देश इन दिनों भयंकर महंगाई की चपेट में है। पिछले कुछ महीनों के दौरान खाने के अलावा तमाम ज़रूरी चीज़ों की क़ीमतों में भारी उछाल आया है। इसका सबसे ज़्यादा बुरा असर बहुजन समाज पर पड़ रहा है। महंगाई इसी दर से बरक़रार रही तो देश में गरीबों की संख्या घटाने की सरकार की कोशिशों को भारी धक्का लग सकता है।
सरकार और मुख्यधारा की मीडिया लगातार वैश्विक वजहों को बढ़ती महंगाई की वजह बता रहे हैं। भारत में बढ़ रही महंगाई की तुलना ब्रिटेन, अमेरिका जैसे देशों से करके साबित किया जा रहा है कि भारत में हालत अभी भी कई देशों से बेहतर हैं। लेकिन जिस रफ्तार से डॉलर के मुक़ाबले रुपये की क़ीमतें गिर रही हैं और तेल की क़ीमतों में उछाल आ रहा है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि आने वाले दिनों में हालात सुधरने की उम्मीदें कम हैं। हालांकि भारत अमेरिका और यूरोपीय देशों की तरह यूक्रेन, सीरिया या यमन के युद्ध में नहीं उलझा है, इसके बावजूद महंगाई बढ़ रही है, तो यह चिंता की बात है।
बढ़ती महंगाई से देश के सभी वर्ग परेशान हैं, लेकिन दलित और पिछड़े तबक़ों पर इसकी मार सबसे ज़्यादा पड़ रही है। इसकी बड़ी वजह यह है कि देश में ग़रीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले परिवारों में दलित, ओबीसी और जनजातीय लोगों की तादाद सबसे ज़्यादा है। विश्व बैंक ने 2017 की क़ीमतों के आधार पर 2.15 डॉलर प्रतिदिन से कम की आय को ग़रीबी रेखा का प्रतिमान माना था। इसी वर्ष मार्च में लोक सभा में इस संदर्भ में पूछे गए एक सवाल के जवाब में सरकार ने माना था कि देश में 26 करोड़ से ज़्यादा लोग ग़रीबी रेखा के दायरे में हैं।

इस बीच महंगाई दर लगातार सात फीसदी के आसपास बनी हुई है। अप्रैल 2022 में थोक महंगाई दर पिछले नौ साल के उच्चतम स्तर पर थी। इस दौरान थोक महंगाई दर 15 प्रतिशत के पार निकल गई। जून महीने में खुदरा महंगाई दर 7.01 फीसदी दर्ज की गई। मई के महीने में यह दर 7.04 फीसदी थी। इसका सीधा असर खाद्य वस्तुओँ की क़ीमतों पर नज़र आ रहा है। बढ़ते दामों की वजह से तेल, दाल, आटा, सब्ज़ियां, और फल ग़रीब आदमी की पहुंच से लगातार दूर हो रहे हैं।
कमज़ोर वर्गों के लिए महंगाई के अलावा लगातार घटती आमदनी की भी चिंता है। कोविड महामारी के दो साल के दौरान लाखों लोगों ने नौकरियां खोई हैं या फिर तनख़्वाह में कटौती स्वीकार की है। इस दौरान निर्माण, तथा मानव श्रम से जुड़ी तमाम गतिविधियां तक़रीबन बंद रहीं। इसके चलते ग़रीब तबकों की बचत पूरी तरह ख़त्म हो गई। अभी भी मज़दूरी के अवसर, दिहाड़ी और काम की संभावनाएं स्थिर हैं। ऐसे में लोग समझ नहीं पा रहे कि लगातार बढ़ रही महंगाई का सामना कैसे किया जाए।
ग़रीब तबक़ों पर महंगाई की मार की एक बानगी उज्जवला योजना के तहत बांटे गए गैस कनेक्शनों की वर्तमान स्थिति से भी मिलती है। गत मई माह में एक आरटीआई के जवाब में तेल मार्केटिंग करने वाली तीन सरकारी कंपनियों, इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन लिमिटेड, हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड और भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड ने दिलचस्प जानकारी दी। इन कंपनियों के मुताबिक़ वित्तीय वर्ष 2021-22 के दौरान इस योजना के 90 लाख लाभार्थियों ने एक बार भी गैस सिलेंडर रिफिल नहीं करवाया। इसके अलावा उज्जवला योजना के 1 करोड़ से ज्यादा लाभार्थी ऐसे हैं, जिन्होंने पूरे साल के दौरान सिर्फ एक बार सिलेंडर रिफिल करवाया है। यानी, लगातार बढ़ रहे दामों की वजह से गैस सिलिंडर ग़रीब लोगों की पहुंच से बाहर हो गए हैं।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि अनुसूचित जनजाति से ताल्लुक़ रखने वाली कुल आबादी में 45 फीसदी से ज़्यादा परिवार बीपीएल यानी ग़रीबी रेखा से नीचे हैं। इसी तरह अनुसूचित जाति से संबंध रखने वाला हर लगभग तीसरा व्यक्ति बीपीएल है। जबकि बढ़ती महंगाई का बोझ आम मध्यम वर्गीय लोग भी मान रहे हैं तब ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वालों का दर्द समझने की ज़रूरत है। जब देश में महज़ 10 प्रतिशत आबादी का ही मासिक वेतन 25,000 रुपए से अधिक है। ऐसे में कितने लोग अपने मासिक ख़र्च पूरा कर पा रहे होंगे, यह सोचने की बात है।
लेकिन सरकार और तंत्र समझ रहे हैं कि पांच किलो प्रतिमाह राशन देकर हालात क़ाबू में ऱखे जा सकते हैं। मगर सिर्फ मुफ्त राशन से समस्या का समाधान नहीं होने वाला। बच्चों की पढ़ाई, दवा, परिवहन, ईंधन, बिजली और शहरी इलाक़ों में मकान किराया लगातार बढ़ा है। फल, सब्ज़ी ख़रीद पाना अति पिछड़े और ग़रीब दलितों के लिए सपना बनता जा रहा है। ऐसे में कुपोषण और बीमारियों की चपेट में आ रहे ग़रीब ज़्यादा दिन महंगाई से नहीं लड़ पाएंगे। या तो सरकार को महंगाई पर लग़ाम लगाने के तरीक़े खोजने होंगे, या फिर लोगों की आमदनी बढ़ाने के। मौजूदा हालात में दोनों ही तक़रीबन नामुमकिन लग रहे हैं। ज़ाहिर तौर पर आने वाला वक़्त मुश्किलों भरा रहने वाला है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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