राष्ट्रीय अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग का न कोई अभी अध्यक्ष है और ना ही कोई सदस्य है। इसी साल 27 फरवरी को आयोग के अध्यक्ष डॉ. भगवान लाल सहनी की तीन साल की अवधि पूरी हो गई। इसके साथ ही उपाध्यक्ष डॉ. लोकेश कुमार प्रजापति और सदस्य कौशलेन्द्र सिंह पटेल, सुधा यादव एवं अचारी थल्लोज का भी कार्यकाल समाप्त हो गया।
नरेंद्र मोदी सरकार ने राष्ट्रीय पिछ़ड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने के अपने फैसले का जमकर प्रचार किया था। पिछड़े वर्ग के लोगों को यह संदेश देने के लिए यह किया गया कि उनके हक और संवैधानिक अधिकारों को बहाल करने के लिए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को मजबूत किया गया है। वैसे संवैधानिक अधिकार तो नागरिकों को भी है, लेकिन नागरिकों के पास तमाम तरह के संवैधानिक अधिकार होते हुए भी नागरिक समाज बेहद लाचार और आर्थिक-सामाजिक स्तर पर कमजोर होता गया है। संवैधानिक अधिकार की बहाली कोई कागज का टुकड़ा नहीं है। जिसे संवैधानिक अधिकार होता है, उसे उस अधिकार से ताकतवर और मजबूत दिखना भी चाहिए। मजबूत नहीं भी दिखे तो कम से कम उसे कमजोर महसूस नहीं करना चाहिए। लेकिन राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग लगातार खुद को कमजोर महसूस करता रहा है।
यह देखना महत्वपूर्ण है कि संवैधानिक अधिकार ताकतवर के पास है कि कमजोर के पास है। कमजोर के पास वाले के संवैधानिक अधिकार का भी इस्तेमाल ताकतवर जमात कर लेती है। कमजोर को संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल करने से रोकने की हर संभव कोशिश करता है।
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 2014 में केंद्र की सत्ता चल रही है। लेकिन राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग 2017 से 2019 तक खाली पड़ा था। कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के लिए जो अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सदस्य बनाए थे, उनका कार्यकाल 2017 में समाप्त हो गया था। लेकिन उसके बाद मोदी सरकार को दो साल से ज्यादा का वक्त आयोग के लिए अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सदस्यों का चुनाव करने में लग गया। 2019 के चुनाव के मद्देनजर राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग में नियुक्तियां करनी पड़ी।

राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग में अध्यक्ष की नियुक्ति 28 फरवरी, 2019 को की गई। डॉ. भगवान लाल सहनी के नेतृत्व में आयोग के गठन के बाद से आयोग के लिए बजट में वृद्धि, आयोग के कार्यालय के लिए जगह, आयोग के लिए कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने की मांग की जाती रही। आयोग की कई बैठकों में आयोग ने अपने को मजबूत करने के लिए सरकार से गुहार लगाई। आयोग को सामाजिक न्याय मंत्रालय के समक्ष अपनी गुहार लगानी पड़ती है। लेकिन संवैधानिक दर्जा कागज पर मिला और वास्तव में आयोग को न जगह मिली, न पैसे की कमी दूर हुई और ना ही कर्मचारियों की कमी दूर की गई। कामकाज के लंबे-चौड़े कई फैसले किए गए। राज्यों में भी पिछड़ा वर्ग आयोग की शाखाएं खोलने के लिए फैसले किए गए। लेकिन जमीनी स्तर पर आयोग जहां था, वहीं खड़ा रहा।
इस बीच राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और अन्य सदस्यों का कार्यकाल समाप्त हो गया। तीन साल की यह अवधि फिर से बढ़ाई जा सकती थी। यह प्रावधान है कि अध्यक्ष को आगे भी मौका दिया जा सकता है। लेकिन पिछड़ा वर्ग आयोग में डॉ. सहनी की ख्याति यह हो गई थी कि वे वास्तव में पिछड़े वर्गों के लिए कुछ फैसले करना चाहते हैं और उसे लागू कराने के लिए भी तत्त्पर रहते हैं। डॉ. सहनी के कार्यकाल में आयोग ने सरकारी कार्यालयों में पिछड़े वर्गों की नियुक्तियों की वास्तविक स्थिति का पता लगाने के लिए सभी मंत्रालयों व विभागों को पत्र लिखा था। इसके अलावा आयोग ने अपने संवैधानिक अधिकारों की अपने स्तर पर व्याख्या की और उसे पहले के मुकाबले मजबूत दिखाने की कोशिश की। गृह मंत्रालय से भी टकराव के हालात पैदा हुए।
फरवरी में अध्यक्ष और उसके बाद अन्य सदस्यों के कार्यकाल के समाप्त होने के बाद आयोग में नियुक्तियां नहीं हुई है। आयोग एक तरह से ठप्प है। जबकि तीन साल के दौरान हजारों की संख्या में शिकायतें आई थीं और उनका तेजी से निपटारा करने की भी कोशिश की गई। ऐसे में सवाल यह है कि क्या केंद्र सरकार वर्ष 2024 में चुनावी लाभ के लोभ में आयोग के पुनर्गठन को लटकाकर रखना चाहती है?
(संपादन : नवल/अनिल)
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