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बहस-तलब : सशक्त होती सरकार, कमजोर होता लोकतंत्र

सुप्रीम कोर्ट ने एक बार कहा था कि विचारों के आधार पर आप किसी को अपराधी नहीं बना सकते। आज भी देश की जेलों में अगर लोग बोलने में असमर्थ हैं, तो ऐसा नहीं है कि वे बोलना नहीं चाहते हैं। लेकिन तथ्य यह है कि धीरे-धीरे एक निराशा बढ़ती जा रही है कि जब कोई सुन ही नहीं रहा है तो चिल्लाने का क्या फायदा। बता रहे हैं विद्या भूषण रावत

वर्षों पूर्व 20 दिसंबर, 1986 को सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस पी. एन. भगवती ने आदिवासियों ओर दबे-कुचले लोगों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले सामाजिक संगठनों और हाशिए के समाज के लिए काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं के हाथ में एक हथियार दिया था, जिसे आज हम जनहित याचिका कहते हैं। यह कहानी सोनभद्र जिले के आदिवासियों के सवाल से शुरू हुई थी। उसके बाद से देश भर मे जनपक्षीय प्रश्नों के लेकर इतनी याचिकाएं दाखिल हुईं कि सरकारों को उनके ऊपर कार्यवाही करनी पड़ी। पर्यावरण से लेकर भ्रष्टाचार के प्रश्नों पर सुप्रीम कोर्ट ने बहुत कडा रुख भी अपनाया और भ्रष्ट अधिकारी और राजनेता जेल भी भेजे गए। पीयूसीएल जैसे मानवाधिकार संगठनों ने, जिसमें बहुत सारे पूर्व न्यायाधीश, वकील, मीडियाकर्मी, बुद्धिजीवी और नौकरशाह शामिल थे, इन जनहित याचिकाओं के जरिए जनता को न्याय दिलाया। 

जनहित के संबंध मे मैंने भी एक मामला स्थानीय न्यायालय से लेकर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट मे लड़ा, जो लगभग बीस वर्ष की कानूनी दांव-पेंच में फंसा, लेकिन हम सत्ताधारियों द्वारा बहुत बड़ी जमीन को पूंजीपतियों के हाथों सौंपने से रोकने में कामयाब हुए। उसकी कहानी फिर कभी लिखूंगा। 

बहुत बार इन याचिकाओ का इस्तेमाल उनलोगों ने अपने सामाजिक और राजनैतिक लाभ के लिए करना शुरू कर दिया, जिन्हें लगता था कि कोर्ट के जरिए ही देश में पूरी क्रांति आ जाएगी। ऐसी ही याचिकाओं के जरिए अन्ना हज़ारे का आंदोलन और भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन की कहानी बनी और अब उसका हश्र क्या हुआ है, सब जानते हैं। अब जन लोकपाल का नाम तक केजरिवाल भूल गए होंगे। अन्ना आंदोलन के कारण राजनीतिक दलों को यह अंदाज हो गया कि ‘नागरिक संगटनों’ और ‘सामाजिक आंदोलनों’ को नियंत्रित किया जाना चाहिए। वैसे उन आंदोलनों की वजह से ही कांग्रेस पूरी तरह से सत्ता से बाहर हो गई और आज तक अभी भी वापस नहीं आ पायी है। 

भाजपा ने कांग्रेस और गांधी परिवार विरोधी अन्ना आंदोलन का सीधा लाभ लिया, लेकिन वे भी जनांदोलनों के राजनैतिक स्वरूप को जानते थे और उन्हें पता था कि इसे रोकना जरूरी है अन्यथा उनके लिए बहुत नुकसानदेह साबित होगा। राजनीतिक दलों से वे लड़ सकते हैं क्योंकि विचारधारा का अभाव है और अधिकांश मुद्दों पर वे एक मत हैं और कमोबेश सरकार की नीतियों पर ही चलते हैं। सभी दलों ने सत्ता मे रहते हुए बड़े-बड़े कांड किए हैं, इसलिए वे बहुत खुलकर सरकारी नीतियों का विरोध भी नहीं कर सकते, क्योंकि मौजूदा केंद्र सरकार उनके पुराने दस्तावेजों को खंगाल कर ही अभी सत्ता चला रही है। 

खैर, धीरे-धीरे सरकारें इन जनहित याचिकाओं से परेशान होने लगीं और उन्हें दाखिल करने वालों को ही सरकारें संदेह की दृष्टि से देखने लगीं। संदेह का यह मामला बहुत पहले शुरू हो गया था, लेकिन तब तक संस्थानों में थोड़ी बहुत स्वायत्तता थी। दरअसल हमारे लोकतांत्रिक संस्थान तभी स्वायत्त दिखते हैं, जब साझा सरकारें होती हैं और किसी एक पार्टी के पास इतनी बड़ी ताकत नहीं होती कि वो स्वयं सरकार बना सके। 1989 से लेकर 2014 का युग यही था और इसी दौर मे हमारी न्यायपालिका, चुनाव आयोग और मीडिया ने बड़े-बड़े काम किए और सरकारों को हिला दिया। लेकिन 2014 के बाद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार मे भाजपा की ताकत और अकेले दम पर बहुमत के चलते एक मजबूत सरकार के सामने इन संस्थानों की सक्रियता कम हुई है। सुप्रीम कोर्ट से लोग आज भी उम्मीद रखते हैं कि वह लोकतंत्र और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए लोगों के अधिकारों को सुनिश्चित करेगा। लेकिन पिछले कुछ समय से अदालतों के निर्णयों से भी भारी निराशा हुई है। अब कोर्ट आपके याचिका दाखिल करने पर ही सवाल खड़े कर रहा है। यानि जनहित याचिका दाखिल करने से पहले सभी सोच लें कि उनके ऊपर जुर्माना भी लग सकता है, जेल हो सकती है और उन पर सरकार और देश के विरुद्ध षड्यंत्र करने के आरोप लग सकते हैं। यह बेहद खतरनाक बात है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अब न्याय प्राप्त करने के लिए कोर्ट जाने से पहले दस बार सोचेगा। जस्टिस पी. एन. भगवती ने इतने वर्ष पूर्व हाशिए के लोगों को न्याय दिलवाने का जो सपना देखा होगा, वह अब खत्म होता दिख रहा है। जस्टिस भगवती ने 15 पैसे के पोस्ट कार्ड पर भी जनहित याचिकाएं स्वीकार की और उनपर बड़े निर्णय दिए। लेकिन आज कोर्ट मे धुरंधर वकील ऐसे तर्क देते हैं कि गरीब के पास तो वहां जाने की हिम्मत भी नहीं हो सकती। तीस्ता सीतलवाड़ में हिम्मत थी और वह उस परिवार से आती हैं, जिसका देश के कानून पढ़ने और समझने वालों के मध्य बड़ा नाम है। फिर भी जकिया जाफरी मामले में याचिकाकर्ता तीस्ता पर अदालत के आदेश के साथ इसकी पुष्टि हो गई। याचिका को खारिज किया जा सकता था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह कह दिया कि इस केस को फाइल करने के पीछे एक साजिशहै और गुजरात पुलिस को इसका पता लगाने के लिए कहा। कोर्ट ने तीस्ता सीतलवाड़ और गुजरात के दो अन्य पूर्व पुलिस अधिकारियों के खिलाफ तल्ख टिप्पणियां की। इसी आधार पर गुजरात की एटीएस ने तेजी से कार्रवाई करते हुए तीस्ता को मुंबई में उनके घर से गिरफ्तार कर लिया।

अब मध्य प्रदेश मे नर्मदा बचाओ आंदोलन की प्रणेता मेधा पाटकर के खिलाफ एक मामला दर्ज किया गया है, जो 17 साल पुराने एक मामले के लिए लगाया गया है, जिसमें कहा गया कि उन्होंने आर्थिक लाभ लिया। वैसे तो हर वर्ष आयकर रिटर्न फाइल की जाती है और संस्थाओ के खाते भी ऑडिट होते रहते हैं। टैक्स अधिकारी नोटिस भी भेजते हैं, इसलिए प्रश्न यह है कि इतने सालों के इन मामलों को अब क्यों खोदा जा रहा है। सवाल ये भी है कि हम अपने या अपनी संस्थाओं के वाउचर, कागज, बिल कितने साल तक रखें, क्योंकि क्या कोई गारंटी है कि कल कोई अधिकारी या व्यक्ति सवाल खड़े न कर दे। क्या हमारे विभाग हर दो-तीन सालों मे जो भी रिटर्न फाइल होती है, उसका निपटारा कर दे ताकि व्यक्ति बाद मे परेशान न हो? एक तरफ हम पेपरलेस ऑफिस चाहते हैं और दूसरी तरफ हमलोगों से कह रहे हैं कि वे अपने जन्म से ही टैक्स से जुड़ी हर चीज अपने पास रखें। इसका मतलब है कि हमें पैदा होने के बाद से प्रत्येक दस्तोवज सुरक्षित रखने होंगे क्योंकि एजेंसियां ​​​​हमारे माता-पिता का विवरण, उनकी आय का विवरण भी मांग सकती हैं और न मिलने पर हमारे हक और अधिकार को ही खत्म कर सकती है।

मेधा पाटकर, प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता

दरअसल, मल्टीनैशनल कंपनियों पर टैक्स लगाते समय प्रणब मुखर्जी ने रेट्रस्पेक्शन टैक्स शुरू किया था, जिसका मतलब था कि ये पुराने समय से लगाया जा सकता है। मतलब यह कि आज की सरकार हमारे घरों, अन्य संशधनों पर पिछली डेट से टैक्स लगा सकती है। यह बहुत खतरनाक है और इसे खत्म करना चाहिए। विशेषकर ऐसे आदेश गांव के दलित, मजदूरों, पिछड़ों की खेत, घर और अन्य संपाति को भी खारिज कर सकते है। किसी भी व्यक्ति को उसके काम के 5 से 10 साल से अधिक समय तक परेशान नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि यदि ऐसा होता है तो इसका मतलब स्पष्ट रूप से डराने-धमकाने और उत्पीड़न का मामला है। विवादित मामले या टैक्स के मामले दस साल से पहले निपटा दिए जाने चाहिए और यदि ऐसा नहीं होता है तो उन्हें निष्पादित मान लिया जाना चाहिए ताकि सत्ताओं के बदलने से किसी का अवांछित उत्पीड़न न हो। सत्ता चलायमान है, आज आपके पास है तो कल किसी और के पास और इसलिए हमारी व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि किसी भी व्यक्ति का उत्पीड़न या शोषण न हो। 

ऑल्ट न्यूज़ के सह-संस्थापक मोहम्मद जुबैर अभी भी जेल में हैं।। उनके ऊपर दिल्ली मे एक केस और उत्तर प्रदेश मे अलग अलग जिलों से छह केस हैं तथा उत्तर प्रदेश पुलिस की एक विशेष जांच समिति बैठाई गई है, जो उनकी जांच कर रही है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा तथाकथित जमानत देने का कोई मतलब नहीं था, क्योंकि वह अभी भी जेल में ही थे और उनके खिलाफ कई मामले दर्ज किए जा रहे हैं। उन्हें सीतापुर के मामले में बेल हो गई है और आज दिल्ली की एक अदालत ने भी उन्हें बेल दे दी। लेकिन वह अभी भी जेल में ही रहेंगे, क्योंकि उनपर अन्य जिलों के केस चल रहे है। एक व्यक्ति को दंडित करने के लिए सरकार को इतने सारे मामलों की आवश्यकता क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे देश में प्रक्रिया ही सजा है और हम जानते हैं कि अब कानून की अदालत में कुछ नहीं होने वाला है। कोई सवाल ही नहीं है कि अधिकारियों से सवाल भी पूछे जा सकते हैं।

अब छत्तीसगढ़ के सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार को अवैध मुठभेड़ के खिलाफ याचिका दायर करने के लिए अदालत के क्रोध का सामना करना पड़ रहा है। याचिका को खारिज करने के बजाय, अदालत ने राज्य सरकार और केंद्रीय एजेंसियों को इसमें साजिशकोण खोजने की सलाह दी। हिमांशु कुमार पर 5 लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया है, जो कहते हैं कि उनके पास पांच हजार रुपये भी नहीं हैं। हिमांशु छत्तीसगढ़ में काम करते थे और आदिवासियों के अधिकारों के लिए लगातार अपनी आवाज उठाते रहे हैं। उनके पिता गांधीवादी थे और उनके साथ काम कर चुके थे। हिमांशु कहते है कि इस प्रकार के आदेशों से तो कोई कोर्ट में ही नहीं जाएगा। दंड लगाने के न्यायपालिका के आदेश पर कोई क्या कहा जा सकता है। एक सामाजिक कार्यकर्ता पर 5 लाख रुपए का जुर्माना लगता है, लेकिन विजय माल्या पर दो हजार रुपए का और कल्याण सिंह और प्रशांत भूषण एक-एक रुपए देकर बच निकलते हैं। भीमा कोरेगागांव के आरोपित लोग अभी भी जेल मे है और कोई ट्रायल भी नहीं शुरू हुआ है। पिछले वर्ष फादर स्टेन स्वामी जैसे बुजुर्ग जेल मे ही चल बसे। तेलुगू के प्रसिद्ध कवि वरवरा राव, जो बेहद बुजुर्ग हैं, अभी भी बेल पर ही बाहर हैं। और सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें अगले आदेश तक जमानत दी है। बुद्धिजीवी आनंद तेलतुंबड़े अभी भी जेल में ही हैं। ये सभी लोग केवल और केवल संवैधानिक मूल्यों की ही बाते करते रहे और पूरा जीवन दलितों- आदिवासियों के अधिकारों के लिए लगा दिया। इसी बात की सजा वे भुगत रहे हैं। 

सुप्रीम कोर्ट ने एक बार कहा था कि विचारों के आधार पर आप किसी को अपराधी नहीं बना सकते। आज भी देश की जेलों में अगर लोग बोलने में असमर्थ हैं, तो ऐसा नहीं है कि वे बोलना नहीं चाहते हैंलेकिन तथ्य यह है कि धीरे-धीरे एक निराशा बढ़ती जा रही है कि जब कोई सुन ही नहीं रहा है तो चिल्लाने का क्या फायदा। आम जनता व्हाट्सएप से मिले ज्ञानादि से खुश है, क्योंकि उसे लग रहा है कि देश आगे बढ़ रहा है। सत्ता से सवाल पूछने वाले दलित-पिछड़े आदिवासी अब नक्सली या देश विरोधी होंगे और सत्ता इन लोगों को दंडित करने में पूरी मेहनत कर रही है और उन्हें जेल भेज रही है। सत्ता प्रतिष्ठान के अन्य सभी अंगों ने अब यह बिल्कुल और पुरजोर तरीके से साबित कर दिया है कि वे सरकारी ढांचे का हिस्सा हैं और वे सरकार को सवाल करने वालों के साथ नहीं हैं अपितु इस मामले में सत्ता प्रतिष्ठान और उनके कृत्य को मान्य करने के लिए आगे आ रहे हैं। 1975 में आपातकाल के दौरान मीडिया और न्यायपालिका ने अपना रोल अच्छे से निभाया था। तभी लोकतंत्र बचा था, क्योंकि तानाशाह नौकरशाहों और नेताओं पर लगाम केवल स्वतंत्र मीडिया और स्वायत्त न्यायालय के कारण ही हो सकता है। लोग सवाल करते हैं तो सरकार उन्हें दबाती है और न्यायपालिका उनके अभिव्यक्ति के अधिकार की रक्षा करती है। यही लोकतंत्र की बड़ी परिपाटी है। आज दलित, आदिवासी और अन्य हाशिए के समाज अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैँ और बहुत स्थानों पर ऐसे समाज और लोग भी हैं, जिनकी लड़ाई लड़ने के लिए हम सभी को अपनी आवाज उनके साथ मिलानी पड़ती है ताकि न केवल उनके अधिकार सुरक्षित रह सकें अपितु लोकतंत्र भी बच सके। संविधान की सबसे बड़ी जरूरत देश के हाशिए के बाशिंदों को होती है और उन्हे ही जनहित याचिकाएं भी चाहिए होती हैँ क्योंकि आज की न्याय प्रक्रिया आम आदमी की पहुंच से बाहर है और गरीबों के पास तो वकीलों के दफ्तर के चक्कर लगाने के लिए भी पैसे नहीं होते। लोकतंत्र को बचाना है तो दलित, पिछड़े और आदिवासियों की बात सुननी पड़ेगी, नये व्यवस्था मे उनकी हिस्सेदारी और उन्हें आसानी से न्याय मिल सके, इसकी व्यवस्था करनी पड़ेगी। क्या कोर्ट आज भी पोस्टकार्ड पर गांव के गरीब आदमी की याचिका के लिए तैयार है, जैसे जस्टिस पी. एन. भगवती ने शुरू किया था? 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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