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बहस-तलब : नौनिहालों की थाली में ‘शाकाहारवाद की राजनीति’ जायज नहीं

भारत के सभी राज्य सरकारों को इस संदर्भ मे तमिलनाडु का अनुसरण करना चाहिए। बच्चों को स्कूल मे न केवल पौष्टिक भोजन कराया जाए अपितु उन्हे अच्छा नाश्ता भी मिले ताकि वे अच्छे से पढ़ सकें। बता रहे हैं विद्या भूषण रावत

कर्नाटक सरकार ने राज्य के 178 इंदिरा रसोईघरों को हिंदूवादी संगठन इंटरनेशनल सोसायटी फॉर कृष्णा कॉन्ससनेंस (इस्कॉन) के हवाले करने का फैसला किया है। इसके लिए कोई निविदा जारी नहीं की गई है। कर्नाटक के अधिकारियों ने विशेष उपबंधों का उपयोग कर इस्कॉन को यह कार्य दिया है, क्योंकि उनके मुताबिक यह ‘जनहित’ का मामला है और इस्कॉन जनहित में बहुत-से कार्य कर रहा है। 

गौरतलब है कि इस्कॉन द्वारा संचालित अक्षयपात्र फाउंडेशन के जरिए अनेक राज्यों के सरकारी स्कूलों में बच्चों के लिए मध्याह्न भोजन मुहैया करवाया जा रहा है। कर्नाटक में तो उसे पहले से ही प्रमुखता दी गई है, लेकिन मध्य प्रदेश, पांडिचेरी, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों ने भी अपने स्कूलों में मध्याह्न भोजन के संचालन के लिए इस्कॉन की सेवाएं ली है। भारत सरकार और राज्य सरकारें भी उनके कार्यों और उनके द्वारा उपलब्ध कराए गए खाने की गुणवत्ता से बहुत खुश है। वैसे कोई भी दानदातृ संस्था जब भोजन देने को तैयार हो तो उसमे किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन कोई भी संगठन बिना सरकार की मदद के यह काम नहीं करती। अभी भी इंदिरा रसोई के लिए इस्कॉन ने तीन समय के खाने के लिए 78 रुपए की मांग रखी है। इसमें कोई शक नहीं कि गरीब स्कूली छात्रों को दोपहर का भोजन उपलब्ध कराना मानवीय काम है लेकिन यह भी समझना आवश्यक है कि इस्कॉन जैसी संस्था भी सरकारी अनुदान ले रही है। 

अब प्रश्न इस बात का नहीं है कि इस्कॉन की संस्था अक्षयपात्र हमेशा से विवादों मे घिरी रही है। दरअसल यह विवाद नहीं, अपितु लोगों की खान-पान संबंधी आदतों के साथ छेड़छाड़ करने का मसला है। अक्षयपात्र मध्याह्न भोजन में प्याज, लहसुन, अदरक रहित व्यंजन उपलब्ध कराता है। अक्षयपात्र संगठन कहता है कि वह बच्चों को भारतीय संस्कृति के अनुसार शुद्ध शाकाहारी भोजन प्रदान करता है। लेकिन अनेक लोगों की शिकायत रही है कि क्या बच्चों को शाकाहारी-मांसाहारी की बहस मे फंसाना उचित है। क्या यह जरूरी नहीं कि बच्चों को स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराया जाय। 

कर्नाटक हिन्दुत्व के संगठनों का गढ़ बन चुका है। दिसंबर, 2021 में राज्य सरकार ने कहा कि बच्चों को मध्याह्न भोजन में अंडे भी दिए जाएं। इस पर हिंदूवादी संगठनों के अलावा लिंगायत भी गुस्से मे लाल-पीले हो गए। अब अक्षयपात्र फाउंडेशन खुलकर अंडों का मुखालफत कर रहा है। यह संगठन केवल मांसाहार का विरोध नहीं करते, अपितु बच्चों के शाकाहार को भी नियंत्रित कर रहा है। 

सरकारी स्कूलों मे अधिकांश बच्चे गरीब परिवारों से आते हैं। उनके मां-बाप काम पर होते हैं। इसलिए यदि बच्चों को अच्छा मध्याह्न भोजन मिलता है तो उनका शारीरिक विकास भी होगा। मध्याह्न भोजन योजना का मकसद भी यही रहा है। दरअसल, कर्नाटक में आधिकारिक तौर पर कई जिलों मे बच्चों के कुपोषण की खबरें थीं, जिन्हें ध्यान में रखकर ही राज्य के शिक्षा विभाग और स्वास्थ्य विभाग ने दोपहर के भोजन में अंडे खिलाने की बात कही। लेकिन हिंदूवादी संगठनें इसके विरोध में आ गईं। कुछ का कहना है कि यह बच्चों मे तामसिक संस्कार डालेगा। अब इस प्रकार के बेतुके विरोध का क्या करें। क्या हमारे बच्चों को पौष्टिक भोजन नहीं मिलना चाहिए? 

हाल ही में इस विषय पर कार्य कर रही डाक्टर मनीषा बांगर ने एक पते की बात कही। वह कहती हैं कि बच्चों को पौष्टिक भोजन देना जरूरी है। उन्होंने हिन्दू संगठनों के पाखंड पर सावल उठाया और कहा कि यदि आप बच्चों को अंडे देने से इतना घबरा रहे हैं तो क्यों नहीं उन्हें पनीर, दूध खिलाने की बात करते? पनीर और दूध तो बेहद पौष्टिक है और बच्चों को वह खाने में अच्छा भी लगेगा। 

मध्याह्न भोजन में पौष्टिकता महत्वपूर्ण

दूसरी ओर तमिलनाडु की डीएमके सरकार ने इस मामले में एक अभिनव प्रयोग किया है। वहां बच्चों को दोपहर के भोजन के अलावा सुबह का नाश्ता भी मिलेगा। बताते चलें कि तमिलनाडु भारत का वह पहला राज्य है, जिसने वर्षों पूर्व मध्याह्न भोजन योजना को अपने राज्य मे चलाया और बच्चों को पौष्टिक खाना दिया। सरकार एक अध्ययन का हवाला देते हुए कहती है कि यदि बच्चों को पढ़ने से पहले अच्छा नाश्ता मिल जाए तो वे अच्छे से पढ़ाई करते हैं। अनेक बच्चे स्कूल समय पर पहुंचने के लिए घर से कुछ भी खाकर नहीं चलते हैं और उनके लिए दोपहर तक बिना खाए पिए पढ़ना मुश्किल होता है। साथ ही, इसका असर उनके स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। इसलिए राज्य सरकार ने इस दिशा में सोचा और बच्चों को पौष्टिक नाश्ता देने की घोषणा की। 

यह बात भी अब सामने आ रही है कि अधिकांश राज्यों में मध्याह्न भोजन योजना के प्रति सकरात्मकता नहीं है। वजह यह कि यह योजना गरीब परिवारों से आनेवाले बच्चों के लिए है, जिनमें अधिकांश दलित-बहुजन हैं। इस्कॉन जैसे हिन्दू संगठन किसी भी कीमत में नहीं चाहते हैं कि इन बच्चों को पौष्टिक भोजन मिले। इन संगठनों के लिए लहसुन, प्याज, अदरक और अंडे आदि समस्याएं हैं। 

सवाल है कि क्या हम यह नहीं कह सकते हैं कि बच्चों को नाश्ते में दूध-केला या दूध-दलिया, या फिर हॉर्लिक्स और इसके जैसे अन्य पूरक पौष्टिक आहार मिले? आखिर कबतक हमारे बच्चों को कमजोर बनाने की उनकी साजिशें कामयाब होती रहेंगी? 

दरअसल इस्कॉन द्वारा संचालित अक्षयपात्र जैसे संगठनों को आगे कर सरकारें बच्चों के भोजन के सांस्कृतिक अधिकार का उल्लंघन कर रही हैं। भोजन का अधिकार मात्र पेट भरने का अधिकार नहीं है, अपितु सांस्कृतिक रूप से स्वीकृत भोजन का अधिकार भी है। क्या ये संगठन यह नहीं कह सकते हैं कि ये बच्चों को पौष्टिक भोजन देंगे और उसमे दूध, पनीर आदि भी शामिल हों। 

हाल ही केंद्र सरकार द्वारा घोषित नई शिक्षा नीति में भी यह बात कही गई है कि बच्चों को यदि स्कूल मे सुबह का नाश्ता दिया जाए तो उनकी पढ़ने की क्षमता बढ़ती है। लेकिन केंद्र सरकार के पास इसके लिए फंड नहीं है। इसलिए धीरे-धीरे करके निजी और धार्मिक संगठनों को आगे बढ़ाया जा रहा है। शिक्षा नीति के आधिकारिक दस्तावेज में शाकाहारी भोजन पर जोर दिया गया है और बताया गया है के अंडे, मांस आदि के सेवन से बच्चों का मानसिक और शारीरिक विकास नहीं हो पाता है और ‘लाइफस्टाइल डिसॉर्डर’ हो सकता है। सरकारी ‘विशेषज्ञ’ यह भी कह रहे हैं कि बच्चों को ‘सात्विक’ आहार दिया जाए और बचपन से ही उन्हे वेद मंत्र, भगवद्गीता, योग और प्राणायाम की शिक्षा दी जाए ताकि उनका मानसिक और शारीरिक विकास दोनों ठीक प्रकार से हो सके। 

सरकार खाने मे वैदिक संस्कृति को घुसा रही है। भोजन का अधिकार सांस्कृतिक अधिकार भी है, लेकिन यह कहना कि बच्चों को अंडा देने से नुकसान हो जाएगा, केवल धूर्तता ही है। हकीकत है कि जब सरकारें अच्छी दाल-रोटी व दलिया आदि नहीं दे पा रही है तो मांस देना बहुत दूर की बात है और कोई उसकी मांग भी नहीं कर रहा है, लेकिन बच्चों के दिमाग में खाने को लेकर पूर्वाग्रह डाल देने का मतलब यह है कि बड़े होकर वे किसी दूसरे स्थान पर जाने लायक नहीं रहेंगे, जहां उनकी पसंद का भोजन नहीं मिलेगा। क्या हम अपने बच्चों को भारत की विविधता की आदत उनके भोजन से नहीं डाल सकते? यानि उत्तर भारत में एक दिन कोई दक्षिण भारत की डिश और दक्षिण मे कोई उत्तर भारत या पूर्वी भारत का भोजन। सवाल केवल शाकाहार का ही नहीं है। अक्षयपात्र और अन्य धार्मिक संस्थानें, जिन्हें सरकारें आगे बढ़ा रही है वे तो बच्चों को प्याज और लहसुन भी नहीं खिलाना चाहती हैं, क्योंकि इन्हे वे तामसिक भोजन कहते हैं। इसलिए यह समझना जरूरी है कि यह लड़ाई केवल शाकाहारी और मांसाहारी होने की नहीं है, अपितु उससे भी आगे की है। अब आपको शाकाहारी भोजन भी उनलोगों की तरह करना है जो दाल में चीनी डाले या उसे पानी की तरह पिए। भारत के अलग अलग प्रांतों मे भी बहुत विविधताए है। केवल तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल या तेलंगाना मे भी एक प्रकार का भोजन नहीं है। अलग-अलग समुदायों मे भी अलग-अलग किस्म का भोजन बनता है और यही हमारी ताकत है। निश्चित तौर पर विविधता हमारी कमजोरी नहीं, ताकत है, क्योंकि हम इससे सीखते हैं और इसलिए इतने प्रकार के पकवानों के आधार पर ही भारत के भोजन को दुनिया में पसंद किया जाता है। 

मसलन, हमारे भोजन मे जो मसाले हैं, वे हमारी जीवंतता के भी प्रतीक हैं। इसलिए यदि सभी को हम गुजराती खाना खिलाने की कोशिश करेंगे तो लोग उसे नहीं खाएंगे और वह जीवन में नीरसता लाने वाला ही होगा। 

भारत के सभी राज्य सरकारों को इस संदर्भ मे तमिलनाडु का अनुसरण करना चाहिए। बच्चों को स्कूल मे न केवल पौष्टिक भोजन कराया जाए अपितु उन्हे अच्छा नाश्ता भी मिले ताकि वे अच्छे से पढ़ सकें। उत्तर भारत मे तो अभी ऐसी स्थिति आई ही नहीं है और भोजन मे बहुत से अनियमितताएं दिखाई दे रही हैं। फिलहाल, भोजन के जरिए बच्चों की खानपान की आदतों को न छेड़ें और उन्हें उनकी संस्कृति और चाहत के अनुसार भोजन मिले, यही प्रयास हो तो सबके लिए अच्छा रहेगा। 

सनद रहे कि स्कूलों मे दोपहर का गुणवत्तापूर्ण भोजन देना एक क्रांतिकारी प्रयास का हिस्सा है। लेकिन यह तभी सफल होगा जब सरकारों की नीयत अच्छी होगी और इसमें शाकाहारवाद की राजनीति नहीं होगी। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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