेस के नव संकल्प शिविर को संबोधित करतीं सोनिया गांधी

ब्राह्मणों के बीच कांग्रेस की मकबूलियत और ज्यादा थी। एक उदाहरण मेरे चाचा बात-बात पर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का नाम लेते थे। उनके लिए इंदिरा उनकी एक ‘रिश्तेदार’ की तरह थी। नेहरूजी पक्के ‘ब्राह्मण’ समझे जाते थे और उनका परिवार पूरे ब्राह्मण समाज का सगा बंधु समझा जाता था। जब भी कभी मेरे पड़ोस की कोई बच्ची शरारत करती थी तो मेरे बुजुर्ग चाचा मेरी तरफ देख कर कह पड़ते थे, “ले जाओ इसे दिल्ली। गांव में यह नहीं पढ़ पाएगी। इंदिरा गांधी के घर भात पकाएगी और वही रह कर पढ़ लेगी।” मेरे चाचा के लिए इंदिरा गांधी का घर ऐसा था मानो इंदिरा उनकी बहन हों।

दिलचस्प यह कि मेरे चाचा दिल्ली क्या, मेरे जिले पूर्वी चंपारण से बाहर शायद ही कभी गए होंगे। पढ़े-लिखे नहीं थे तो अख़बार और पत्रिका भी उनकी पहुंच से दूर था। लोगों को राजनीति के बारे में बोलते ज़रूर सुनते थे और उससे ही वह अपनी राय बनाते थे। उस दौर तक कांग्रेस की झोली में वोट दलित, आदिवासी, मुस्लिम का होता था, मगर जब कुर्सी देने की बात होती थी तो कांग्रेस अक्सर ब्राह्मण और अन्य सवर्ण जातियों को आगे करती थी।

मगर मंडल आंदोलन और कमंडल की राजनीति ने पुराने समीकरण को बदल डाला। मंडल ने पिछड़ी जातियों को आवाज़ दी। हिंदुत्व ने राम मंदिर आंदोलन से हिंदू समाज को एक करने की कोशिश की। साथ साथ उसने कांग्रेस को हिंदू विरोधी कहकर उसकी छवि बिगाड़ी। सेक्युलरिज्म की बात करने वाली सारी पार्टियों को ‘मुस्लिम नवाज़’ और ‘हिंदू विरोधी’ कहा। कांग्रेस की तरफ से सबसे बड़ी गलती यह हुई कि वह विचारधारा को लेकर स्पष्ट नहीं रही। एक मुंह से सेकुलरिज्म की बात की और दूसरे मुंह से नरम हिंदुत्व का कार्ड भी खेला। मुसलमानों के लिए इफ़्तार, हज, और उर्दू की बात की और बाबरी मस्जिद को मिस्मार होने से नहीं बचा सकी। सोशल जस्टिस की राग भी अलापती रही और पिछड़ों को पार्टी से दूर रखा। जिस ‘कन्फ्यूजन’ से कांग्रेस शिकार रही है, उसे अभी भी वह छोड़ नहीं पायी है। यही वजह है कि उसके पास आज न कोई “ख़्वाब” है, न कोई सामाजिक समूह, न उसके जिस्म में अंधेरे से लड़ने की ताक़त दिख रही है।

कांग्रेस की उलझन इस वजह से है कि भले ही उसकी विरासत धर्मनिरपेक्षता, और समाजवाद की रही है, लेकिन पार्टी के अंदर बड़ी तादाद में मौजूद स्वार्थी लोग उसे नरम हिंदुत्व की तरफ जाने को उकसाते हैं। उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी दिन रात मंदिर जाती रही और चुनाव के दौरान नरम हिंदुत्व का कार्ड खेलती रहीं। अब सदर सोनिया गांधी को यह तय करना है कि कांग्रेस आखिर कहां जाएगी। एक बात तो है कि दो नावों की सवारी उसे डुबोने के अलावा और कुछ नहीं दे पाएगी।

कांग्रेस के सामने एक दूसरा खतरा भी है, जो दिखता नहीं मगर वह आस्तीन के सांप की तरह है। ऐसे लोग कांग्रेस पार्टी के अंदर बैठे हुए हैं, मगर उनके दिल में नागपुर बसता है। ऐसे लोग सार्वजनिक तौर पर धर्मनिरपेक्षता से वफादारी की बात करते हैं, मगर वे अपने जातिगत स्वार्थ से कभी ऊपर नहीं उठ पाए हैं। ऐसे लोग कांग्रेस की पूरी मलाई खाकर भी जब वक्त मिलता है तो उसे डंस लेते हैं। अफ़सोस कि अक्सर मौक़ों पर पार्टी ने ऐसे ही मफ़ाद परस्त लोगों को आगे बढ़ाया है और जो ईमानदार और मेहनती लोग हैं उनको ज्यादा अहमियत नहीं दी है।

हालांकि यह सच है कि कांग्रेस में एक बड़ी तादाद में दलित, पिछड़े, आदिवासी, माइनॉरिटी समाज से आनेवाले कार्यकर्ता जुड़े हुए हैं। वे सालों मेहनत करते हैं, मगर जब ज़िम्मेदारी देने की बात आती है तो उनको अक्सर नजरअंदाज किया जाता है। जामिया मिल्लिया इस्लामिया के एक मेरे मुस्लिम साथी ने अपनी आपबीती जब मुझ से पिछले दिनों सुनाई तो मैं दंग रह गया। साथी बहुत सालों से कांग्रेस के छात्र विंग से जुड़े हुए थे। एक दिन संगठन के अंदर किसी बड़े पोस्ट के लिए वे इंटर्व्यू देने गए। इंटर्व्यू देने उनके जैसे और भी मुस्लिम कार्यकर्ता थे। तभी उन्होंने ने इंटरव्यू ले रहे कांग्रेस पार्टी के एक बड़े नेता को यह कहते हुए सुना “क्या सारे पोस्ट मुल्ले ले जाएंगे?”

बहरहाल, यह हक़ीक़त है कि कांग्रेस के अंदर में सामाजिक न्याय की बात करने वाले लोग हैं। मगर उनकी तादाद आटे में नमक के बराबर है। पार्टी के अंदर ज्यादातर लीडर पूंजी के चापलूस हैं। ऐसे लोगों ने ही कांग्रेस की नैया को डुबोने में बड़ी भूमिका निभायी, क्योंकि उनका जनता से कोई सरोकार नहीं होता। 2004 के पहले टर्म में कांग्रेस ने औसतन अच्छा काम किया था और हाशिए के लोगों को थोड़ी बहुत राहत मिली। मगर यह भी कड़वी सचाई है कि ‘विकास’ के नाम पर देश के संसाधनों की लूट भी जारी रही।

मगर बड़ा सवाल यह है कि क्या कांग्रेस अपनी डूबती नैया को बचाने के लिए कोशिश करना चाहती है? कांग्रेस के पास कई रास्ते हैं। अगर वह चाहे तो आसान रास्ता चुन सकती है और नरम हिंदुत्व की राह पर चलते चलते उग्र हिंदुत्व को अपनाना सकती है। अगर वह बाजारवाद को बढ़ावा देना चाहती है तो उसके पास भी कारपोरेट चंदा आने लगेगा। यह रास्ता कांग्रेस को कम मेहनत में कामयाबी मिल सकती है। अगर उसने यह साबित कर दिया किवह हिंदुत्व शक्तियों से भी बेहतर तरीके से पूंजीवाद की सेवा कर सकती है तो उस को भी मीडिया हाथों हाथ ले लेगी।

मगर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि वह भाजपा की कांग्रेस पीछा ही करती रह जाए और उसे कुछ हासिल न हो। यह इसलिए कि जातिवादी राजनीति, सांप्रदायिकता और पूंजीवाद समर्थक सियासत में भाजपा की महारत है। एक महारथी को उसी की विद्या में शिकस्त देना लोहे का चना चबाने के बराबर होता है। अगर मान भी लें कि कांग्रेस इस खेल में भाजपा को हरा देती है और सत्ता में आ भी जाती है तो वह भी कांग्रेस की एक हार ही होगी। कैसे?

भाजपा की राह पर चल कर हासिल की गयी जीत ‘कांग्रेस विचारधारा’ की हार होगी। अपनी तमाम गलतियों के बावजूद कांग्रेस के साथ देश के बड़े बड़े नेता जुड़े रहे। बहुत लोगों ने बाद में चल कर कांग्रेस का विरोध भी किया क्यूँकि कांग्रेस का सर्वोच्च नेतृत्व ने विचारधारा के साथ समझौता किया। मगर इस के बावजूद भी हम कह सकते हैं कि भारत के उपनिवेशवाद विरोधी स्वतंत्रता संग्राम के पेट से कांग्रेस निकली हुई है। इतिहास का छात्र होने की वजह से मुझे मालूम है कि कांग्रेस के चरित्र में भी समय के साथ बदलाव हुआ है। मगर किसी न किसी रूप में कांग्रेस विचारधारा का मतलब सेक्युलरिज्म और सोशलिज्म रहा है। भले ही ये आदर्श बातों में ज़्यादा रहे हों और अमल में काम। मगर इन सपनों ने देश को आगे बढ़ने की एक ऊर्जा दी है। आजादी के बाद कांग्रेस ने एक के बाद एक गलती की जिस की वजह से कांग्रेस के पुराने नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया उसके सबसे बड़े आलोचक बने। मगर अपनी तमाम कमी के बाद भी कभी कांग्रेस ने अपनी विचारधारा को खुलेआम रद्दी की टोकरी में नहीं फेका। मगर कांग्रेस के अंदर मौजूद मनुवादी लोग लम्बे समय से चाहते हैं कि कांग्रेस और भाजपा में फ़र्क़ मिट जाए और कांग्रेस भगवा चोला धारण कर ले। मगर क्या यह सब करना कांग्रेस की हत्या के समान नहीं होगा? 

पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी के लिए एक मुश्किल रास्ता भी है। अगर वह चाहती हैं कि कांग्रेस एक ताकत के साथ सत्ता में आए और समाज के हाशिए पर पड़े लोगों के लिए काम करे तो उन्हें अपनी पार्टी के दरवाजे दलित, आदिवासी, पिछड़े और अकलियत के लिए सच्चे मन से खोलने होंगे। इस दिशा में उन्हें क्रांतिकारी कदम उठाने की ज़रूरत है और बहुजनों के लिए उनकी आबादी के मुताबिक़ भागीदारी देने की ज़रूरत है। नरम हिंदुत्व की जगह कांग्रेस को बुद्ध और कबीर की राह पर चलने की आवश्यकता है। बाजारवाद की जगह उसे समाजवाद को अपनाना चाहिए। यह काम मुश्किल है मगर न मुमकिन नहीं। रास्तों में रूकावटें हैं, मगर मंजिल मिलने पर इतिहास की करवट बदल जायेगी। इस राह में जहां पूंजीवादी और मनुवादी लोग कांग्रेस की राह में पत्थर डालेंगे वहीं भारत का बहुसंख्यक समाज इस पत्थर को हटाने के लिए कांग्रेस के साथ देगा। डॉ. आंबेडकर की वजह से अमीर और गरीब दोनों को वोट देने का हक है। सोनिया गांधी ने यदि दबे और कुचले समाज के लोगों को नीति बनाने में उचित भागीदारी दे दी तो भारत की तक़दीर बदल जाएगी। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अभय कुमार

जेएनयू, नई दिल्ली से पीएचडी अभय कुमार संप्रति सम-सामयिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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