केंद्र की मोदी सरकार ने अपने अब तक के कार्यकाल में कुछ ऐसे चौंकाने वाले फैसले लिए हैं , जो सर्वत्र आश्चर्य तथा जनाक्रोश के कारण बने हैं। फिर चाहे वह जम्मू-कश्मीर में धारा 370 एवं 36-ए जैसे कानूनों को गैरकानूनी रूप से हटाना हो या अयोध्या के राम-मंदिर शिलान्यास में प्रधानमंत्री का सरकारी खर्चे पर भाग लेना। ऐसे अनेक कामों के बावजूद देश में उनकी और भाजपा की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है। भाजपा राज्य दर राज्य चुनाव जीत रही है। यहां तक कि उपचुनावों में भी लगातार सफलता मिल रही है। आज हालात यह हैं कि कुछेक राज्यों को छोड़कर उसका भगवा ध्वज सारे देश में लहरा रहा है। परंतु हाल ही में सेना भर्ती की प्रक्रिया में बदलाव की एक बड़ी कोशिश को, जिसे ‘अग्निवीर’ नाम दिया गया, के खिलाफ जनाक्रोश दिखायी पड़ा। सवाल यह है कि इसके विरोध में जो आक्रोश युवाओं में दिख रहा है, वह कहां तक जाएगा?
यह मोदी सरकार में पहली बार हुआ है कि उसके फैसले से भाजपानीत एनडीए के घटकदलों और यहां तक कि भाजपा के अपने विधायकों में भी असंतोष देखने को मिल रहा है। लेकिन शायद भयवश कोई भी मुंह खोलने को तैयार नहीं है।
हरियाणा, पंजाब, बिहार और उत्तराखंड जैसे राज्यों में थल सेना में बड़े पैमाने पर विगत वर्षों में भर्तियां होती रही हैं। गोरखपुर भी इन भर्तियों का एक बड़ा केंद्र रहा है। जब मैं इस शहर में रहता था, तब एक पत्रकार के रूप में मैंने कई बार इस भर्ती को कवर भी किया था। तब सारे शहर में एक मेले जैसा लगता था। बगल के नगरों और नेपाल से सेना में भर्ती के इच्छुक लाखों नौजवान शहर में पहुंच जाते थे। बसों और ट्रेनों में इतनी भीड़ होती थी कि लोग उनकी छतों पर भी सफर करते थे। होटल, धर्मशाला, मुसाफिरखाना और लॉज पूरी तरह भर जाते थे तथा लोग मजबूरीवश सड़कों पर रात बिताते थे। होटल, रेस्टोरेंट और ढाबों पर खाना खत्म हो जाने पर लोग ठेलों पर बिकते फलों तथा अन्य खाद्य पदार्थों की लूटमार तक करने लग जाते थे। अनेक बार कानून व्यवस्था की भारी समस्या पैदा हो जाती थी। यह सब उस समय की बढ़ती बेरोजगारी को दर्शाता था। आज तो ये स्थितियां और भी खराब हो गई हैं।
दरअसल, सेना हमेशा से पक्की नौकरियों का बड़ा स्रोत रही है तथा आज भी है। भारत में सिक्ख, जाट, गोरखा, कुमायु़ंनी तथा गढ़वाली लड़ाकू जातियां मानी जाती हैं, और इसी के आधार पर अंग्रेजों ने सेना में रेजिमेंटों का गठन किया था। इन राज्यों में भारी बेरोजगारी तथा पिछड़ेपन के कारण लोग बड़े पैमाने पर सेना में जाते हैं। परंतु, अब स्थिति और बदलाव आया है। भूमंडलीकरण’ की नीतियों के कारण भारत सहित सारे विश्व में स्थायी सरकारी नौकरियाँ करीब-करीब समाप्त हो गई हैं। स्वास्थ्य-शिक्षा सहित सभी नौकरियां बाज़ार और निजी पूंजीपतियों को सौंप दी गई हैं। इन नीतियों ने पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कृषि प्रधान राज्यों में भारी तबाही मचाई है। हरित क्रांति आने के बाद इन राज्यों में भारी समृद्धि आई , लेकिन आज स्थिति यह है कि हरित क्रांति अपने सर्वोच्च शिखर पर पहुंचकर अब उतार पर है। भारी मात्रा में जल का दोहन करने के कारण जलस्तर नीचे चला गया है, जो कृषि के कामों में भारी तबाही ला रहा है। अब कृषि को आगे बढ़ने के लिए भारी पूंजीनिवेश की जरूरत है, जिसके लिए ये राज्य बिलकुल तैयार नहीं हैं। इस कारण से विशेष रूप से पंजाब में, बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। इसका फायदा नशीली दवाओं तथा अवैध शराब के व्यापारी उठा रहे हैं। पहले बेरोजगार नौजवानों को इन चीजों की लत लगाई जाती है, फिर वे कम समय में भारी मुनाफा होने के कारण इन धंधों में खुद लिप्त हो जाते हैं। अगर सेना की नौकरियों में भारी कटौती हो जाए, तो यहां के बदतर हालात हो जाएंगे। सीमावर्ती राज्य होने के कारण इन कदमों से राष्ट्रीय सुरक्षा को भी गंभीर खतरे पैदा हो सकते हैं। वहीं हालात बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में भी विषमतम होते जा रहे हैं। बिहार तो इस जनाक्रोश का केंद्र बना हुआ है। अनेक ट्रेनें एवं सरकारी सम्पत्तियों को जला दिया गया है।
अब एक बार विचार करते हैं कि आखिर युवाओं में आक्रोश की वजहें क्या हैं और अग्निपथ योजना क्या है। दरअसल, इस नई योजना में 17.5 वर्ष से लेकर 21 वर्ष की उम्र वाले युवओं को सेना में संविदा के आधार पर भर्ती किया जाएगा तथा 4 वर्ष बाद ही उन्हें रिटायर कर दिया जाएगा। रिटायरमेंट के समय करीब 11 लाख रुपए की रकम एकमुश्त दी जाएगी। इसके अलावा केवल 25 फीसदी अग्निवीरों के पास नियमित सैनिक बनने का अवसर तभी उपलब्ध होगा, जब वे सेना में भर्ती के लिए आवश्यक अहर्ताओं को पूरा कर सकेंगे। इस संबंध में जो अधिसूचना जारी की गई है, उसके अनुसार अग्निवीरों को पेंशन व ग्रेजुएटी आदि सुविधाएं नहीं मिलेंगीं। यहां तक कि बहुत कम मूल्य पर सेना के केंटीनों से दिए जाने वाले सामान भी नहीं मिलेंगे। हालांकि रक्षा मंत्रालय का यह भी कहना है कि अग्निवीरों को उसके मातहत अन्य नौकरियों में 10 प्रतिशत आरक्षण भी मिलेगा।
दरअसल, इस भर्ती योजना के पक्ष में दिए जा रहे तर्क वास्तव में बहुत हास्यास्पद और कमजोर हैं। केंद्र सरकार कह रही है कि इन लोगों को 4 वर्ष की नौकरी के दौरान अनेक ऐसे काम सिखाए जायेंगे, जैसे– खाना बनाना, प्लम्बर, नाई, धोबी और सुरक्षा गार्ड जैसे कामों में प्रशिक्षित किया जाएगा, जिससे वे आगे चलकर नौकरियां पा सकें या अपना व्यवसाय खुद कर सकें। इन 4 वर्षों के दौरान उनका वेतन 30 हजार से शुरू होकर 40 हजार तक पहुंचकर समाप्त हो जाएगा। जबकि पुरानी व्यवस्था में उसे पन्द्रह वर्ष तक पूरा वेतन मिलता था। रिटायरमेंट के बाद पूरी पेंशन मिलती थी और मृत्यु के पश्चात उसकी पत्नी को पूरी पेंशन मिलती थी।
कल्पना कीजिए कि नौकरी के दौरान किसी दुर्घटना में या बाह्य और आंतरिक शत्रुओं के साथ संघर्ष में अगर वह शहीद हो जाता है तो उसके आश्रितों का क्या होगा। पहले शहीदों के आश्रितों को उम्र भर पेंशन और एक करोड़ रुपए तक की रकम मिल जाती थी। यही वजह थी कि सेना के जवान के रूप में उन्हें सामाजिक सम्मान भी हासिल होता था। अब केवल 4 वर्ष की नौकरी में एक सिपाही का करीब छह माह तो ट्रेनिंग पीरियड का होगा और करीब 6 महीने छुट्टियों में निकल जाएंगे। अब उसका सेना में कार्यकाल केवल तीन वर्ष का ही होगा। अब कोई भी यह सोच सकता है कि उसे जिन अन्य कामों में प्रशिक्षित करने की बात कही जा रही है, वह कब करेगा और उसके कार्यकाल के बीच में कोई युद्ध छिड़ जाए तब क्या होगा?
केंद्र सरकार के लोग तर्क दे रहे हैं कि अग्निवीर चार वर्ष की सेवानिवृत्ति के उपरांत मिले करीब 11 लाख रुपए की सहायता से कोई व्यवसाय कर सकेंगे, लेकिन इतनी रकम में कौन सा व्यवसाय वे कर सकेंगे, सरकार को यह जरूर बताना चाहिए। उसमें भी यदि उसे बहनों की शादी करनी हो या माता-पिता का इलाज करवाना हो, तब वह क्या करेगा? क्योंकि उसे मिलने वाली चिकित्सा सुविधा रिटायरमेंट के तुरंत बाद बंद हो जाएगी। सरकार कह रही है कि रिटायरमेंट के बाद उसे सुरक्षा गार्ड, नाई, प्लम्बर और धोबी जैसे काम मिल जाएँगे। हालांकि श्रम से जुड़ा कोई भी काम बुरा नहीं होता, लेकिन भारतीय समाज में इसे हेयदृष्टि से देखा जाता है। इसके खिलाफ संघर्ष की जरूरत है, परंतु यह भी सही है कि सैनिक की नौकरी को आज भी एक सम्मानित नजर से देखा जाता है, लेकिन अब उसे उपर्युक्त नौकरियों में से ही अपने लिए किसी एक की तलाश करनी पड़ेगी। यह एक उदाहरण मात्र है संभवत: इस तरह की अन्य नौकरियां भी हों।
इतनी बड़ी मात्रा में नौजवान सैनिकों के रिटायरमेंट के चलते श्रम बाजार में पहले से ही मौजूद बेरोजगारों की भयानक भीड़ और अधिक बढ़ जाएगी। उनके श्रम को अब कॉरपोरेट घराने तथा पूंजीपति बहुत सस्ते में खरीद सकेंगे। अभी हाल में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने पत्रकारों से बात करते हुए कहा कि तोड़फोड़ या अराजकता से कोई लाभ नहीं , अब हम इस फैसले को पलट नहीं सकते हैं। सेना की नौकरी कोई व्यवसाय नहीं है। लोग स्वेच्छा से यहाँ नौकरी के लिए आते हैं, हमने कभी किसी को बुलाया नहीं है। इसी तरह की टिप्पणियां केंद्रीय मंत्री व पूर्व थल सेना अध्यक्ष वी. के. सिंह ने भी कही। लेकिन आप देखें कि कमीशन प्राप्त सेना के अधिकारियों की स्थिति इससे बिलकुल भिन्न है। रिटायरमेंट के बाद उन्हें आजीवन पेंशन तो मिलती ही है तथा नि:शुल्क यात्रा और चिकित्सा सुविधा उन्हें और उनके परिवार को आजीवन मिलती है।
अब हम यह विश्लेषण करते हैं कि आखिर इस दौर में एकाएक भर्ती की यह नीति लागू करने की जरूरत क्यों आन पड़ी ? प्रथमत: तो मुझे यह लगता है कि सरकार की पूंजीवादी प्रवृत्तियों के कारण देश आज भारी आर्थिक संकट में फंस गया है तथा श्रीलंका जैसे बड़े आर्थिक-सामाजिक संकटों में फंसने की पूरी संभावना सामने दिख रही है। भूमंडलीकरण में निहित नई आर्थिक नीतियों के कारण भारी पैमाने पर बेरोजगारी फैल रही है। भयानक आर्थिक संकट से निज़ात पाने के लिए सरकार इस नई नीति के बहाने सबसे ज्यादा रोजगार देने वाली सेना में भारी कटौती करने जा रही है। उसकी यह भी सोच है कि अब पाकिस्तान से किसी बड़े युद्ध की सम्भावना समाप्तप्राय है। सम्भव है कि अब सेना की अधिकांश डिवीजनें पाकिस्तान सीमा से हटाकर चीन सीमा में लगाई जाएं। आज यह महसूस किया जा रहा है कि अब उसका असली मुकाबला चीन से ही है, जो बड़ी तेजी से आर्थिक और सैन्य दृष्टि से एक बड़ी महाशक्ति के रूप में उभर रहा है। दूसरी सोच यह है कि अब पारंपरिक युद्धों का जमाना बीत गया है। टेक्नोलॉजी और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के माध्यम से सीमाओं पर निगरानी रखी जा सकती है, परंतु इन सबकी भी एक सीमा है। अभी भी जमीनी सैन्य कार्यवाहियों का कोई विकल्प नहीं है।
हमें यह भी देखना होगा कि मोदी सरकार के दोनों कार्यकालों में छोटे-बड़े आंदोलन लगातार क्यों चल रहे हैं। भारी बेरोजगारी की चर्चा मैं पीछे कर ही चुका हूँ। सरकारी आंकड़े ही यह बतलाते है कि इस दौर में बेरोजगारी की विगत 40 वर्षों में सबसे अधिक है। आज बेरोजगारी का भयानक लावा समाज में खौल रहा है तथा इन जैसे आंदोलनों के रूप में छोटे-छोटे विस्फोट लगातार हो रहे हैं। यदि समय रहते बद से बदतर हो रहे हालातों पर विचार और आवश्यक कार्रवाईयां न की गयीं तो विषमतम परिस्थितियों का आकलन जटिल नहीं है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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